ज्ञान सबके लिए उपलब्ध होना चाहिए।
कंप्यूटर युग शिक्षा का नया द्वार लेकर आया है। एक समय था,
जब ज्ञान हस्तलेख के माध्यम से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक
पहुँचता था। इसे हम पाण्डुलिपि भी कहते हैं। तब ज्ञान के हस्तान्तरण की प्रक्रिया
अत्यन्त धीमी थी। पुनः प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हुआ। इसके माध्यम से पाश्चात्य
लोगों ने अपना बौद्धिक प्रभाव दुनिया में स्थापित करना आरम्भ किया। परिणाम यह हुआ
कि बौद्धिक रूप से सम्पन्न तमाम संस्कृतियां इसके आगे बौनी हो गयी। हर उपलब्धियों
का श्रेय इन्होंने खुद लिया। इनका तेज सूचना संचार ने लोगों की मानसिकता को
प्रभावित किया। जबतक हमने प्रिंटिंग प्रेस का सहारा लेकर अपनी बात जनता के सम्मुख
रखना शुरु किया, तबतक इनके पास सूचना और संचार प्रौद्योगिकी
आ चुकी थी। इसके आते ही फिर से हम अपनी बात लोगों के बीच पहुँचाने में कमतर हो
गये।
सूचना
और संचार प्रौद्योगिकी के लाभ
सूचना
और संचार वह ताकत है,जिसके बलबूते
प्रत्येक कार्य की गति को बढाया जा सकता है। रक्षा का क्षेत्र हो या शिक्षा का,
पर्यटन हो या निर्माण सभी जगह इसकी महती भूमिका है। आज संस्कृत
क्षेत्र में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को उपयोग में लाने की आवश्यकता है।
हजारों वर्षों की ज्ञान सम्पदा हमारे पुस्तकालयों, विद्वानों
के निजी भण्डार कक्षों के ताले में बंद पडी है। वह ज्ञान सभी के लिए उपलब्ध नहीं
हो पा रहा है। विद्वानों के निजी अनुभव और अर्जित ज्ञान का लाभ वर्तमान पीढी को
नहीं मिल पा रहा है। वे पुस्तकें लिखते तो हैं परन्तु लोगों तक पहुँचते-पहुँचते
बहुत देर हो चुकी होती है। कभी कभी तो एक पीढी का ज्ञान उसी पीढी को लोगों को भी
नहीं मिल पाता। उनके गुजर जाने के बाद उनके किसी बंशज या उत्साही विद्वान के सहयोग
से दूसरी पीढी के लोगों को मिल पाता है। उनके द्वारा लिखित तथा किसी दूसरे द्वारा
मुद्रित करायी गयी ज्ञान सम्पदा सभी तक उपलब्ध भी नहीं हो पाता। मैं लगभग 300 से
अधिक संस्कृत क्षेत्र में कार्य कर रहे बुद्धिजीवियों को जानता हूँ, जो अपनी ज्ञान सम्पदा पुस्तकाकार में प्रकाशित करते हैं। कई लोग अर्थाभाव
के कारण तो कई लोग जानकारी (सूचना) के अभाव में उसका लाभ नहीं ले पाते। मेरे जानने
वाले अनेकों विद्वान् ऐसे हैं जिनका शिक्षण कौशल उत्तम है। शास्त्रों पर उनका
एकाधिकार है, परन्तु सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का उपयोग
नहीं किये जाने के कारण सीमित छात्र ही उनसे लाभ ले पाते हैं। यदि यूट्यूब पर एक
चैनल बनाकर, फेसबुक लाइव के माध्यम से उनके अध्यापन का
विडियो प्रसारित कर दिया जाय तो अधिक लोगों तक लाभ पहुँचाया जा सकता है। यह एक
स्थायी कार्य भी होगा। कम्प्यूटर और संचार
तकनीक के माध्यम से इस ज्ञान को सबके लिए सुलभ बनाया जा सकता है। एक छात्र सूचना
के अभाव के कारण ही अच्छे विद्यालयों में प्रवेश लेने से बंचित रह जाता है। सरकारी
और गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित लोककल्याणकारी योजनाओं यथा छात्रवृत्ति,
विदेशों में अध्ययन के मौके से बंचित रह जाता है। लेखक - जगदानन्द
झा।
मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि शीर्षस्थ
संस्थाओं में अध्यापन करने वाले अध्यापकों को फॉन्ट, ईमेल, कीबोर्ड तथा PDF बनाने
की जानकारी नहीं है। अधिकांश अध्यापक ई-टेक्स्ट, ई-बुक्स,
ई-रिसर्च जर्नल, डिजिटल लाइब्रेरी, ऑनलाइन टीचिंग लर्निंग प्लेटफॉर्म यथा- जूम, माइक्रोसॉफ्ट
टीम, गूगल मीट, वेबेक्स का उपयोग नहीं
करते। जिसके फलस्वरूप वे छात्रों को कक्षा के इतर अध्ययन को प्रोत्साहित व शिक्षित
नहीं कर पाते।
अब
देश के ख्यातिलब्ध विद्वानों के सहयोग से निर्मित अनेक तरह के पाठ्यक्रम ऑनलाइन
लर्निंग एवं रिसर्च प्लेटफॉर्म स्वयं, मूक,
ई-पाठशाला आदि पर उपलब्ध है। डेलनेट इनफ्लाइबनेट, शोधगंगा, गूगल स्कालर आदि वेबसाइट अध्यापकों को नयी
शोध सामग्री से अवगत कराते हैं और शोधार्थी को शोध विषय चयन व लेखन में मार्गदर्शन
पा सकते हैं। अध्यापकों के पास उन्नत संस्कृत ज्ञान तो उपलब्ध है, परन्तु वे जूम, माइक्रोसॉफ्ट टीम, गूगल मीट जैसे संचार सुविधाओं में पारंगत नहीं होने के कारण अपना ज्ञान
विस्तृत जन समुदाय के पास नहीं रख पाते। सूचनाओं के आदान प्रदान में धीमी गति के
कारण संस्कृत विद्या तेजी से फैल नहीं पा रही है। योग्य होते हुए भी वे शिक्षा में इस प्रविधि का उपयोग अत्यल्प मात्रा
में कर पा रहे हैं। फलतः विशाल जिज्ञासु जनसमुदाय उस ज्ञान से वंचित रह जाता है।
कार्यशाला के लिए आवेदन भेजना हो या पुरस्कार पाने के लिए आज हर काम इन्टरनेट के
माध्यम से होने लगा है। इसके लिए कम्प्यूटर जानना जरुरी है। शिक्षक और छात्र कई
अवसरों पर परेशान होते हैं। आज वह समय आ गया है, जब हर
संस्कृत पढ़े लिखे लोगों को प्रविधि की आवश्यकता पड़ती ही है।
संचार प्रविधि की जानकारी होने पर शिक्षण कौशल
का विकास,
शिक्षण में बोधगम्यता, सहायता और रोचकता
उत्पादित की जा सकती है। आज का हर दूसरा युवा इन्टरनेट का उपयोग करता है। हर दूसरे
युवा के पास नेट युक्त स्मार्ट फोन है, जहाँ वे घंटों समय
व्यतीत करते हैं। उसके फोन तक रोचक तरीके से शिक्षण सामग्री पहुँचाने की चुनौती हमारे सामने है। इसके लिए
शिक्षकों को प्रविधि में दक्षता पाने की आवश्यकता है।
मैंने
संस्कृत के पुस्तक प्रेमियों तक सूचना पहुँचाने के लिए पुस्तक संदर्शिका नामक
ऐप तथा हिन्दी संस्कृत शब्दकोश का निर्माण किया है। पहले जहाँ लोगों को पुस्तकालय
में आने पर कैटलाग कार्ड के सहारे पुस्तकों की जानकारी मिलती थी,
वहीं अब पाठक कभी भी और कहीं भी अपने मोबाइल से जानकारी ले सकते
हैं। ऐप में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान पुस्तकालय में उपलब्ध पुस्तकों की सूची
दी गयी है। इच्छित पुस्तक को वे प्रकाशक से मंगा कर पढ़ सकते हैं। किसी एक विषय पर
लिखित पुस्तकों की एकत्र जानकारी पा सकते हैं। वांछित पुस्तक पर किस -किस टीकाकार
की पुस्तकें उपलब्ध है, इसकी जानकारी पाने के लिए अब किसी से
अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है । जब भी जिज्ञासा हो समाधान के लिए पुस्तक
संदर्शिका नामक ऐप आपकी मुठ्ठी में है।
प्रो.
मदनमोहन झा ने अपने पुत्र सृजन झा तथा श्रुति झा के तकनीकि सहयोग से संस्कृत शिक्षण,
कोश, व्याकरण, साहित्य
आदि विषयों पर 40 से अधिक ऐप का निर्माण किया है। आज शायद ही कोई संस्कृत पढ़ने
वाला व्यक्ति होगा, जिसके मोबाइल में इनके ऐप नहीं हों।
व्याकरण द्वारा शब्द सिद्धि प्रक्रिया, कोश आदि विषयों पर
अनेक टूल्स निर्मित हो चुके हैं। भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना
प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा आरंभ किए गए कार्यक्रम भारतीय भाषाओं के लिए
प्रौद्योगिकी विकास (TDIL) पर
अनेक टूल एवं ई- अध्ययन सामग्री उपलब्ध है। किसी अन्य लेख में संस्कृत भाषा
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे गैर सरकारी तथा सरकारी कार्यों पर विस्तार से
जानकारी दी जाएगी।
इन कुछेक उदाहरणों से आप समझ चुके होंगें कि
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी किस प्रकार हमारा सहयोगी बन सकता है। यह शैक्षिक
प्रशासन में उपयोगी होने के साथ ही शिक्षा का प्रसार में भी उपयोगी है। हाल ही में
सम्पन्न कानपुर की कार्यशाला में प्रतिभाग करने के लिए प्रतिभागियों से online
आवेदन मांगे गये थे। कार्यशाला विषयक समस्त सूचनायें वाट्सअप,
ईमेल तथा दूरभाष द्वारा दिये गये। कार्यशाला से जुडे लोग अपने-अपने
स्थान पर रहते हुए पंजीकृत आवेदनों की संख्या से अवगत हो रहा थे। आमंत्रण पत्र,
बैनर, प्रमाण पत्र का विषयवस्तु, रूप सज्जा आदि पर विचार विमर्श कर मुद्रणादेश भी इसी प्रौद्योगिकी की
सहायता से दिया गया। कुल मिलाकर यह कार्यशाला पेपरलेस थी। संस्कृत में सूचना और
संचार प्रौद्योगिकी के प्रयोग के लिए तीन आवश्यक अंग हैं तभी इसका लाभ प्राप्त हो
सकता है।
1.
हमें संस्कृत भाषा आती हो।
2.
कंप्यूटर संचालन में दक्षता प्राप्त हो।
3.
इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों/ संचार माध्यमों के द्वारा सूचना संप्रेषण करने की विधि
ज्ञात हो।
कुल
मिलाकर संस्कृत भाषा का ज्ञान, कंप्यूटर में
दक्षता तथा संप्रेषण तकनीक का ज्ञान होना आवश्यक है।
संस्कृत भाषा प्रौद्योगिकी
स्मरणीय
यह है कि जब भी हम संस्कृत की बात करते हैं तो इसके साथ-साथ उसकी लिपि भी जुड़ी
होती है। संस्कृत में निहित ज्ञान को देवनागरी लिपि के द्वारा व्यक्त करना सहज है।
इंटरनेट पर लेखन के लिए यूनिकोड टंकण का ज्ञान आवश्यक है। इसी लेख में आगे हम भाषा
प्रौद्योगिकी पर विस्तार से चर्चा करेंगें।
शिक्षा
के क्षेत्र में सूचना और संचार तकनीक का उपयोग किया जाने लगा है। पहले इस तकनीक का
उपयोग केबल कार्यालयीय कार्यों के लिए ही किया जाता था,
परंतु इसका प्रयोग शिक्षा देने के लिए भी किया जा रहा है। इसके
द्वारा छात्रों को सटीक जानकारी दी जा सकती है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी जिसे
आईसीटी भी कहा जाता है। आईसीटी में प्रौद्योगिकी के साथ-साथ दूरभाष के माध्यम से
संचार, प्रसारण मीडिया और सभी प्रकार के ऑडियो एवं वीडियो के
द्वारा सूचनाओं का संप्रेषण शामिल होता है। संस्कृत क्षेत्र में इस पर अभी विमर्श
के साथ कुछ प्रयोग चल रहा है। इस प्रौद्योगिकी का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में
कैसे किया जा सकता है, इसपर भी हम आगे चर्चा करेंगें। मैंने
हाल ही के कुछ वर्ष पहले संस्कृत माध्यम के विद्यालयों के लिए अनुशिक्षण टुटोरिअल
निर्माण की संकल्पना की थी। जगदानन्द झा द्वारा या लेख लिखा गया है। इससे जहां हम
दृश्य श्रव्य संसाधनों के माध्यम से पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन, उच्च अध्ययन, रोजगार तथा छात्र वृति आदि की जानकारी
पा सकते हैं, वही शारीरिक एवं मानसिक रुप से दिव्यांग
छात्र-छात्राओं को शैक्षिक वातावरण उपलब्ध करा सकते है। इसकी खासियत यह है कि यह
कक्षा केंद्रित शिक्षण के बजाए विद्यार्थी केंद्रित हो जाता है।
संस्कृत क्षेत्र में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी को लागू करने में समस्यायें
संस्कृत क्षेत्र में सूचना और संचार
प्रौद्योगिकी को लागू करने में अधोलिखित समस्यायें हैं-
1. 45 वर्ष से अधिक आयु के आधिकाधिक
संस्कृत शिक्षक कम्प्यूटर चलाना नहीं जानते। पाठ्योपकरण निर्माण तथा इसके अनन्तर
ई-शिक्षण में शिक्षकों की महती भूमिका होगी।
2. 35 से 45 वर्ष तक के अध्यापकों
में ई- साक्षरता तो है परन्तु विद्यालयों में संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। संस्कृत
पढने वाले छात्र गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि के होते हैं। इनके पास इतना धन नहीं
होता कि वे कम्प्यूटर खरीद कर उसपर इन्टरनेट डाटा के लिए प्रतिमाह खर्च कर सकें।
3. 35 से कम आयु के लोग अभी रोजगार
विहीन हैं। उनमें छात्रवृत्ति पा रहे छात्रों के पास संसाधन भी है और पर्याप्त
उत्साह भी। वे अपने दैनिक जीवन में इसका भरपूर उपयोग करते हैं। इन्हें अध्यापन की
जिम्मेदारी मिलने तक प्रतीक्षा भी नहीं की जा सकती। इसके लिए हमलोगों ने प्राविधिक
संस्कृत शैक्षिक उपकरण निर्माण कार्यशाला का पाठ्यक्रम तैयार किया तथा कानपुर के BSSD
कालेज में त्रिदिवसीय प्रशिक्षण शिविर का सफल संचालन किया गया। इस कार्यशाला
में अध्यापकों, संस्कृत प्रचारकों तथा भावी अध्यापकों को
पाठ्योपकरण निर्माण करने के साथ शिक्षा के लिए सोशल मीडिया का उपयोग कर दिखाया
गया। आज भी वाट्सअप पर एक ग्रुप संचालित है,जिसमें
प्रशिक्षणार्थी अपनी प्रगति से हमें अवगत कराते रहते हैं।
संस्कृत शिक्षा के प्रसार में सोशलमीडिया का योगदान पर चटका लगाकर लेख पढें।
परम्परागत संस्कृत विद्यालयों का पाठ्यक्रम 100 वर्ष से भी पुराने हैं, अतः यहाँ पर सूचना और संचार प्रविधि की सर्वाधिक आवश्यकता है। भाषा शिक्षण में यदि
ध्वनि एवं चित्र का प्रयोग किया जाय तो छात्रों में अभिगम का स्तर बढेगा। संसाधनी
तथा शब्दकोश की सहायता से स्वतः शिक्षण को बढावा दिया जा सकता है। छात्रों को सोशल
मीडिया के द्वारा निर्देशित किया जा सकता है। आपस में शैक्षिक परिचर्चा का मंच
उपलब्ध कराया जा सकता है। विविध विषयों के हल किये प्रश्न पत्र, प्रश्न पत्र के नमूने, नोट्स दिये जा सकते हैं। यह
लेख जगदानंद झा द्वारा लिखा गया है। अब अन्तर्जाल पर संस्कृत की पुस्तकें एवं
पत्रिकायें उपलब्ध हैं। छात्रों के ज्ञानवर्धन में ये सहयोगी हैं। छन्द सीखने के
लिए कुछ विद्वानों ने सीडी उपलब्ध कराया है। इस प्रकार संस्कृत शिक्षा के प्रसार
में सूचना और संचार प्रौद्योगिकी अत्यधिक उपयोगी है।
सबके
लिए शिक्षा अर्थात् आनलाइन शिक्षा
संस्कृत
के शिक्षण केंद्र बहुत दूर दूर रहने के कारण से आज के बच्चे संस्कृत शिक्षा से
वंचित रह जाते हैं। आज के कंप्यूटर युग ने शिक्षा के नये द्वार खोल दिए हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी की सामर्थ्य में वृद्धि, कम दाम पर कंप्यूटर मिलना, इंटरनेट ब्राड-बैण्ड
सुविधा उपलब्ध होना आदि के परिणामस्परूप आनलाइन गुरु-शिष्य संबंध का बीज बोया जा
सकता हैं। इसकी प्रक्रिया ये हैं:
दृश्य एवं श्रव्य पद्धति
आप एक शिक्षक के रूप में वेबसाइट या ब्लाग बनाकर दुनिया को अपना परिचय दे
सकते हैं। वेबसाइट के माध्यम से विद्यार्थियों तक शिक्षकों की जानकारी होती है।
इनसे संपर्क करते हैं और शिक्षण लेते हैं। जो सुदूर रहते हैं, उनके लिए इस प्रकार के बेवसाइट काफी उपयोगी हैं। आप अपने कक्षा के
पाठ्यक्रमों अथवा किसी एक संस्कृत पुस्तक का आडियो और वीडियो रिकार्डिंग कर उसकी
एडिटिंग कर लें। ई-मेल, सोशल मीडिया यथा वाट्सअप के चैटिंग व्यवस्थाओं के जरिए दृश्य एवं श्रव्य (आडियो विजुवल) पद्धति के
द्वारा अपने विद्यार्थियों कों शिक्षण दे सकते हैं। आज विदेशों में रहने वाले
विद्यार्थी भी अपनी अभिरुचि के अनुसार शिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। आनलाइन पाठ्यक्रमों
द्वारा स्वामी रामकृष्णतीर्थ अकादमी जैसे अनेक साइट भी अपने अस्तित्व को बनाए रखे
हैं। मैंने व्याकरण, दर्शन, साहित्य,
आदि अनेक विषयों का ऑडियो बुक तैयार किया है, जिसे
इसी ब्लॉग के Audio Book मीनू पर जाकर सुना तथा डाउनलो़ड
किया जा सकता है। यूट्यूब चैनल पर लघुसिद्धान्तकौमुदी सहित लगभग 25 पुस्तकों की ई-
अध्ययन सामग्री का निर्माण किया है।
डिजिटल रूप में
आपके
मन में प्रश्न उठ रहा होगा कि शंकानिवृत्ति कैसे होगी? आनलाइन चैट, वीडियो
कान्फ्रेन्सिंग इसके साधन हैं। आनलाइन शिक्षण का इतना विकास हो चुका है कि आनलाइन
पाठ्यक्रमों, कोचिंग संस्थानों का संचालन करके आप लाखों
कमा सकते हैं। इतना ही नहीं, दूरस्थ शिक्षा द्वारा
पढ़ने वाले देश और विदेश के छात्रों को इंटरनेट के जरिए डिजिटल रूप में पाठ उपलब्ध
कराया जा सकता हैं।
संस्कृत क्षेत्र की वर्तमान स्थिति
इसी
माध्यम से अनेक अध्यापक और शिक्षण संस्थाएँ दृश्य, श्रव्य रूपों में शिक्षण देकर गुरुशिष्य संबंध को सुदृढ बना रही हैं।
संस्कृत संवर्धन प्रतिष्ठानम्, संस्कृतभारती, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, केन्द्र सरकार का
भारतवाणी पोर्टल इस दिशा में अग्रेसर है। दूसरी ओर संस्कृत
शिक्षा तथा इसके प्रसार के लिए विभिन्न राज्य सरकारों
द्वारा गठित संस्थाओं, संगठनों का अबतक वेबसाइट तक नहीं बने
हैं। राज्यों के माध्यमिक संस्कृत शिक्षा बोर्ड के पाठ्यक्रम तथा पाठ्यपुस्तकों
सभी जगह उपलब्ध नहीं हैं। इन पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन कराकर PDF तथा साफ्टकापी के रूप में उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। मैंने कानपुर की
कार्यशाला में अध्यापकों से पूछा था कि इस दिशा में आप क्या सोच रखते हैं? क्या मैं आशा रख सकता हूँ कि आप व्यक्तिगत रूप से ही सही अपने- अपने
विश्वविद्यालयों के संस्कृत पाठ्यक्रमों को डिजिटल स्वरूप देकर सबके लिए उपलब्ध
करा देंगें।
शोध के क्षेत्रों में आनलाइन शिक्षण का
महत्व बढ़ गया हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि अनेक भारतीय संस्कृत के विद्वान्
विदेशी छात्रों को व्याकरण, दर्शन आदि पढाकर हज़ारों
डालर कमा रहे हैं। आप सोशल मीडिया के द्वारा अपनी आनलाइन शिक्षण संबंधी वेबसाइट, पाठों के बारे में खुद का प्रचार कर सकते हैं।
यदि
आप अपनी भाषा से प्यार करते हैं तो संस्कृत भाषा के लिए चमत्कार कर सकते है, विशेष रूप से इंटरनेट पर भारतीय भाषाओं में
लिखकर। आप अपना एक साक्षात्कार का विडियो बनाकर यूट्यूव पर प्रसारित कर सकते हैं ।
बेवसाइट
का निर्माण एवं सामग्री उपलब्ध कराने हेतु जरुरी जानकारी
बेवसाइट बनाते समय डोमेन नाम का बहुत महत्व होता है। डोमेन नाम ऐसा हो कि
संस्कृत ज्ञान को तलाश करने वाला व्यक्ति आसानी से आपके बेवसाइट तक पहुँच सके।
ज्ञातव्य है कि एक डोमेन नाम विशिष्ट एक इंटरनेट प्रोटोकॉल संसाधन (आईपी) को
दिखाता है।
जब वेब पेज 90 के
दशक में भाषा की सामग्री के साथ प्रदर्शित होना शुरू हुआ, भाषा डोमेन नामों के लिए मांग बढ़ी। दुनिया में 83 प्रतिशत आबादी गैर अंग्रेजी भाषी होने का अनुमान है। इस प्रकार
दुनिया
में बडी जनसंख्या अंग्रेजी भाषा से परिचित नहीं है। अंग्रेजी भाषा जाने बिना यह बहुत मुश्किल है कि
वह किसी बेवसाईट का पता लिखकर नेट पर उपलब्ध ज्ञान का उपयोग कर सके। यह सच है नेट पर संस्कृत भाषा की सामग्री है, लेकिन अंग्रेजी जाने बिना कैसे एक व्यक्ति उसे उपयोग
कर सकता है? वे डोमेन नाम (वेबसाइट पता) टाइप नहीं कर
सकते।
हाल ही में आईसीएएनएन शीर्ष स्तर पर आइडीएन परिचय की मंजूरी दी। यहाँ ई मेल पते में केवल अंग्रेजी अक्षर का प्रतिबंध हटा। इसलिए उपयोगकर्ताओं को अपनी भाषा में ई मेल
आईडी अब मिल सकती है। अब आप भारतीय भाषाओं में भी डोमेन (वेबसाइट पता) पा सकते हैं।
भाषा प्रौद्योगिकी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। देश भर में कुल तेरह संसाधन केन्द्र हैं इसमें भारतीय
विज्ञान संस्थान, बंगलुरु (कन्नड़, संस्कृत) तथा जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नई दिल्ली विदेशी भाषा (जापानी, चीनी) और संस्कृत (भाषा सीखना सिस्टम्स) पर काम कर रहा है।मशीनी अनुवाद
संस्कृत को नयी पहचान दिलाने में सक्षम है। संस्कृत वह भाषा है, जिसके द्वारा हम किसी भी भाषा में सटीक अनुवाद कर सकते हैं। टीडीआईएल की चल रही प्रमुख परियोजनाओं में संस्कृत भाषा के मशीनी अनुवाद
के लिए आई आई टी, हैदराबाद
में कार्य हो रहा है। गूगल ने संस्कृत से अन्य भाषा तथा अन्य भाषा से संस्कृत में
अनुवाद की सुविधा उपलब्ध करा दिया है।
जब हम भाषा प्रौद्योगिकी की बात करते हैं, तब कीबोर्ड पर चर्चा करना जरुरी हो जाता है, क्योंकि
इसके विना किसी भाषा को लिख नहीं सकते।
संस्कृत के लिए कीबोर्ड्स दो प्रकार के है। देवनागरी
कीबोर्ड और टाइपराइटर कीबोर्ड। इस के अलावा हमारे
पास रोमानाइज़्ड कीबोर्ड( लिप्यंतरण ) है । गूगल इनपुट
टूल तथा वाइस टाइपिंग द्वारा भी देवनागरी लिपि में लिखा
जाता है। कीबोर्ड तथा फॉन्ट पर मैंने इस ब्लॉग पर अलग से विस्तार से लेख लिखा है। मुझे कई कीबोर्ड का प्रयोग करने में कोई समस्या नहीं है जो यूनिकोड वर्ण
का निर्माण करते है। रोमानाइज़्ड कीबोर्ड क्वेयर्टी आधारित है। ऐसे कीबोर्ड गति
टाइपिंग धीमा करते है।
प्रिंट
मीडिया या प्रकाशन गृह कुछ लोकप्रिय सॉफ्टवेयर पर मुद्रण का कार्य करते है। उनमें से कई सॉफ्टवेयर (यथा कोरल, पेजमेकर, फोटोशाप) पर
भारतीय भाषा यूनिकोड समर्थन सक्षम नहीं है। माइक्रोसॉफ्ट
पब्लिशर प्रकाशन सॉफ्टवेयर अब यूनिकोड का पूर्ण समर्थन करते हैं। अस्तु।
शिक्षकों को शिक्षण सामग्री निर्माण का प्रशिक्षण
देने के लिए ऐसा प्रारूप तैयार किया जा सकता है।
क्रमशः-----------------
पावरप्वॉइण्ट निर्माण के लिए -
आवश्यकं
संसाधनम्-
लिखितशिक्षणविषयः-
(कथा,
पद्यम्, व्याकरणञ्च) 10 पंक्ति परिमितम्।
शिक्षणविषयानुकूलं चित्रम्।
आवश्यकी
पूर्वसिद्धता-
देवनागरी
फान्टज्ञानम्, कीबोर्ड
परिचालनज्ञानम्, यूनीकोड टंकणविधिः माइक्रोसाफ्ट
वर्ड अथवा नोट पैड ज्ञानम्।
लेखक - जगदानंद झा, लखनऊ।
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