योग की महायात्रा

       योग की यात्रा उपनिषदों से शुरु होकर बौद्ध, जैन, तन्त्रागम, संहिता होते हुए गीता में पूर्ण होती है। इससे सिद्ध है कि योग के अनेक पथ परन्तु एक लक्ष्य है। उसे ही आत्मा और परमात्मा का मिलन अथवा समाधि कहा गया है। पातञ्जलयोग दर्शन में पतंजलि ने अपने से पूर्ववर्ती औपनिषदिक तथा सांख्य के आचार्यों के सिद्धान्तों को लेकर योग विद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। इसे अष्टांगयोग अथवा राजयोग कहते हैं। प्रस्तुत आलेख में पूर्वोक्त विषयों के साथ योग की परिभाषा, चित्त का स्वरुप, चित्त की अवस्था तथा अष्टांग साधन की चर्चा की गयी है।
   
   
मैं अपने इस ब्लाग पर प्रतिवर्ष विश्व योग दिवस के अवसर पर भारतीय योग विद्या पर लेख लिखता आया हूँ।गत वर्ष 21 जून 2016 को योग दिवस के अवसर पर योगः एक प्रायोगिक विज्ञान नामक लेख लिखा था।
योग की समस्त पुस्तकें संस्कृत भाषा में लिखी है। यहाँ अनेक पारिभाषिक शब्द होते हैं,जिसका सही अर्थ जानने के लिए हमें अन्य सन्दर्भ ग्रन्थों की सहायता लेनी पड़ती है। विना संस्कृत पढ़े गूढ़ विषय की सही जानकारी नहीं हो पाती। मेरा बचपन और अब युवावस्था इन्हीं संस्कृत ग्रन्थों के अध्ययन करते बीता। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मुझसे जितना सम्भव हो रहा है इस वर्ष भी इस विषय पर प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध करा रहा हूँ।
भारतीय दर्शन परम्परा में योग परम्परा को तीन खण्डों में विभाजित किया जाता है। 
1. वैदिक काल (वेद तथा उपनिषद् साहित्य )
2. उत्तर वैदिक काल ( जैन, बौद्ध साहित्य, योग वाशिष्ठ, संहिता, तन्त्र, आगम ग्रन्थ आदि )
3. दर्शन काल ( पातंजल योग, गीता तथा विभिन्न शास्त्रों के दर्शन ग्रन्थ )
 उपर्युक्त योग की अविच्छिन्न परम्परा में लक्ष्य/साध्य एक ही है,परन्तु साधन भिन्न- भिन्न है। संस्कृत के ग्रन्थों में योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया गया है। इसका मूल कारण यह है कि इस योग शब्द की उत्पत्ति तीन अलग-अलग धातुओं से हुई है। ये मूल धातुएँ हैं-
1. युज् समाधौ- दिवादि गण   समाधि अर्थ में पतंजलि तथा सांख्य में प्रोक्त
2. युजिर् योगे-रुधादि गण      योग अर्थ में न्याय, वैशेषिक तथा वेदान्त दर्शन में प्रयुक्त
3. युज् संयमने- चुरादि गण    संयमन अर्थ में  
युजिर् में भी युज् शेष बचता है। युज् धातु से घञ् प्रत्यय करने पर योग शब्द बनता है।  भारत के प्राचीन शास्त्र ग्रन्थों में योग की परिभाषा अलग-अलग की गयी है।
 उपनिषदों में युजिर् योगे धातु से सम्पन्न योग है। संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः। यह जीवात्मा और परमात्मा के संयोग को लक्षित करता है,जबकि पतंजलि तथा सांख्य प्रोक्त योग युज् समाधौ धातु से सम्पन्न होने के कारण समाधि को लक्षित करता है। योग साध्य है,जिसका साधन अष्टाङ्ग है।  प्रस्तुत आलेख में गीता में कहे समत्वं योग उच्यते को आधार माना हूँ। छान्दोग्य, बृहदारण्यक,श्वेताश्वतर उपनिषद् में योग के बारे में सूत्रात्मक जानकारी मिलती है। योग दर्शन पर कुछ स्वतंत्र उपनिषदें भी प्राप्त होती है। महर्षि पतंजलि (ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी) योग के प्रथम प्रतिष्ठित आचार्य माने जाते हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम योग विद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। व्याकरण (अष्टाध्यायी पर महाभाष्य) तथा आयुर्वेद के अतिरिक्त इन्होंने योग दर्शन नामक पुस्तक की रचना की। श्रावण कृष्ण पंचमी(नागपंचमी) को वारणसी में स्थित नागकूँआ मुहल्ले में आज भी संस्कृत विद्वानों का शास्त्रार्थ होता है। माना जाता है कि इसी स्थान पर इसी तिथि को महर्षि पतंजलि का अवतार हुआ था। पतञ्जलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।
              योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
              योsपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोsस्मि।

       इस पुस्तक को पातंजलयोगदर्शनम् कहा जाता है। भारतीय दर्शन में योग एक दर्शन है। तन्त्र के ग्रन्थों, उमास्वाती के तत्वार्थसूत्र में योग का वर्णन प्राप्त होते हैं। इसका चरम लक्ष्य समाधि है। पतंजलि कृत योग दर्शन पर सांख्य दर्शन का गहरा प्रभाव है। योग दर्शन के टीकाकार नारायणतीर्थ ने योगसिद्धान्त चन्द्रिका में षट्कर्म, षट्चक्र, कुण्डलिनी, शक्ति आदि नवीन विषयों की उद्भावना की। इन्होंने साधनभूत योग के क्रियायोग, चर्यायोग, कर्मयोग, हठयोग, मन्त्रयोग, ज्ञानयोग,अद्वैतयोग,लक्ष्ययोग, ब्रह्मयोग, शिवयोग, सिद्धियोग, वासनायोग, लययोग,ध्यानयोग, तथा प्रेमभक्तियोग के नाम से सूत्रों की चर्चा करते हुए राजयोग के असम्प्रज्ञात समाधि का पर्याय बताया। समाधि के दो भेदों असम्प्रज्ञात तथा सम्प्रज्ञात में अन्तर यह है कि सम्प्रज्ञात साधि चित्त की एकाग्र अवस्था में होती है,जिसमें राजसिक और तामसिक वृत्तियों का निरोध होता है। चित्त में सत्वज्ञान प्रधान वृत्तियाँ रहती है।  पतंजलि कृत राजयोग को अष्टांग योग कहा जाता है। योग की परिभाषा करते हुए पतंजलि ने कहा कि योगः चित्तवृत्तिनिरोधः। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। अतः योग को समझने के पहले चित्त और उसकी वृत्ति को समझना आवश्यक है।
योग दर्शन में चित्त से मन, बुद्धि और अहंकार को लिया गया है। मन ही कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय को कार्यों में लगाये रखता है। ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में मन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। एक मंत्र में कहा गया है कि-
                मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
                बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥
अर्थात् : मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। इन्द्रियविषयासक्त मन बंधन का कारण है और विषयोँ से विरक्त मन मुक्ति का कारण है ।" गीता में भी अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं-
               योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
               एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।6- 33
               चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
               तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || 34
अतः मन को सामान्यावस्था पर लाये विना किसी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। सुखदुःखे समे कृत्वा--। समत्वं योग उच्यते। अस्तु। 
चित्त की शुद्धि के लिए आहार और विहार (रहन सहन) का सही होना आवश्यक है, अन्यथा योग नहीं होकर केवल शारीरिक व्यायाम मात्र होकर रह जाएगा। योग के आठ अंगों को अपनाकर ही योग के चरम लक्ष्य को पाया जा सकता है। गीता में नियमित या सही-सही, नपा-तुला भोजन का निर्देश प्राप्त होता है-
              युक्ताहारविहारस्य युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
              युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा ।।6-17।।
  सत्व रज और तम इन तीनों गुणों की उद्रेक के अनुसार चित्त की निम्नलिखित तीन अवस्थाएं होती है।
1. प्रख्याशील 2. प्रकृतिशील 3. स्थितिशील। 
प्रथम अवस्था का चित्त सत्व प्रधान होता हुआ रज और तम से संयुक्त होकर अणिमा,महिमा आदि ऐश्वर्य का प्रेमी होता है। प्रकृतिशील अवस्था में तमोगुण से युक्त चित्र अधर्म, अज्ञान,अवैराग्य तथा अनैश्वर्य से संयुक्त होता है। स्थितिशील अवस्था में तम के क्षीण होने पर रजस् के अंश से युक्त होने पर चित्त सर्वत्र प्रकाशमान होता है तथा धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य से व्याप्त होता है।
         योग दर्शन में चित्त की पांच भूमियां अथवा अवस्थाएं स्वीकार की गई है। ये भूमियां है- क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध। इन 5 अवस्थाओं का स्वरूप निर्धारण निम्नवत् है-
1. क्षिप्त-  चंचल स्वभाव को ही यहाँ क्षिप्त कहा गया है। क्षिप्त अवस्था में चित्र चंचल होकर संसार के सुख दुख आदि के लिए परेशान रहता है। इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता रहती है।
2. मूढ-  चित्त की मुढ अवस्था में तमोगुण बढ़ जाता है। तमोगुण के बढ़ जाने से चित्त विवेक शून्य हो जाता है, अतः मूढ़ अवस्था में विवेक न होने के कारण पुरुष क्रोध इत्यादि के द्वारा गलत कार्यों में प्रवृत्त होता है।
3. विक्षिप्त- विक्षिप्त अवस्था में रजोगुण की अपेक्षा सतोगुण का उद्रेक रहता है। सतोगुण की अधिकता के कारण विक्षिप्त अवस्था का चित्त कभी-कभी स्थिर हो जाता है। इस अवस्था में दुख साधनों की ओर प्रवृत्ति न होकर सुख के साधनों की और प्रवृति रहती है। ये तीनों अवस्थाएं समाधि के लिए अनुपयोगी है।
स्तोत्र साहित्य भी योग दर्शन के प्रभाव से अछुता नहीं रह सका। शिवमानस पूजा में योग के तत्वों का उपयोग भक्ति की पराकाष्ठा दिखाने के लिए की गयी है। भक्त अपनी निद्रा को समाधि की स्थिति कहता है।
           आत्मा त्वं गिरिजा मतिः परिजनाः प्राणाः शरीरं गृहं
           पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रासमाधिस्थितिः ।
           संचारस्तु पदोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
           यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शंभो तवाराधनम् ॥ 
4. एकाग्र- एकाग्र अवस्था वह अवस्था है, जिसमें चित्त की बाह्य वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
5. निरुद्ध-  अनिरुद्ध अवस्था में चित्त के समस्त संस्कारों तथा समस्त वृत्तियों का विलय हो जाता है। इन 5 भूमियों में से अंतिम दो भूमियां समाधि के लिए अपेक्षित है।
          पातंजल योगसूत्र के साधनपाद में योग के आठ साधनों की चर्चा की गई है। इससे अविद्या रूपी अशुद्धि का क्षय होता है। भोजवृत्तिकार ने इन आठों अंगों को समाधि के लिए प्रत्यक्ष रुप से सहायक होने से अंतरंग साधन कहा है। इनमें से कुछ  बाधक रूप से विद्यमान हिंसा आदि वितर्कों को निर्मूल करने के द्वारा समाधि को सिद्ध करते हैं। आसन प्रत्याहार आदि के लिए भी यम नियम का पालन करना उपकारक है। यह साधन है- 
        यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोष्टाङ्गानि। 29।
1. यम 2.नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान तथा 8. समाधि। यह आठ साधन योग के अंग भी कहलाते हैं। संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1. यम- यम का अर्थ संयम है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करना)ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना) यम कहे जाते हैं। गीता में इसे दैवी सम्पत् कहा गया है।
     अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्। दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।
    तेज: क्षमा धाति: शौचमद्रोहो नातिमानिता। भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
2. नियम- नियम के भी पांच भेद होते हैं। शौच,(पवित्र), संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान(ईश्वर के लिए स्वयं का समर्पण)।
3. आसन-  योग दर्शन में स्थिर और सुख प्रदान करने वाले बैठने के प्रकार को आसन करते हैं। उपासना में आसन सिद्धि की अत्यंत उपादेयता है। आसन सिद्धि चित्त की एकाग्रता में अत्यंत सहायक होती है। मैंने 9 जून 2015 के योग से मेरा परिचय लेख में हठयोग प्रदीपिका आदि ग्रन्थों में वर्णित आसनों के विस्तृत विवरण दे चुका हूँ।
4. प्राणायाम- श्वास को अन्दर खींचने और बाहर छोड़ने का नाम प्राणायाम है। इसमें श्वास- प्रश्वास की गति को विच्छेदित भी किया जाता है। पतंजलि ने योग सूत्र के अंतर्गत वाह्य, आभ्यंतर, स्तंभवृत्ति तथा प्राणायाम या केवल कुंभक प्राणायाम यह चार भेद बताए गए हैं।
5. प्रत्याहार- जब वाह्य विषयों से इंद्रियों का निरोध (रुकावट) हो जाता है तो उसे प्रत्याहार कहते हैं। मन को वश में कर इन्द्रयों को बाह्यविषयों से रोकने का अभ्यास। इस स्थिति में इंद्रियों की वृत्ति अंतर्मुखी हो जाती है।
6. धारणा-  किसी स्थान विशेष में चित्त को लगा देना धारणा कहलाता है। स्थान विशेष से तात्पर्य नाभिचक्र, हृदयकमल, मूर्धा स्थित ज्योति, नाक के आगे का भाग तथा जिहवा के आगे भाग आदि से है।
7. ध्यान- नाभि आदि उपर्युक्त स्थान विशेष में ध्यान करने योग्य वस्तु का ज्ञान जब एकाकार होकर प्रवाहित होता है तो उसे ध्यान करते हैं। ध्यान में ध्यान ध्याता और ध्येय का भेद बना रहता है।
8. समाधि- जब ध्यान वस्तु का आकार ग्रहण कर लेता है और अपने स्वरूप से शून्यता को प्राप्त हो जाता है तो उसे समाधि कहते हैं। समाधि में ध्यान और ध्याता का भेद मिट जाता है।
विभिन्न ग्रन्थों में प्रतिपाादित योग का स्वरूप
1. योगः कर्मसु कौशलम्- कर्म में कुशलता ही योग है। (गीता)
2. तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। दुःख के संयोग से रहित को योग समझो।  (गीता)
3. संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोः। जीवात्मा और परमात्मा का संयोग योग कहा गया है।(अहिर्बुध्न्य संहिता)
3. समत्वं योग उच्यते। (गीता)
4. तत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। (गीता)
5. पश्य मे योगमैश्वरम्। (गीता)
                                                                                 लेखक- जगदानन्द झा
                                                                                 ब्लागर- संस्कृतभाषी
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1 टिप्पणी:

  1. मान्यवर आपका यह प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय एवं अनुकरणीय है। योग दिवस पर आत्मीय अभिनदंन

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