आधुनिक संस्कृत साहित्य में आज धाराएं प्रवाहित हो रही है। 1. देव स्तुति तथा राजस्तुति वर्णन परक पारंपरिक प्रवृत्ति 2. आधुनिक प्रवृत्ति । आधुनिक प्रवृत्ति में मुक्तबंध कविता, सहज बोधगम्य भाषा शैली में तात्कालिक घटना पर लिखते हुए उसका विश्लेषण भी किया जा रहा है। सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे पर कवि अपनी रचना में अपना अभिमत भी रख रहे हैं।
आधुनिक काव्य के वर्ण्य विषय में सेरोगेसी
मदर, भ्रूण हत्या, बलात्कार, विद्यालयीय शिक्षा, विदेश भ्रमण,सांस्कृतिक
पुनर्जागरण सहजता से उपलब्ध हैं। अन्य साहित्य की अपेक्षा संस्कृत में लेखन की
संभावना एवं फलक अति विस्तृत है। यहां हजारों साल की परंपरा का पुनर्लेखन के साथ
वर्तमान समाज के चित्रण का भी अवसर है। अतः संस्कृत की प्रत्येक विधा में विश्व के
प्रत्येक हलचल को व्यक्त करने की आधुनिक दृष्टि विकसित हो चुकी है। संस्कृत में
लेखन का क्षेत्र इतना विस्तृत हो चला है कि प्रत्येक काल, क्षेत्र, स्थानीय भाषा
को आत्मसात् करने लगा है। संस्कृत यह सामर्थ्य रखती है कि हर भाषा में लिखित
साहित्य को आत्मसात् कर ले। प्रत्येक भाव को व्यक्त करने का सामर्थ्य रखने के कारण
अनुदित साहित्य का विशाल भंडार पाठकों तक पहुँच पा रहा है। अतीत के उदाहरण को
समसामयिक घटना से जोड़ने का उदाहरण सिर्फ संस्कृत में प्राप्त होता है, अन्यत्र
नहीं।
नए शब्दों का सृजन, स्थानीयता का
वर्णन जिसमें हिन्दी के आंचलिक कहानी का प्रभाव दिखता है, संस्कृत के गद्य में
अधिक लेखन हो रहा है।
रस ही वह तत्व है, जो पाठकों तथा दर्शकों को बांधे रहता है। संस्कृत में श्रृंगार रस का सर्वाधिक तथा हास्य का सबसे कम प्रयोग मिलता है। दर्तमान में गद्य तथा पद्य दोनों विधाओं में स्वतंत्र रूप से हास्य व्यंग्य की रचना हो रही है। प्रशस्य मित्र शास्त्री पद्यात्मक शैली में तो प्रमोद कुमार नायक गद्यात्मक शैली में लेखन कर रहे हैं। अन्य समकालीन लेखकों की रचनाओं में स्फुट हास्य देखने को मिलता है। आज के तनावग्रस्त जीवन में मानव मन को अपनी ओर आकर्षित और आनंदित करने में हास्य रस की महती भूमिका है। बीसवीं शताब्दी में इस हास्य रस पर आधारित अनेकों स्वतंत्र ग्रंथ प्रकाश में आए। इनमें प्रमुख नाम है-
हास्यं सुध्युपास्यम् प्रशस्य मित्र शास्त्री
संस्कृत व्यंगविलास प्रशस्यमित्र शास्त्री, गद्य शैली में लिखित।
व्यंग्यार्थकौमुदी प्रशस्यमित्र शास्त्री
कोमलकण्टकावलिः प्रशस्यमित्र शास्त्री
सुहासिका शिवस्वरूप तिवारी
नर्मसप्तशती भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी
स्वर्गपुरे, गर्तः, कथासप्ततिः,स्वर्गादपि गरीयसी, शबरी, प्रमोद कुमार नायक, गद्य शैली में लिखित।
उवाच कण्डूकल्याणः प्रमोद कुमार नायक, गद्य शैली में लिखित।
स्वर्गपुरे, गर्तः, कथासप्ततिः,स्वर्गादपि गरीयसी, शबरी, प्रमोद कुमार नायक, गद्य शैली में लिखित।
उवाच कण्डूकल्याणः
विश्वस्य वृत्तांतम् जैसे दैनिक समाचार पत्र, सम्भाषण
संदेशः जैसी मासिक पत्रिका में हास्य कणिका का स्थाई स्तंभ प्रकाशित हो रहा है। प्रशस्यमित्र
शास्त्री अपनी हास्य रचना में कभी संस्कृत के प्रसिद्ध सूक्तियों को लेकर हास्य की
सृष्टि करते दिखते हैं तो कभी सामान्य व्यवहार में से। यथा-
यदा स्वतंत्रता प्राप्ता तदाऽभूद्
अर्धरात्रिता।
अहो आश्चर्यमद्यापि प्रातर्वेला तु
नाऽगता।।
इस विधा में व्यंग चित्र के साथ गद्यात्मक शैली
में लेखन का प्रचलन बढ़ा है। यहां मौलिक लेखन के स्थान पर हिंदी तथा अन्य भाषा से
अनूदित साहित्य अधिक देखने को मिलता है। प्रशस्यमित्र शास्त्री के लेखन में सामाजिक
विद्रूपता, राजनीतिक मुद्दा तथा परंपरा के ऊपर कटाक्ष दिखता है। उवाच कण्डूकल्याणः में क्रन्दति अनुनासिकः, नेत्रीरूपेण संस्थिता कलानाथ शास्त्री
का व्यंग विनोद लेखन, हास्य रस पर आधारित नूतन साहित्य का लेखन के लिए तथा सम्बन्धित विषय को विस्तार पूर्वक पढ़ने के लिए हास्य काव्य परम्परा पर चटका लगायें।
कदाचिद् वर्षायां भवतु मरणं
वज्रपतनात्,
तथा सर्पादीनां भयमपि भवेद् दुर्दिन
निशि।
कदाचिद् राकायां विदधतु
महाविध्नमथवा,
कदाचित्साहाय्यं रचयतु निशायां
शशधरः।
कदाचिद्रत्नानां भवतु महतां
प्राप्तिरथवा,
महाकारागारे नरकमिव कष्टादिवहनम्।
परं चोरा यान्ति नहि विमुखतां चौरकरणे,
मनस्वी
कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम्।।
विज्ञापन
लेखन
साहित्य की एक विधा है। भारत में प्रदर्शित किये जाने वाले विज्ञापनों में
भारतीय परंपराओं, विश्वासों, संस्कारों, धार्मिक प्रतीकों को अपने हित से जोड़ने
के लिए प्रयोग किया जाता है। दृश्य विज्ञापन में उपर्युक्त भावनाओं का चित्रण के
साथ संवाद प्राप्त होते हैं। विज्ञापन की भाषा अत्यंत संक्षिप्त और स्पष्ट होती है।
संस्कृत में अभी विज्ञापन लेखन का आरंभ नहीं हुआ है। कारण यह है कि संस्कृत पढ़े
लिखे लोग भी संस्कृत में किसी वस्तु का आग्रह नहीं करते, जिससे उत्पादक समूह को
संस्कृत भाषा में विज्ञापन लेखन कराने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। बाजारवाद के
इस दौर में साहित्य लेखन से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर विज्ञापन का लेखन होता है।
टीवी पर विज्ञापन हो अथवा समाचार पत्रों में, विज्ञापन के लिए मार्केटिंग कराने
वाली एजेंसियां विज्ञापन लेखन कराती है। इसमें बैनर, होर्डिंग, पंपलेट आदि प्रयोग
किए जाते हैं। संस्कृत क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाएं भी अपना विज्ञापन
संस्कृत को छोड़कर अन्य भाषाओं में देती है, जबकि बृहद् उपभोक्ता समूह संस्कृत
भाषा को जानने वाला होता है।
संस्कृत क्षेत्र के लोग आज भी परम्परागत तरीके का ही विज्ञापन प्रकाशित करते हैं। विद्यालयों में नामांकन हो या किसी पुस्तक के विक्रय का विज्ञापन वही भाषा,वही शैली। अभी यहाँ विज्ञापन का दृश्यांकन आरम्भ नहीं हुआ है। संस्कृत का वित्रापन जगत् मल्टीमिडिया से दूर है।
संस्कृत क्षेत्र के लोग आज भी परम्परागत तरीके का ही विज्ञापन प्रकाशित करते हैं। विद्यालयों में नामांकन हो या किसी पुस्तक के विक्रय का विज्ञापन वही भाषा,वही शैली। अभी यहाँ विज्ञापन का दृश्यांकन आरम्भ नहीं हुआ है। संस्कृत का वित्रापन जगत् मल्टीमिडिया से दूर है।
बहुत ही उम्दा लेख है, इसे पढ़कर बहुत कुछ सीखने को मिला।
जवाब देंहटाएंVery nice sir
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