1. पौरोहित्य का सामान्य परिचय
2. कर्मकाण्डीय मंत्रों तथा श्लोकों का कण्ठस्थीकरण
3. कर्मकाण्डीय ज्योतिष
4. कर्मकाण्ड का प्रायोगिक प्रशिक्षण एवं प्रबंधन
5. शिक्षार्थी पाठयोजना, अभ्यास तथा प्रयोग
1.पौरोहित्य का सामान्य
परिचय
(क)
पौरोहित्य का अर्थ तथा उद्देश्य
(ख)
दैवीय सृष्टि में पुरोहित की भूमिका
(ग)
पौरोहित्य के आधारभूत प्रमुख ग्रन्थ
तथा उनका परिचय
(घ)
पौरोहित्य का वेद, वेदाङ्ग,
धर्मशास्त्र, पुराण से अन्तः सम्बन्ध
(ङ)
नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य कर्मों का सामान्य परिचय
(च)
देव प्रतिष्ठा, देवाराधन, तीर्थ, व्रत, पर्व, उत्सव, संस्कार, दान-उत्सर्ग,
प्रायश्चित, शान्ति, शौचाशौच का सामान्य परिचय
(छ)
गोत्र, प्रवर, शाखा, सूत्र के अनुसार कर्मकाण्ड की क्षेत्रीय परम्परा एवं
विधान
(ज) कर्मकाण्डीय आचार
2.कर्मकाण्डीय मंत्रों श्लोकों का कण्ठस्थीकरण
(क)
स्वस्ति वाचन (14 मंत्र) तथा पौराणिक
मंत्र, तिलक धारण, रक्षा सूत्र मंत्र, दिग्रक्षण, घंटी, शंख, पुस्तक, दीपक,
ब्राह्मण, गणेश अथर्वशीर्ष, पुरुष सूक्त, श्रीसूक्त, रूद्र सूक्त, षोडशोपचार के
वैदिक एवं पौराणिक पूजन मंत्र, षोडश मातृका, सप्तघृतमातृका, आयुष्यमंत्र जप,
पुण्याहवाचन, नवग्रह तथा दशदिक्पाल, पंचलोकपाल, प्रदक्षिणा का वैदिक एवं पौराणिक
मंत्र।
(ख)
विभिन्न प्रकार की विधियों के लिए
आवश्यक मंत्र
3.कर्मकाण्डीय ज्योतिष
(क)
दिन, नक्षत्र, करण, योग, राशि, तिथि, पक्ष, मास, वर्ष (ख) अग्निवास, शिववास,
पंचक विचार (ग) संस्कारों का मूहूर्त विचार (घ) कर्मकाण्ड से सम्बन्धित अन्य
मुहूर्तों का परिचय
4.कर्मकाण्ड का प्रायोगिक प्रशिक्षण एवं प्रबंधन
(क) पंचांग पूजन (गणेश-अम्बिका, कलश स्थापन- पुण्याहवाचन, षोडशमातृका- सप्तघृतमातृका, नान्दि श्राद्ध, आचार्यादि वरण, आयुष्यमंत्र जप)
(ख) नवग्रह पूजन
(ग) अग्नि स्थापन पूर्वक कुण्ड पूजन
(घ) नामकरण, उपनयन, विवाह संस्कार
1. (ख) दैवीय
सृष्टि में पुरोहित की भूमिका
ऋग्वेद में पुरोहित-
ऋग्वैदिक काल में समाज तीन वर्गों में विभाजित था। पुरोहित, राजन्य तथा
सामान्य।
ऋग्वेद में अग्नि को दूत (पुरोहित कहा गया है।) ये युद्ध में आगे चलते हुए सेनापति का काम करते हैं।
अग्नि की पत्नी का नाम स्वाहा हैं। विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्नि देवता की स्तुति करता हूं, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है।
दैनिक अग्निहोत्र के लिये केवल एक अध्वर्यु होता है।।
अग्न्याधेय तथा अग्निन्ध के लिये अध्वर्यु के अलावा होतृ, मैत्रावरुण आदि 16 पुरोहित होते हैं।
राजा को उसके राजकार्य, न्यायाधिकरण इत्यादि में भी परामर्श देना पुरोहित का कार्य था।
देवासुर संग्राम में जब देवताओं की पराजय होने लगी तब देव-पुरोहित बृहस्पति के परामर्श से देवताओं ने विजय प्राप्त किया था।
कुलपुरोहित - राजा के कुलाचार संपन्न कराने वाले को कहा जाता था।
रामायण, महाभारत में पुरोहित-
राजा प्रत्येक राजकीय कार्य में पुरोहित पर आश्रित था । पुरोहित के परामर्श के बिना कोई कार्य नहीं करता था।
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