उपहार में मिली पुस्तकें

कह नहीं सकता कि मैं बुद्धिजीवी समाज से हूं या नहीं, परंतु बुद्धिजीवी लोग मुझे बुद्धिजीवी ही मानते हैं। हो सकता है, उनमें से कुछ लोगों की यह धारणा मुझे बुद्धिजीवियों की पंक्ति में लाने की हो। वैसे भी एक बार एक राजनीति से जुड़ी महिला मुझे विद्वान् न मानते हुए मेरे द्वारा सम्पादित एक पत्रिका में से तथा एक दूसरी महिला ने एक पुस्तक से मेरा नाम हटवा चुकी है। तब से मैं भ्रमित भी हूँ और रह रहकर मुझे स्वयं पर सन्देह भी उठता है कि आखिर मैं क्या हूँ? मैं जब भी एकांत में होता हूं, इसपर सोचता हूं कि आखिर लेखक अपनी पुस्तकें मुझे उपहार में क्यों देते रहते हैं? उपहार में पुस्तकें पाना मेरे लिए सौभाग्य की बात होती है। हलाँकि, कई लोग उपहार में मिली पुस्तकों को पेपर के साथ कवाड़यों को बेच देते हैं। मेरे लिए प्रिय वस्तुओं में पुस्तकों का स्थान सर्वोपरि है। उपहार द्वारा प्राप्त पुस्तकें मेरा ज्ञानवर्धन के साथ आनंदवर्धन भी करती है।
        कुछ लोग मिलने पर और कुछ लोग डाक से भी पुस्तक भेजते हैं । इनमें से अधिकांश लेखकों का आग्रह होता है कि मैं उनकी कृतियों पर समीक्षा लिखूं। होना तो यह चाहिए कि जितना जल्द हो सके लेखक द्वारा प्राप्त पुस्तकों पर जल्द से जल्द समीक्षा लिखकर डाक से अथवा ईमेल से भेज दूं। परंतु प्रमादवश ऐसा नहीं हो पाया । मैंने भी निश्चय किया कि अपने ब्लॉग पर ही एक-एक कर क्रमशः पुस्तकों पर लिखता चलूँ। इनमें से अधिकांश पुस्तकें लेखकों की मौलिक रचना है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर लिखित समीक्षा पाठकों तक पहुंचाने का अधिक युक्ति युक्त माध्यम होगा।
   
       शक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद से 2003 में प्रकाशित कनीनिका में कुल 75 गीतों की रचना उपलब्ध है। पुस्तक में अंतिम गीत का शीर्षक कनीनिका है, जिसके आधार पर इस पुस्तक का नामकरण किया गया है। सरस्वती, विन्ध्यवासिनी आदि की स्तुति के पश्चात् श्रावणमासे कृष्णारात्रिः दिशि दिशि विकरति रागं रे,
 पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं हृदि हृदि जनयति कामं रे 
लिखकर कवि ऋतुओं पर मनोहारी गीतों का राग छेडकर पाठकों को मुग्ध करते है।  किसी विरहिणी की व्यथा कैसे उद्दीपित हो रही है, कवि उसके अन्तस् में उतरकर कह उठता है- प्रियं विना मे सदनं शून्यम्। केशव प्रसाद सरस राग के महान् गायक कवियों में से एक हैं। कवि ने पुरोवाक् में लिखते हुए अपनी इस उपलब्धि तक पहुँचने का वर्णन तो किया ही हैं ,साथ में पाठकों के लिए संदेश भी छोड़ जाते हैं। इन्होंने अपने गृह जनपद के प्रति अनुराग कौशाम्बीं प्रति में व्यक्त किया है। 
 प्रवहति यमुना रम्या सलिला। विलसति रुचिरा कौशाम्बिकला।।



2015 में प्रकाशित आचार्य लालमणि पाण्डेय की रचना संस्कृत गीतकन्दलिका का मूल स्वर आध्यात्मिक है।कवि गीतों के माध्यम से शारदा, गंगा की स्तुति कर प्रयाग तथा वृन्दावन तीर्थस्थलों के महिमा का गान करने लगते है। संस्कृतभाषा के कवि को संस्कृत की अत्यधिक चिंता है। सम्पूर्ण पुस्तक में  संस्कृत को लेकर कवि ने सर्वाधिक 8 गीतों की रचना की है। संस्कृत कवि सम्मेलन तथा अन्य मंच से कवि संस्कृत की रक्षा का आह्वान करते दिखते है।
शास्त्राणां नहि दर्शनन्न मनन्नाध्यापनं मन्थनम् --------सुधियः संरक्ष्यतां संस्कृतम्।।
  अभिनन्दनपत्र, स्वागत, श्रद्धांजलि आदि की परम्परा, पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा महेन्द्र सिंह यादव संयुक्त शिक्षा निदेशक पर आकर पूरी होती है। संस्कृत साहित्य की एक विधा समस्यापूर्ति की झलक भी हमें यहाँ देखने को मिलती है। समस्या पूर्ति कवित्व का निकष है। लालामणि पाण्डेय निःसन्देह सौदामिनी संस्कृत महाविद्यालय के संस्कृत कवि सम्मेलन रूपी उस निकष से गुजरते हुए  सौदामिनी राजते समस्या की पूर्ति करते है।

एका चन्द्रमुखी प्रिया रतिनिभा---  सौदामिनी राजते।।
 आत्मनिवेदन में कवि पुस्तक रचना का उद्येश्य संस्कृत का प्रचार लिखते हैं।
हीरालालं गुरुं नत्वा मानिकेन विभावितः।
संस्कृतस्य प्रचाराय कुर्वे कन्दलिकां मुदा।।


डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री संस्कृत के जाने-माने हास्य लेखक और कथाकार हैं। अनभीप्सितम्, आषाढस्य प्रथमदिवसे तथा अनाघ्रातं पुष्पं के बाद मामकीनं गृहम् कथा संग्रह वर्ष 2016 में अक्षयवट प्रकाशन 26 बलरामपुर हाउस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है । कथा लेखकों में प्रो. प्रभुनाथ द्विवेदी तथा बनमाली विश्वाल के बाद डॉ. शास्त्री मेरे पसंदीदा लेखक है। इनकी कथाओं में सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक समस्याओं का संघर्ष, वैयक्तिक उलझन, वृद्धजनों के प्रति उपेक्षा, संकीर्ण चिंतन आदि विषय वर्णित होते हैं। कथानक में सहसा मोड़ आता है जिससे पाठक रोमांचित हो उठता है। मामकीनं गृहम् में कुल 14 दीर्घ कथायें तथा 7 लघु कथाएं हैं। इसकी एक दीर्घ कथा है- विजाने भोक्तारं । इस कथानक में एक संस्कृत के धोती तथा शिखाधारी छात्र को विदेश से आई हुई एक छात्रा को पढ़ाने के लिए ट्यूशन मिल जाता है। इसकी जोरदार चर्चा कक्षा में होती है। एक दिन उसे अपने घर जाना पड़ता है । वह अपने स्थान पर दूसरे छात्र को ट्यूशन पढ़ाने हेतु भेजता है। यहां पर अभिज्ञानशाकुंतलम् और कालिदास पर रोचक चर्चा मिलती है । कहानी पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विदेश से आई हुई छात्रा अपने दूसरे ट्विटर को पसंद करेगी, लेकिन अंततः धोतीधारी ट्विटर से उसकी शादी हो जाती है। पूरी कहानी संस्कृत शिक्षा, रूप सौंदर्य और सफलता के इर्द-गिर्द घूमती है। अंत में लेखक रूप-सौंदर्य के स्थान पर सफलता को प्रतिष्ठित करता है। यही कथा का सार है। 

संस्कृत कविताओं में शासन सत्ता से सवाल जबाब करने वाले इन पंक्तियों के लेखक महराजदीन पाण्डेय का जन्म 30नवम्बर 156 को उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के महादेव गाँव में हुआ। अपनी कृति काक्षेण वीक्षितम् (द्वितीय संस्करण) तथा मौनवेधः उपहार स्वरूप प्रदान किया। इनकी एक और मौलिक कृति है मध्ये मेघयक्षयोः (संवाद काव्य) काक्षेण वीक्षितम् में संस्कृत में लिखित 32 गजलों का संग्रह तथा 9 कवितायें हैं। आप संस्कृत गजलकार के रूप में जाने जाते हैं। गजल की एक बीनिगी देखिये-
    ऋतो रोषो विशोषः श्रीमतामथ शासनोपेक्षा
     कृष्णानामभावो भूरिरावो दुर्विकल्पोऽयम्
मौसम का रूखापन, श्रीमानों का शोषण और सरकार की उपेक्षा- किसानों के अभाव का बड़ा रोना धोना और तरह तरह का है।
कवि की कविता में कहीं व्यंग्य है तो कहीं मजबूरियां।

सातङ्का ये स्फुटितवचना दुर्गता सत्यनिष्ठाः
कालारम्भे प्रणिहितकर भूतिमन्तो वसन्ति।
एतत्किं भोः कथमिति भवच्छासने वर्तमाने
पृष्टा हृष्टा हसति विवृता सर्वमालोक्य दिल्ली।।
जो स्पष्ट बोलने वाले हैं वे आतंकित हैं। ईमानदार निर्धन है। समृद्ध हैं तो केवल काले धन्धे करने वाले लोग। तुम्हारी शासन सत्ता के रहते भला यह सब कैसे? ऐसा पूछने पर सबकुछ देखती हुई प्रसन्न और नंगी दिल्ली हँसती रहती है।
पक्वे सस्ये भावपातो ध्रुवं भावीति जानन्
देवाधीना नहि बहुकरी वृत्तिरित्यपि विदन् च
रोगेणाद्य श्वश्व वन्यावग्रहैर्ग्राम एष
भूरिश्रमजं हरिद्विभवं स्वीयमुन्मील्य नेत्रे
शीर्यद् विगलत् किञ्च शुष्यद् वीक्षितुं योऽभिशप्तः
श्रोतुं विवशो दिवि शयानां महान्त्याश्वासनानि।
फसल तैयार होते ही भाव गिर जाना गाँव जानता है। भाग्य के भरोसे चलने वाली उसकी वृत्ति से कोई बड़ी उपलब्धि नहीं होनी है- यह भी जानता है। आज रोग से,कल बाढ़ और सूखे से कठिन श्रम से तैयार अपनी हरी भरी समृद्धि को खुली आँखों सड़ते गलते और सूखने देखने को अभिशप्त है यह गाँव, और सुनने को मजबूर स्वर्गिक स्थिति में रहने वालों के बड़े बड़े आश्वासन।

प्रो. हरिदत्त शर्मा प्रणीत 'वैदेशिकाटनम्' संस्कृत महाकाव्य, लेखक द्वारा प्राप्त हुआ। आधुनिक संस्कृत काव्यधारा की परम्परा में अनेक कवियों ने वैदेशिक वृत्त संस्मरणों को अपने काव्य में गुंफित किया। इस प्रकार का काव्य संस्कृत में नव्यविधान है। 2017 में राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान से प्रकाशित इस महाकाव्य में कुल 21 सर्ग हैं। यह महाकाव्य प्रथम सर्ग शर्मण्य- प्रयाणम् से ही यह पाठकों को बंधे रखता है । सहज बोधगम्य ललित शब्दावली, भाषा प्रवाह, विषय वर्णन के कारण यह अद्वितीय है। हालैण्ड, आस्ट्रिया, थाईलेंड, बैंकाक, मलेशिया, इटली, इण्डोनेशिया, सिंगापुर, जापान, कम्बोडिया, अमेरिका आदि अलग- अलग देशों का वृत्त अलग- अलग सर्ग में वर्णित है। प्रथम सर्ग में सुरवाणी संस्कृत के प्रसार का वर्णन करते हुए कवि लिखते है-

न केवलं भारतवर्ष एव द्वीपेषु देशेषु पुरेषु तेषु।

प्रसारमाप्ता सुरवाक् विशाला प्रवर्ततेद्याखिलविश्वमध्ये।।

पश्चिम अमेरिका प्रवास का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यहाँ विभिन्न देशों के लोग सुवर्ण गेट पर घूमते हैं। समुद्र के सौन्दर्य का वर्णन, उसमें रहने वाले जीव जन्तुओं का वर्णन, प्रकृति वर्णन, वहाँ के सांस्कृतिक विरासत को कवि अपने कविताओं में ऐसा वर्णन किया कि पाठक को लगता वह चित्र वे घटनायें मेरे आस पास हो रही हो। युवा तरुण- तरुणियों का घूमना, अमेरिका रात्री के प्रकाश में कवि को अप्सराओं का संसार प्रतीत होता है।

रात्रौ च विद्युज्जवलिते प्रकाशे नूनं परीलोक इव प्रतीतः।

भ्रमन्ति लावण्ययुतास्तरुण्यो ह्यतोऽप्सरोलोक इहैव लक्ष्यः ।।

पुस्तक के प्रत्येक सर्ग में उस देश के प्रसिद्ध स्थलों के चित्र के साथ स्वयं का भी चित्र दिया है।


लखनऊ के सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित राधेश्याम शास्त्री जी ने वर्ष 2018 में प्रकाशित 430 पृष्ठात्मक शिव महापुराण ग्रंथ सप्रेम भेंट दिया। इसके साथ ही सरल नवरात्रि साधना एवं नक्षत्रवाणी पंचांग भी भेंट में दी। पंडित शास्त्री इन तीनों ग्रंथों के संपादक हैं। शिव महापुराण की भाषा हिंदी है। इसे अनेक संहिताओं तथा खंडों में विभाजित किया गया है। शिव महापुराण में विद्येश्वर संहिता, रूद्र संहिता, शतरूद्र संहिता, कोटिरुद्र संहिता, उमा संहिता, कैलाश संहिता तथा वायवीय संहिता है। इसके अंत में शिवमहिम्न स्तोत्र जैसे कुछ सुप्रसिद्ध स्तोत्र भी दिए हैं। 

पंडित शास्त्री के अनुसार उन्होंने कई वर्षों तक शिव महापुराण की कथा कही है। अनेक शिव महापुराण के आलोडन के पश्चात् इसे पुस्तकाकार दिया गया है। शिव के प्रति आस्था रखने वाले तथा मूल शिव पुराण को पढ़ने में अक्षम श्रद्धालुओं के लिए यह पुस्तक अनुपम पाथेय है।
भारतवसुन्धरासान्त्वनम् पुस्तक के लेखक ताराचंद भट्टाचार्य है। पं. ताराचंद भट्टाचार्य का जन्म 1885 में काशी में हुआ। इन्होंने पंडित गदाधर शिरोमणि, सुरेंद्र मोहन तर्कतीर्थ एवं वामाचरण जी से न्यायशास्त्र का अध्ययन किया। साहित्यशास्त्र का अध्ययन गंगाधर शास्त्री से किया। आप गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज, बनारस से साहित्योपाध्याय और बंगाल से काव्यतीर्थ की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके अनंतर आप वाराणसी के बंगाली टोला इंटर कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए। बाद में इसे छोड़ कर इन्होंने काशी के टीकमणि कॉलेज में साहित्य शास्त्र पढ़ाना आरंभ किया। इसके बाद आप गोयनका संस्कृत कालेज में नियुक्त हुए। आप नाटकों में कुशल अभिनय करने के साथ, नाटकों का संवाद लेखन और गीतों के लेखन में दक्ष थे। आपने शाकुंतलम् में दुष्यनत की, वेणीसंहार में दुर्योधन तथा भीम की तथा चंड कौशिक में राजा हरिश्चंद्र की भूमिका का निर्वाह किया था। लॉर्ड कर्जन द्वारा बंग भंग के समय आपने राष्ट्रीय आंदोलन में भी भाग लिया था। आजीवन अध्ययन अध्यापन में संलग्न रहने के कारण आपने अधिक ग्रंथों का लेखन नहीं किया, परंतु यह भारतगीतिका मौलिक ग्रंथ का प्रणयन किया। यह एक गीतिकाव्य है, इसमें गायन के अनुकूल छंदों का विधान किया गया है। विदेशी आक्रांताओं के दीर्घकालीन अत्याचारों से पीड़ित भारतवासियों की दुर्दशा को देखकर भारत माता व्यथित है । इसी व्यथा को दूर करने के लिए भारत के गौरवमयी इतिहास का स्मरण करा कर यहां सान्वना दी है । पुस्तक का संपादन उनके पुत्र प्रो.विश्वनाथ भट्टाचार्य तथा अनुवाद एवं व्याख्या प्रोफेसर शिवराम शर्मा ने किया है। पुस्तक में 167 श्लोक हैं। लेखक 1959 में दिवंगत हुए। पुस्तक का प्रथम प्रकाशन वर्ष 2017 में हुआ। 
हर्षवर्धन की वीरता का वर्णन करते हुए कवि की ये पंक्ति देखें-

वृत्तं किमु न जानासि न हर्षवर्द्धनस्य
यो रराद राजराजिशिरसि पदं निवेश्य ।
सपरिच्छददशाणितास्त्रसैनिककृतरङ्गान्
कनकचर्मरत्नोज्जवलवेगदृप्ततुरगान् ।। 41।।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय कला संकाय के प्रोफेसर डॉ सदाशिव कुमार द्विवेदी, जिनके सहयोग से इस ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो सका, ने  मुझे 26 मई 2018 को यह पुस्तक उपहार में दी।


प्रियकण्ठार्पितभुजां रासमंडलमध्यगाम्
गोपिकाभिः परिवृत्तां नृत्यसंगीततत्पराम्।

श्रीराधा सहस्त्रनाम स्तोत्र प्रिया दास जी द्वारा संवत् 1863 में लिखा गया। एक दिन स्तोत्र की पांडुलिपि लेकर  श्री विनोद बल्लभ गोस्वामी मेरे पास पधारे और इसे पुस्तकाकार देने का संकल्प व्यक्त किया। मैंने भी इसमें यथायोग्य सहयोग दिया। पांडुलिपि की फोटो कॉपी कराकर टंकण कराने के पश्चात् इसकी वर्तनी की अशुद्धियां को ठीक कर इसे जनवरी 2018 में प्रकाशित किया गया।
पुस्तक की प्रामाणिकता प्रदर्शित करने के लिए इसमें पाण्डुलिपि के कुछ पन्ने छापे गये है । ग्रंथ के अंत में पुष्पिका का भाग की भी पांडुलिपि प्रिंट कराई गई है। स्तोत्र को पढ़ते हुए भगवती राधिका के जिन स्वरूपों का वर्णन आया है, कमोबेश उसी प्रकार के चित्र बीच-बीच में लगा दिए गए हैं।  
स्तोत्र के आरंभ में नारद जी सदाशिव से पूछते हैं कि किस उपाय से कृष्ण की भक्ति पाई जा सकती है? वह मुझे बताएं। सदाशिव उपाय बताते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की शक्ति राधा हुई। उनके नाम का महत्व मैं आपको बताता हूं। इससे कृष्ण की भक्ति प्राप्त होगी।
स्तोत्र अनुष्टुप् छंद में लिखित है । इसका देवता राधिका है । राधिका की प्रीति के लिए इसका विनियोग, न्यास, ध्यान दिया गया है। ध्यान में राधा के जिन भाव भंगिमाओं का वर्णन हुआ है, वह प्रेम की पराकाष्ठा को प्रदर्शित करता है । इसके बाद भगवान शंकर राधा नाम का महत्व कहते हैं -
विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र की तरह ही इस स्तोत्र में भी एक ही अक्षर से आरंभ होने वाले अनेक नामों का कीर्तन किया गया है। जैसे-
गोपिका गोपराज्ञी च गोपानंदविधायिनी ।।
गोपूज्या गोपदृष्टा गोपगोपीभिरावृता ।
गोपाह्लादकरी गोपी गोपीगोप शिवंकरी ।।40।।   
    
पुस्तक के अंत में पुस्तक का मूल स्रोत का उल्लेख इस प्रकार है-  सर्वोत्तम महात्म तंत्र रुद्रयामल के शिव नारद संवाद में शिव द्वारा कहा गया राधा स्तोत्र नाम कहा गया है। यदि यह रुद्रयामल का भाग है तो प्रिया दास कौन हैं? क्या वे पुस्तक के लेखक नहीं हैं?



न्यायाधिपति ग्रह शनि - एक समग्र विवेचन पुस्तक में शनि को लेकर समग्र विवेचन किया गया है। इसमें शनि के गुणों के आधार पर उनके 120 से अधिक नामों की विवेचना की गयी है। शनि का एक नाम तैलप्रिय है। जिसका अर्थ होता है, जिसे तेल प्रिय हो। इसीलिए शनि की प्रतिमा पर तेल चढ़ाया जाता है। इस नाम का उल्लेख पद्म पुराण में मिलता है। इसी प्रकार भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा मार्तंड भैरव में शनि का दुर्निरीक्ष्य नाम आता है। शनि की दृष्टि अशुभ होती है। यह जिस भाव को देखता है उसका विनाश हो जाता है। अतः शनि के लिए दुर्निरीक्ष्य नाम सार्थक है। खड्गधारी, चतुर्भुज, नीलमयूख, क्रूरदृष्टि,बलिप्रिय, मन्दचर आदि इनके अन्य नाम हैं। इसी प्रकार शनि से दूसरे ग्रह, देवता आदि  के संबंधवाची नाम का भी विवेचन किया गया है। रवि नन्दन,  सूर्यसुत, मनु भ्राता, अर्क पुत्र जैसे शनि के संबंधवाची नाम कहे जाते गये हैं। यहाँ शनि का स्वरूप एवं वैशिष्ट्य भी वर्णित है। 16 पुराणों में आयी शनि की कथा का वर्णन इसमें एक साथ प्राप्त है। ज्योतिष शास्त्र में सौर मंडल में शनि ग्रह की स्थिति, उनका फलादेश इसमें दिया गया है । पर्यटन की दृष्टि या धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो देश के प्रत्येक राज्यों में जहां भी शनि ग्रह के मंदिर हैं, उसका भी वर्णन इस पुस्तक में प्राप्त होता है। शनि से संबंधित रत्न धारण करने, दान देने, व्रत करने आदि के संबंध में भी अलग अलग अध्याय में निर्देश दिए गए हैं। इसके बाद शनि स्तोत्र, कवच, आरती का  संकलन इसमें किया गया है। इस प्रकार शनि ग्रह जिसे इसमें न्याय का अधिपति कहा गया है, को लेकर एक ही पुस्तक में समग्र विवेचन किया गया है । यह पुस्तक विभिन्न पुराणों, ज्योतिष शास्त्रों, धार्मिक स्थलों, धर्म शास्त्रों तथा स्तोत्र ग्रंथों का मिलाकर एक आकर ग्रंथ हो गया है। अभी तक किसी एक ग्रह को लेकर उसका सर्वांग विवेचन करने वाला प्रथम पुस्तक है । पुस्तक की भाषा अत्यंत सरल हिंदी में है। यथा स्थान मूल संदर्भ संस्कृत में दिये गये हैं। ज्योतिष अध्ययन करने वाले तथा धार्मिक विचारधारा के लोगों को इस प्रकार के पुस्तक से मार्गदर्शन लेना चाहिए।

श्यामानन्दरचनावलिः

डॉ. किशोरनाथ झा के सम्पादन में प्रकाशित श्यामानन्द झा (जन्म २७ जुलाई १९०६ स्वर्गवास ३० अगस्त १९४९) की रचनाओं का संग्रह आज पढ़ने बैठा था। इसमें किशोरनाथ झा ने संस्कृत में १९ पृष्ठों का आमुख लिखा है। आमुख की भाषा संस्कृत लेखन का निकष है। इसी प्रकार १३ पृष्ठों में श्यामानन्द झा की भूमिका प्रकाशित है। इन दोनों के भाषायी लालित्य के कारण बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। इस रचनावली में मधुवीथी, कर्णिका नाम से पद्य भाग है तथा गीत भाग में वेदना, सुधा वल्ली, मातः सरस्वती, विडम्बना आदि एवं मनोरथः नाटक का भी संकलन है । पुस्तक में नए शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।  परिशिष्ट में आलोचनात्मक टिप्पणी दी गयी है। कवि द्वारा निर्मित नवीन शब्दों का हिंदी भाषा में दिया गया अर्थ पाठकों के लिए पुस्तक को और भी उपयोगी बनाता है।

रचनावली से चयनित एक कविता का आनन्द लें।

विक्रमार्कं प्रति

 विक्रमार्क, पुनरेहि पुनर्जय हर्षय भारतवर्षम् ।

प्रमदकुलं सम्प्रति प्रतिकूलम्

गदमिव राष्ट्रपयोनिधिकूलम्

आवन्ती सन्ततमुत्सीदति कलयसि किं नामर्षम् ।

यस्या जन्मभुवश्छायायाम्

विश्वमनैषीः शान्तिसुधायाम्

सैव निगृह्य परैरुपनीता पराजयैरपकर्षम् ।

अखिलं राज्यतन्त्रमुन्माद्यति

शान्तिकथा मूलादुत्क्राम्यति

चक्रवर्तितामेत्य नवीकुरु मालवगणनावर्षम् ।

उज्जयिनीयं प्रभवतु धन्या

स्वयं वृणीता त्वां दिक्कन्या

शतधा स्फुटतु वैरिवक्षस्थलमित्वा तव संघर्षम् ।

कालिदाससुकविः पुनरायात्

शाकुन्तलरघुवंशौ गायात्

नवरत्नैस्तव राजसभा सा दर्शयतामुत्कर्षम् ।

देवः सुधारसैः परिषिञ्चतु

सस्यश्यामला भूमिश्चञ्चतु

गृहे-गृहे गोदुग्धं प्रवहतु लोको गच्छतु हर्षम् ।

शिक्षागुरुः समेषामासीत्

शिरसा यस्यादेशमयासीत्

भारतभूर्जनयित्वा त्वादृशमाहवभूदुर्द्धर्षम् ।

गृहस्थ - धर्म - प्रदीपिका 

ग्रन्थ के लेखक आचार्य अनिल कुमार शर्मा ने एक उपयोगी ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ पर शुभाशंसा लिखने वाले वेदाचार्य रामानुज त्रिपाठी के शब्दों में इस ग्रन्थ से सभी सनातन-मतावलम्बी गृहस्थ जनों को अपने आचार-विचार, व्रत-त्योहार, उपासना-विधि आदि का शास्त्र-सम्मत ज्ञान प्राप्त होगा। साथ ही अन्य मतावलम्बी एवं अध्येता भी भारतीय सनातन संस्कृति से परिचित हो सकेंगे।


 पौरोहित्य कर्म सीखने के इच्छुक लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए मैं पाठ्यक्रम बना रहा था। मैं एक ऐसी पुस्तक की खोज में था, जिसमें पूजा विधि, देव दर्शन, पवित्र नदियों में स्नान, व्रत उपवास, प्रमुख पर्व त्यौहार, आदि का एकत्र व प्रामाणिक सामग्री हो। इस ग्रन्थ में वह सब कुछ उपलब्ध है। इस प्रकार यह पौरोहित्य प्रशिक्षुओं तथा सामान्य जनता दोनों के लिए उपयोगी है।

मैंने विश्वविद्यालयों के पौरोहित्य पाठ्यक्रमों को देखा है। वहाँ के अध्यापकों से चर्चा की है। वहाँ के पाठ्यक्रमों को जनोपयोगी बनाने का आग्रह भी किया, क्योंकि पुरोहित को जनता के सामान्य जिज्ञासा का समाधान करना पड़ता है। इस पुस्तक के आने से विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित कर्मकांड के डिप्लोमा पाठ्यक्रम को व्यवस्थित करने में मदद मिलेगी।

मुझे इस पुस्तक की प्रतीक्षा थी। आज मेरे हाथ में यह पुस्तक है। इसे पाकर मैं गदगद हूँ। पुनः इस ग्रन्थ के लेखक को धन्यवाद।



अनूदित संस्कृत साहित्य की श्रृंखला में "अन्धयुगम्" एक और नाम जुड़ गया । पद्मश्री धर्मवीर भारती द्वारा लिखित अंधा युग काव्य नाटक का डॉ. नवलता ने संस्कृत में अनुवाद कर संस्कृत साहित्य की श्री वृद्धि की है। इस अनुदित काव्य नाट्य का कानपुर में मंचन भी हो चुका है। इसका प्रकाशन निखिल पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, मोबाइल ९४५८००९५३१, 37, “शिवराम कृपा " विष्णु कालोनी, शाहगंज, आगरा-10 (उ.प्र.) E-mail : nikhilbooks.786@gmail.com से हुआ है।

डॉ. नवलता द्वारा संस्कृत भाषा में रूचि रखने वाले के लिए दी गई इस अनुपम कृति के लिए मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूं।













आजादी का अमृत महोत्सव को लेकर संस्कृत समाज के प्रतिनिधिभूत संस्कृत कवियों की लेखनी भी निरंतर गतिशील रही है। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के आर्थिक सहयोग से डॉ अरविंद कुमार तिवारी के संपादन में प्रकाशित स्वातंत्र्यरसायनम् अपरनाम स्वतंत्र्यनिनादः में आजादी के प्रति संस्कृत समाज की चेतना अभिव्यक्त हुई है। यह पुस्तक समकालीन संस्कृत लेखकों का समकालीन विषय पर लिखित जीवंत दस्तावेज है।

फेसबुक पर आजादी का अमृत महोत्सव पर संस्कृत कवियों की प्रभूत रचनाओं को देखकर उसके स्थाई अभिलेखीकरण का विचार मेरे मन में उत्पन्न हुआ। इस कार्य के लिए मैंने तुरंताकवि मित्रवर डॉ अरविंद कुमार तिवारी को दूरभाष पर संपर्क किया तथा यह आपस में तय किया कि एतद्विषयक भारतवर्ष के समस्त समकालीन कवियों की रचनाओं को एकत्र संग्रह कर प्रकाशित किया जाए, ताकि सर्व समाज को विदित हो कि संस्कृत समाज भी आजादी को लेकर संवेदनशील है तथा वर्तमान घटनाक्रम को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर समाज को जागृत करने में संलग्न है। दिनांक 31 दिसंबर 2022 को संस्कृत संस्थान की स्थापना दिवस के अवसर पर इस पुस्तक का लोकार्पण हुआ है।


इस पुस्तक में तीन यशःशेष तथा  वर्तमान संस्कृत कवियों की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। मैं इन सबके प्रति आभार प्रकट करता हूं। इनके नाम इस प्रकार हैं - यशः शेषः आचार्यवासुदेवद्विवेदिशास्त्री, यशः शेषः पद्मश्रीरमाकान्तशुक्लः, यशः शेष: आचार्य: रामनाथसुमनः, मिश्रोऽभिराजराजेन्द्रः, जगद्गुरुस्वामिविद्याभास्करमहोदयानाम्, आचार्यरहसबिहारी द्विवेदी, आचार्य ओमप्रकाशपाण्डेय :, आचार्यमिथिलाप्रसादत्रिपाठी, विन्ध्येश्वरीप्रसादमिश्रो विनयः , प्रो. ताराशंकरशर्मा पाण्डेय : , डॉ. कृपारामत्रिपाठी, श्रीकुशाग्र-अनिकेत:, डॉ. कमलापाण्डेया, प्रो. उमारानीत्रिपाठी, प्रो. रमाकान्तपाण्डेय:, डॉ. वागीशदिनकर:, डॉ. रामविनयसिंह :, डॉ. अरविन्दकुमारतिवारी, डॉ. हर्षदेवमाधवः, प्रो. डॉ. योगिनी हिमांशु व्यास, डॉ. राजकुमारमिश्रः, डॉ. मधुसूदनमिश्रः, डॉ.सत्यकेतुः, डॉ. शशिकान्ततिवारी शशिधर : , डॉ. राघवेन्द्र भट्ट :, डॉ. भारतभूषणरथः, डॉ. जोगेन्द्रकुमारः, डॉ. अम्बरीशकुमारमिश्रः, डॉ. प्रीति: पुजारा डॉ. प्रियव्रतमिश्रः, डॉ. संजीतकुमारझा, डॉ. प्रवीणमणित्रिपाठी  शान्तेयः, डॉ. प्रमोदशुक्लः, श्रीविन्ध्याचलपाण्डेय :, डॉ. लक्ष्मीनारायणपाण्डेयः, डॉ कीर्तिवल्लभशक्टा, डॉ. विपिनकुमारद्विवेदी, प्रो. प्रयागनारायणमिश्रः, डॉ. आभा झा, श्री एकनारायणपौडेल :, डॉ. हरेकृष्ण-मेहेर :, डा. बुद्धेश्वरषडङ्गी, डॉ. नवलता, डॉ. निरञ्जनमिश्रः, डॉ. प्रमोदकुमारशर्मा, डॉ. राजेन्द्रत्रिपाठी 'रसराज : , डॉ. रेखाशुक्ला, डॉ. चन्द्रकान्तदत्तशुक्लः, डॉ. शैलेशकुमारतिवारी, पूजाकुमारी, प्रो. रामसुमेरयादवः, प्रो. धर्मदत्तचतुर्वेदी, डॉ. श्रीनाथधरद्विवेदी, डॉ. रामकृष्णपेजत्ताय:, डॉ. सुरचना त्रिवेदी, डॉ रामकृपालत्रिपाठी, डॉ. तुलसीदास परौहा, डॉ. धनञ्जयमिश्रः, डॉ. विवेकपाण्डेय :, महाचार्य: मनतोषः भट्टाचार्य:, डॉ. लक्ष्मीकान्तविमल:, आचार्य: महाराजदीनपाण्डेय:, डॉ. विशनलालगौडः व्योमशेखर:, डॉ. शरदिन्दुत्रिपाठी, डॉ. संजयकुमारचौबे, वत्सदेशराजशर्मा, डॉ. बालकृष्णशर्मा, आचार्य : डॉ. कृष्णकान्त अक्षर, डॉ. हेमचन्द्र बेलवाल:, डॉ. शम्भूत्रिपाठी, श्रीप्रेमशंकरशर्मा, डॉ. महावीरप्रसादसारस्वत:, डॉ राहुलपोखरियालः, डॉ. सचिनकुमारत्रिपाठीईशानतिवारी

आजादी का अमृत महोत्सव को लेकर अभी तक संस्कृत में इस प्रकार की पुस्तक की रिक्तता थी। इस पुस्तक के प्रकाशन से उस अभाव की पूर्ति हो गई। यह पुस्तक संस्कृत से प्रेम करने वाले तथा संस्कृत विद्या अध्ययन करने वाले लोगों के लिए उपयोगी है, उत्साह बढ़ाने वाली है। इस पुस्तक के माध्यम से संस्कृत अध्येता अपने समकालीन लेखकों से परिचित हो सकेंगे।

रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम्

रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम् ग्रन्थ दिनांक 03/02/2024 को उपहार स्वरूप प्राप्त हुआ।

रघुनाथाभ्युदयमहाकाव्यम्' संस्कृत-साहित्य की विदुषी कवयित्री 'रामभद्राम्बा' द्वारा विरचित चरितप्रधान महाकाव्य है। इस महाकाव्य का निर्माण सन् 1625 के आस-पास हुआ। द्वादश-सर्गीय इस महाकाव्य में चोल-नरेश रघुनाथ नायक के उदात्त-जीवन-चरित, अप्रतिम शौर्य, औदार्य तथा वंश-परंपरा आदि का सविस्तार वर्णन प्राप्त होता है। वारह सर्गों में निबद्ध इस विशिष्ट कृति से तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रामाणिक परिचय भी प्राप्त होता है। कृति की ऐतिहासिकता मान्य इतिहास-अभिलेखों एवं मानदण्डों से सम्पुष्ट एवं विश्वास-योग्य है।

श्रुति-परम्परा के अनुसार इस ग्रन्थ की लेखिका 'रामभद्राम्बा' ग्रन्थ-नायक तंजोर नरेश रघुनाथ की अर्द्धांगिनी थी, अतः ग्रन्थ की सम्पूर्ण विषयवस्तु असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक है। किसी भी भाषा के साहित्य संसार में बहुत कम ऐसी प्रतिभाएँ हैं, जो अपनी मात्र एक रचना/कृति के बलबूते स्वनामधन्य एवं विख्यात हो गयी हों।

काव्य सौंदर्य -            


प्रतिक्षणं यत्र नितम्बिनीनां

प्रचीयमानेषु पयोधरेषु ।

संगोपनं भूमिभृताः श्रयन्ते

सहेत कः शात्रवजृम्भणानि ॥

नवाङ्गनानाथकृताङ्कनैः समं

विचित्रितस्वप्रतिमाविलोकनात् ।

नमन्मुखीर्नर्मसखीजनः पुरा

हसन्त्यमुष्मिन्बहुधाभिवञ्चितः॥45

पहले राजा रघुनाथ के द्वारा बनवाये गये, विशेष रूप से चित्रित अपनी प्रतिमाओं को देखकर फिर उसमें धोखा खाती हुई (भ्रमित होती हुई) अपनी सखियों के साथ नवागत सुंदरियाँ हँस रही हैं।

राममद्राम्बा न केवल दाक्षिणात्य संस्कृत महाकाव्य में अपितु समस्त संस्कृत महाकाव्य में अन्यतमा है ।

विनीत

जगदानन्द झा

लखनऊ

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व्याकरण शास्त्र के आचार्यों की परम्परा तथा परिचय

नोट- मैंने फेसबुक पर प्रति शनिवार एवं रविवार को संस्कृतशास्त्रालोचनम् व्याख्यानमाला संचालित कराया है। व्याख्यानमाला का आरंभ व्याकरणशास्त्र परम्परा से हुआ,क्योंकि यह सभी शास्त्रों का मुख है। श्रोताओं के आग्रह पर यहाँ व्याख्यान के विषय को व्यवस्थित कर लिखा रहा हूँ।

व्याकरण शास्त्र के प्राचीन आचार्य-

व्याकरण शास्त्र का मूल आधार वेद है। वेद में व्याकरण के स्वरूप का वर्णन प्राप्त होता है।
          चत्वारि श्रृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य ।
          त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महोदेवा मर्त्याम् आविवेश ।। (ऋग्वेद 4:58:3)
इस मंत्र में शब्द को वृषभ नाम से कहा गया है। इस वृषभ के स्वरूप का लर्णन किया गया है-  
नामआख्यातउपसर्गनिपात ये चार सींग,  भूतकालवर्तमानकालभविष्यकाल ये तीन पैर, सुप् (सुजस् आदि)तिङ् (तिप्तस्झि आदि) दो सींग (शीर्षे) प्रथमादि्वतीयातृतीयाचतुर्थीपंचमीषष्ठीसप्तमी ये सातों विभक्तियां इसके हाथ हैं, उरस्कण्ठःशिरस् इन तीन स्थानों से यह बंधा हुआ आबाज कर रहा है।
रामायण के किष्किन्धा कांड में राम हनुमान के बारे में लक्ष्मण से कहते हैं-  
              नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
              बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्। किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक 29
निश्चित रुप से इसने सम्पूर्ण व्याकरण को भी सुना है,क्योंकि इसने बहुत बोला परन्तु कहीं भी व्याकरण की दृष्टि से एक भी अशुद्धि नहीं हुई।
महाभाष्य में पतञ्जलि ने भी व्याकरणशास्त्र परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्राचीन काल में संस्कार के बाद ब्राह्मण व्याकरण पढ़ते थे।
         "पुराकल्प एतदासीत् , संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्मधीयते ।" (महाभाष्य---1.1.1)
प्रश्न यह उठता है कि जब यह व्याकरण इतना प्राचीन है तो इसे सर्वप्रथम किसको किसने पढ़ाया? इसका उत्तर ऋक्तन्त्र 1.4 में मिलता है। व्याकरण के सर्व प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा थे।  ब्रह्मा वृहस्पतये प्रोवाच, वृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भारद्वाजो ऋषिभ्यः। महाभाष्य के पस्पशाह्निक में शब्दों के बारे में प्रतिपादन करते हुए पतञ्जलि ने पुनः व्याकरणशास्त्र परम्परा का उल्लेख किया- वृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दपारायणं प्रोवाच नान्तं जगाम, वृहस्पतिश्च प्रवक्ता, इन्द्रचाध्येता दिव्यं वर्षसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम इति । इस परम्परा में अनेक आचार्यों का उल्लेख हुआ है। यह लगभग 10 हजार वर्ष की परम्परा है।
भरद्वाज-
भरद्वाज अंगिरस वृहस्पति के पुत्र तथा इन्द्र के शिष्य थे। युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार ये विक्रम सं. से 9300 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए। भरद्वाज काशी के राजा दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन के पुरोहित थे।
भागुरि-  
भागुरि नाम का उल्लेख पाणिनि तथा पतंजलि ने किया है। न्यासकार ने इनके एक मत का उल्लेख किया है।
             वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः।
             आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा।।
पौष्करसादि-
महाभाष्यकारकार पतंजलि ने चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् में पुष्करसादि के पुत्र पौष्करसादि के मत का उल्लेख किया है।
काशकृत्स्न-
पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्, आपिशलम्, काशकृत्स्नम् इस महाभाष्य के वचन के अनुसार तथा वोपदेव कृत कविकल्पद्रुम के अनुसार काशकृत्स्न नामक वैयाकरण का पता चलता है। वस्तुतः महाभाष्य व्याकरण ज्ञान का मूल ऐतिह्य स्रोत है।
                 इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नाऽपिशली शाकटायनः ।
                 पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः।।
शन्तनु- 
सम्प्रति इनके द्वारा रचित फिट् सूत्र प्राप्त होता है। शन्तनु द्वारा विरचित होने कारण इसे शान्तनव व्याकरण भी कहा जाता हैं। प्रातिपदिक अर्थात् मूल शब्द को फिट् नाम से कहा गया। इन सूत्रों में प्रातिपदिक के स्वरों (उदात्त, अनुदात्त, स्वरित) का विधान किया गया है ।
गार्ग्य- अष्टाध्यायी में पाणिनि ने इस ऋषि के मत का उल्लेख अनेक सूत्रों में किया है।अड्गार्ग्यगालवयोः, ओतो गार्ग्यस्य आदि।

व्याडि-

आचार्य व्याडि प्राचीन वैयाकरण है। पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि व्याडि ने 'संग्रह' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की ।  आचार्य शौनक ने ऋक् प्रातिशाख्य में इनके अनेक मत को उद्धृत किया है । इससे सिद्ध होता है कि व्याडि शौनक के पूर्ववर्ती थे। ऋक् प्रातिशाख्य में ही शौनक ने शाकल्य और गार्ग्य के साथ ही व्याडि का भी उल्लेख किया है। महाभाष्य (६-२-३६) में आपिशलि और पाणिनि के शिष्यों के साथ व्याडि के शिष्यों का भी उल्लेख है। काशिका से व्याडि के दाक्षायण और दाक्षि है इन अन्य दो नाम का पता चलता है । इनकी बहिन दाक्षी थी। पाणिनि दाक्षीपुत्र होने से इनकी बहिन के पुत्र है। 'संग्रह' का प्रतिपाद्य विषय व्याकरण दर्शन ग्रन्थ था। इसमें व्याकरण का दार्शनिक विवेचन था। पतंजलि (महा० १-२-६४ ) में व्याडि को द्रव्यपदार्थवादी बताया है। 'द्रव्याभिधान व्याडिः' । नागेश और वाक्यपदीय के टीकाकार पुष्यराज ने संग्रह ग्रन्थ का परिमाण एक लाख श्लोक माना है ।  

आपिशलि –

पाणिनि ने अपने अष्टाध्यायी में जिन 10 आचार्यों के नाम का उलेलेख किया है, उनमें आपिशलि मुख्य हैं। आपिशलि बहुत प्रसिद्ध वैयाकरण थे, अतः उस समय व्याकरण की पाठशालाओं को आपिशलि शाला कहते थे। पदमंजरीकार हरदत्त के लेख से ज्ञात होता है कि पाणिनि से ठीक पहले आपिशलि का ही व्याकरण प्रचलित था। महाभाष्य (४-१-१४) से ज्ञात होता है कि कात्यायन और पतंजलि के समय में भी आपिशल व्याकरण का पर्याप्त प्रचार था। पाणिनि ने वा सुप्यापिशलेः सूत्र में आचार्य आपिशलि का उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त महाभाष्य ( ४-२-४५ ) मे आपिशलि का मत प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है। वामन, कैयट आदि ने इसके अनेक सूत्र उद्धृत किए हैं। पाणिनि से कुछ वर्ष ही प्राचीन ज्ञात होते हैं।

पाणिनीय व्याकरण का प्रधान उपजीन्य ग्रन्थ आपिशल व्याकरण है । पाणिनि ने इससे अनेक संज्ञाएँ, प्रत्यय प्रत्याहार आदि लिए हैं। इसके व्याकरण में भी ८ अध्याय थे । इसके कुछ सूत्र उदाहरणार्थ ये हैं - १. विभक्त्यन्तं पदम्, २. मन्यकर्मण्यनादरे उपमाने विभाषा प्राणिषु, ३. करोतेश्च ४.  भिदेश्च ।

व्याकरण ग्रन्थ के अतिरिक्त इन्होंने अन्य ग्रन्थ ये हैं :-धातुपाठ, गण पाठ, उणादिसूत्र, आपिशलशिक्षा तथा अक्षरतन्त्र की रचना की थी।

इस प्रकार पाणिनि ने अपने ग्रन्थ अष्टाध्यायी में शाकल्य, काश्यप, चाक्रवर्मण, शाकटायन,शाकल्य आदि अनेक वैयाकरण आचार्यों के मत का उल्लेख किया है।
नोट- इस अधोलिखित भाग का सम्पादन तथा विस्तार करना शेष है।

व्याकरण ग्रन्थ परम्परा                                       

लेखक                            समय                             ग्रन्थ का नाम
पाणिनि                         2000 वर्ष पूर्व               अष्टाध्यायी
पाणिनि ने अष्टाध्यायी में श्रवण और यवन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। गणतन्त्र महोदधि के निम्न व्युत्पत्ति से सिद्ध होता है कि पाणिनि का जन्म शालातुरीय नामक गाँव में हुआ था । ( शालातुरो नाम ग्रामः सोऽभिजनोऽस्यास्तीति शालातुरीयः, तत्र भवान् पाणिनिः ) जो अभी पाकिस्तान में लाहौर के नाम से प्रसिद्ध हैं । पाणिनि के माता का नाम दाक्षी और पिता का नाम पाणि था । इनके गुरु का नाम उपवर्षाचार्य जो नन्दराज के राज्यकाल में बिहार राज्य में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् माने जाते थे। अध्ययनावस्था में ही पाणिनि ने अपनी तपस्या से भगवान् शङ्कर को प्रसन्न कर के उन के आदेश से गुरु के आश्रम में ही (पटना में) अष्टाध्यायी सूत्रप्राठ आदि की रचना की थी, इसलिए आचार्यों ने कहा भी हैंअक्षरसमाम्नायमधिगम्यमद्देश्वरात् । कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ युधिष्ठिर मीमांसक ने व्याकरण शास्त्र का इतिहास में विक्रम से लगभग २८०० वर्ष प्राचीन सिद्ध किया है।

कात्यायन                      3000  

कात्यायन और पाणिनि तो समकालीन ही माने जाते हैं। पूर्व आचार्यो ने कात्यायन को महर्षि याज्ञवल्क्य के पुत्र माना है। कात्यायन स्मृतिकार और वार्तिककार दोनों हैं, "प्रियतद्धिताः दाक्षिणात्याः” महाभाष्य के अनुसार यह सिद्ध होता है कि कात्यायन दाक्षिणात्य थे ।

वार्तिककारों में कात्यायन सब से श्रेष्ठ हुए। और निम्न लिखित वार्तिक लक्षणों से सर्वथा पूर्ण है उनका वार्तिक –

उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।

तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुवर्तिकज्ञा मनीषिणः ॥

कात्यायन का वार्तिक पाणिनि व्याकरण का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग हैक्योंकि वार्तिक विना पाणिनि व्याकरण अधूरा रह जातावार्तिक इस व्याकरण में लिखा गया जिस के कारण इस व्याकरण के आलोक में दूसरा व्याकरण पनप नहीं रहा है। महामुनि कात्यायन का ही दूसरा नाम वररुचि है। ये स्मृतिकार और वार्तिककार के साथ-साथ महाकवि भी थे। इन के 'स्वर्गारोहणनामक काव्य की प्रशंसा अनेक ग्रन्थों में भी की गयी है।

पतञ्जलि

शेषावतार भगवान् पतञ्जलि द्वारा विरचित व्याकरण महाभाष्य की सभी ग्रन्थों में प्राथमिकता हैसभी व्याकरण इसके सामने घुटना टेक देता है। व्याकरण शास्त्र ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण वाङ्मय का यह उदधि है। वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने भी लिखा है कृतोऽथ पतञ्जलिना गुरुणा तीर्थदशिता । सर्वेषां न्यायबीजानां महाभाष्ये निबन्धनम् ॥ भगवान् पतञ्जलि द्वारा विरचित तीन प्रमुख ग्रन्थ है -

१ पातञ्जलयोगसूत्रम् ।

२ व्याकरणमहाभाष्यम् ।

३ चरकसंहिता । जैसा कि कैयट ने महाभाष्य की टीका के मङ्गलाचरण में लिखा है 

योगेन चितस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ।

योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ।

आचार्यों के कथनानुसार यह सिद्ध होता है कि पाणिनि और कात्यायन उपवर्षाचार्य नामक एक ही गुरु के दोनों शिष्य थे । अध्ययन के समय कात्यायन की बुद्धि अति प्रखर थीकात्यायन के सामने पाणिनि हतप्रभ हो जाया करते थे। अतः पाणिनि प्रयाग में अक्षय वट के नीचे जहाँ सनक सनन्दन आदि ऋषिगण तप करते थेवहीं जाकर तपस्या करने लगे । इनकी तपस्या से प्रसन्न हो कर नटराज भगवान् शङ्कर ने ताण्डव नृत्य करते हुए चौदहवार डमरू बजाकर तपस्त्रियों का मनोकामना को सिद्ध किया। इसका प्रमाण नन्दिकेश्वर विरचित काशिका में लिखा गया हैजो श्लोक से मिलता है।

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धा नैतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥

इन्हीं चौदह माहेश्वर सूत्रों के आधार पर पाणिनि ने व्याकरण की रचना की है । पाणिनि द्वारा विरचित वैयाकरण ( अष्टाध्यायी ) सिद्धान्त कौमुदी में छुटे हुए अंर्शों को पुनः वार्तिक बना कर पूरा किया

उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।

तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुः प्राज्ञया यन्मनीषिणः ॥

इस लोकोक्ति के अनुसार पाणिनि और कात्यायन दोनों ने आवेश आकर परस्पर शाप के कारण त्रयोदशी तिथि को शिवलोक प्रस्थान कर गये । इसलिए त्रयोदशी तिथि को व्याकरण का अध्यय न करना निषेध माना जाने लगा । पाणिनि तथा कात्यायन के निधन के बाद पाणिनि व्याकरण शनैः शनैः लुप्त होने लगा और मुकुटाचार्य ने एक नये ही व्याकरण की रचना करने लगे । साक्षात् शङ्कर अपने डमरू से निकले ध्वनि को लुप्त नहीं होने देना चाहते थेक्योंकि उनका अक्षर समाम्नाय अतिप्रिय है। पाणिनि व्याकरण को नष्ट होते आशुतोष भगवान् शङ्कर ने शेषशायी भगवान् विष्णु से प्रार्थना की कि शेषनाग स्वतः पाणिनि व्याकरण को पल्लवित एवं पुष्पित रखने के लिए भूतल पर 'चिदम्बरम्में अवतार ग्रहण करें। चिदम्बरम् प्रदेश में उस समय गोणिका नाम की महाशक्ति ने तीव्र बुद्धि वाले पुत्र की कामना से भगवान् शङ्कर की आराधना कर रही थी। एक दिन तपस्विनी माता गोणिका भगवान् भास्कर को अर्घ्य दे रही थी कि अञ्जलि में भगवान् शेष के स्वरूप में अवतरित हुए। सर्प के रूप में उन्हें देखकर माता गोणिका घवरा कर पूछा गोणिका-को भवान् प्रश्न:- शेषः– सप्पोऽहम् गोणिका– रेफः क गतः शेषः त्वयाऽहृतः । प्रश्नों के उत्तर को सुन कर माता गोणिका शेषरूप भगवान् को हँसते. हुए बालक के रूप में पाया और उसी दिन उसका नाम पतञ्जलि रख दिया गया। कुछ दिनों के बाद भगवान् शङ्कर की कृपा से पतञ्जलि व्याकरण शास्त्र में पारङ्गत हो गये और प्रतिदिन हजारों की संख्या में शिष्यगण आ आकर उनसे पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन करने लगे। 

चन्द्रगोभि                      12000 पू0                चान्द्रव्याकरण
क्षपणक                          विक्रम के एक शती में       उणादि की व्याख्या लिखा
भर्तृहरि                          4 शती                           वाक्यपदीप
देवनन्दी/जिनेन्द्र              5 3700 सूत्र                  जैनेन्द्र व्याकरण का औदीच्य प्राच्य पाठ मिलता है।
भोजदेव                         सं01075                      सरस्वतीकण्ठाभरण 6400 सूत्र
दयापालमुनि                  1082                           रूपसिद्वि शाकटायनव्याकरण नवीनी
वर्धमान                         1120                           गणरत्नमहोदधि
लंकास्थ बौद्व धर्मकीर्ति     1140                           रूपावतार
हेमचन्द्रसूरि       (जैनावर्ष) 1145                          सिद्वहैमशब्दानुशासन इस पर स्वोपज्ञा टीका‘ 6000
श्लोेक
क्रमदीश्वर                                                          संक्षिप्तसार
नरेन्द्राचार्य                     1250                           सारस्वत व्याकरण अनुभूतिस्वरूप की टीका सारस्वतप्रक्रिया
बोपदेव                         1325                           मुग्धबोधव्याकरण

पाणिनि -          
गुणरत्नमहोदधि में वर्धमान
पतंजलि इह पुष्यमित्रं याजयामः
टीका                             परम्परा                         
रामचन्दाचार्य                1450वि0                     प्रक्रिया कौमुदी
भट्टोजि दीक्षित               1570-1650                 वैयाकरण सिद्वान्त कौमुदी
ज्ञानेन्द्र सरस्वती             1551                           तत्वबोधिनी
जयादित्यवामन                                                  काशिका
दयानन्द सरस्वती                                               अष्टाध्यायी भाष्य कृत 30 आचार्य

कैयट                 -                        प्रदीप
अष्टाध्यायी के वृत्तिकार- व्याडि, कुणिः, माथुरः
वार्तिकभाष्यकार- हेलाराज- वार्तिकोन्मेष, राघवसूरि
व्याकरण के भाग
उणादि सूत्र, गणपाठ, धातुपाठ, शब्दानुशासन (खिलपाठ) परिभाषापाठ, फिट्सूत्र
व्याकरण के दर्शन ग्रन्थ
वाक्यपदीय   -     वृषभदेव ने स्वोपज्ञ टीका लिखी
पुष्यराज - द्वितीय काण्ड पर टीका
हेलाचार्य तीनों पर लिखा परन्तु तृतीय पर उपलब्ध
मण्डन मिश्र     -   स्फोटसिद्वि
भरत मिश्र            -          स्फोटसिद्वि त्रिवेन्द्रम से प्रकाशित
कौण्डभट्ट           -            वैयाकरण भूषण सार
नागेश भट्ट   -       वैयाकरण सिद्वान्त मंजूषा
आधुनिक गुरूशिष्य परम्परा
गंगाराम त्रिपाठी
तरानाथ तर्क वाचस्पति
रामयश  त्रिपाठी             1884
गोपाल शास्त्री (त्रिपाठी) दर्शन केसरी
युधिष्ठिर मीमांसक

संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थों को पुनः इस प्रकार से देखें-

अष्टाध्यायी पाणिनिः

वार्तिकम् वररुचिः (कात्यायनः)

महाभाष्यम् पतञ्जलिः

        1.    प्रदीपः कैयटः (महाभाष्यव्याख्यानम्)

        2.   उद्योतः नागेशः (महाभाष्यव्याख्यानम्)

सूत्रक्रमेण व्याख्यानम्

काशिका वामनः, जयादित्यः

        1.   न्यासः जिनेन्द्रबुद्धिः (काशिकाव्याख्यानम्)

        2.   पदमञ्जरी हरदत्तः (काशिकाव्याख्यानम्)

शब्दकौस्तुभः - भट्टोजिदीक्षितः

 

प्रक्रियाक्रमेण व्याख्यानम्

प्रक्रियाकौमुदी रामचन्द्राचार्यः

          1. प्रसादः विट्ठलाचार्यः (व्याख्यानम्)

सिद्धान्तकौमुदी भट्टोजिदीक्षितः

          1. बालमनोरमा वासुदेवदीक्षितः (सिद्धान्तकौमुदीव्याख्यानम्)

          2.  तत्त्वबोधिनी ज्ञानेन्द्रसरस्वती (सिद्धान्तकौमुदीव्याख्यानम्)

          3.  प्रौढमनोरमा भट्टोजिदीक्षितः सिद्धान्त (कौमुदीव्याख्यानम्)

4. लघुमञ्जूषा, परमलघुमञ्जूषा  - नागेशभट्टः

          ()   बृहच्छब्दरत्नम्, लघुशब्दरत्नम् हरिदीक्षितः (भट्टोजिदीक्षितस्य पौत्रः, नागेशभट्टस्य अयं ग्रन्थः इति केचित्)

          ()   रत्नप्रभा सभापत्युपाध्यायः

          ()   सरला नेनेपण्डितगोपालशास्त्री

         ()   प्रभा भाण्डारिमाधवशास्त्री

          () बृहच्छन्देन्दुशेखरः, लघुशब्देन्दुशेखरः नागेशभट्टः (व्याख्यानम्, स्वतन्त्रविचाराश्च । भट्टोजिदीक्षितानां पौत्रस्य शिष्यः)

                           i.   चन्द्रकला भैरवमिश्रः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

                           ii.   चिदस्थिमाला पायगुण्डेवैद्यनाथः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

                           iii.   दीपकः नित्यानन्दपन्तः (शेखरग्रन्थस्य व्याख्यानम्)

 

लघुसिद्धान्तकौमुदी - वरदराजभट्टाचार्यः

व्याकरणस्य दार्शनिकाः अन्ये ग्रन्थाः

वाक्यपदीयम् भर्तृहरिः

    1.   अम्बाकर्त्री रघुनाथ शर्मा

परिभाषेन्दुशेखरः नागेश भट्टः

    1.   गदा पायगुण्डे वैद्यनाथः

    2.   हैमवती यागेश्वर-ओझा

वैयाकरणभूषणकारिका – भट्टोजि दीक्षितः

  वैयाकरणसिद्धान्तभूषणम्/ वैयाकरणसिद्धान्तभूषणसारः कौण्डिभट्टः (भट्टोजिदीक्षितस्य भ्रातुष्पुत्रः)

        1.   काशिका हरिरामकेशव काले

        2.   दर्पणम् - हरिवल्लभशर्मा


             
                                                
                                               लेखक- जगदानन्द झा
                                                  9598011847
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