मंगल शब्द (मगि+मंगलेरलच्) से बना
है। मंगल शब्द के पर्याय है-कल्याण, शुभ, प्रस्तुत, भद्रम्, स्वश्रेयम्,
शिवम्, अरिष्टम्, कुशलम्
रिष्टम्। शब्दकल्पद्रुम के अनुसार अभिप्रेतार्थ सिद्धि को मंगल कहा गया है।
मेदिनीकोश के अनुसार मंगल का अर्थ है- सर्वार्थ रक्षण। महाभाष्य की प्रदीप टीका
में मंगल का अर्थ कहा गया है- अगर्हित अभीष्ट की सिद्धि ‘‘
अगर्हिताभीष्टार्थसिद्धिः मंगलम्’’।
प्रशस्त आचरण तथा अप्रशस्त कर्म के परित्याग
को मंगलाचरण कहा जाता है।
महाभाष्यकर पतंजलि ने पश्पशाह्निक में सिद्धे
शब्दार्थसम्बन्धे के व्याख्यानावसर पर मंगल की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं ‘‘मंगलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि च भवन्ति, आयुष्यमत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति।
मांगलिक आचार्य महान् शास्त्र समुदाय के मंगल
के लिए सिद्ध शब्द का आदि में प्रयोग करता है, क्योंकि आदि
(ग्रन्थारम्भ) में मंगलाचरण करने से शास्त्र प्रसिद्ध होते हैं, इनके ज्ञाता वीर पुरुष तथा दीर्घायु होते हैं और उनके पढ़ने वाले का अभीष्ट भी
सिद्ध होता है।
भारतीय परम्परानुसार अपने या किसी के अभ्युदय,
कार्यसिद्धि, मनोकामना पूर्ति, सुरक्षा आदि हेतु, ईश पूजन, वन्दन
तथा आर्शीग्रहण करने की परम्परा रही है। अनेक स्थलों पर मांगलिक वस्तुओं तथा
प्रतीकों के निदर्शन की परम्परा प्राप्त होती है। स्मृतिशास्त्रों में मंगलकामनाओं
हेतु विभिन्न प्रकार के मांगलिक पद्य दृष्टिगोचर होते है।
अमूर्त,
पर्यावरणीय कारकों, पूर्वजों, देवों के लिए तथा उनसे मंगल कामना की गयी है। वर्णाश्रमिकों, विभिन्न समुदायों, जीवों के लिए तदनुरुप मंगलकामना
की गयी है। जैसे स्त्रियों के लिए सौभाग्य, स्नातक के लिए
गुरुकृपा तथा विद्यालाभ आदि। वस्तुओं द्वारा भी मंगल रुप व्यक्त किया गया है, जैसे
यज्ञोपवीत संस्कार में अजित, दण्ड, विवाह
में लाजा आदि।
स्मृतियों में मंगलकामनाओं के जिन विविध
पद्यों स्वरुपों का वर्णन प्राप्त होते हैं, उनका आंशिक
निदर्शन यहाँ कर रहा हूँ-
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य
वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।। मनुस्मृति 2/121
शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविशते्।
शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्।।
मनुस्मृति 2/119
बड़ों (गुरु,
माता, पिता आदि स्वजनों) की शय्या और आसन पर
स्वयं न बैठे, स्वयं बैठै हो तो गुरुजनों के आने पर उठकर
प्रणाम करें। यहाँ अभिवादन शब्द मंगलवाची है।
यद्यस्य विहितं चर्म यत्सूत्रं या च मेखला।
यो दण्डो यच्च वसनं तत्तदस्य व्रतेष्वपि।।
मनुस्मृति 2/174
ब्रह्मचारी के लिए
जो चर्म,
सूत्र, मेखला, दण्ड और
वस्त्र यज्ञोपवीत में बतलायें गये हैं, उन्हें व्रतों में भी
धारण करना चाहिये। इसमें चर्म, सूत्र, मेखला,
दण्ड और वस्त्र मांगलिक वस्तुएँ हैं। अतः ये शब्द मंगलवाची हैं।
नित्यं स्नात्वा शुचिः
कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्।
देवताऽभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च।।
मनुस्मृति 2/176
ब्रहमचारी नित्य
स्नानकर देवताओं, ऋषियों तथा पितरों
का तर्पण, शिव और विष्णु आदि देव प्रतिमाओं का पूजन तथा
प्रातः एवं सायंकाल हवन करे। इसमें मांगलिक कर्मों का निर्देश किया गया है।
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः।
वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भवः स्वरितीति च।।
मनुस्मृति 2/76
इस श्लोक का
प्रारम्भ मांगलवाची अकार से किया गया है। भुः भुवः, स्वः भी मांगलिक हैं।
ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्रवत्यनोङकृतं पूर्वम्, पुरस्ताच्च विशीर्यति।। मनुस्मृति 2/74
शिष्य को वेद के
प्रारम्भ में और अन्त में ऊँ शब्द का उच्चारण करना चहिये। इसमें प्रणव ऊँ मांगलिक
वर्ण है।
ओंकारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोव्ययाः।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणो
मुखम्।। मनुस्मृति 2/81
ओंकार पूर्विका
(जिनके पहले ऊँ कार है, ऐसी) से तीनों
महाव्याहृतियाॅ (भू, भूवः स्वः अविनश्वर ब्रह्म की प्राप्ति
कराने से) अव्यय (नाशरहित) है और त्रिपदा सावित्री वेदों का मुख (आदि भाग है अथवा
ब्रह्मप्राप्ति का द्वार है)। प्रस्तुत श्लोक में ओंकार ईश्वर प्राप्ति का साधन
बताया गया है अतः यह मांगलिक शब्द है।
इस प्रकार स्पष्ट
है कि स्मृतियों में मांगलिक पद्यों का स्वरुप अत्यधिक विस्तृत रुप में है। मंगल
का स्वरुप आशीर्वादात्मक, वस्तु निर्देशात्मक
तथा मांगलिक कर्मों की बहुलता उद्भासित होती है।
क्रमशः-
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