मैं कुछ दिनों से अस्वस्थ चल रहा हूँ अतः सायंकाल समाचार सुनने के लिए टेलीविजन के सामने बैठ जाता हूँ। इसी बीच एक ख्यातिप्राप्त संत द्वारा आत्महत्या किये जाने का समाचार टेलीविजन की सुर्खियां बनती है। उसकी जद में संत समाज, अखाड़े, वहां की सम्पत्ति आदि पर बहस का दौर शुरू हो जाता है। टेलीविज़न के माध्यम से प्राप्त दिव्य ज्ञान को सुनकर मुझे भी कुछ लिखने की इच्छा होने लगी है। मेरे जीवन का पूर्वार्ध इन्हीं संतों के बीच गुजरा है। उनके बीच रहते मैंने जो कुछ जाना, जीया और समझा उसके बारे में कहां से लिखना आरम्भ करूँ? लेखन अव्यवस्थित होगा। प्रसंग को आप व्यवस्थित कर लीजियेगा।
एक टेलीविजन वाले कह रहे थे कि शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना की है। इस वाक्य को जिसने भी लिखा होगा, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता। सार्वजनिक रूप से एस प्रकार का अधकचरा ज्ञान नहीं पसोसना चाहिए। क्या आदि शंकराचार्य के गुरु गौड़पादाचार्य का सम्बन्ध सनातन धर्म से नहीं था? अगस्त्य, विश्वामित्र आदि ऋषि तथा राम, कृष्ण आदि शंकराचार्य के बाद पैदा हुए होंगे? या इनके पूर्ववर्ती सनातन धर्म के मानने वाले नहीं होंगे? आदि शंकराचार्य ने जिस प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखा वे ग्रन्थ विधर्मियों के हैं? इसी प्रकार का अधकचरा ज्ञान टेलीविजन वाले देते हैं। लोग सुनते हैं और बहस करते हैं।
आइये अपनी बात लिखूँ। तब मैं जगद्गुरु रामानन्दाचार्य के पीठ पंचगंगा घाट, वाराणसी में रहकर जगद्गुरु रामनरेशाचार्य जी से न्याय सिद्धांत मुक्तावली पढ़ा करता था । उसी समय वहां से एक स्मारिका प्रकाशित हो रही थी, जिसमें अखाड़ों का इतिहास भी प्रकाशित हो रहा था। उस पत्रिका की प्रूफ रीडिंग करते समय मेरा पहला परिचय अखाड़ों के साथ हुआ। वाराणसी में लगभग हरेक अखाड़े का आश्रम है। उदासीन, वैष्णव तथा निर्माणी, निर्मोही अखाड़े के साथ मेरी खट्टी मीठी यादें जुड़ी हुई है। संतों की स्थिति से तब भी दो चार होते रहता था। आज मेरे कई मित्र संत जीवन में हैं। उनके बीच का संकट नगरीय जीवन जीने वाला नहीं समझ पाता। वे 'संतों को सम्पत्ति से क्या मतलब' जैसी बेतुके बातें कहकर आगे बढ़ लेते हैं। मुझे रूग्णावस्था में मिले अयोध्या निवासी एक दिव्यांग संत बरबस याद हो आते हैं, जिन्हें कई वर्षों से पेंशन नहीं मिला था। उनकी स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। पुरी में रह रहे वृद्धावस्था के कारण आंखों से ठीक न देख सकने वाले रामकृष्ण दास जी से नेपाल निवासी एक महिला संत के बारे में मेरे द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने हृदय विदारक सूचना दी कि उन्हें स्तन कैंसर हो गया था। परिवार के लोग ले गये। करोना काल में पीताम्बर धारी संत, जो उत्तराखंड में गुफाओं में निवास करते थे, उनके उपचार में लाखों रूपये लग गये।
संत जितने मृदु होते हैं, अपनों के प्रति उतने ही कठोर भी। कब कहां से बोरिया विस्तर समेटने का समय आ जाय, कोई नहीं जानता। आखिर जो संत हमारे धर्म के प्रेरणास्रोत हैं, जिनसे हम आध्यात्मिक जीवन का मार्गदर्शन पाते हैं, हम उन्हें क्या दे पाते हैं? वे किसकी जिम्मेदारी हैं? व्यावहारिक जीवन में वे किसके सहारे रहें? मठ मंदिर में भगवान का भोग, आरती, उत्सव, आये-गये श्रद्धालुओं का आध्यात्मिक विकास आदि कार्य विना आर्थिक संसाधन के नहीं होते। मधुकरी वृत्ति वाले संत यदि शहर में किसी से अन्न जल मांग कर लें तो उसे भिखारी समझा जाता है। तीर्थ यात्रा के लिए पैदल दूरी तय करना तभी संभव है, जब बीच में भोजन आवास की व्यवस्था हो। इन रमता संतों की चिंता के लिए धन चाहिए। आवागमन के लिए धन चाहिए। इनकी आवश्यताओं की पूर्ति के लिए मठ को धनवान् बनना पड़ता है। मठाधीश धर्म प्रचारक हैं। धर्म प्रचारक और तपस्वी संत में मौलिक अंतर होता है। तपस्वी अपने आत्मोद्धार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।
शंकराचार्य ने यह महसूस किया कि सनातन संस्कृति को
अक्षुण्ण एवं एकजुट रखने के लिए मठों की आवश्यता है। यहाँ से धर्म प्रचार को
संचालित किया जाय, ताकि जनता भ्रमित नहीं हो। याद रखें कि भगवान् बुद्ध ने मठों की
स्थापना के द्वारा सनातन परंपरा को एकांगी बना दिया था। इसके दुष्परिणाम स्वरूप
देश शस्त्रविहीन होकर विदेशी आक्रान्ताओं से त्राहिमाम् कर रही थी। इसकी धार्मिक
सीमा की रक्षा भजनान्दी साधुओं से होना सम्भव नहीं था। अतः देश के चारों दिशाओं
में 4 मठों की स्थापना तदनन्तर सशस्त्र बल के रूप में अखाड़ों की स्थापना की थी। इनकी
अनुपस्थिति में धर्मान्तरण को बल मिलता है। अंततः देश असुरक्षित होता है। देश
बंटता है।
काशी के पंचगंगा घाट पर रहते हुए मुझे वहां से दूसरे स्थान पर रहने जाने को
कहा गया। मेरे परिचित गुरुजी निर्मल संस्कृत महाविद्यालय में प्राचार्य थे।
उन्होंने वहां के एक संत से कहकर मुझे श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा के किसी भवन में
एक कक्ष दिला दिया। हिन्दू धर्म से सिख धर्म अलग नहीं है। इसके लिए श्री पंचायती
निर्मल अखाड़ा का इतिहास यहां बता दूँ। इसकी स्थापना सन् 1856,
विक्रमी संवत् 1912 में चनार में पटियाला,
फरीदकोट, संगरूर, नाभा तथा कलासिया के महाराजाओं के सहयोग से बाबा महताब सिंह
ने की थी। इस अखाड़े के नाम को गुरुनानक देवजी के प्रथम शिष्य भगीरथ सिंह ने
बढ़ाया। उन्होंने ही निर्मल संप्रदाय का गठन किया। गुरुगोविंद सिंहजी ने पाँच
निर्मल गैरिक धारियों (भगवा वस्त्रधारियों) को धर्मशात्र पढ़ने के लिए काशी भेजा,
इन पाँचों को विशेष उपाधि दी और सिख समाज को इन पाँचों
निर्मल संतों की पूजा करने का आदेश दिया। काशी में यहाँ के संत हिन्दू धर्म
ग्रन्थों को पढ़ते हैं। तब मैं इन संतों तथा अन्य संतों में किसी प्रकार का अंतर
महसूस नहीं कर सका था। बताता चलूं कि महाराजा पटियाला नरेंद्र सिंहजी ने महाराजा
जींद से परामर्श करके दो गाँवों झंडी और कल्लर से प्राप्त होनेवाली आमदनी के साथ
ही 20 हजार रुपए नगद इस अखाड़े को देने की व्यवस्था की। महाराजा नाभा ने 16
हजार रुपए नगद और हरिगाँव का स्वामित्व अखाड़े को सौंपा।
महाराजा जींद ने 20 हजार रुपए के साथ मंडलवाला तथा बल्लभगढ़ दो गाँव सौंपे।
महाराजा फरीदकोट ने अखाड़े को अपनी रियासत का चमेली गाँव भेंट किया था। इस अखाड़े
का मुख्यालय हरिद्वार में है तथा शाखाएँ। प्रयाग,
उज्जैन, नासिक और त्र्यंबकेश्वर आदि में हैं। अखाड़े के इष्टदेव
श्री गुरुग्रंथ साहिबजी हैं। साथ ही अखाड़े में शिव तथा वैदिक स्वरूपों की भी
उपासना मान्य है। अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर का पद नहीं होता। आज जब हिन्दू
से सिख को अलग कहा जाता है तो निश्चय ही यह देश की सांस्कृतिक एकता पर कुठाराघात
है।
नागाओं का इतिहास से ज्ञात होता है कि जब-जब हिंदू धर्म को समाप्त करने के प्रयास किए गए, साधु-संतों ने आत्म बलिदानी युवाओं को शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी दी। अखाड़ा शब्द अखंड का अपभ्रंश है। विश्वनाथ मंदिर को बचाने के लिए 1664 में औरंगजेब के सेनापति मिर्जा अली तुंग तथा अब्दुल अली के साथ हजारों सशस्त्र नागा सन्तों का युद्ध हुआ। इस युद्ध में श्री देशगिरिजी नक्खी के नेतृत्व में मिर्जा अली तुंग तथा अब्दुल अली को परास्त कर विश्वनाथ मंदिर की रक्षा की। हरिद्वार में मुगल सेना के साथ सन् 1666 में नागाओं का युद्ध हुआ। इसमें मुगल सेना परास्त हुई। इस प्रकार 16वीं, सत्रहवीं शताब्दी में विधर्मियों के साथ इन नागाओं द्वारा किये गये धर्मरक्षार्थ युद्ध का इतिहास भरा पड़ा है। इनका देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में भी अहम योगदान है।
मैं
कहने कुछ और चला था परन्तु कुछ और लिखता चला गया गया। अस्तु । इतिहास बोध भी होना
जरूरी है। अन्यथा इतना भर कह दिया जाता है कि पुजारियों ने सोमनाथ मंदिर को लुटन
से नहीं बचा सके।
हम नगरीय सभ्यता में रहते हुए टेलीविजन पर चलने वाले बहस को सुनकर कितना दिग्भ्रमित है? अभी और लिखना शेष है। धीरे धीरे लिख दूंगा।