संत समाज, अखाड़े, सम्पत्ति और टेलीविजन

मैं कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहा हूँ अतः सायंकाल समाचार सुनने के लिए टेलीविजन के सामने बैठ जाता हूँ। इसी बीच एक ख्यातिप्राप्त संत द्वारा आत्महत्या किये जाने का समाचार  टेलीविजन की सुर्खियां बनती है। उसकी जद में संत समाज, अखाड़े, वहां की सम्पत्ति आदि पर बहस का दौर शुरू हो जाता है। टेलीविज़न के माध्यम से प्राप्त दिव्य ज्ञान को सुनकर मुझे भी कुछ लिखने की इच्छा होने लगी है। मेरे जीवन का पूर्वार्ध इन्हीं संतों के बीच गुजरा है। उनके बीच रहते मैंने जो कुछ जाना, जीया और समझा उसके बारे में कहां से लिखना आरम्भ करूँ? लेखन अव्यवस्थित होगा। प्रसंग को आप व्यवस्थित कर लीजियेगा।

एक टेलीविजन वाले कह रहे थे कि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना की है। इस वाक्य को जिसने भी लिखा होगा, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता। सार्वजनिक रूप से एस प्रकार का अधकचरा ज्ञान नहीं पसोसना चाहिए। क्या आदि शंकराचार्य के गुरु गौड़पादाचार्य का सम्बन्ध सनातन धर्म से नहीं था? अगस्त्य, विश्वामित्र आदि ऋषि तथा राम, कृष्ण आदि शंकराचार्य के बाद पैदा हुए होंगेया इनके पूर्ववर्ती सनातन धर्म के मानने वाले नहीं होंगे? आदि शंकराचार्य ने जिस प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखा वे ग्रन्थ विधर्मियों के हैं? इसी प्रकार का अधकचरा ज्ञान टेलीविजन वाले देते हैं। लोग सुनते हैं और बहस करते हैं।

आइये अपनी बात लिखूँ। तब मैं जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के पीठ पंचगंगा घाट, वाराणसी में रहकर जगद्गुरु रामनरेशाचार्य जी से न्याय सिद्धांत मुक्तावली पढ़ा करता था । उसी समय वहां से एक स्मारिका प्रकाशित हो रही थी, जिसमें अखाड़ों का इतिहास भी प्रकाशित हो रहा था। उस पत्रिका की प्रूफ रीडिंग करते समय मेरा पहला परिचय अखाड़ों के साथ हुआ। वाराणसी में लगभग हरेक अखाड़े का आश्रम है। उदासीन, वैष्णव तथा निर्माणी, निर्मोही अखाड़े के साथ मेरी खट्टी मीठी यादें जुड़ी हुई है। संतों की स्थिति से तब भी दो चार होते रहता था। आज मेरे कई मित्र संत जीवन में हैं। उनके बीच का संकट नगरीय जीवन जीने वाला नहीं समझ पाता। वे 'संतों को सम्पत्ति से क्या मतलब' जैसी बेतुके बातें कहकर आगे बढ़ लेते हैं। मुझे रूग्णावस्था में मिले अयोध्या निवासी एक दिव्यांग संत बरबस याद हो आते हैं, जिन्हें कई वर्षों से पेंशन नहीं मिला था। उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। पुरी में रह रहे वृद्धावस्था के कारण आंखों से ठीक न देख सकने वाले रामकृष्ण दास जी से नेपाल निवासी एक महिला संत के बारे में मेरे द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने हृदय विदारक सूचना दी कि उन्हें स्तन कैंसर हो गया था। परिवार के लोग ले गये। करोना काल में पीताम्बर धारी संत, जो उत्तराखंड में गुफाओं में निवास करते थे, उनके उपचार में लाखों रूपये लग गये। 

    संत जितने मृदु होते हैं, अपनों के प्रति उतने ही कठोर भी। कब कहां से बोरिया विस्तर समेटने का समय आ जाय, कोई नहीं जानता। आखिर जो संत हमारे धर्म के प्रेरणास्रोत हैं, जिनसे हम आध्यात्मिक जीवन का मार्गदर्शन पाते हैं, हम उन्हें क्या दे पाते हैं? वे किसकी जिम्मेदारी हैं? व्यावहारिक जीवन में वे किसके सहारे रहें? मठ मंदिर में भगवान का भोग, आरती, उत्सव, आये-गये श्रद्धालुओं का आध्यात्मिक विकास आदि कार्य विना आर्थिक संसाधन के नहीं होते। मधुकरी वृत्ति वाले संत यदि शहर में किसी से अन्न जल मांग कर लें तो उसे भिखारी समझा जाता है। तीर्थ यात्रा के लिए पैदल दूरी तय करना तभी संभव है, जब बीच में भोजन आवास की व्यवस्था हो। इन रमता संतों की चिंता के लिए धन चाहिए। आवागमन के लिए धन चाहिए। इनकी आवश्यताओं की पूर्ति के लिए मठ को धनवान् बनना पड़ता है। मठाधीश धर्म प्रचारक हैं। धर्म प्रचारक और तपस्वी संत में मौलिक अंतर होता है। तपस्वी अपने आत्मोद्धार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। 

    शंकराचार्य ने यह महसूस किया कि सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण एवं एकजुट रखने के लिए मठों की आवश्यता है। यहाँ से धर्म प्रचार को संचालित किया जाय, ताकि जनता भ्रमित नहीं हो। याद रखें कि भगवान् बुद्ध ने मठों की स्थापना के द्वारा सनातन परंपरा को एकांगी बना दिया था। इसके दुष्परिणाम स्वरूप देश शस्त्रविहीन होकर विदेशी आक्रान्ताओं से त्राहिमाम् कर रही थी। इसकी धार्मिक सीमा की रक्षा भजनान्दी साधुओं से होना सम्भव नहीं था। अतः देश के चारों दिशाओं में 4 मठों की स्थापना तदनन्तर सशस्त्र बल के रूप में अखाड़ों की स्थापना की थी। इनकी अनुपस्थिति में धर्मान्तरण को बल मिलता है। अंततः देश असुरक्षित होता है। देश बंटता है।

काशी के पंचगंगा घाट पर रहते हुए मुझे वहां से दूसरे स्थान पर रहने जाने को कहा गया। मेरे परिचित गुरुजी निर्मल संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य थे। उन्होंने वहां के एक संत से कहकर मुझे श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा के किसी भवन में एक कक्ष दिला दिया। हिन्दू धर्म से सिख धर्म अलग नहीं है। इसके लिए श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा का इतिहास यहां बता दूँ। इसकी स्थापना सन् 1856, विक्रमी संवत् 1912 में चनार में पटियाला, फरीदकोट, संगरूर, नाभा तथा कलासिया के महाराजाओं के सहयोग से बाबा महताब सिंह ने की थी। इस अखाड़े के नाम को गुरुनानक देवजी के प्रथम शिष्य भगीरथ सिंह ने बढ़ाया। उन्होंने ही निर्मल संप्रदाय का गठन किया। गुरुगोविंद सिंहजी ने पाँच निर्मल गैरिक धारियों (भगवा वस्त्रधारियों) को धर्मशात्र पढ़ने के लिए काशी भेजा, इन पाँचों को विशेष उपाधि दी और सिख समाज को इन पाँचों निर्मल संतों की पूजा करने का आदेश दिया। काशी में यहाँ के संत हिन्दू धर्म ग्रन्थों को पढ़ते हैं। तब मैं इन संतों तथा अन्य संतों में किसी प्रकार का अंतर महसूस नहीं कर सका था। बताता चलूं कि महाराजा पटियाला नरेंद्र सिंहजी ने महाराजा जींद से परामर्श करके दो गाँवों झंडी और कल्लर से प्राप्त होनेवाली आमदनी के साथ ही 20 हजार रुपए नगद इस अखाड़े को देने की व्यवस्था की। महाराजा नाभा ने 16 हजार रुपए नगद और हरिगाँव का स्वामित्व अखाड़े को सौंपा। महाराजा जींद ने 20 हजार रुपए के साथ मंडलवाला तथा बल्लभगढ़ दो गाँव सौंपे। महाराजा फरीदकोट ने अखाड़े को अपनी रियासत का चमेली गाँव भेंट किया था। इस अखाड़े का मुख्यालय हरिद्वार में है तथा शाखाएँ। प्रयाग, उज्जैन, नासिक और त्र्यंबकेश्वर आदि में हैं। अखाड़े के इष्टदेव श्री गुरुग्रंथ साहिबजी हैं। साथ ही अखाड़े में शिव तथा वैदिक स्वरूपों की भी उपासना मान्य है। अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर का पद नहीं होता। आज जब हिन्दू से सिख को अलग कहा जाता है तो निश्चय ही यह देश की सांस्कृतिक एकता पर कुठाराघात है।

    नागाओं का इतिहास से ज्ञात होता है कि जब-जब हिंदू धर्म को समाप्त करने के प्रयास किए गए, साधु-संतों ने आत्म बलिदानी युवाओं को शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी दी। अखाड़ा शब्द अखंड का अपभ्रंश है। विश्वनाथ मंदिर को बचाने के लिए 1664 में औरंगजेब के सेनापति मिर्जा अली तुंग तथा अब्दुल अली के साथ हजारों सशस्त्र नागा सन्तों का युद्ध हुआ। इस युद्ध में श्री देशगिरिजी नक्खी के नेतृत्व में मिर्जा अली तुंग तथा अब्दुल अली को परास्त कर विश्वनाथ मंदिर की रक्षा की। हरिद्वार में मुगल सेना के साथ सन् 1666 में नागाओं का युद्ध हुआ। इसमें मुगल सेना परास्त हुई। इस प्रकार 16वीं, सत्रहवीं शताब्दी में विधर्मियों के साथ इन नागाओं द्वारा किये गये धर्मरक्षार्थ युद्ध का इतिहास भरा पड़ा है। इनका देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में भी अहम योगदान है।

 मैं कहने कुछ और चला था परन्तु कुछ और लिखता चला गया गया। अस्तु । इतिहास बोध भी होना जरूरी है। अन्यथा इतना भर कह दिया जाता है कि पुजारियों ने सोमनाथ मंदिर को लुटन से नहीं बचा सके।

हम नगरीय सभ्यता में रहते हुए टेलीविजन पर चलने वाले बहस को सुनकर कितना दिग्भ्रमित है? अभी और लिखना शेष है। धीरे धीरे लिख दूंगा।

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संस्कृत व्याकरण का अनुपम ग्रन्थ प्रबोध चन्द्रिका

वैजलभूपति कृत 'प्रबोध चन्द्रिका'व्याकरण विषयक ग्रन्थ है। आज इस पुस्तक को जब पढ़ना आरम्भ किया तो आनन्द बढ़ता चला गया। ग्रंथकार भी हमें इस पुस्तक को पढ़ने का आह्वान करते हुए लिखते हैं - इस पुस्तक से पहले अनेक प्रक्रिया ग्रंथों की रचना हो चुकी है। यदि प्रक्रिया की विधियां बहुत सी हैंतो रहेंउससे क्या हानि हैअथवा भ्रमरों के द्वारा क्या चमेली और मधु का पान अनादृत किया जाता है अर्थात् नहीं। उसी प्रकार व्याकरण की पुस्तकें रहते हुए भी जिज्ञासु पाठक अन्य प्रक्रिया ग्रन्थों के समान इस पुस्तक का भी आदर करेंगे । ३५ ।

बहवः प्रक्रिया पन्थाः सन्ति चेत् सन्तु का क्षतिः ।

मालती-मधुनो भृङ्गः किं वा पानमनादृतम् ॥३५॥



मैं श्लोकबद्ध व्याकरण की पुस्तकें पहले भी देखा हूँ परन्तु इतना रोचक और सरल भाषा में लिखित पुस्तक दुर्लभ है। इसमें व्याकरण के सूत्रों के स्थान पर उनके नियमों का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। राम के जीवनवृत्त को लक्ष्य में रखकर व्याकरण के प्रयोग को प्रदर्शित करना, यह अपने आप में मुग्धकर है। लगता है लेखक को राम के प्रति प्रगाढ़ प्रीति रही होगी। वर्षों तक इस प्रकार के ग्रन्थों के द्वारा व्याकरण को सरस तथा सरल बनाने का प्रयास किया जाता रहा है।  

 यह ग्रन्थ सारस्वत व्याकरण में कहे स्यादि तथा त्यादि विभक्ति के नाम को यथावत् स्वीकार करता हैं। अथ विभक्तिः विभाव्यते। सा द्विधा । स्यादिस्त्यादिश्च ।

इसमें विभक्ति के लिए १२२ श्लोक, कारक के लिए ४६ श्लोक, त्यादिविभक्ति, तद्धित प्रत्यय, कृत्प्रत्यय तथा समास के द्वारा जो कारक होता है- अर्थात् जो कारक उक्त/अभिहित होता है, उसके लिए ६४ श्लोक, समास के लिए ३९ श्लोक, तद्धित के लिए ३८ श्लोक, कृत प्रत्ययों के लिए ३६ श्लोक तथा सन्धि के लिए ७० श्लोकों की रचना की है। यह संस्कृत भाषा सीखने के लिए भी अति उपयोगी है।  व्याकरण शास्त्र पढ़ने के बाद इस ग्रंथ को एक बार पढ़ लेने से दृष्टि और भी खुल जाती है। एक उदाहरण देखें -

विभक्तिज्ञानतो यस्मात्प्रबोधः प्रतिपद्यते ।

तस्मादिह प्रथमतो विभक्तिः प्रतिपद्यते ॥३६॥

विभक्ति ज्ञान से प्रबोध [शब्द बोध] होता है । अतः यहाँ सर्वप्रथम विभक्तियों का प्रतिपादन किया जा रहा है ।

विभक्ति दो हैं-स्यादि और त्यादि । २१ स्यदि विभक्तियाँ हैं। उनमें प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, पष्ठी और सप्तमी इन सात विभक्तियों में एकवचन द्विवचन और बहुवचन ये तीन वचन होते हैं ।

ध्यातव्य - विभक्ति शब्द का अर्थ होता है- विभज्यते पृथक् क्रियन्ते कर्तृकर्मादयो यया सा विभक्तिः । इनमें स्यादि विभक्ति नाम अर्थात् [प्रातिपदिक] शब्दों के आगे जुड़ती है। विभक्तिरहित, धातुवर्जित और अर्थवान् शब्द स्वरूप को नाम कहते है। कृदन्त, तद्धितान्त और समस्त पदों [समास] को भी नाम पद से अभिहित किया जाता है। नाम शब्द का पर्याय 'प्रातिपदिक' शब्द पाणिनीय व्याकरण में उपलब्ध होता है । 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्' कृत्तद्धितसमासाश्च । त्यादि विभक्ति धातुओं के आगे जुड़ती है ।

प्रथम च द्वितीया च तृतीया च यथाक्रमम् ।

चतुर्थी पंचमी पष्ठी सप्तमी चेतिताः क्रमात् ॥३८॥

उनमे क्रमशः प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, पष्ठी तथा सप्तमी विभक्तियाँ हैं ।३८।

प्रथमैव विभक्तिः स्यादुक्ते कर्तरि कर्मणि ।

अनुक्ते कर्म कर्त्रादौ द्वितीयाद्या विभक्तयः ॥३६॥

उक्त [अभिहित] कर्त्ता और कर्म में प्रथमा विभक्ति ही होती है । अनभिहित [अनुक्त] कर्म, कर्त्ता आदि में द्वितीयादि विभक्ति होती है ।

विशेष: प्रथमादि विभक्तियाँ कर्तृत्वादि कारकों की सूचक हैं। "तत्र क्रियासिद्ध्युपकारकं कारकम् । तत्र द्वितीयादयो विभक्तयो भवन्ति अनुक्ते । तच्च षड् विधम् ।

कर्ता कर्म च करणं सम्प्रदानं तथैव च ।

अपादानादिकरणे चेत्याहु:कारकाणि षट् ।

उक्तानुक्ततया द्वेधा कारकाणि भवन्ति षट् ।

उक्ते तु प्रथमैव स्यादनुक्ते तु यथाक्रमम् ।

यस्मिन् प्रत्ययो विहितः स उक्तः । न उक्तः अनुक्तः । अभिधानं च प्रायेण तिङ्कृत्तद्धितसमासैः । तिङ्, हरिः सेव्यते । कृत्, लक्षम्या सेवितः। तद्धितः, शतेन क्रीतः शत्यः । समास, प्राप्तः आनन्दोऽयं स प्राप्तानन्दः । क्वचिन्निपातेनाभिधानम् यथा विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तमसाम्प्रतम् । साम्प्रतमित्यस्य हि युज्यत इत्यर्थः ।

तत्रोक्ते कर्तरि यथा रामो जयति वैरिणः ।

रणे रामौ च रामाश्च जयतश्च जयन्ति च ॥४०॥

उनमें अभिहित कर्ता में प्रथमा विभक्ति के विधान के उदाहरण - 'रामो वैरिणः जयति' (राम वैरियों को जीतता है) 'रामौ वेरिणः जयत': (दो राम वैरियों को जीतता हैं) तथा रामा: वैरिणः जयन्ति (बहुत से राम वैरियों को जीतते हैं।) यहाँ क्रमश: एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन का उदाहरण दिया गया है।

विशेष:- प्रस्तुत वाक्यों में जी' धातु से कर्त्रर्थ में लट् लकार विहित है अत: राम उक्त कर्ता है। यहाँ राम शब्द के साथ प्रथमा विभक्ति की गई है।

संस्कृत में तीन वाच्य होते हैं - १ कर्तृवाच्य २ कर्मवाच्य तथा ३. भाव वाच्य । सकर्मक धातुओं से कर्तृवाच्य और कर्म वाच्य में प्रत्यय होते हैं। अकर्मक धातुओं से कर्तृवाक्य और भाववाच्य में प्रत्यय होते हैं। कर्तृवाच्य में कर्ता मुख्य होता है, क्रिया कर्ता के अनुसार चलती है । कर्ता में प्रथमा, कर्म में द्वितीया प्रौर क्रिया कर्ता के अनुसार होती है ।

 सम्बोधनेऽपि प्रथमा विभक्तिर्भवति ध्रुवम् ।

यथा हे राम हे रामौ हे रामाः इत्यनुक्रमात् ।।४१॥

निश्चित ही सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है। जैसे- 'हे राम, हे, रामौ, है रामाः" इन वाक्यों में राम शब्द से प्रथमा विभक्ति विहित है।

ध्यातव्य - "आभिमुख्याभिव्यक्तये हे शब्दस्य प्राक्प्रयोगः" इस नियम के अनुसार राम के आभिमुख्य की अभिव्यक्ति के लिये हे शब्द का प्रयोग किया गया है।

हे शब्देन विनापि स्यात्क्वचिदंतेऽपि हे भवेत् ।

यथा राम प्रसीद त्वं राम हे त्वां भजाम्यहम् ।।४२।।

 हे शब्द के बिना भी प्रथमा विभक्ति होती है। कहीं अन्त में भी 'हे' हो तो इसका विधान होता है जैसे 'राम ! त्वं प्रसीद' 'राम ! हे ! अहं त्वां भजामि" – इसके प्रथम वाक्य में हे शब्द के बिना सम्बोधन में राम शब्द का प्रयोग किया गया है तथा द्वितीय वाक्य में शब्द के अन्त में हे का प्रयोग किया गया है । इन दोनं स्थितियों में प्रथमा विभक्ति विहित है ॥४२।।

विशेष:- हे शब्द के विना भी सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के उदाहरण निम्न श्लोक में दृष्टव्य है:-

मां समुद्धर गोबिन्द ! प्रसीद परमेश्वर ।

कुमारौ स्वरमासाथां क्षमध्वं भो तपस्विनः ।

इत्युदाहरणं दत्तमुक्ते कर्तरि केवलम् ।

अथोदाहरणं किञ्चदुक्ते कर्मणि दीयते ॥४३॥

इस प्रकार यह अभिहित कर्ता में प्रथमा विभक्ति का उदाहरण दिया गया है। अब अभिहित कर्म में प्रथमा विभक्ति का कुछ उदाहरण दिया जा रहा है।

न जीयते न जीयेते न जीयन्ते रथाङ्गणे ।

रामो रामौ च रामाश्च शत्रुभिश्चेति निश्चितम् ।।४४।।

 'निश्चितं रणाङ्गणे शत्रुभिः रामः न जीयते' निश्चित ही युद्ध स्थल में शत्रुओं के द्वारा राम नहीं जीता जाता है ।' रणाङ्गणे शत्रुभिः रामौ न जीयेते' (युद्ध स्थल में शत्रुओं के द्वारा दो राम नहीं जीते जाते हैं। 'रणाङ्गणे शत्रुभिः रामाः न जीयन्ते' युद्ध स्थल में शत्रुओं के द्वारा बहुत से राम नहीं जीते जाते हैं।

विशेष:- प्रस्तुत वाक्यों में 'जि जये' धातु से कर्मार्थ में प्रत्यय हुआ है। अतः 'कर्म' राम शब्द उक्त होने के कारण कर्म में प्रथमा विभक्ति को गई है। यह 'कर्मवाच्य' का उदाहरण है। कर्मवाच्य में कर्म मुख्य होता है और कर्म के अनुसार ही क्रिया, पुरुष, वचन तथा लिंग होता है। कर्मवाच्य में कर्त्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा और किया कर्म के अनुसार होती है।

प्रथमान्तस्य कर्तुश्च कर्मणश्चानुगद्यते ।

संख्यात्योदरनुक्तस्य न कदापीति बुध्यताम् ।।४५।।

प्रथमान्त कर्ता एवं प्रथमान्त कर्म के अनुसार त्यादि विभक्तियों की संख्या होती है। अनुक्त कर्ता एवं कर्म के अनुसार त्यादि विभक्तियों की संख्या कभी नहीं होती- यह ज्ञातव्य है ॥४५॥

विशेष:- अभिहित कर्ता एवं कर्म के अनुसार ही तिङ् (आख्यात) विभक्तियों में वचन होता है। अनभिहित कर्ता एवं कर्म के अनुसार तिङ् (आख्यात) विभक्तियों में वचन नहीं होता है ।

अनुक्ते कर्मणि भवेत् द्वितीया सा तु दर्श्यते ।

रामं रामौ च रामांश्च भजाम्यहमहर्निशम् ॥४६।।

अनुक्त (अनभिहित) कर्म में द्वितीया होती है। इसका उदाहरण दिया जा रहा है। जैसे-अहं अहर्णिशं रामं, रामौ रामांश्च भजामिइस वाक्य में अनुक्त कर्म राम में द्वितीया विभक्ति का विधान किया गया है । ४६ ।

अनुक्ते कर्तरि भवेतृतीया करणेऽपि च ।

यथा रामेण रामाभ्यां रामैर्वा जीयते रिपुः ।।४७।।

अनुक्त कर्ता तथा करण में तृतीया होती है। जैसे- "रामेण रामाभ्यां में रामैर्वा रिपुः जीयते" (एक राम, दो रामों अथवा तीन रामों के द्वारा शत्रु जीता जाता है) । इस वाक्य में अनुक्त कर्ता राम में तृतीया की गई है ।। ४७।।

करणे दीयते किञ्चिदुदाहरणमुत्तमम् ।

रामः शिरांशि शत्रूणां निक्रंततिशितैः शरैः ॥४८॥

करण में तृतीया के विधान का एक उत्तम उदाहरण दिया जा रहा है । ( रामः शितैः शरैः शत्रूणां शिरांसि नितति ) राम तीखे वाणों से वैरियों के सिर काटता है । यहाँ शित तथा शर शब्दों में करण में तृतीया विहित है ॥४८॥

अनुक्ते स्यात् संप्रदाने चतुर्थी सा निगद्यते ।

फलं रामाय रामाभ्यां रामेभ्योदत्तमुत्तमैः ॥४६॥

अनुक्त सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। इसका उदाहरण है- "उत्तमैः रामाय, रामाभ्यां, रामेभ्यः फलं दत्तम्' श्रेष्ठ जनों ने एक राम, दो राम, तीन राम के लिए फल दिया ।।४६ ।।

विशेष: स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकपरसत्वापादनं सम्प्रदानम् ।

अनुक्ते स्यादपादाने पंचमी साविधीयते ।

यथा रामाञ्च रामाभ्यां रामेभ्यो भक्तिरीप्सिता ॥ ५० ॥

अनुक्त अपादान में पञ्चमी विभक्ति का विधान किया जाता है जैसे 'रामात्, रामाभ्याम् रामेभ्यो शक्तिः ईप्सिता ( राम से भक्ति चाही गई ) ।।५।।।

अनुक्ते स्यात्तु सम्बन्धे षष्ठी तस्या उदाहृतिः ।

रामस्य रामयोश्चापि रामाणां कीर्तिरुत्तमा ॥५१॥

अनुक्त सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति की जाती है। इसका उदाहरण है- 'रामस्य, रामयोः, रामाणामपि च कीर्तिः उत्तमा अस्ति' । राम की कीर्ति श्रेष्ठ है ।। ५१॥

अनुक्ते चाधिकरणे सप्तमी जायते यथा ।

रामे च रामयोश्चापि रामेषु श्रीर्विहारिणी ॥ ५२ ॥

अनुक्त अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे- रामे, रामयोः, रामेषु चापि श्री विहारिणी अस्ति। राम में शोभा विहार करने वाला है ।। ५२ ।।

इत्युदाहृतयो दत्ताः सप्तस्वपि विभक्तिषु ।

केनचित्कारणेनासामन्यत्रावस्थितिर्यथा ॥५३॥

इस प्रकार सातों विभक्तियों में उदाहरण दिये गये है। इन विभक्तियों की कारणान्तर से अन्यत्र भी अवस्थिति होती है। इनके उदाहरण आगे प्रस्तुत किये जा रहे हैं ।।५३।।

रामश्च वैयाकरणः सा वैयाकरणी वधूः ।

तद्व्याकरणं सैन्यमित्थं भवति तद्धितम् ।।

रामः वैयाकरणः (राम व्याकरण पढ़ने वाला या जानने वाला) सा वधूः वैयाकरणी  (वह वधू व्याकरण पढ़ने वाली या जानने वाली) , तत् सैन्यम् वैयाकरणम् (वह सैन्य व्याकरण पढ़ने वाला या जानने वाला) इस प्रकार तद्धित होता है ।

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