योग की महायात्रा

       योग की यात्रा उपनिषदों से शुरु होकर बौद्ध, जैन, तन्त्रागम, संहिता होते हुए गीता में पूर्ण होती है। इससे सिद्ध है कि योग के अनेक पथ परन्तु एक लक्ष्य है। उसे ही आत्मा और परमात्मा का मिलन अथवा समाधि कहा गया है। पातञ्जलयोग दर्शन में पतंजलि ने अपने से पूर्ववर्ती औपनिषदिक तथा सांख्य के आचार्यों के सिद्धान्तों को लेकर योग विद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। इसे अष्टांगयोग अथवा राजयोग कहते हैं। प्रस्तुत आलेख में पूर्वोक्त विषयों के साथ योग की परिभाषा, चित्त का स्वरुप, चित्त की अवस्था तथा अष्टांग साधन की चर्चा की गयी है।
   
   
मैं अपने इस ब्लाग पर प्रतिवर्ष विश्व योग दिवस के अवसर पर भारतीय योग विद्या पर लेख लिखता आया हूँ।गत वर्ष 21 जून 2016 को योग दिवस के अवसर पर योगः एक प्रायोगिक विज्ञान नामक लेख लिखा था।
योग की समस्त पुस्तकें संस्कृत भाषा में लिखी है। यहाँ अनेक पारिभाषिक शब्द होते हैं,जिसका सही अर्थ जानने के लिए हमें अन्य सन्दर्भ ग्रन्थों की सहायता लेनी पड़ती है। विना संस्कृत पढ़े गूढ़ विषय की सही जानकारी नहीं हो पाती। मेरा बचपन और अब युवावस्था इन्हीं संस्कृत ग्रन्थों के अध्ययन करते बीता। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मुझसे जितना सम्भव हो रहा है इस वर्ष भी इस विषय पर प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध करा रहा हूँ।
भारतीय दर्शन परम्परा में योग परम्परा को तीन खण्डों में विभाजित किया जाता है। 
1. वैदिक काल (वेद तथा उपनिषद् साहित्य )
2. उत्तर वैदिक काल ( जैन, बौद्ध साहित्य, योग वाशिष्ठ, संहिता, तन्त्र, आगम ग्रन्थ आदि )
3. दर्शन काल ( पातंजल योग, गीता तथा विभिन्न शास्त्रों के दर्शन ग्रन्थ )
 उपर्युक्त योग की अविच्छिन्न परम्परा में लक्ष्य/साध्य एक ही है,परन्तु साधन भिन्न- भिन्न है। संस्कृत के ग्रन्थों में योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। इसका मूल कारण यह है कि इस योग शब्द की उत्पत्ति तीन अलग-अलग धातुओं से हुई है। ये मूल धातुएँ हैं-
1. युज् समाधौ- दिवादि गण   समाधि अर्थ में पतंजलि तथा सांख्य में प्रोक्त
2. युजिर् योगे-रुधादि गण      योग अर्थ में न्याय, वैशेषिक तथा वेदान्त दर्शन में प्रयुक्त
3. युज् संयमने- चुरादि गण    संयमन अर्थ में  
युजिर् में भी युज् शेष बचता है। युज् धातु से घञ् प्रत्यय करने पर योग शब्द बनता है।  भारत के प्राचीन शास्त्र ग्रन्थों में योग की परिभाषा अलग-अलग की गयी है।
 उपनिषदों में युजिर् योगे धातु से सम्पन्न योग है। संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः। यह जीवात्मा और परमात्मा के संयोग को लक्षित करता है,जबकि पतंजलि तथा सांख्य प्रोक्त योग युज् समाधौ धातु से सम्पन्न होने के कारण समाधि को लक्षित करता है। योग साध्य है,जिसका साधन अष्टाङ्ग है।  प्रस्तुत आलेख में गीता में कहे समत्वं योग उच्यते को आधार माना हूँ। छान्दोग्य, बृहदारण्यक,श्वेताश्वतर उपनिषद् में योग के बारे में सूत्रात्मक जानकारी मिलती है। योग दर्शन पर कुछ स्वतंत्र उपनिषदें भी प्राप्त होती है। महर्षि पतंजलि (ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी) योग के प्रथम प्रतिष्ठित आचार्य माने जाते हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम योग विद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। व्याकरण (अष्टाध्यायी पर महाभाष्य) तथा आयुर्वेद के अतिरिक्त इन्होंने योग दर्शन नामक पुस्तक की रचना की। श्रावण कृष्ण पंचमी(नागपंचमी) को वारणसी में स्थित नागकूँआ मुहल्ले में आज भी संस्कृत विद्वानों का शास्त्रार्थ होता है। माना जाता है कि इसी स्थान पर इसी तिथि को महर्षि पतंजलि का अवतार हुआ था। पतञ्जलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।
              योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
              योsपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोsस्मि।

       इस पुस्तक को पातंजलयोगदर्शनम् कहा जाता है। भारतीय दर्शन में योग एक दर्शन है। तन्त्र के ग्रन्थों, उमास्वाती के तत्वार्थसूत्र में योग का वर्णन प्राप्त होते हैं। इसका चरम लक्ष्य समाधि है। पतंजलि कृत योग दर्शन पर सांख्य दर्शन का गहरा प्रभाव है। योग दर्शन के टीकाकार नारायणतीर्थ ने योगसिद्धान्त चन्द्रिका में षट्कर्म, षट्चक्र, कुण्डलिनी, शक्ति आदि नवीन विषयों की उद्भावना की। इन्होंने साधनभूत योग के क्रियायोग, चर्यायोग, कर्मयोग, हठयोग, मन्त्रयोग, ज्ञानयोग,अद्वैतयोग,लक्ष्ययोग, ब्रह्मयोग, शिवयोग, सिद्धियोग, वासनायोग, लययोग,ध्यानयोग, तथा प्रेमभक्तियोग के नाम से सूत्रों की चर्चा करते हुए राजयोग के असम्प्रज्ञात समाधि का पर्याय बताया। समाधि के दो भेदों असम्प्रज्ञात तथा सम्प्रज्ञात में अन्तर यह है कि सम्प्रज्ञात साधि चित्त की एकाग्र अवस्था में होती है,जिसमें राजसिक और तामसिक वृत्तियों का निरोध होता है। चित्त में सत्वज्ञान प्रधान वृत्तियाँ रहती है।  पतंजलि कृत राजयोग को अष्टांग योग कहा जाता है। योग की परिभाषा करते हुए पतंजलि ने कहा कि योगः चित्तवृत्तिनिरोधः। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अतः योग को समझने के पहले चित्त और उसकी वृत्ति को समझना आवश्यक है।
योग दर्शन में चित्त से मन, बुद्धि और अहंकार को लिया गया है। मन ही कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय को कार्यों में लगाये रखता है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में मन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। एक मंत्र में कहा गया है कि-
                मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
                बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥
अर्थात् : मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। इन्द्रियविषयासक्त मन बंधन का कारण है और विषयोँ से विरक्त मन मुक्ति का कारण है ।" गीता में भी अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं-
               योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
               एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।6- 33
               चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
               तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || 34
अतः मन को सामान्यावस्था पर लाये विना किसी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। सुखदुःखे समे कृत्वा--। समत्वं योग उच्यते। अस्तु। 
चित्त की शुद्धि के लिए आहार और विहार (रहन सहन) का सही होना आवश्यक है, अन्यथा योग नहीं होकर केवल शारीरिक व्यायाम मात्र होकर रह जाएगा। योग के आठ अंगों को अपनाकर ही योग के चरम लक्ष्य को पाया जा सकता है। गीता में नियमित या सही-सही, नपा-तुला भोजन का निर्देश प्राप्त होता है-
              युक्ताहारविहारस्य युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
              युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ।।6-17।।
  सत्व रज और तम इन तीनों गुणों की उद्रेक के अनुसार चित्त की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं होती है।
1. प्रख्याशील 2. प्रकृतिशील 3. स्थितिशील। 
प्रथम अवस्था का चित्त सत्व प्रधान होता हुआ रज और तम से संयुक्त होकर अणिमा,महिमा आदि ऐश्वर्य का प्रेमी होता है। प्रकृतिशील अवस्था में तमोगुण से युक्त चित्र अधर्म, अज्ञान,अवैराग्य तथा अनैश्वर्य से संयुक्त होता है। स्थितिशील अवस्था में तम के क्षीण होने पर रजस् के अंश से युक्त होने पर चित्त सर्वत्र प्रकाशमान होता है तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से व्याप्त होता है।
         योग दर्शन में चित्त की पांच भूमियां अथवा अवस्थाएं स्वीकार की गई है। ये भूमियां है- क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध। इन 5 अवस्थाओं का स्वरूप निर्धारण निम्नवत् है-
1. क्षिप्त-  चंचल स्वभाव को ही यहाँ क्षिप्त कहा गया है। क्षिप्त अवस्था में चित्र चंचल होकर संसार के सुख दुख आदि के लिए परेशान रहता है। इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता रहती है।
2. मूढ-  चित्त की मुढ अवस्था में तमोगुण बढ़ जाता है। तमोगुण के बढ़ जाने से चित्त विवेक शून्य हो जाता है, अतः मूढ़ अवस्था में विवेक न होने के कारण पुरुष क्रोध इत्यादि के द्वारा गलत कार्यों में प्रवृत्त होता है।
3. विक्षिप्त- विक्षिप्त अवस्था में रजोगुण की अपेक्षा सतोगुण का उद्रेक रहता है। सतोगुण की अधिकता के कारण विक्षिप्त अवस्था का चित्त कभी-कभी स्थिर हो जाता है। इस अवस्था में दुख साधनों की ओर प्रवृत्ति न होकर सुख के साधनों की और प्रवृति रहती है। ये तीनों अवस्थाएं समाधि के लिए अनुपयोगी है।
स्तोत्र साहित्य भी योग दर्शन के प्रभाव से अछुता नहीं रह सका। शिवमानस पूजा में योग के तत्वों का उपयोग भक्ति की पराकाष्ठा दिखाने के लिए की गयी है। भक्त अपनी निद्रा को समाधि की स्थिति कहता है।
           आत्मा त्वं गिरिजा मतिः परिजनाः प्राणाः शरीरं गृहं
           पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रासमाधिस्थितिः ।
           संचारस्तु पदोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
           यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शंभो तवाराधनम् ॥ 
4. एकाग्र- एकाग्र अवस्था वह अवस्था है, जिसमें चित्त की बाह्य वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
5. निरुद्ध-  अनिरुद्ध अवस्था में चित्त के समस्त संस्कारों तथा समस्त वृत्तियों का विलय हो जाता है। इन 5 भूमियों में से अंतिम दो भूमियां समाधि के लिए अपेक्षित है।
          पातंजल योगसूत्र के साधनपाद में योग के आठ साधनों की चर्चा की गई है। इससे अविद्या रूपी अशुद्धि का क्षय होता है। भोजवृत्तिकार ने इन आठों अंगों को समाधि के लिए प्रत्यक्ष रुप से सहायक होने से अंतरंग साधन कहा है। इनमें से कुछ  बाधक रूप से विद्यमान हिंसा आदि वितर्कों को निर्मूल करने के द्वारा समाधि को सिद्ध करते हैं। आसन प्रत्याहार आदि के लिए भी यम नियम का पालन करना उपकारक है। यह साधन है- 
        यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोष्टाङ्गानि। 29।
1. यम 2.नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान तथा 8. समाधि। यह आठ साधन योग के अंग भी कहलाते हैं। संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1. यम- यम का अर्थ संयम है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करना)ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना) यम कहे जाते हैं। गीता में इसे दैवी सम्पत् कहा गया है।
     अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।
    तेज: क्षमा धाति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
2. नियम- नियम के भी पांच भेद होते हैं। शौच,(पवित्र), संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान(ईश्वर के लिए स्वयं का समर्पण)।
3. आसन-  योग दर्शन में स्थिर और सुख प्रदान करने वाले बैठने के प्रकार को आसन करते हैं। उपासना में आसन सिद्धि की अत्यंत उपादेयता है। आसन सिद्धि चित्त की एकाग्रता में अत्यंत सहायक होती है। मैंने 9 जून 2015 के योग से मेरा परिचय लेख में हठयोग प्रदीपिका आदि ग्रन्थों में वर्णित आसनों के विस्तृत विवरण दे चुका हूँ।
4. प्राणायाम- श्वास को अन्दर खींचने और बाहर छोड़ने का नाम प्राणायाम है। इसमें श्वास- प्रश्वास की गति को विच्छेदित भी किया जाता है। पतंजलि ने योग सूत्र के अंतर्गत वाह्य, आभ्यंतर, स्तंभवृत्ति तथा प्राणायाम या केवल कुंभक प्राणायाम यह चार भेद बताए गए हैं।
5. प्रत्याहार- जब वाह्य विषयों से इंद्रियों का निरोध (रुकावट) हो जाता है तो उसे प्रत्याहार कहते हैं। मन को वश में कर इन्द्रयों को बाह्यविषयों से रोकने का अभ्यास। इस स्थिति में इंद्रियों की वृत्ति अंतर्मुखी हो जाती है।
6. धारणा-  किसी स्थान विशेष में चित्त को लगा देना धारणा कहलाता है। स्थान विशेष से तात्पर्य नाभिचक्र, हृदयकमल, मूर्धा स्थित ज्योति, नाक के आगे का भाग तथा जिहवा के आगे भाग आदि से है।
7. ध्यान- नाभि आदि उपर्युक्त स्थान विशेष में ध्यान करने योग्य वस्तु का ज्ञान जब एकाकार होकर प्रवाहित होता है तो उसे ध्यान करते हैं। ध्यान में ध्यान ध्याता और ध्येय का भेद बना रहता है।
8. समाधि- जब ध्यान वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है और अपने स्वरूप से शून्यता को प्राप्त हो जाता है तो उसे समाधि कहते हैं। समाधि में ध्यान और ध्याता का भेद मिट जाता है।
विभिन्न ग्रन्थों में प्रतिपाादित योग का स्वरूप
1. योगः कर्मसु कौशलम्- कर्म में कुशलता ही योग है। (गीता)
2. तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। दुःख के संयोग से रहित को योग समझो।  (गीता)
3. संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः। जीवात्मा और परमात्मा का संयोग योग कहा गया है।(अहिर्बुध्न्य संहिता)
3. समत्वं योग उच्यते। (गीता)
4. तत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। (गीता)
5. पश्य मे योगमैश्वरम्। (गीता)
                                                                                 लेखक- जगदानन्द झा
                                                                                 ब्लागर- संस्कृतभाषी
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संस्कृत काव्यशास्त्रकारों की सूची एवं परिचय

    काव्यशास्त्र एक प्राचीन शास्त्र है। जिसे काव्यालंकार, अलंकारशास्त्र, साहित्यशास्त्र और क्रियाकल्प के नाम से अभिहित किया जाता है। वैदिक ऋचाओं में काव्यशास्त्र के उत्स दिखाई पड़ते हैं।  काव्यशास्त्र का क्रमबद्ध सुसंगठित और सर्वांगपूर्ण समारंभ भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से होता है। भरतमुनि ने समस्त काव्य घटकों को अपने शास्त्र में स्थान दिया और उसकी विवेचना में नाट्य दृष्टि प्रधान हो गई। यही कारण था कि नाट्यशास्त्रीय परंपरा से अलग काव्यशास्त्रीय चिंतन का सूत्रपात हुआ।। उसके अनंतर भामह, दंडी, वामन, आनंदवर्धन, कुंतक जैसे मनीषी आचार्यों की श्रृंखला अपने विचारों से क्रमशः काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को परिपुष्ट करते रहे। व्यक्तिगत काव्य चिंतन और मौलिक काव्यदृष्टियों के कारण परवर्ती काल में अनेक काव्यशास्त्रीय संप्रदायों का उद्भव हुआ।। भरत से भामह तक जो काव्यशास्त्र अपनी शैशवावस्था में था, भामह से आनंदवर्धन तक आते-आते तरुणाई को प्राप्त हुआ।। 600 विक्रम संवत् (भामह) से 800 विक्रम संवत् आनंदवर्धन का काल साहित्यशास्त्रीय संपन्नता का काल माना जाता है। इन 200 वर्षों में ही विभिन्न संप्रदायों के मौलिक ग्रंथों का निर्माण हुआ। अलंकार, रीति, रस, ध्वनि इन चार संप्रदायों का उद्भव इन्हीं 200 वर्षों में हुआ। विवेचन की सुविधा को दृष्टि में रखते हुए तथा ध्वनि सिद्धांत को केंद्र में रखकर काव्यशास्त्रीय परंपरा को तीन भागों में बांटा जा सकता है।
1. पूर्व ध्वनि काल - अज्ञात से आनंदवर्धन तक 800 विक्रम संवत् ध्वनि काल  
2. आनंदवर्धन से मम्मट तक - 800 से 1050 विक्रम संवत् तक उत्तर ध्वनि काल 
3. मम्मट से जगन्नाथ तक - 1050 से 1750 विक्रम तक पूर्व ध्वनि काल।
अग्नि पुराण को सम्मिलित करते हुए यह काल भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से आरंभ होता है और इस काल के अंतिम आचार्य रुद्रट थे तथापि पूर्व ध्वनि काल के साहित्यकार में अलंकार संप्रदाय का प्रभुत्व था । इस काल के गणमान्य आचार्यों में भामह, दंडी, उद्भट, वामन, रुद्रट की दृष्टि काव्य के बहिरंग विवेचन में लगी रही। इसीलिए रस अथवा ध्वनि को यह आचार्य विवेचित नहीं कर सके। भामह, दंडी उद्भट, रुद्रट ने काव्य में अलंकार की प्रधानता को स्वीकार किया तथा रस को भी अगर शब्दालंकार के रूप में समाहित किया। दंडी ने तो काव्य की शोभाधायक समस्त धर्म अलंकार शब्द से वाच्य है कहकर अपना अंतिम निष्कर्ष दे दिया। आचार्य वामन ने सीमित क्षेत्रों में रहते हुए भी अपनी मौलिकता का परिचय दिया और अलंकार को स्वीकार किया। उन्होंने काव्य में अलंकार को ग्रहण किया लेकिन स्पष्टतः सौन्दर्य काव्य का अलंकार सौन्दर्य को माना। सौन्दर्य का सृजन गुण करते हैं। उपमादि अलंकार उसकी शोभा में वृद्धि करते हैं। काव्यात्मा की चर्चा के प्रसंग में उन्होंने इसी सत्य का उद्घाटन किया। वामन के अनुसार काव्य की आत्मा रीति है। रीति विशिष्ट पद संघटना है। अतः वामन ने भामह, दंडी, रुद्रट की अपेक्षा अलंकार को एक व्यापक भूमि प्रदान की। भामह और वामन के ने दो संप्रदायों के प्रवर्तक दृष्टि को जन्म दिया। भामह की प्रतिष्ठा अलंकार संप्रदाय के प्रवर्तक के रूप में हुई और वामन रीति संप्रदाय के जन्मदाता माने जाते हैं। अलंकार संप्रदाय की अपेक्षा रीति संप्रदाय को अधिक अंतर्मुखी माना जाता है। वामन उस अंतरतम को नहीं प्राप्त कर सके, जिसे आनंदवर्धन ने प्राप्त किया, क्योंकि वामन ने गुण को ही प्रधानता देकर विराम ले लिया। वस्तुतः वामन ने गुणों को आश्रय की दृष्टि से विचार नहीं किया, इसीलिए वह अपनी ध्वन्यात्मक अनुभूति को अभिव्यक्ति नहीं दे सके। रस को साहित्य की आत्मा घोषित करने वाले आनंदवर्धन के लिए वामन ने ही इस प्रकार की पृष्ठभूमि का निर्माण किया।

    इस लेख में यहाँ कतिपय काव्यशास्त्रकारों की जीवनी एवं उनकी रचनायें उपलब्ध करायी गयी है। शेष काव्यशास्त्रकारों के नाम पर क्लिक करने पर एक नयी कड़ी खुलेगी। आप वहाँ जाकर उनके बारे में विस्तृत जानकारी पा सकेंगें।
1. आचार्य भरत  2. मेधाविन्  3. धर्मकीर्ति  4. भट्टि  5. भामह  6. दण्डि 7. वामन  8. रुद्रट   9. रुद्रभट्ट  10. आनन्दवर्धन 11. उद्भट 12.महिमभट्ट 13. मुकुलभट्ट  14. भट्टतौत 15. क्षेमेन्द्र  16. कुन्तक  17. भट्ट नायक 18. शारदातनय 19. शिंगभूपाल 20. विद्याधर  21. विद्यानाथ  22.राजशेखर 23. राजानक रुय्यक  24. मम्मट  25. अप्पय दीक्षित 26. कर्णपूर   27. धनञ्जय    28. जयदेव  29. देवेश्वर  30. हेमचन्द्र   31. अमरचन्द्र  32. केशव मिश्र  33. सागर नन्दी  34. वाग्भट्ट प्रथम  35. वाग्भट्ट द्वितीय   36. भानुदत्त मिश्र   37. रूपगोस्वामी  38.रामचन्द्र गुणचन्द्र  39. विश्वनाथ 40. अभिनवगुप्त  41. भोजराज   42. आशाधर भट्ट  43. नागेश भट्ट   44. जगन्नाथ  45. विश्वेश्वर पाण्डेय

आचार्य भरत

संस्कृत काव्यशास्त्र के प्राचीन आचार्य में आचार्य भरत का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। यद्यपि संस्कृत साहित्य में अनेक भरत नाम के व्यक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता हैतथापि यहाँ नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि का परिचय दिया जा रहा है। अन्य भरत नाम वाले आचार्य का काव्यशास्त्र से कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। अतः काव्यशास्त्र से सम्बन्ध केवल नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि का ही है। कुछ विद्वान् भरतमुनि का नाम काल्पनिक मानते हैं परन्तु यह मत मान्य नहीं है। भरतमुनि एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। सभी आलङ्कारिक विद्वान् भरतमुनि को नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक रूप में स्मरण करते हैं। मत्स्य पुराण के २४वें अध्याय में भरतमुनि का नाम अनेक बार ग्रहण किया गया है। महाकवि कालिदास ने भी भरतमुनि का नाम अपने विक्रमोर्वशीय नामक नाटक में उद्धृत किया है। संस्कृत के सभी नाटकों की समाप्ति भरतवाक्य से होती है। आनन्दवर्द्धन एवं अभिनवगुप्त आदि विद्वानों ने भरतमुनि को नाट्यशास्त्र का प्रवर्त्तक आचार्य माना है। अतः भारतमुनि को काल्पनिक व्यक्ति मानना कभी उचित नहीं हो सकता है। इनके द्वारा लिखित एक मात्र काव्यशास्त्रीय ग्रंथ नाट्यशास्त्र प्राचीनतम उपलब्ध कृतियों में से एक है। यह कृति नाट्यशास्त्र विषय के साथ ही समस्त ललित कलाओं का विश्वकोश है। यह ग्रन्थ 36 अध्यायों में विभक्त है। इसमें कुल 5000 श्लोक है। काव्य के लक्षण ग्रंथों में पहला स्थान नाट्यशास्त्र को प्राप्त होता है। काव्यमीमांसा में राजशेखर ने भरत मुनि के साथ-साथ सहस्राक्ष सुवर्णनाभ, प्रचेतायन, पुलस्त्य, पराशर इत्यादि अनेक साहित्य के आचार्यों का नामोल्लेख किया है। भरत ने भी नाट्यशास्त्र में नंदीकेश्वर का उल्लेख किया है। किंतु इनमें से किसी भी आचार्य की कृति आज उपलब्ध नहीं है। अतः भरत विरचित नाट्यशास्त्र ही काव्यशास्त्र का सर्व प्राचीन तथा प्रमुख ग्रंथ है। आचार्य भरत को भारतीय आलोचकों के साथ-साथ पाश्चात्य आलोचकों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की। नाट्यशास्त्र का लक्ष्य नाटक की रचना तथा अभिनय है, फिर भी इसमें काव्यशास्त्र के समस्त अंगों का सर्वांगीण एवं सूक्ष्म विवेचन किया गया है। आचार्य भरत ने सर्वप्रथम यह प्रतिपादित किया कि काव्य का प्रमुख तत्व रस है और यह विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (संचारी) भावों से निष्पन्न होता है। बाद के आचार्यों ने नाट्यशास्त्र को आधार बनाकर काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की रचना की।
 आचार्य भरत और उनका काल
नाट्यशास्त्र पर अब तक हुए पर्याप्त अनुसंधान के बाद भी इस ग्रंथ के रचना का समय ज्ञात नहीं हो सकता है, परंतु इतना ज्ञात है कि इसकी रचना भास और कालिदास के पहले हो चुकी थी, क्योंकि इन काव्यकारों की रचना में इस ग्रंथ की जानकारी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार अश्वघोष नामक बौद्ध कवि प्रथम शताब्दी में आविर्भूत हुए। उन्होंने 'सारिपुत्रप्रकरणनाम का नाट्यग्रन्थ भी लिखा हैजो खण्डित दशा में उपलब्ध हुआ है। उस पर भरतमुनि का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अतः भरत मुनि का समय अश्वघोष से पूर्व मानना चाहिये। इससे स्पष्ट है कि भरतमुनि का समय ई० पूर्व पंचम शताब्दी के लगभग मानना उचित प्रतीत होता है।  युधिष्ठिर मीमांसक ने भरत मुनि का समय 500 ईसवी पूर्व से 1000 ईसवी तक के बीच में माना है। हर प्रसाद शास्त्री ने भी भरतमुनि को 2000 ईसवी पूर्व स्वीकार किया है। डॉ. कीथ का मानना है कि वह 300 ईसवी के लगभग रहे होंगे। मैकडोनल 600 ईसवी मानते हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार आचार्य भरत का समय वैदिक काल के बाद तथा पुराण काल के पहले माना जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि नाट्यशास्त्र की रचना कालिदास से पहले हो चुकी थी। कालिदास का समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी है। इसलिए भरत को ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी या इसके पूर्व का माना जाना चाहिए।

नाट्यशास्त्र का विषयवस्तु

नाट्यशास्त्र का परिचय एवं महत्व प्रदर्शित करते हुए स्वयं भरतमुनि ने लिखा है कि

'न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला ।

नाऽसौ योगो न तत्कर्म नाट्येऽस्मिन्यन्न दृश्यते' ।।

अतः यह नाट्यशास्त्र समस्त ललितकला का भण्डार है। वर्तमान समय में प्राप्त नाट्यशास्त्र में ६००० श्लोक है। इसलिये इसको 'षट्साहस्रीके नाम से अभिहित करते हैं। परन्तु इससे पूर्व इसमें १२००२ श्लोक रहे होंगे। क्योंकि इसका दूसरा नाम "द्वादशसाहस्री" भी था। शारदातत्य ने "भावप्रकाशन नामक पुस्तक में द्वादशसाहस्री नाट्यशास्त्र के रचयिता वृद्धभरत को और षट्साहस्री नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत को माना है। वर्तमान काल में प्राप्त नाट्यशास्त्र में ६००० श्लोक और ३६ अध्याय है। निर्णयसागर से प्रकाशित नाट्यशास्त्र के प्रथम संस्करण में ३७ अध्यायों का उल्लेख है। परन्तु अभिनवगुप्त ने ३६ अध्यायों को ही स्वीकार करके टीका की है। इस प्रकार भरतमुनि का नाम नाट्यशास्त्र के प्रवर्तक रूप में बड़े आदर के साथ स्मरण किया जाता है तथा यह भरतमुनि का "नाट्यशास्त्र" ही संस्कृत नाटकों का आधार है। इसी के आधार से नाट्यकला विकसित हुई। अतः भरतमुनि को नाट्यशास्त्र का प्रवर्तक मानना सर्वथा उचित ही है। नाट्यशास्त्र का प्रधान विषय  दृश्यकाव्य है, फिर भी इसमें दृश्य तथा श्रव्य दोनों भेदों का वर्णन किया गया है। इसमें नाट्य की उत्पत्ति, नाटक के लक्षण, स्वरूप, नाट्य मंडप, उनके भेद, प्रेक्षागृहों की रचना, प्रेक्षा भवन, यवनिका, रंग देवता की पूजा, तांडव नृत्य की उत्पत्ति तथा इसके उपकरण, आठों रसों का विवेचन, पूर्वरंग, नांदी, प्रस्तावना, रस का स्थायी भाव, अनुभाव, विभाव तथा व्यभिचारी भाव, आंगिक, वाचिक, सात्विक तथा आहार्य, हस्त अभिनय, शरीराभिनय, अभिनय की गति, धनुर्विज्ञान का प्रदर्शन, व्यायाम, स्त्रियों द्वारा पुरुष तथा पुरुष द्वारा स्त्रियों का अभिनय, पांचाली, आवंती, दाक्षिणात्या और मागधी इन चार प्रवृतियों का विवेचन, छंदों के भेद, अलंकारों के स्वरूप तथा इसके भेद, भाषा का विधान, किस पात्र को संस्कृत में बोलना है और किस पात्र को प्राकृत में, सात स्वर, रूपक तथा उसके  10 भेद, नाटक की कथा वस्तु की रचना, प्रेमियों के प्रकार, स्त्रियों के वश में करने के पांच उपायों, चित्राभिनय, आरोही, अवरोही, स्थायी एवं संचारी भाव का वर्णन, वीणा की विधि, बांसुरी के स्वरों का विवरण, ताल और लय का भेद, गायक तथा वादक की योग्यता, संगीत के आचार्य तथा शिष्य की योग्यता, वाद्यों का विवेचन, मृदंग, प्रणव, दर्दुर तथा अवनद्ध वाद्य, (चमड़ा मढ़े हुए वाद्य) का वर्णन, अंतःपुर की सेविकाओं और राज सेविकाओं के गुण, सूत्रधार, पारिपार्श्विक, नट, पिट, चेट, नायिका आदि के गुण, विधि पात्रों की भूमिका,ऋषियों के नाम, उनके द्वारा किए गए प्रश्न, नट बंशों की उत्पत्ति का इतिहास और नाट्यशास्त्र का माहात्म्य का वर्णन किया गया है।
नाट्यशास्त्र की टीका

काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नाट्यशास्त्र लोकप्रिय रचनाओं में से एक है। अतः इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई, परंतु अभी केवल अभिनवगुप्त कृत अभिनव भारती एक टीका उपलब्ध होती है। इसका दूसरा नाम नाट्यवेदविवृत्ति भी है। अभिनवगुप्त की टीका में अनेक प्राचीन टीकाकारों के नाम और उनके मतों का उल्लेख प्राप्त होता है, परंतु वर्तमान में इनमें से कोई भी टीका उपलब्ध नहीं है। यहां पर उद्भट, भट्ट लोल्लट, शंकुक, भट्ट नायक, राहुल, भट्टमंत्र, कीर्तिधर, हर्षवार्तिक और मातृगुप्त के टीकाओं का वर्णन मिलता है। इनमें से कुछ वास्तविक नाम है तो कुछ काल्पनिक।

मेधाविन्- 

भरतमुनि और भामह के मध्य में अनेक काव्यशास्त्र के आचार्य हुये होंगे किन्तु काल गति के कारण उनके नाम एवं रचनाओं का कुछ पता नहीं चल रहा है। परन्तु मेधावी नामक आचार्य के द्वारा प्रतिपादित उपमा दोषों का वर्णन भामह, नेमिसाधु तथा वामनाचार्य ने अपने ग्रन्थों में किया है। सिद्धान्त उपमा दोषों का विवेचन इनका सिद्धान्त है। उन्होंने (१) हीनता, (२) असम्भव, (३) लिंग-भेद, (४) वचन-भेद, (५) विपर्यय, (६) उपमानाधिक्य, (७) उपमान सादृश्य, इन सात प्रकार के उपमा दोषों का विवेचन विशेष रूप से किया है। 


भामह
       आचार्य भरतमुनि के बाद भामह को काव्यशास्त्र के क्षेत्र में द्वितीय स्थान प्राप्त है। इन्होंने काव्यालंकार नामक अलंकारशास्त्रीय ग्रन्थ की रचना की। भरत यदि नाट्यशास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते हैं तो भामह भारतीय अलङ्कारशास्त्र के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। काव्यशास्त्र की उन्नत परम्परा का आरम्भ भामह से हुआ। परवर्ती काव्यशास्त्र के सभी आचार्यों ने काव्यालंकार को प्रमाण के रूप में उपस्थापित किया। इनके पूर्ववर्ती आचार्यों में मेधाविन् के नाम का निर्देश प्राप्त होता है, परन्तु अभी तक इनकी कोई भी कृति सम्मुख नहीं आ सकी है। भामह, नेमिसाधु तथा राजशेखर ने मेधाविष्ट का उल्लेख किया है। नवम शताब्दी ई. में कश्मीर के राजा जयादित्य की राजसभा के सभापति आचार्य उद्भट ने भामह के ग्रन्थ पर भामह विवरण नामक से टीका लिखी थी, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। यह इन्हें काश्मीर का निवासी सिद्ध करता है। उद्भट ने अलंकार पर काव्यालंकार सारसंग्रह  नामक एक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की थी, जो अभी प्रकाशित है। प्रतिहारेन्दुराज ने इस ग्रन्थ पर लघुविवृत्ति नामक टीका लिखी थी, इसमें भामहविवरण का उल्लेख प्राप्त होता है।  विशेषोक्तिलक्षणे च भामहविवरणे भट्टोद्भटेन --- निरूपितः। अभिनवगुप्त ने अनेक स्थलों पर भामह विवरण का उल्लेख किया है। काव्यालंकार के अंतिम श्लोक से ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम रक्रिल गोमिन् था।
            अवलोक्य मतानि सत्कवीनामवगम्य स्वधिया च काव्यलक्ष्म:।। 
            सुजनावगमाय भामहेन ग्रथितं रक्रिलगोमिसुनुनेदम्।।
भामह का काल दण्डी से पूर्व माना जाता है। इन्होंने अपने ग्रन्थ का आरम्भ सार्वसार्वज्ञ की स्तुति से करते हैं,जिससे  इन्हें बौद्ध मतावलम्बी माना जा सकता है ।

         संस्कृत के अन्य विद्वानों के काल की अनिश्चितता की तरह भामह का काल पर भी विद्वान् एक मत नहीं हैं। आचार्य भामह का समय छठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है, जिसके साक्ष्य में यह तर्क दिया जाता है कि उन्होंने अपने काव्यालंकार के पंचम परिच्छेद में न्याय निर्णय का वर्णन करते हुए दिङ्नाग के प्रत्यक्षं कल्पनापोढम् इस प्रत्यक्ष लक्षण को उद्धृत किया है। दिङ्नाग का समय 500 ईसवी के आसपास माना जाता है। दिङ्नाग के बाद उनके व्याख्याकार धर्मकीर्ति का समय 620 ईसवी के लगभग माना जाता है। धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग के प्रत्यक्षं कल्पनापोढम् लक्षण में अभ्रान्तम् पद जोड़ दिया गया है। किंतु भामह के ग्रंथ में दिए गए प्रत्यक्ष लक्षण में और अभ्रान्तम् पद नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि भामह दिङ्नाग परवर्ती और धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती रहे होंगे। आनंदवर्धन ने भी भामह का समय बाणभट्ट के पूर्ववर्ती बताया है। बाणभट्ट का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है, इस दिशा में भामह का समय पांचवी छठी शताब्दी के मध्य में निर्धारित किया जा सकता है।
भामह कृत काव्यालंकार का विषय विवेचन
काव्यालंकार की प्रथम हस्तलिखित ग्रन्थ को प्रो. रंगाचार्य ने ढूढा। श्री के. पी. त्रिवेदी ने प्रतापरुद्रयशोभूषण के परिशिष्ट में इसे प्रकाशित किया। पुस्तक कुल छः परिच्छेद में विभाजित है। काव्य प्रयोजन, काव्यदोष, गुणत्रय ( माधुर्य, ओज और प्रसाद) का विवेचन, द्वितीय तथा तृतीय परिच्छेदों में अलंकार निरूपण, काव्यगत दोष निरूपण,  काव्य में ग्राह्य एवं त्याज्य शब्दों का निर्देश इसके वर्ण्य विषय हैं।

दण्डी

भामह के बाद दण्डी ने अलंकारशास्त्र पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना की है। दण्डी ने अपनी रचना अवन्तिसुन्दरी में अपने को भारवि का पौत्र कहा है तथा बाणभट्ट और मयूर की प्रशंसा की है। अतः दण्डी का समय अष्टम शताब्दी में माना जाता है। दण्डी के दो ग्रन्थ (१) काव्यादर्श (२) दशकुमारचरितम् प्राप्त है, परन्तु तृतीय ग्रन्थ अप्राप्त है तथा उसका नाम भी विवादास्पद है।

उद्भट

दण्डी के बाद उद्भट ने अलंकारशास्त्र के ऊपर महत्वपूर्ण कार्य किया है। ये काश्मीरी ब्राह्मण थे। काश्मीर के राजा जयादित्य की सभा के पण्डित ही नहीं सभापति भी थे। दण्डी के समान उद्भट ने भी तीन ग्रन्थों की रचना की। जिसमें प्रथम रचना भामह के 'काव्यालंकार' की टीका 'काव्यालङ्कार विवरण' के नाम से की थी जो आजकल उपलब्ध नहीं है। द्वितीय रचना 'काव्यालङ्कार सार संग्रह' के नाम से प्रसिद्ध है, जो उपलब्ध भी है। डॉ॰ वूलर ने इसकी लघुवृत्तियुक्त एक प्रति जैसलमेर में खोज निकाली थी। उक्त ग्रंथ छह वर्गों में विभक्त है, इसकी ७५ कारिकाओं में ४१ अलंकारों का निरूपण है और ९५ पद्यों में उदाहरण हैं जो उद्भट ने स्वरचित 'कुमारसंभव' काव्य से प्रस्तुत किए हैं। तृतीय रचना कुमारसम्भव नामक काव्य की थी, परन्तु यह भी उपलब्ध नहीं है। कालिदास ने भी कुमारसम्भव नामक काव्य की रचना की है। परन्तु कालिदास के कुमारसम्भव से आपके कुमारसम्भव की रचना भिन्न है। 

वामन

उद्भट के समान वामन भी काश्मीर के राजा जयादित्य के मन्त्री थे। अंतः दोनों समकालीन थे । वामन ने काव्य की आत्मा रीति को मानकर रीति सम्प्रदाय का प्रवर्त्तन किया है। रीति-सम्प्रदाय के प्रवर्तक होने के कारण वामन का नाम अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों के मध्य में आदर के साथ स्मरण किया जाता है। अतः वामन का अलंकारशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। वामन के ग्रन्थ का नाम 'काव्यालंकार सूत्र' है। यह सूत्र शैली में लिखा गया है। इसमें पांच अधिकरण, बारह अध्याय तथा कुल ३१२ सूत्र हैं।

रुद्रट

यह भी काश्मीर निवासी थे। काव्यशास्त्र के आचार्यों में रुद्रट का नाम अति प्रसिद्ध है। इनका नाम शतानन्द था। रुद्रट का भी ग्रन्थ 'काव्यालंकार' नाम से प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ आर्या छन्दों में लिखा गया है। इसमें कुल ७१४ आर्या छन्द हैं ।

आनन्दवर्द्धन

आपने ध्वनि-सिद्धान्त का निरूपण करके काव्य की आत्मा ध्वनि कहा गया है। आपका ध्वनिवादी आचार्य के नाम से काव्यशास्त्र में प्रमुखतम स्थान माना जाता है। आनन्दवर्द्धन भी काश्मीर निवासी थे। आपका ध्वन्यालोक' नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ध्वनि के भेदों तथा उपभेदों का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है ।

अभिनवगुप्त

इनका पूरा नाम अभिनवगुप्त पाद है। इन्होंने काव्यशास्त्र पर किसी स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना नहीं की, तथापि ध्वन्यालोक तथा नाट्यशास्त्र पर प्रणीत टीका किसी ग्रन्थ से अधिक महत्वपूर्ण है। आपको विद्या बहुत रुचि थी। आपने समकालीन प्रायः सभी विद्वानों के पास जाकर विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया था। अभिनवगुप्त ने अपने गुरुओं के १३ नाम एक स्थान में लिखे हैं और सात गुरुओं के नामों का अन्यत्र उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने लब्धप्रतिष्ठ अनेक विद्वानों से तत्-तत् शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की। आपके ग्रन्थों के नाम भी गुरुओं के नाम के समान बहुत हैं। कुल ४९ ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें प्रथम ग्रन्थ (१) 'ध्वन्यालोक लोचन' ध्वन्यालोक की टीका के रूप में लिखा है। (२) अभिनवभरती भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की टीका के रूप में लिखा है। 'घटर्कपर विवरण' जो मेघदूत के समान दूतकाव्य पर टीका के रूप में लिखा है। शेष अन्य ग्रन्थ शैवदर्शन आदि से सम्बन्धित है। 

मुकुलभट्ट

नवम शताब्दी में मुकुलभट्ट ने जन्म ग्रहण किया था। स्वयं मुकुलभट्ट ने अपने ग्रन्थ के अन्त में 'भट्टवल्लट पुत्रेण मुकुलेन निरूपिता, लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि मुकुलभट्ट के पिता का नाम बल्लटभट्ट था। मुकुलभट्ट व्याकरण तथा मीमांसाशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे और काव्यशास्त्र पर भी पूर्ण अधिकार था। आपका केवल 'अभिधावृत्ति मातृका' नामक छोटा सा ग्रन्थ प्राप्त है। इसमें १५ कारिकायें हैं। इन कविताओं पर वृत्ति भी स्वयं लिखी है। आपका यह ग्रन्थ ध्वनि-रोधक अर्थात् व्यञ्जना विरोधी है। व्यञ्जना तो मानना दूर रहा, आपने लक्षणा को भी अभिधा के अन्तर्गत ही माना है। अतः अभिधा के दस भेद प्रतिपादित करके लक्षणा को भी पृथक् नहीं माना है।

राजशेखर

 दशम शताब्दी के आरम्भ में काव्यशास्त्र के सूक्ष्म समीक्षक राजशेखर का नाम उल्लेखनीय है। उपर्युक्त दण्डी के अतिरिक्त सभी आचार्य काश्मीर निवासी थे। दण्डी के बाद दूसरे आचार्य आप हैं जो काश्मीर से बाहर विदर्भवासी थे। कन्नौज के राजा 'महेन्द्रपाल' और 'महीपाल' इनके शिष्य थे। राजशेखर ने अपने को 'यायावरीय' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि आपका जन्म यायावर वंश में हुआ था। राजशेखर मुख्य रूप में कवि तथा नाटककार थे। आपने चार नाटक और एक 'काव्यमीमांसा' नामक काव्यशास्त्र का समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा है, इसमें १८ अध्याय हैं। इनके कारण राजशेखर का नाम साहित्य-शास्त्रकारों में बड़े आदर के साथ स्मरण किया जाता है। 'काव्यमीमांसा' को देखने से ज्ञात होता है कि यह काव्यशास्त्र का ग्रन्थ विलक्षण है। कवि को शिक्षा देने वाला यह ग्रन्थ विश्वकोश सा प्रतीत होता है। अतः राजशेखर को कवि शिक्षा सम्प्रदाय के प्रवर्तक माना जा सकता है। इस प्रकार रस, अलंकार, ध्वनि आदि सम्प्रदायों के साथ राजशेखर का कवि शिक्षा सम्प्रदाय भी मानना चाहिये ।

धनञ्जय

आपका समय दशम शताब्दी माना जाता है। आपका सम्बन्ध मुख्यरूप से नाट्यशास्त्र से है। धनञ्जय का एकमात्र दशरूपक' नामक नाट्यशास्त्र का ग्रन्थ प्राप्त होता है। नाट्य के पारिभाषिक शब्दों का परिचय दशरूपक से अध्ययन के बिना सरलता से नहीं जाना जा सकता है। इसके अध्ययन से नाटक सम्बन्धी सभी मान्यतायें एवं सिद्धान्तों का ज्ञान सरलता से हो जाता है। अतः 'दशरूपक' को नाट्य क्षेत्र में महान् समादर प्राप्त है। इसमें लगभग ३०० कारिकायें तथा चार 'प्रकाश' है। दशरूपक पर धनिक ने 'अवलोक' नाम की टीका लिखी है। यह टीका बहुत महत्वपूर्ण है।

भट्टनायक

दशम शताब्दी में आनन्दवर्द्धनाचार्य के बाद भट्टनायक का समय माना जाता है। भट्टनायक व्यंजना विरोधी थे उनका एकमात्र ग्रन्थ 'हृदय दर्पण' था जो इस समय उपलब्ध नहीं है। इस ग्रन्थ में ध्वनि सिद्धांत का खण्डन किया गया था। भट्टनायक का रस सिद्धान्त 'मुक्तिवाद' के नाम से प्रसिद्ध है। भट्टनायक के बाद महिमभट्ट ने ध्वनि के खण्डन के लिये 'व्यक्तिविवेक' नामक ग्रन्थ लिखा है। परन्तु महिमभट्ट को यह खेद बना रहा है कि उनको हृदयदर्पण नामक ग्रन्थ देखने को नहीं मिला। अतः यह निश्चित है कि भट्टनायक ने ध्वनि का खण्डन अपने ग्रन्थ में किया और रस-सिद्धांत पर आपने एक अलग मुक्तिवाद की स्थापना की है ।

कुन्तक

काव्यशास्त्र में कुन्तक का एक प्रमुख सिद्धांत है जिसका नाम 'वक्रोक्ति सम्प्रदाय' है। आपका समय ११वीं शताब्दी माना जाता है। कुन्तक ने केवल 'वक्रोक्तिजीवितम्' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें कारिका, वृति, उदाहरण तीन भाग हैं। ग्रन्थ का विभाजन ४ उन्मेषों में किया है । कुन्तक अभिधावादी आचार्य है। आपने लक्ष्य और व्यंग्य को माना तो है, परन्तु वाच्यार्थ में ही लक्ष्य और व्यंग्य का अन्तर्भाव किया है।

महिमभट्ट

कुन्तक के बाद महिमभट्ट का नाम लिया जाता है। महिमभट्ट भी ध्वनिविरोधी आचार्य है। मुकुलभट्ट, धनञ्जय, भट्टनायक, कुन्तक और महिमभट्ट आदि आचार्य ध्वनि विरोधी आचार्य माने जाते है। महिमभट्ट का केवल 'व्यक्तिविवेक' नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है, इसमें ध्वनि का अन्तर्भाव अनुमान के अन्तर्गत माना है । 'व्यक्तिविवेक में तीन विमर्श हैं। तृतीय विमर्श में ध्वनि के ४० उदाहरण का अनुमान में अन्तर्भाव किया है। अतः ध्वनि को पृथक् नहीं माना जा सकता है। ध्वनि तो अनुमान में ही अन्तर्भूत है। पृथक् मानने की आवश्यकता नहीं है।

क्षेमेन्द्र 

आपका नाम 'औचित्य सम्प्रदाय' के संस्थापक के रूप में प्रसिद्ध है। आपके द्वारा विरचित ग्रन्थों की संख्या १८ प्राप्त होती है। परन्तु इन १८ ग्रन्थों में 'औचित्यविचारचर्चा' ही काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है । आपने औचित्य को रस का प्राण भी माना है। तथा औचित्य का स्वरूप वर्णन करते हुये लिखा है कि

उचितं प्राहुराचार्यः सदृशं किल यस्य तत् ।

उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते ॥

इस प्रकार क्षेमेन्द्र को अन्य सम्प्रदायों के संस्थापकों के समान औचित्य सम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है। भोजराज-धारानरेश राजा भोज का समय ११वीं शताब्दी माना जाता है। आपका नाम विद्वानों के आश्रयदाता, उदार, दानशील के रूप में विशेष प्रसिद्ध है। राजा भोज केवल विद्वानों का आदर ही नहीं करते थे, अपितु स्वयं विद्वान् और साहित्य मर्मज्ञ थे। काव्यशास्त्र में राजा भोज के द्वारा लिखित दो ग्रन्थ (१) सरस्वतीकण्ठाभरण और (२) शृंगारप्रकाश प्राप्त होते हैं। (१) सरस्वती कण्ठाभरण ५ परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में दोप और गुण का विवेचन किया है। द्वितीय परिच्छेद में २४ शब्दालङ्कारों का और चतुर्थ में २४ अर्थालंकारों का वर्णन किया है। पंचम में रस, भाव, पंचसन्धि तथा वृत्तियों का निरूपण किया है । (२) शृंगारप्रकाश एक विशालकाय ग्रन्थ है। इसमें ३६ प्रकाश हैं। नाम के अनुसार इसमें शृंगार रस का विस्तृत वर्णन किया है। परन्तु भोज का यह ग्रन्थ श्रृंगार के साथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पदार्थों का वर्णन करता है । 'शृंगारप्रकाश' काव्यशास्त्र के ग्रन्थों में सबसे अधिक विशालकाय ग्रन्थ है । 

मम्मट

भरतमुनि से लेकर लगभग १२०० वर्षों में साहित्य क्षेत्र में हुए कार्यों का समन्वित रूप मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश में प्रस्तुत किया है। मम्मट ने काव्य सम्बन्धी सभी तत्वों का प्रतिपादन बड़े ही सुन्दर रूप में किया है। रीति, गुण, दोष, अलंकार आदि का यथार्थ वर्णन करके अनुरूप स्थान दिया है। यही कारण है कि मम्मट के काव्यप्रकाश का जितना समादर हमारे काव्यशास्त्र के क्षेत्र में हुआ है और हो रहा है, उतना समादर किसी का नहीं हुआ है।

सागरनन्दी

मम्मटाचार्य के बाद सागरनन्दी का नाम आता है। ये काव्यशास्त्र के नहीं अपितु नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं। मम्मट के पूर्ववर्ती नाट्यशास्त्र के आचार्य (१) भरत (२) धनञ्जय (३) धनिक हो चुके हैं। धनञ्जय के लगभग २०० वर्ष बाद मागरनन्दी ने 'नाट्यलक्षणपरकरत्नकोश' नामक ग्रन्थ की रचना की है। आपका मुख्य नाम 'सागर' था किन्तु नन्दी वंश में उत्पन्न होने के कारण 'सागरनन्दी' से अभिहित किये जाते हैं। आपने अपने ग्रन्थ में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अधिक आश्रय लिया है। कहीं-कहीं तो नाट्यशास्त्र की कारिकाओं को ही निबद्ध किया है। दशरूपक के समान आपने भी अपने ग्रन्थ की रचना कारिकाओं में ही की है ।

राजानक रुय्यक

राजनक उपाधिधारी रुय्यक ने काव्यप्रकाश की 'काव्यप्रकाश संकेत' नामक टीका का प्रणयन किया है। काश्मीर के प्रमुख पंडित को राजानक उपाधि से विभूषित किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि रुय्यक काश्मीर निवासी थे। राजानक रुय्यक का जन्म ११वीं शताब्दी का मध्य भाग माना जाता है। आपकी तीन रचनायें (१) सहृदयलीला (२) व्यक्तिविवेक की टीका (३) अलंकारसर्वस्व इस समय प्राप्त होती हैं। अलंकारसर्वस्व इनका महत्वपूर्ण काव्यशास्त्र का ग्रन्थ माना जाता है। इन तीन ग्रन्थों के अतिरिक्त (१) काव्य प्रकाश संकेत (२) अलंकार मंजरी (६) अलंकारानुसारिणी (४) साहित्यमीसांसा (५) नाटकमीमांसा (६) अलंकार वार्त्तिक इन ६ ग्रन्थों के नाम जयरथ की 'विमर्शिनी' टीका में प्राप्त होते हैं। परन्तु ये ग्रन्थ अप्राप्त हैं।

हेमचन्द्र

हेमचन्द्र जैन धर्मावलम्बी आचार्य है। आपका जन्म गुजरात के अहमदाबाद जिले में ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। आपने चालुक्य राजा सिद्धराज के अनुरोध से एक व्याकरण का ग्रन्थ लिखा है जिसका नाम 'सिद्धहेम' व्याकरण है। काव्यशास्त्र पर 'काव्यानुशासन' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें आठ अध्याय है, प्रायः इस ग्रन्थ में काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, अभिनवभारती आदि से लम्बे-लम्बे उद्धरणों को उद्धृत किया है। इसमें काव्यलक्षण, काव्यप्रयोजन, कारण, रस दोष, गुण अलङ्कार आदि का वर्णन किया गया है ।

रामचन्द्र-गुणचन्द्र

हेमचन्द्र के शिष्यों में (१) रामचन्द्र और (२) गुणचन्द्र नाम के दो प्रमुख शिष्य थे। इन्होंने मिलकर "नाट्यदर्पण" नाम से एक नाट्य विषयक ग्रन्थ की रचना की है। गुणचन्द्र की कोई स्वतन्त्र रचना प्राप्त नहीं होती है। परन्तु रामचन्द्र के अनेक ग्रन्थों के नाम प्राप्त होते हैं, जो प्रायः नाटक हैं। इन्होंने रस को सुखात्मक ही नहीं अपितु दुःखात्मक भी माना है।

वाग्भट्ट

रामचन्द्र तथा गुणचन्द्र के बाद काव्यशास्त्र के आचार्यों में वाग्भट्ट का नाम आता है। आपने (१) वाग्भट्टालङ्कार (२) काव्यानुशासन (३) नेमिनिवार्ण महाकाव्य (४) ऋषभदेवचरित (५) छन्दोऽनुशासन और आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ (६) अष्टांगहृदय आदि ग्रन्थों की रचना की है। यद्यपि कुछ विद्वानों में मतभेद है कि दो वाग्भट्ट हुये हैं। उनके मत से प्रथम वाग्भट्ट की रचना "बाग्भटालङ्कार" ही है। और (१) काव्यानुशासन (२) ऋषभदेव चरित (३) छन्दोऽनुशासन । इन तीनों ग्रन्थों की रचना द्वितीय वाग्भट्ट ने की है । परन्तु "नेमिनिर्वाण महाकाव्य" और आयुर्वेद की अष्टांगहृदयसंहिता" किस वाग्भट्ट की रचना है, इस विषय पर कुछ नहीं कहा है। वास्तव में इन सभी ग्रन्थों के रचयिता एक ही वाग्भट्ट हैं।

अरिसिंह तथा अमरचन्द्र

रामचन्द्र और गुणचन्द्र के समान ही ये दोनों अरिसिंह और अमरचन्द्र एक गुरु के (जिनदत्तमूरि के) शिष्य थे और दोनों ने मिलकर "काव्यकल्पलता" नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें कवि शिक्षा अर्थात् कविता करने के नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रन्थ में चार प्रतान हैं— (१) छन्दसिद्धि (२) शब्दसिद्धि (३) श्लेषसिद्धि (४) अर्थसिद्धि । इनमें कवि बनने का इच्छुक व्यक्ति किस प्रकार सरलता से कविता करने में समर्थ हो सकता है, इसका वर्णन बड़ी सतर्कता से किया है।

देवेश्वर

चौदहवीं शताब्दी में देवेश्वर नामक जैन विद्वान् हुए । आपने "कविकल्पलता" नामक ग्रन्थ की रचना की है। परन्तु यह ग्रन्थ काव्य कल्पलता का अनुकरण मात्र है। अतः इसका कोई अस्तित्व नहीं माना जाता है।

जयदेव

११वीं शताब्दी में बंग प्रदेश में राजा लक्ष्मणसेन राज्य करते थे। लक्ष्मणसेन की सभा में (१) आर्यासप्तशती के रचयिता गोवर्द्धनाचार्य (२) जयदेव (३) शरणकवि (४) उमापति (५) कविराज (धोयी) ये ५ प्रमुख विद्वान् रहते थे। राजसभा भवन के द्वार पर इन ५ विद्वानों के नाम श्लोक रूप में एक शिलापट्ट पर अंकित थे। वह श्लोक इस प्रकार था –

गोवद्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः ।

कविराजश्च रत्नानि समितौ लक्षमणस्य तु ।

इनमें "चन्द्रालोक" और "प्रसन्नराघव" आदि नाटकों के तथा अनेक ग्रन्थों के रचयिता जयदेव हैं। जयदेव ने अपने गीतगोविन्द में उपर्युक्त साथियों के नामों का उल्लेख किया है। आपके (१) चन्द्रालोक (२) प्रसन्नराघव (३) गीतगोविन्द ये तीन ग्रन्थ विशेष प्रसिद्ध हैं। गीतगोविन्द में आश्रयदाता लक्ष्मणसेन और अपने साथियों का परिचय दिया है। चन्द्रालोक तथा प्रसन्नराघव में अपने पिता महादेव और माता सुमित्रा के नामों का उल्लेख किया है। कुछ विद्वानों का कहना है कि चन्द्रालोक और गीतगोविन्द के लेखक एक नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि गीतगोविन्द के १२वें सर्ग के ११वें श्लोक में जयदेव के पिता "भोजदेव" और माता रामदेवी का नाम प्राप्त होता है। इसीलिये गीतगोविन्द के रचयिता को चन्द्रालोक के रचयिता से भिन्न माना जाता है। परन्तु यह श्लोक प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि गीतगोविन्द की टीका "रसिकप्रिया" में "श्री भोजदे प्रभवस्य" श्लोक की टीका नहीं प्राप्त होती है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है। चन्द्रालोक में १० मयूख हैं। यह ग्रन्थ सरल एवं सुन्दर शैली में लिखा है। अलङ्कारों के लक्षण और उदाहरण दोनों को एक ही अनुष्टुप् छन्द में लिखकर व्यक्त किया है। इससे अलंकारों को समझने में और छात्रों को स्मरण करने में कोई कठिनता नहीं होती है। अप्पयदीक्षित ने भी चन्द्रालोक के अलङ्कारों के लक्षणोदाहरण की शैली को कुवलयानन्द में अपनाया है।

विद्याधर

ये दक्षिणी विद्वान् थे । काश्मीर से काव्यशास्त्र बंग प्रदेश में पहुँच कर दक्षिणी भारत में पहुँच गया। अर्थात् प्रथम काव्यशास्त्र का मुख्य केन्द्र काश्मीर रहा, फिर बंग प्रदेश और तदनन्तर दक्षिणी भारत । काव्यशास्त्र के आचार्यों में प्रमुख विद्याधर का नाम स्मरण किया जाता है विद्याधरर का एक मात्र ग्रंथ 'एकावली' है। इसमें आठ उन्मेष हैं। इस ग्रन्थ की रचना "काव्यप्रकाश' और 'अलंकारसर्वस्व' के आधार पर की गई है। एकावली की विशेषता यह है कि इसमें जितने उदाहरण है, वे सब विद्याधर के द्वारा स्वयं रचित है। 

विद्यानाथ

विद्याधर के बाद ई. 13-14 वीं शती में उत्पन्न विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रयशोभूषणम्नामक ग्रन्थ की रचना की है। विद्याधर के समान चाटु प्रवृत्ति का अनुकरण करते हुए आन्ध्र प्रदेश के राजा प्रतापरुद्र की प्रशंसा में श्लोकों की रचना की। इस एक ही रचना द्वारा दो कार्यभाग संपन्न हुए हैं - अपने आदरणीय राजा या देवता की प्रशंसा तथा साथ साथ साहित्य-शास्त्रीय उदाहरणार्थ रचना / यों तो उद्भट ने (6-9 वीं शती) इस प्रकार की रचना कर पार्वतीविवाह और अलंकारशास्त्रीय तत्त्वविवरण का सूत्रपात किया था, पर विद्यानाथ ने राजप्रशंसा की परम्परा का प्रारम्भ किया। इसकी नाट्य रचना "प्रतापरुद्रकल्याणम्" भी इसी प्रकार की है। (प्रतापरुद्र के शौर्य तथा सद्गुण-वर्णन के साथ संस्कृत नाट्यतन्त्र का सोदाहरण विवेचन)। प्रस्तुत रचना का पहला प्रकरण नायक-नायिका भेद वर्णन। दूसरा प्रकरण- काव्य का लक्षण और भेद। तीसरा प्रकरण- आदर्शनाटक-प्रतापरुद्रदेव का राज्यारोहण समारम्भ, सुसज्जित राज्यव्यवस्था तथा युद्ध में विजयपरम्परा। चौथा प्रकरण - रसनिष्पत्ति। पांचवां और छठा प्रकरण- गुणदोष-विवेचन और अन्तिम प्रकरण - अलंकार । इस पर कुमारस्वामी कृत "रत्नापण'' टीका मिलती है। "रत्नशाण" नामक अन्य अपूर्ण टीका भी प्राप्त होती है।

कविराज विश्वनाथ

इन्होंने काव्यशास्त्र पर एक महत्वपूर्ण साहित्यदर्पण नामक ग्रन्थ की रचना की है। १३१६ ई० तक अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिणी भारत पर शासन किया है। विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण के चतुर्थ परिच्छेद में 'अलाउद्दीन नृपतो' लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि विश्वनाथ १४वी शताब्दी में उत्पन्न हुये । काव्यप्रकाश के समान साहित्यदर्पण में भी दश परिच्छेद हैं। आपने काव्य का लक्षण 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' लिखकर मम्मट के काव्य लक्षण का खण्डन करने का प्रयास किया है। साहित्यदर्पण की भाषा सरल है। काव्यप्रकाश जैसी जटिलता साहित्यदर्पण में कहीं नहीं प्राप्त होती है। ये १८ भाषाओं के ज्ञाता थे और सम्भवतः किसी राज्य के 'सन्धिविग्रहिक' अर्थात विदेश मन्त्री थे। आपने काव्यप्रकाश पर काव्यप्रकाश दर्पण नामक टीका का भी प्रणयन किया। इसके अतिरिक्त (१) राघवविलास (२) कुवलया चरित्र (३) प्रभावती परिणय नाटिका (४) चन्द्राकला नाटिका (५) नरसिंह विजय (६) प्रशस्ति रत्नावली, इन ६ काव्य तथा नाटकों का उल्लेख विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में स्वयं किया है। इनमें अन्तिम प्रशस्ति 'रत्नावली' सोलह भाषाओं में लिखा हुआ 'करम्भक' है। अतः निश्चय ही आप अनेक भाषाओं के प्रसिद्ध विद्वान् थे। काव्यशास्त्र को आपकी अनुपम देन साहित्यदर्पण है।

शारदातनय

आप अपने को शारदादेवी का पुत्र मानकर शारदातनय लिखने लगे। इसीलिए इनका नाम शारदातनय प्रसिद्ध हो गया था। १३वी शताब्दी में जन्म ग्रहण करके 'भावप्रकाशन' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें १० अध्याय हैं। (१) भाव (२) रसस्वरूप (३) रसभेद (४) नायक, नायिका ( ५ ) नायिका भेद (६) शब्दार्थ सम्बन्ध (७) नाट्येतिहास (८) दशरूपक (६) नृत्यभेद (१०) नाट्यप्रयोग । इस प्रकार 'भावप्रकाशन' में नाट्यशास्त्र का विवेचन किया है। इसलिये आपको अलंकारशास्त्र का नहीं अपितु नाट्यशास्त्र का आचार्य माना जाता है ।

शिङ्गभूपाल

ये भी शारदातनय के समान नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं। आपने 'रसार्णवसुधारकर' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें तीन उल्लास हैं। आपकी शैली सरल और सुन्दर है। आपने रसार्णवसुधाकर के प्रारम्भ में अपना वंश परिचय लिखा है, जिससे ज्ञात होता है कि ये शूद्र थे और इनका समय चौदहवीं शताब्दी है ।

भानुदत्त

ये मिथिला के निवासी थे और इनका समय चौहदवीं शताब्दी था। आपने दो ग्रन्थ (१) रसमंजरी (२) रसतरङ्गिणी की रचना की है । इनमें 'रसमञ्जरी' मुख्य रचना है। रसतरङ्गिणी ग्रन्थ रसमञ्जरी का संक्षिप्त रूप ही है। रसमञ्जरी के अतिरिक्त 'गीतागौरीपति' नामक गीतकाव्य की रचना, गीत गोविन्द के आधार पर लिखी है। यह सरल एवं सरस गीतकाव्य है।

रूपगोस्वामी

ये वृन्दावन निवासी वैष्णव मतावलम्बी चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। आपका समय सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है वस्तुत: वृन्दावन इनकी जन्मभूमि नहीं थी । आपकी जन्मभूमि बंगाल थी। परन्तु चैतन्य महाप्रभु के आग्रह से वृन्दावन में आकर रहे थे। रूपगोस्वामी ने दश ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें तीन ग्रन्थ अलंकारशास्त्र से सम्बन्धित है। (१) भक्तिरसामृतसिंधु (२) उज्ज्वल नीलमणि ये दोनों ग्रंथ रसप्रतिपादक है। आपने 'भक्तिरसामृतसिंधु' नामक ग्रंथ में भक्तिरस को सर्वश्रेष्ठ रस माना है। भक्तिरस के विभाव, अनुभाव आदि का तर्क संगत वर्णन किया है और भक्तिरस के प्रीत, प्रेम, वत्सल, मधुर आदि विशेष भेदों का निरूपण किया है। उज्ज्वलनीलमणि नामक ग्रन्थ शृङ्गार रस का विवेचक एवं 'भक्तिरसामृतसिंधु' का पूरक ग्रन्थ है। आप द्वारा लिखिखित तृतीय ग्रन्थ 'नाटक चन्द्रिका' है। इसकी रचना भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार ही की है। रूप गोस्वामी के भाई सनातन गोस्वामी तथा उनके भतीजे जीव गोस्वामी भी उच्चकोटि के विद्वान् थे। ये तीन आर्य वृन्दावन की विभूति थे ।

केशवमिश्र

केशवमिश्र का समय सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। ये दिल्ली के निकटवर्ती थे। अपने काव्यशास्त्र पर 'अलंकार शेखर' नामक ग्रन्थ की रचना की है, इसमें ८ अध्याय अथवा आठ रत्न हैं और (१) काव्य लक्षण (२) रीति (३) शब्दशक्ति (४) आठ प्रकार के पद-दोष (५) अठारह प्रकार के वाक्यदोष (६) आठ प्रकार के अर्थदोष (७) पाँच प्रकार के शब्द गुण और चार प्रकार के अर्थगुण (८) अलंकार और रूपक आदि का निरूपण किया है ।

कवि कर्णपूर

चैतन्य महाप्रभु के शिष्य शिवानन्द के पुत्र का नाम परमानन्द सेन था। यह परमानन्द ही कवि कर्णपूर" के नाम से साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुये। इनका जन्म १५२४ ई० में बंगाल में हुआ था। आपने दो ग्रंथ (१) चैतन्य चन्द्रोदय (२) अलंकार कौस्तुभ लिखे हैं। अलंकार कौस्तुभ ग्रंथ में १० किरण अथवा अध्याय है। इसमें काव्य लक्षण, शब्दशक्ति ध्वनि, रस भाव, अलंकार आदि का वर्णन किया है। इसलिये आपकी गणना अलंकारशास्त्र के आचार्यों में की जाती है।

कविचन्द्र

ये कवि कर्णपूर के पुत्र थे। इन्होंने काव्यचन्द्रिका नामक अलंकारशास्त्रपरक ग्रंथ की रचना १३ प्रकाश अर्थात (अध्यायों) में की है। इसके अतिरिक्त (१) सार लहरी (२) धातुचन्द्रिका नामक दो ग्रन्थों की रचना की है।

अप्पयदीक्षित

आपका समय सत्रहवीं शताब्दी का मध्य भाग माना जाता है। ये प्रकाण्ड विद्वान् एवं विविध विषयों एवं शास्त्रों के ज्ञाता थे। आप मुख्य रूप से दार्शनिक थे। विद्वानों का मत है कि दीक्षित जी ने १०४ ग्रन्थों का प्रणयन किया है। न्यायशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, मीमांसा आदि शास्त्रों पर भी आपकी रचनायें प्राप्त होती हैं। अलंकारशास्त्र पर (१) वृत्तिवार्त्तिका (२) चित्रमीमांसा (३) कुवलयानन्द नामक इन तीन ग्रन्थों की रचना की है। इनमें प्रथम दो ग्रन्थ अपूर्ण से प्राप्त होते हैं। तीसरा ग्रन्थ कुवलयानन्द है। इसकी रचना चन्द्रालोक के आधार पर की है। चन्द्रालोक के अलंकारों के लक्षण आपने ज्यों के त्यों कुवलयानन्द में अंकित कर दिये हैं। उदाहरण अन्यत्र से उद्धृत किये हैं। कुवलयानन्द के अन्त में २४ अलंकार ऐसे हैं, जिनके लक्षण चन्द्रालोक में नहीं प्राप्त होते हैं। जयदेव के समान ही अनुष्टुप छन्द में लक्षण और उदाहरणों को प्रस्तुत किया है।

पण्डितराज जगन्नाथ

पण्डितराज जगन्नाथ के पिता का नाम पेरुभट्ट और माता का नाम लक्ष्मीदेवी था। ये तैलंग ब्राह्मण थे। इनका जन्म दक्षिण भारत हुआ था। किन्तु युवावस्था में दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के दरबार में आकर रहने लगे। वहाँ रहकर दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाई और दाराशिकोह के संस्कृत के प्रेम और उनके गुणों से प्रभावित होकर इन्होंने जगदाभरण" नामक काव्य की रचना की है। अपने मित्र आसफअली की मृत्यु हो जाने पर उनकी स्मृति में आसफविलासनामके काव्य की रचना की है। शाही दरबार में रहते हुए पण्डित राज ने लवंगी नामक यवन कन्या से विवाह किया था। वृद्धावस्था में वृन्दावन और मथुरा में आकर रहे तथा अन्तिम समय में काशी आ गये । अन्तिम क्षणों में गंगालहरी की रचना की और गंगालहरी के अन्तिम श्लोक के समाप्त होते ही गंगा की धारा में विलीन होकर यशः शरीर से अमर हो गये। पण्डितराज ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें भामिनीविलास, गंगा लहरी, करुणालहरी, अमृतलहरी आदि दस काव्यों की रचना की है। आपने अलंकारशास्त्र के प्रमुख ग्रन्थ 'रसगंगाधर' की रचना की है। यह अलंकारशास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसके अन्तर्गत आने वाले सभी उदाहरणों को स्वयं बनाकर लिखा है। अतः यह काव्यशास्त्र का प्रौढ़ एवं विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ है। परन्तु यह ग्रन्थ अधूरा है। इसमें केवल दो आनन है। आपने सभी काव्य-लक्षणों का खण्डन करके रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' काव्य का लक्षण लिखा है और काव्य का हेतु केवल प्रतिभा को ही माना है। इनके अतिरिक्त काव्य के (१) उत्तमोत्तम (२) उत्तम (३) मध्यम (४) अधम इन चार भेदों का निरूपण किया है। वस्तुतः यह रसगंगाधर नामक ग्रन्थ एक विद्वत्तापूर्ण अलंकारशास्त्र का अद्वितीय ग्रन्थ है।

आशाधरभट्ट

आपका समय १८वीं शताब्दी माना जाता है। इनके पिता का नाम राम जी और गुरु का नाम धरणीधर है। इन्होंने कोविन्दानन्द (२) त्रिवेणिका (३) अलंकारदीपिका नामक तीन ग्रन्थों का प्रणयन किया है। कोविन्दानन्द और त्रिवेणिका में शब्दशक्तियों का निरूपण किया है। तीसरे ग्रन्थ अलंकारदीपिका में कुवलयानन्द के समान १२५ अलंकारों का निरूपण किया है।

नरसिंहकवि

आपका समय १८वीं शताब्दी माना जाता है। आपका अलंकारशास्त्र विषयक एक ही ग्रन्थ प्राप्त होता है। जिसका नाम "नञ्जराज यशोभूषण" है। यह ग्रन्थ विद्यानाथ के "प्रतापरुयशोभूषण" के आदर्श पर लिखा गया है। परन्तु अन्तर यह है कि यह ग्रन्थ राजा की प्रशंसा में नहीं अपितु नञ्जराज नामक मन्त्री की प्रशंसा में लिखा गया है। इस ग्रन्थ में सात विलास (अध्याय) हैं। (१) नायक (२) काव्य (३) ध्वनि (४) रस (५) दोष (६) नाटक (७) अलंकार; इन सात विषयों का निरूपण किया है।

विश्वेश्वर पण्डित

ये काव्यशास्त्र के अन्तिम विद्वान् हैं । आप अल्मोड़ा निवासी थे। आपने, व्याकरण, न्याय तथा साहित्यशास्त्रों पर महत्वपूर्ण रचनायें की हैं। व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि नामक विशाल ग्रन्थ व्याकरण परक है। और न्यायशास्त्र पर (१) तर्क कुतूहल (२) दीधिति प्रवेश ये दो ग्रन्थ लिखे हैं। इसके अतिरिक्त अलंकारशास्त्र पर "अलंकारकौस्तुम" नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें अप्पयदीक्षित और पण्डितराज के मतों का खण्डन बड़ी सतर्कता एवं प्रौढ़ता के साथ किया है । (१) अलंकारमुक्तावली (२) अलंकार प्रदीप (३) रसचन्द्रिका (४) कवीन्द्रकण्ठामरण इन चार अन्य ग्रन्थों की रचना की है। 

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                                                        जगदानन्द झा

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