शक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद से 2003 में प्रकाशित कनीनिका में कुल 75 गीतों की रचना उपलब्ध है। पुस्तक में अंतिम गीत का शीर्षक कनीनिका है, जिसके आधार पर इस पुस्तक का नामकरण किया गया है। सरस्वती, विन्ध्यवासिनी आदि की स्तुति के पश्चात् श्रावणमासे कृष्णारात्रिः दिशि दिशि विकरति रागं रे,
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं हृदि हृदि जनयति कामं रे
लिखकर कवि ऋतुओं पर मनोहारी गीतों का राग छेडकर पाठकों को मुग्ध करते है। किसी विरहिणी की व्यथा कैसे उद्दीपित हो रही है, कवि उसके अन्तस् में उतरकर कह उठता है- प्रियं विना मे सदनं शून्यम्। केशव प्रसाद सरस राग के महान् गायक कवियों में से एक हैं। कवि ने पुरोवाक् में लिखते हुए अपनी इस उपलब्धि तक पहुँचने का वर्णन तो किया ही हैं ,साथ में पाठकों के लिए संदेश भी छोड़ जाते हैं। इन्होंने अपने गृह जनपद के प्रति अनुराग कौशाम्बीं प्रति में व्यक्त किया है।
प्रवहति यमुना रम्या सलिला। विलसति रुचिरा कौशाम्बिकला।।
2015 में प्रकाशित आचार्य लालमणि पाण्डेय की रचना संस्कृत गीतकन्दलिका का मूल स्वर आध्यात्मिक है।कवि गीतों के माध्यम से शारदा, गंगा की स्तुति कर प्रयाग तथा वृन्दावन तीर्थस्थलों के महिमा का गान करने लगते है। संस्कृतभाषा के कवि को संस्कृत की अत्यधिक चिंता है। सम्पूर्ण पुस्तक में संस्कृत को लेकर कवि ने सर्वाधिक 8 गीतों की रचना की है। संस्कृत कवि सम्मेलन तथा अन्य मंच से कवि संस्कृत की रक्षा का आह्वान करते दिखते है।
शास्त्राणां नहि दर्शनन्न मनन्नाध्यापनं मन्थनम् --------सुधियः संरक्ष्यतां संस्कृतम्।।
अभिनन्दनपत्र, स्वागत, श्रद्धांजलि आदि की परम्परा, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा महेन्द्र सिंह यादव संयुक्त शिक्षा निदेशक पर आकर पूरी होती है। संस्कृत साहित्य की एक विधा समस्यापूर्ति की झलक भी हमें यहाँ देखने को मिलती है। समस्या पूर्ति कवित्व का निकष है। लालामणि पाण्डेय निःसन्देह सौदामिनी संस्कृत महाविद्यालय के संस्कृत कवि सम्मेलन रूपी उस निकष से गुजरते हुए सौदामिनी राजते समस्या की पूर्ति करते है।
एका चन्द्रमुखी प्रिया रतिनिभा--- सौदामिनी राजते।।
आत्मनिवेदन में कवि पुस्तक रचना का उद्येश्य संस्कृत का प्रचार लिखते हैं।
हीरालालं गुरुं नत्वा मानिकेन विभावितः।
संस्कृतस्य प्रचाराय कुर्वे कन्दलिकां मुदा।।
वृत्तं किमु न जानासि न हर्षवर्द्धनस्य
काशी हिंदू विश्वविद्यालय कला संकाय के प्रोफेसर डॉ सदाशिव कुमार द्विवेदी, जिनके सहयोग से इस ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो सका, ने मुझे 26 मई 2018 को यह पुस्तक उपहार में दी।
श्यामानन्दरचनावलिः
डॉ.
किशोरनाथ झा के सम्पादन में प्रकाशित श्यामानन्द झा (जन्म २७ जुलाई १९०६ स्वर्गवास
३० अगस्त १९४९) की रचनाओं का संग्रह आज पढ़ने बैठा था। इसमें किशोरनाथ झा ने
संस्कृत में १९ पृष्ठों का आमुख लिखा है। आमुख की भाषा संस्कृत लेखन का निकष है।
इसी प्रकार १३ पृष्ठों में श्यामानन्द झा की भूमिका प्रकाशित है। इन दोनों के
भाषायी लालित्य के कारण बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। इस रचनावली में मधुवीथी,
कर्णिका नाम से पद्य भाग है तथा गीत भाग में वेदना, सुधा वल्ली, मातः सरस्वती, विडम्बना
आदि एवं मनोरथः नाटक का भी संकलन है । पुस्तक में नए शब्दों का भी प्रयोग किया गया
है। परिशिष्ट में आलोचनात्मक टिप्पणी दी
गयी है। कवि द्वारा निर्मित नवीन शब्दों का हिंदी भाषा में दिया गया अर्थ पाठकों
के लिए पुस्तक को और भी उपयोगी बनाता है।
विक्रमार्कं प्रति
विक्रमार्क, पुनरेहि
पुनर्जय हर्षय भारतवर्षम् ।
प्रमदकुलं सम्प्रति प्रतिकूलम्
गदमिव राष्ट्रपयोनिधिकूलम्
आवन्ती सन्ततमुत्सीदति कलयसि किं
नामर्षम् ।
यस्या जन्मभुवश्छायायाम्
विश्वमनैषीः शान्तिसुधायाम्
सैव निगृह्य परैरुपनीता
पराजयैरपकर्षम् ।
अखिलं राज्यतन्त्रमुन्माद्यति
शान्तिकथा मूलादुत्क्राम्यति
चक्रवर्तितामेत्य नवीकुरु
मालवगणनावर्षम् ।
उज्जयिनीयं प्रभवतु धन्या
स्वयं वृणीता त्वां दिक्कन्या
शतधा स्फुटतु वैरिवक्षस्थलमित्वा तव
संघर्षम् ।
कालिदाससुकविः पुनरायात्
शाकुन्तलरघुवंशौ गायात्
नवरत्नैस्तव राजसभा सा
दर्शयतामुत्कर्षम् ।
देवः सुधारसैः परिषिञ्चतु
सस्यश्यामला भूमिश्चञ्चतु
गृहे-गृहे गोदुग्धं प्रवहतु लोको
गच्छतु हर्षम् ।
शिक्षागुरुः समेषामासीत्
शिरसा यस्यादेशमयासीत्
भारतभूर्जनयित्वा
त्वादृशमाहवभूदुर्द्धर्षम् ।
गृहस्थ - धर्म - प्रदीपिका
ग्रन्थ के लेखक आचार्य अनिल
कुमार शर्मा ने एक उपयोगी ग्रन्थ की रचना की। इस
ग्रन्थ पर शुभाशंसा लिखने वाले वेदाचार्य रामानुज त्रिपाठी के शब्दों में इस
ग्रन्थ से सभी सनातन-मतावलम्बी गृहस्थ जनों को अपने आचार-विचार, व्रत-त्योहार, उपासना-विधि आदि का शास्त्र-सम्मत ज्ञान प्राप्त होगा। साथ
ही अन्य मतावलम्बी एवं अध्येता भी भारतीय सनातन संस्कृति से परिचित हो सकेंगे।
पौरोहित्य कर्म सीखने के इच्छुक लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए मैं पाठ्यक्रम बना रहा था। मैं एक ऐसी पुस्तक की खोज में था, जिसमें पूजा विधि, देव दर्शन, पवित्र नदियों में स्नान, व्रत उपवास, प्रमुख पर्व त्यौहार, आदि का एकत्र व प्रामाणिक सामग्री हो। इस ग्रन्थ में वह सब कुछ उपलब्ध है। इस प्रकार यह पौरोहित्य प्रशिक्षुओं तथा सामान्य जनता दोनों के लिए उपयोगी है।
मैंने विश्वविद्यालयों के पौरोहित्य पाठ्यक्रमों को देखा है। वहाँ के अध्यापकों से चर्चा की है। वहाँ के पाठ्यक्रमों को जनोपयोगी बनाने का आग्रह भी किया, क्योंकि पुरोहित को जनता के सामान्य जिज्ञासा का समाधान करना पड़ता है। इस पुस्तक के आने से विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित कर्मकांड के डिप्लोमा पाठ्यक्रम को व्यवस्थित करने में मदद मिलेगी।
मुझे इस पुस्तक की प्रतीक्षा थी। आज मेरे हाथ में यह पुस्तक
है। इसे पाकर मैं गदगद हूँ। पुनः इस ग्रन्थ के लेखक को धन्यवाद।
अनूदित संस्कृत
साहित्य की श्रृंखला में "अन्धयुगम्" एक और नाम जुड़ गया । पद्मश्री
धर्मवीर भारती द्वारा लिखित अंधा युग काव्य नाटक का डॉ. नवलता ने संस्कृत में
अनुवाद कर संस्कृत साहित्य की श्री वृद्धि की है। इस अनुदित काव्य नाट्य का कानपुर
में मंचन भी हो चुका है। इसका प्रकाशन
डॉ. नवलता द्वारा संस्कृत भाषा में रूचि रखने वाले के लिए दी गई इस अनुपम कृति के लिए मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं।
आजादी का अमृत महोत्सव को लेकर संस्कृत समाज के
प्रतिनिधिभूत संस्कृत कवियों की लेखनी भी निरंतर गतिशील रही है। इसी क्रम में
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के आर्थिक सहयोग से डॉ अरविंद कुमार तिवारी के
संपादन में प्रकाशित स्वातंत्र्यरसायनम् अपरनाम स्वतंत्र्यनिनादः में आजादी के
प्रति संस्कृत समाज की चेतना अभिव्यक्त हुई है। यह पुस्तक समकालीन संस्कृत लेखकों
का समकालीन विषय पर लिखित जीवंत दस्तावेज है।
फेसबुक पर आजादी का अमृत महोत्सव पर संस्कृत कवियों की प्रभूत रचनाओं को देखकर उसके स्थाई अभिलेखीकरण का विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ। इस कार्य के लिए मैंने तुरंताकवि मित्रवर डॉ अरविंद कुमार तिवारी को दूरभाष पर संपर्क किया तथा यह आपस में तय किया कि एतद्विषयक भारतवर्ष के समस्त समकालीन कवियों की रचनाओं को एकत्र संग्रह कर प्रकाशित किया जाए, ताकि सर्व समाज को विदित हो कि संस्कृत समाज भी आजादी को लेकर संवेदनशील है तथा वर्तमान घटनाक्रम को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर समाज को जागृत करने में संलग्न है। दिनांक 31 दिसंबर 2022 को संस्कृत संस्थान की स्थापना दिवस के अवसर पर इस पुस्तक का लोकार्पण हुआ है।
इस पुस्तक में तीन यशःशेष तथा वर्तमान संस्कृत कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। मैं इन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूं। इनके नाम इस प्रकार हैं - यशः शेषः आचार्यवासुदेवद्विवेदिशास्त्री, यशः शेषः पद्मश्रीरमाकान्तशुक्लः, यशः शेष: आचार्य: रामनाथसुमनः, मिश्रोऽभिराजराजेन्द्रः, जगद्गुरुस्वामिविद्याभास्करमहोदयानाम्, आचार्यरहसबिहारी द्विवेदी, आचार्य ओमप्रकाशपाण्डेय :, आचार्यमिथिलाप्रसादत्रिपाठी, विन्ध्येश्वरीप्रसादमिश्रो विनयः , प्रो. ताराशंकरशर्मा पाण्डेय : , डॉ. कृपारामत्रिपाठी, श्रीकुशाग्र-अनिकेत:, डॉ. कमलापाण्डेया, प्रो. उमारानीत्रिपाठी, प्रो. रमाकान्तपाण्डेय:, डॉ. वागीशदिनकर:, डॉ. रामविनयसिंह :, डॉ. अरविन्दकुमारतिवारी, डॉ. हर्षदेवमाधवः, प्रो. डॉ. योगिनी हिमांशु व्यास, डॉ. राजकुमारमिश्रः, डॉ. मधुसूदनमिश्रः, डॉ.सत्यकेतुः, डॉ. शशिकान्ततिवारी शशिधर : , डॉ. राघवेन्द्र भट्ट :, डॉ. भारतभूषणरथः, डॉ. जोगेन्द्रकुमारः, डॉ. अम्बरीशकुमारमिश्रः, डॉ. प्रीति: पुजारा डॉ. प्रियव्रतमिश्रः, डॉ. संजीतकुमारझा, डॉ. प्रवीणमणित्रिपाठी शान्तेयः, डॉ. प्रमोदशुक्लः, श्रीविन्ध्याचलपाण्डेय :, डॉ. लक्ष्मीनारायणपाण्डेयः, डॉ कीर्तिवल्लभशक्टा, डॉ. विपिनकुमारद्विवेदी, प्रो. प्रयागनारायणमिश्रः, डॉ. आभा झा, श्री एकनारायणपौडेल :, डॉ. हरेकृष्ण-मेहेर :, डा. बुद्धेश्वरषडङ्गी, डॉ. नवलता, डॉ. निरञ्जनमिश्रः, डॉ. प्रमोदकुमारशर्मा, डॉ. राजेन्द्रत्रिपाठी 'रसराज : , डॉ. रेखाशुक्ला, डॉ. चन्द्रकान्तदत्तशुक्लः, डॉ. शैलेशकुमारतिवारी, पूजाकुमारी, प्रो. रामसुमेरयादवः, प्रो. धर्मदत्तचतुर्वेदी, डॉ. श्रीनाथधरद्विवेदी, डॉ. रामकृष्णपेजत्ताय:, डॉ. सुरचना त्रिवेदी, डॉ रामकृपालत्रिपाठी, डॉ. तुलसीदास परौहा, डॉ. धनञ्जयमिश्रः, डॉ. विवेकपाण्डेय :, महाचार्य: मनतोषः भट्टाचार्य:, डॉ. लक्ष्मीकान्तविमल:, आचार्य: महाराजदीनपाण्डेय:, डॉ. विशनलालगौडः व्योमशेखर:, डॉ. शरदिन्दुत्रिपाठी, डॉ. संजयकुमारचौबे, वत्सदेशराजशर्मा, डॉ. बालकृष्णशर्मा, आचार्य : डॉ. कृष्णकान्त अक्षर, डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल:, डॉ. शम्भूत्रिपाठी, श्रीप्रेमशंकरशर्मा, डॉ. महावीरप्रसादसारस्वत:, डॉ राहुलपोखरियालः, डॉ. सचिनकुमारत्रिपाठी, ईशानतिवारी
आजादी का अमृत महोत्सव को लेकर अभी तक संस्कृत में इस प्रकार की पुस्तक की रिक्तता थी। इस पुस्तक के प्रकाशन से उस अभाव की पूर्ति हो गई। यह पुस्तक संस्कृत से प्रेम करने वाले तथा संस्कृत विद्या अध्ययन करने वाले लोगों के लिए उपयोगी है, उत्साह बढ़ाने वाली है। इस पुस्तक के माध्यम से संस्कृत अध्येता अपने समकालीन लेखकों से परिचित हो सकेंगे।
रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम्
रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम्
ग्रन्थ दिनांक 03/02/2024 को उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ।
रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम्' संस्कृत-साहित्य
की विदुषी कवयित्री 'रामभद्राम्बा' द्वारा विरचित
चरितप्रधान महाकाव्य है। इस महाकाव्य का निर्माण सन् 1625 के आस-पास हुआ।
द्वादश-सर्गीय इस महाकाव्य में चोल-नरेश रघुनाथ नायक के उदात्त-जीवन-चरित, अप्रतिम शौर्य, औदार्य तथा
वंश-परंपरा आदि का सविस्तार वर्णन प्राप्त होता है। वारह सर्गों में निबद्ध इस
विशिष्ट कृति से तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रामाणिक परिचय भी
प्राप्त होता है। कृति की ऐतिहासिकता मान्य इतिहास-अभिलेखों एवं मानदण्डों से
सम्पुष्ट एवं विश्वास-योग्य है।
श्रुति-परम्परा के अनुसार
इस ग्रन्थ की लेखिका 'रामभद्राम्बा' ग्रन्थ-नायक
तंजोर नरेश रघुनाथ की अर्द्धांगिनी थी, अतः ग्रन्थ की सम्पूर्ण विषयवस्तु असंदिग्ध रूप से
प्रामाणिक है। किसी भी भाषा के साहित्य संसार में बहुत कम ऐसी प्रतिभाएँ हैं, जो अपनी मात्र एक
रचना/कृति के बलबूते स्वनामधन्य एवं विख्यात हो गयी हों।
काव्य सौंदर्य -
प्रतिक्षणं यत्र
नितम्बिनीनां
प्रचीयमानेषु पयोधरेषु ।
संगोपनं भूमिभृताः
श्रयन्ते
सहेत कः शात्रवजृम्भणानि
॥
नवाङ्गनानाथकृताङ्कनैः
समं
विचित्रितस्वप्रतिमाविलोकनात्
।
नमन्मुखीर्नर्मसखीजनः
पुरा
हसन्त्यमुष्मिन्बहुधाभिवञ्चितः॥45॥
पहले राजा रघुनाथ के
द्वारा बनवाये गये, विशेष रूप से
चित्रित अपनी प्रतिमाओं को देखकर फिर उसमें धोखा खाती हुई (भ्रमित होती हुई) अपनी
सखियों के साथ नवागत सुंदरियाँ हँस रही हैं।
राममद्राम्बा न केवल
दाक्षिणात्य संस्कृत महाकाव्य में अपितु समस्त संस्कृत महाकाव्य में अन्यतमा है ।
विनीत
जगदानन्द झा
लखनऊ