पौरोहित्यम्

    प्रथमा प्रथम वर्ष

1.    सन्ध्योपासनविधि:

2.    पुरुषसूक्तम्

3.    श्रीसूक्तम् / वाक्सूक्तम्

4.    शौचाचार: (नित्यकर्म-पूजाप्रकाश)

5.    श्रीमद्भगवद्गीता 1-6 अध्यायाः

प्रथमा द्वितीय वर्ष

1.    स्वस्तिवाचनम्

2.    विष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् / पृथिवीसूक्तम् (15 मन्त्रा:)

3.    शान्तिसूक्तम् / शान्तिकरणम्

4.    श्रीमद्भगवद्गीता 7-12 अध्यायाः

5.    अथवा

1-    स्वस्तिवाचनम् (शाखानुसारम्)

2-    भोजनसूक्तम् (शाखानुसारम्)

3-    संकल्पसूक्तम्

4-    अप्रतिस्थसूक्तम् (रुद्राष्टाध्याय्याः तृतीयोऽध्यायः)

प्रथमा तृतीय वर्ष

1-    गणपति अथर्वशीर्षम् / स्वराज्यसूक्तम् (ऋग्वेदः)

2-    रुद्राष्टाध्यायी (सम्पूर्णा)

3-    देवयज्ञविधिः

4-    श्रीमद्भगवद्गीता (13-18 अध्यायाः)

अथवा

1-    रुद्राष्टाध्यायी (सम्पूर्णा)

2-    बलिवैश्वदेव

3-    ब्रह्मकर्म

पूर्वमध्यमा प्रथम वर्ष

पंचांगपूजनम् (गौरी-गणेशपूजन विधिः

कलशस्थापनविधिः

पुण्याहवाचनविधिः

षोडशमातृकापूजनविधिः

सप्तघृतमातृकापूजनविधिः

आयुष्मन्त्रपाठविधिः, नान्दी-श्राद्धविधिः

मधुपर्कविधिः

रुद्रसूक्तम् (देवता-ऋषि-छन्द-सहितम्)

पूर्वमध्यमा द्वितीय वर्ष

क)    सर्वतोभद्रपूजनविधिः समन्त्रकः (कारिकासहितः)

ख)     लिंगतोभद्रपूजनविधिः समन्त्रकः (कारिकासहितः)

ग)     पीठपूजनविधिः, यन्त्रपूजनविधिः, अग्न्युतारणविधिः, प्राणप्रतिष्ठाविधिः

घ)      ग्रहस्थापनविधिः

उत्तर मध्यमा प्रथम वर्ष

क)    कुशकण्डिकाप्रयोगविधिः

ख)    विवाहसंस्कारविधिः

ग)     गर्भाधानसंस्कारविधिः

घ)     पुंसवन-सीमन्तोन्नयनसंस्कारविधिः

उत्तर मध्यमा द्वितीय वर्ष

1.    यज्ञप्रायश्चित्तविधि:

2.    यज्ञमण्डपपूजन विधि:

3.    अन्नप्राशन- चौलसंस्कारविधि:

4.    उपनयन-वेदारम्भ-समावर्तनसंस्कारविधि:

5.    पार्वणश्राद्धविधिः 

Share:

व्याकरण महाभाष्य

 व्याकरण महाभाष्य पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" और कात्यायनीय वार्तिकों की व्याख्या है। अतः इसकी सारी योजना "अष्टाध्यायी" पर आधारित है। इसमें कुल 85 आह्निक (अध्याय) है। भर्तृहरि के अनुसार "महाभाष्य" केवल व्याकरण-शास्त्र का ही ग्रंथ न होकर समस्त विद्याओं का आगर है। (वाक्यपदीय, 2-486) । पतंजलि ने समस्त वैदिक व लौकिक प्रयोगों का अनुशीलन करते हुए तथा पूर्ववर्ती सभी व्याकरणों का अध्ययन कर, समग्र व्याकरणिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इसमें व्याकरण विषयक कोई भी प्रश्न अछूता नहीं रहा है। इसकी निरूपण-शैली तर्कपूर्ण व सर्वथा मौलिक है। इसकी रचना में पाणिनि-व्याकरण के समस्त रहस्य स्पष्ट हो गए और उसी का पठन-पाठन होने लगा। "अष्टाध्यायी" के 14 प्रत्याहार सूत्र को मिलाकर 3995 सूत्र हैं, किंतु इस महाभाष्य में 1689 सूत्रों पर ही भाष्य लिखा गया है। शेष सूत्रों को उसी रूप ग्रहण कर लिया है। पतंजलि ने अपने कतिपय सूत्रों में वार्तिककार के मत को भ्रांत ठहराते हुए पाणिनि के ही मत को प्रामाणिक माना व 16 सूत्रों को अनावश्यक सिद्ध कर दिया। इन्होंने वार्तिककार कात्यायन के अनेक आक्षेपों का उत्तर देते हुए पाणिनि के प्रति उनकी अतिशय भक्ति व्यक्त की है। उनके अनुसार पाणिनि का एक भी कथन अशुद्ध नहीं है। "महाभाष्य" में संभाषणात्मक शैली का प्रयोग किया गया है तथा विवेचन के मध्य संवादात्मक वाक्यों का समावेश कर विषय को रोचक बनाते हुए पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया है। उसकी व्याख्यानपद्धति के 3 तत्त्व हैं - सूत्र का प्रयोजन निर्देश, पदों का अर्थ करते हुए सूत्रार्थ निश्चित करना और "सूत्र की व्याप्ति बढाकर, सूत्र का नियंत्रण करना" । "महाभाष्य" का उद्देश्य ऐसा अर्थ करना था, जो पाणिनि के अनुकूल या इष्टसाधक हो। अतः जहां कहीं भी सूत्र के द्वारा यह कार्य संपन्न होता न दिखाई पड़ा, वहां पर या तो सूत्र का "योग-विभाग" किया गया है या पूर्व प्रतिषेध को ही स्वीकार कर लिया गया है। उन्होंने केवल दो ही स्थलों पर पाणिनि के दोष दर्शाये हैं। "महावाक्य" में स्थान-स्थान पर सहज, चटुल, तिक्त व कडवी शैली का भी प्रयोग है। व्यंग्यमयी कटाक्षपूर्ण शैली के उदाहरण तो उसमें भरे पडे है। "महाभाष्य" में व्याकरण के मौलिक व महनीय सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है। इसमें लोक-विज्ञान व लोक व्यवहार के आधार पर मौलिक सिद्धांत की स्थापना की गई है, तथा व्याकरण को "दर्शन" का स्वरूप प्रदान किया गया है। इसमें स्फोटवाद की मीमांसा करते हुए शब्द को ब्रह्म का रूप माना गया है। इसके प्रारंभ में ही यह विचार व्यक्त किया गया है कि शब्द उस ध्वनि को कहते हैं, जिसके व्यवहार करने से पदार्थ का ज्ञान हो। लोक में ध्वनि करने वाला बालक "शब्दकारी" कहा जाता है। अतः ध्वनि ही शब्द है। यह ध्वनि स्फोट का दर्शक होती है। शब्द नित्य है, और उस नित्य शब्द का ही अर्थ होता है। नित्य शब्द को ही "स्फोट" कहते हैं। स्फोट की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश होता है। शब्द के दो भेद है- नित्य और कार्य । स्फोट-स्वरूप शब्द नित्य होता है तथा ध्वनिस्वरूप शब्द कार्य। स्फोट-वर्ण नित्य होते हैं, वे उत्पन्न नहीं होते। उनकी अभिव्यक्ति व्यंजक ध्वनि के द्वारा ही होती है। इस ग्रंथ के पठन-पाठन की परंपरा तीन बार खण्डित हुई।

चन्द्रगोमिन् ने प्रथम बार एक पाण्डुलिपि बड़े परिश्रम से प्राप्त कर तथा उसे परिष्कृत कर उस परंपरा की पुनः स्थापना की। दूसरी बार खण्डित परम्परा क्षीरस्वामी ने स्थापित की। तीसरी बार स्वामी विरजानन्द तथा शिष्य दयानन्द स्वामी ने की। वर्तमान प्रति में अनेक प्रक्षेपक हैं, कुछ मूल पाठ भ्रष्ट या लुप्त हो गए हैं। 

महाभाष्य के टीकाकार- "महाभाष्य" की अनेक टीकाएं हुई हैं। अनेक टीकाएं हस्तलेख के रूप में वर्तमान हैं। उपलब्ध टीकाओं में भर्तृहरि की टीका सर्वाधिक प्राचीन है। इसका नाम है "महाभाष्यदीपिका" । ज्येष्ठकलक व मैत्रेयरक्षित की टीकाएं अनुपलब्ध हैं। कैयट, पुरुषोत्तम देव, शेषनारायण, नीलकंठ वाजपेयी, यज्वा व नारायण, विष्णु कृत महाभाष्यप्रकाशिका, नागेश भट्ट कृत महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह, कैयट कृत महाभाष्यप्रदीप  की टीकाएं उपलब्ध हैं।

महाभाष्यदीपिका - यह आचार्य भर्तृहरि की महाभाष्य पर विस्तृत तथा प्रौढ व्याख्या है। अनेक ग्रंथों में इसे उद्धृत किया गया है। उन अनेक उद्धरणों से अनुमान होता है कि उन्होंने पूरे महाभाष्य पर दीपिका रची थी। कालान्तर से वह तीन पादों तक शेष रहने से बाद के वैयाकरणों ने केवल तीन पादों की भाष्यरचना का निर्देश किया है। वर्तमान में समूचे एक पाद की भी दीपिका उपलब्ध नहीं है। केवल 5700 श्लोक तथा 434 पृष्ठों का एक हस्तलेख बर्लिन में उपलब्ध होने की सूचना सर्वप्रथम डा. कीलहान ने दी। अभी तक अन्य प्रति अप्राप्त। ईत्सिंग के समय दीपिका में 25000 श्लोक थे, संभवतः मूल दीपिका इससे बहुत अधिक थी। (वर्तमान प्रति का प्रकाशन पुणे तथा काशी में हो रहा है) । महाभाष्यप्रकाशिका - बीकानेर के अनूप - संस्कृत पुस्तकालय में उपलब्ध पाण्डुलिपि में प्रारंभ के दो आह्निकों की टीका उपलब्ध है।

महाभाष्यप्रत्याख्यानसंग्रह - वाराणसी की सारस्वती सुषमा में क्रमशः प्रकाशित। यह पातंजल महाभाष्य की टीका है।

महाभाष्यप्रदीप - भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय तथा प्रकीर्ण काण्ड पर आधारित पातंजल महाभाष्य की प्रौढ तथा पाण्डित्यपूर्ण टीका है। महाभाष्य को समझने के लिये यह एकमात्र सहारा है। यह पाणिनीय संप्रदाय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। प्रस्तुत प्रदीप पर 15 टीकाकारों ने टीकाओं की रचना की है। महाभाष्यप्रदीप टिप्पणी ले. मल्लययज्वा इसकी पाण्डुलिपि उपलब्ध है। लेखक के पुत्र तिरुमल की प्रदीप व्याख्या अप्राप्त है।

महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश) - ले. प्रवर्तकोपाध्याय मद्रास, अड्यार, मैसूर और त्रिवेन्द्रम में इसकी पाण्डुलिपि विद्यमान है।

महाभाष्यप्रदीप विवरणम् - ले. नारायण मद्रास और - कलकत्ता में अनेक पाण्डुलिपियां उपलब्ध है।

(2) ले. रामचंद्रसरस्वती । महाभाष्यकैयप्रकाश ले. चिन्तामणि । महाभाष्यप्रदीपव्याख्या ले. हरिराम (ऑफ्रेट बृहत्सूची में निर्दिष्ट) ।

(2) ले- रामसेवक । महाभाष्यप्रदीपस्फूर्ति ले. सर्वेश्वर सोमयाजी। अड्यार - ग्रंथालय में पाण्डुलिपि उपलब्ध।

महाभाष्यरत्नाकर - ले. शिवरामेन्द्र सरस्वती। (एक पाण्डुलिपि सरस्वतीभवन काशी में है) ।

महाभाष्यलघुवृत्ति - ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 12-13 वीं शती । -

महाभाष्यविवरणम् - ले. नारायण । महाभाष्यस्फूर्ति - ले. सर्वेश्वर दीक्षित।

महाभाष्यप्रदीपोद्योत - ले. नागोजी भट्ट । ई. 18 वीं शती। पिता-शिवभट्ट। माता- सती पातंजल महाभाष्य पर कैयटकृत प्रदीप नामक टीका की यह व्याख्या है।

 महाभाष्यप्रदीपोद्योतनम् - ले. अनंभट्ट। कैयटकृत महाभाष्य प्रदीप की यह व्याख्या है। इस पर वैद्यनाथ पायगुडे (नागोजी के शिष्य) ने छाया नामक टीका लिखी। (2) ले नागनाथ। ई. 16 वीं शती।

Share:

तर्कसंग्रहः (मूल)

                         निधाय हृदि विश्वेशं विधाय गुरुवन्दनम् ।

बालानां सुखबोधाय क्रियते तर्कसंग्रहः ॥

द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाऽभावाः सप्तपदार्थाः ।

तत्र द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव ।

रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहशब्दबुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराश्चतुर्विंशतिर्गुणाः ।

उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्च कर्माणि ।

परमपरं चेति द्विविधं सामान्यम् ।

नित्यद्रव्यवृत्तयो विशेषास्त्वनन्ता एव ।

समवायस्त्वेक एव ।

अभावश्चतुर्विधः प्रागभावः प्रध्वंसाभावोऽत्यन्ताभावोऽन्योन्याभावश्चेति ।

इत्युद्देशः

तत्र गन्धवती पृथिवी । सा द्विविधा, नित्याऽनित्या च । नित्या परमाणुरूपा । अनित्या कार्यरूपा । पुनस्त्रिविधा, शरीरेन्द्रियविषयभेदात् । शरीरमस्मदादीनाम् । इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणम् नासाग्रवर्ति । विषयो मृत्पाषाणादिः ।

शीतस्पर्शवत्य आपः । ताश्च द्विविधाः नित्या अनित्याश्च । नित्याः परमाणुरूपाः । अनित्याः कार्यरूपाः । पुनस्त्रिविधा शरीरेन्द्रियविषयभेदात् । शरीरं वरुणलोके । इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिह्वाग्रवर्ति । विषयः सरित्समुद्रादिः ॥ १०॥

उष्णस्पर्शवत्तेजः । तच्च द्विविधं नित्यमनित्यं च । नित्यं परमाणुरूपम् । अनित्यं कार्यरूपम् । पुनस्त्रिविधं शरीरेन्द्रियविषयभेदात् । शरीरमादित्यलोके प्रसिद्धम् । इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवर्ति । विषयश्चतुर्विधः भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात् । भौमं वह्न्यादिकम् । अबिन्धनं दिव्यं विद्युदादि । भुक्तस्य परिणामहेतुरौदर्यम् । आकरजं सुवर्णादि ।

रूपरहितः स्पर्शवान् वायुः । स द्विविधः नित्योऽनित्यश्च । नित्यः परमाणुरूपः । अनित्यः कार्यरूपः । पुनस्त्रिविधः शरीरेन्द्रियविषयभेदात् । शरीरं वायुलोके । इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं त्वक्सर्वशरीरवर्ति । विषयो वृक्षादिकम्पनहेतुः । शरीरान्तः संचारी वायुः प्राणः । स चैकोऽप्युपाधिभेदात्प्राणापानादिसंज्ञां लभते ।

शब्दगुणकमाकाशम् । तच्चैकं विभु नित्यञ्च ।

अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः । स चैको विभुर्नित्यश्च ।

प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक् । सा चैका विभ्वी नित्या च ॥ १६॥

ज्ञानाधिकरणमात्मा । स द्विविधः जीवात्मा परमात्मा च । तत्रेश्वरः सर्वज्ञः परमात्मैक एव । जीवात्मा प्रतिशरीरं भिन्नो विभुर्नित्यश्च ।

सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः । तच्च प्रत्यात्मनियतत्वादनन्तं परमाणुरूपं नित्यं च ।

चक्षुर्मात्रग्राह्यो गुणो रूपम् । तच्च शुक्ल-नील-पीत-रक्त-हरित-कपिश-चित्रभेदात्सप्तविधम् । पृथिवीजलतेजोवृत्ति । तत्र पृथिव्यां सप्तविधम् । अभास्वरशुक्लं जले । भास्वरशुक्लं तेजसि ।

रसनाग्राह्यो गुणो रसः । स च मधुराम्ललवणकटुकषायतिक्तभेदात् षड्विधः । पृथिवीजलवृत्तिः । तत्र पृथिव्यां षड्विधः। जले मधुर एव ।

घ्राणग्राह्यो गुणो गन्धः । स द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । पृथिवीमात्रवृत्तिः ।

त्वगिन्द्रियमात्रग्राह्यो गुणः स्पर्शः । स च त्रिविधः, शीतोष्णानुष्णाशीतभेदात् । पृथिव्यप्तेजोवायुवृत्तिः ।

तत्र शीतो जले । उष्णस्तेजसि । अनुष्णाशीतः पृथिवीवाय्वोः ।

रूपादिचतुष्टयं पृथिव्यां पाकजमनित्यं च । अन्यत्रापाकजं नित्यमनित्यं च । नित्यगतं नित्यम् । अनित्यगतमनित्यम् ।

एकत्वादिव्यवहारहेतुः संख्या । सा नवद्रव्यवृत्तिः एकत्वादिपरार्धपर्यन्ता । एकत्वं नित्यमनित्यं च । नित्यगतं नित्यम् । अनित्यगतमनित्यम् । द्वित्वादिकं तु सर्वत्रानित्यमेव ॥ २४॥

मानव्यवहारासाधारणकारणं परिमाणम् । नवद्रव्यवृत्ति । तच्चतुर्विधम् । अणु महद्दीर्घं हृस्वं चेति ।

पृथग्व्यवहारासाधारणकारणं पृथक्त्वम् । सर्वद्रव्यवृत्तिः ।

संयुक्तव्यवहारहेतुः संयोगः । सर्वद्रव्यवृत्तिः ।

संयोगनाशको गुणो विभागः । सर्वद्रव्यवृत्तिः ।

परापरव्यवहारासाधारणकारणे परत्वापरत्वे । पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिनी । ते द्विविधे । दिक्कृते कालकृते च ।

दूरस्थे दिक्कृतं परत्वम् । समीपस्थे दिक्कृतमपरत्वम् । ज्येष्ठे कालकृतं परत्वम् । कनिष्ठे कालकृतमपरत्वम् ।

आद्यपतनासमवायिकारणं गुरुत्वम् । पृथिवीजलवृत्ति ।

आद्यस्यन्दनासमवायिकारणं द्रवत्वम् । पृथिव्यप्तेजोवृत्ति । तद्द्विविधं सांसिद्धिकं नैमित्तिकं च ।

सांसिद्धिकं जले । नैमित्तिकं पृथिवीतेजसोः । पृथिव्यां घृतादावग्निसंयोगजं द्रवत्वम् । तेजसि सुवर्णादौ ।

चूर्णादिपिण्डीभावहेतुर्गुणः स्नेहः । जलमात्रवृत्तिः ।

श्रोत्रग्राह्यो गुणः शब्दः । आकाशमात्रवृत्तिः । स द्विविधः। ध्वन्यात्मको वर्णात्मकश्च । तत्र ध्वन्यात्मकः भेर्यादौ । वर्णात्मकः संस्कृतभाषादिरूपः ॥ ३३॥

सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम् । सा द्विविधा स्मृतिरनुभवश्च ।

संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः ।

तद्भिन्नं ज्ञानमनुभवः । स द्विविधः यथार्थोऽयथार्थश्च । तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः । यथा रजते इदं रजतमिति ज्ञानम् । सैव प्रमेत्युच्यते ।

तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः । यथा शुक्ताविदं रजतमिति ज्ञानम् । सैवाप्रमेत्युच्यते ।

यथार्थनुभवश्चतुर्विधः। प्रत्यक्षानुमित्युपमितिशाब्दभेदात् । तत्करणमपि चतुर्विधम् । प्रत्यक्षानुमानोपमानशाब्दभेदात् ।

असाधारणं कारणं करणम् ।

कार्यनियतपूर्ववृत्ति कारणम् ।

कार्यं प्रागभावप्रतियोगि ।

कारणं त्रिविधम् । समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात् ।

यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम् । यथा तन्तवः पटस्य । पटश्च स्वगतरूपादेः ।

कार्येण कारणेन वा सहैकस्मिन्नर्थे समवेतं सत् कारणमसमवायिकारणम् । यथा तन्तुसंयोगः पटस्य, तन्तुरूपं पटरूपस्य ।

तदुभयभिन्नं कारणं निमित्तकारणम् । यथा तुरीवेमादिकं पटस्य । तदेतत्त्रिविधकारणमध्ये यदसाधारणं कारणं तदेव करणम् ।

प्रत्यक्षपरिच्छेदः

तत्र प्रत्यक्षज्ञानकरणं प्रत्यक्षम् ।

इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम् । (ज्ञानाकरणकं ज्ञानं प्रत्यक्षम्)

तद्द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पकं चेति ।

तत्र निष्प्रकारकं ज्ञानं निर्विकल्पकम् यथेदं किञ्चित् ।

सप्रकारकं ज्ञानं सविकल्पकं यथा डित्थोऽयं ब्राह्मणोऽयं श्यामोऽयं पाचकोऽयमिति ।

प्रत्यक्षज्ञानहेतुरिन्द्रियार्थसन्निकर्षः षड्विधः ।

संयोगः संयुक्तसमवायः संयुक्तसमवेतसमवायः समवायः समवेतसमवायः विशेषणविशेष्यभावश्चेति ।

चक्षुषा घटप्रत्यक्षजनने संयोगः सन्निकर्षः ।

घटरूपप्रत्यक्षजनने संयुक्तसमवायः सन्निकर्षः ।

चक्षुः संयुक्ते घटे रूपस्य समवायात् ।

रूपत्वसामान्यप्रत्यक्षे संयुक्तसमवेतसमवायः सन्निकर्षः ।

चक्षुः संयुक्ते घटे रूपं समवेतं तत्र रूपत्वस्य समवायात् ।

श्रोत्रेण शब्दसाक्षात्कारे समवायः सन्निकर्षः

कर्णविवरवर्त्याकाशस्य श्रोत्रत्वात् शब्दस्याकाशगुणत्वाद्गुणगुणिनोश्च समवायात् ।

शब्दत्वसाक्षात्कारे समवेतसमवायः सन्निकर्षः श्रोत्रसमवेते शब्दे शब्दत्वस्य समवायात् ।

अभावप्रत्यक्षे विशेषणविशेष्यभावः सन्निकर्षः घटाभाववद्भूतलमित्यत्र चक्षुः संयुक्ते भूतले घटाभावस्य विशेषणत्वात् ।

एवं सन्निकर्षषट्कजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षं

तत्करणमिन्द्रियं

तस्मादिन्द्रियं प्रत्यक्षप्रमाणमिति सिद्धम् ॥ ३९॥

इति प्रत्यक्षपरिच्छेदः समाप्तः

अनुमितिकरणमनुमानम् ।

परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः ।

व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानं परामर्शः । यथा वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत इति ज्ञानं परामर्शः । तज्जन्यं पर्वतो वह्निमानिति ज्ञानमनुमितिः ।

यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः ।

व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्वं पक्षधर्मता ॥ ४०॥

अनुमानं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च ।

तत्र स्वार्थं स्वानुमितिहेतुः तथाहि स्वयमेव भूयोदर्शनेन यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति महानसादौ व्याप्तिं गृहीत्वा पर्वतसमीपं गतः तद्गते चाग्नौ सन्दिहानः पर्वते धूमं पश्यन् व्याप्ति स्मरति यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति । तदनन्तरं वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत इति ज्ञानमुत्पद्यते अयमेव लिङ्गपरामर्श इत्युच्यते । तस्मात्पर्वतो वह्निमानिति ज्ञानमनुमितिः उत्पद्यते । तदेतत्स्वार्थानुमानम् ।

यत्तु स्वयं धूमाग्निमनुमाय परं प्रतिबोधयितुं पञ्चावयव वाक्यं प्रयुज्यते तत्परार्थानुमानम् । यथा पर्वतो वह्निमान् धूमत्वात्, यो यो धूमवान् स वह्निमान् यथा महानसः तथा चायं तस्मात्तथेति । अनेन प्रतिपादिताल्लिङ्गात्परोऽप्यग्निं प्रतिपद्यते ॥ ४१॥

प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि पञ्चावयवाः । पर्वतो वह्निमानिति प्रतिज्ञा । धूमवत्वादिति हेतुः । यो यो धूमवान् स वह्निमान्यथा महानस इत्युदाहरणम् । तथा चायमित्युपनयः । तस्मात्तथेति निगमनम् ॥ ४२॥

स्वार्थानुमितिपरार्थानुमित्योः लिङ्गपरामर्श एव करणम् । तस्माल्लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम् ॥ ४३॥

लिङ्गं त्रिविधम् । अन्वयव्यतिरेकि केवलान्वयि केवलव्यतिरेकि चेति । अन्वयेन व्यतिरेकेण च व्याप्तिमदन्वयव्यतिरेकि । यथा वह्नौ साध्ये धूमवत्त्वम् । यत्र धूमस्तत्राग्निर्यथा महानस इत्यन्वयव्याप्तिः । यत्र वह्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति यथा महाहृद इति व्यप्तिरेकव्याप्तिः ।

अन्वयमात्रव्याप्तिकं केवलान्वयि । यथा घटोऽभिधेयः प्रमेयत्वात्पटवत् । अत्र प्रमेयत्वाभिधेयत्वयोः व्यतिरेकव्याप्तिर्नास्ति सर्वस्यापि प्रमेयत्वादभिधेयत्वाच्च ।

व्यतिरेकमात्रव्याप्तिकं केवलव्यतिरेकि यथा पृथिवीतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्त्वात् । यदितरेभ्यो न भिद्यते न तद्गन्धवद्यथा जलम् । न चेयं तथा । तस्मान्न तथेति । अत्र यद्गन्धवत्तदितरभिन्नमित्यन्वयदृष्टान्तो नास्ति पृथिवीमात्रस्य पक्षत्वात् ॥ ४४॥

सन्दिग्धसाध्यवान्पक्षः । यथा धूमवत्त्वे हेतौ पर्वतः ।

निश्चितसाध्यवान्सपक्षः यथा तत्रैव महानसम् ।

निश्चितसाध्याऽभाववान् विपक्षः । यथा तत्रैव महाह्रदः ॥ ४५॥

सव्यभिचारविरुद्धसत्प्रतिपक्षाऽसिद्धबाधिताः पञ्च हेत्वाभासाः ।

सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः । स त्रिविधः साधारणासाधारणानुपसंहारिभेदात् ।

तत्र साध्याभाववद्वृत्तिः साधारणोऽनैकान्तिकः यथा- पर्वतो वह्निमान्प्रमेयत्वादिति । प्रमेयत्वस्य वह्न्यभाववति ह्रदे विद्यमानत्वात् ।

सर्वसपक्षविपक्षव्यावृत्तः पक्षमात्रवृत्तिः असाधारणः । यथा शब्दो नित्यः शब्दत्वादिति । शब्दत्वं हि सर्वेभ्यो नित्येभ्योऽनित्येभ्यश्च व्यावृत्तं शब्दमात्रवृत्तिः ।

अन्वयव्यतिरेकदृष्टान्तरहितोऽनुपसंहारी । यथा सर्वमनित्यं प्रमेयत्वादिति । अत्र सर्वस्यापि पक्षत्वाद्दृष्टान्तो नास्ति ।

साध्याभावव्याप्तो हेतुर्विरुद्धः । यथा शब्दो नित्यः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं हि नित्यत्वाभावेनाऽनित्यत्वेन व्याप्तम् ।

यस्य साध्याभावसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते स सत्प्रतिपक्षः । यथा शब्दो नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत् । शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाद्घटवत् ।

असिद्धस्त्रिविधः आश्रयासिद्धः स्वरूपासिद्धो व्याप्यत्वासिद्धश्चेति ।

आश्रयासिद्धो यथा गगनारविन्दं सुरभि अरविन्दत्वात्सरोजारविन्दवत् । अत्र गगनारविन्दमाश्रयः स च नास्त्येव ।

स्वरूपासिद्धो यथा शब्दो गुणश्चाक्षुषत्वात् रूपवत्। अत्र चाक्षुषत्वं शब्दे नास्ति शब्दस्य श्रावणत्वात् ।

सोपाधिको हेतुः व्याप्यत्वासिद्धः । साध्यव्यापकत्वे सति साधनाऽव्यापकत्वमुपाधिः । साध्यसमानाधिकरणाऽत्यन्ताभावाप्रतियोगित्वं साध्यव्यापकत्वम् । साधनवन्निष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वम् । पर्वतो धूमवान् वह्निमत्वात् इत्यत्रार्द्रेन्धनसंयोग उपाधिः । तथाहि । यत्र धूमस्तत्रार्द्रेन्धनसंयोग इति साध्यव्यापकता ।

यत्र वह्निस्तत्रार्द्रेन्धनसंयोगो नास्त्ययोगोलके आर्द्रेन्धनसंयोगाभावादिति साधनाव्यापकता । एवं साध्यव्यापकत्वे अस्ति साधनाव्यापकत्वार्द्रेन्धनसंयोग उपाधिः । सोपाधिकत्वाद्वह्निमत्त्वं व्याप्यत्वासिद्धम् ।

यस्य साध्याभावः प्रमाणान्तरेण निश्चितः स बाधितः । यथा वह्निरनुष्णो द्रव्यत्वाज्जलवत् । अत्रानुष्णत्वं साध्यं तदभाव उष्णत्वं स्पार्शनप्रत्यक्षेण गुह्यते इति बाधितत्वम् ॥ ४६॥

उपमितिकरणमुपमानम् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः । तत्करणं सादृश्यज्ञानम् । अतिदेशवाक्यार्थस्मरणमवान्तर व्यापारः । तथा हि कश्चिद्गवयशब्दार्थमजानन् कुतश्चिदारण्यकपुरुषाद् गोसदृशो गवय इति श्रुत्वा वन गतो वाक्यार्थं स्मरन् गोसदृशं पिण्डं पश्यति । तदनन्तरमसौ गवयशब्दवाच्य इत्युपमितिरुत्पद्यते ॥ ४७॥

 

आप्तवाक्यं शब्दः ।  आप्तस्तु यथार्थवक्ता । वाक्यं पदसमूहः । यथा गामानयेति । शक्तं पदम् । अस्मात्पदादयमर्थो बोद्धव्य इतीश्वरसंकेतः शक्तिः ॥ ४८॥

आकाङ्क्षा योग्यता सन्निधिश्च वाक्यार्थज्ञानहेतुः । पदस्य पदान्तरव्यतिरेकप्रयुक्तान्वयाननुभावकत्वमाकाङ्क्षा । अर्थाबाधो योग्यता । पदानामविलम्बेनोच्चारणं सन्निधिः ॥ ४९॥

आकाङ्क्षादिरहितं वाक्यमप्रमाणम् । यथा गौरश्वः पुरुषो हस्तीति न प्रमाणमाकाङ्क्षाविरहात् । अग्निना सिञ्चेदिति न प्रमाणं योग्यताविरहात् । प्रहरे प्रहरेऽसहोच्चारितानि गामानयेत्यादिपदानि न प्रमाणं सान्निध्याऽभावात् ॥ ५०॥

वाक्यं द्विविधम् । वैदिकं लौकिकं च । वैदिकमीश्वरोक्तत्वात्सर्वमेव प्रमाणम् । लौकिकं त्वाप्तोक्तं प्रमाणम् । अन्यदप्रमाणम् ॥ ५१॥

वाक्यार्थज्ञानं  शब्दज्ञानम् । तत्करणं शब्दः ॥ ५२॥

अयथार्थानुभवस्त्रिविधः। संशयविपर्ययतर्कभेदात् ।

एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञानं संशयः । यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति ।

मिथ्याज्ञानं विपर्ययः । यथा शुक्तौ इदं रजतमिति ।

व्याप्यारोपेण व्यापकारोपस्तर्कः । यथा यदि वह्निर्न स्यात्तर्हि धूमोऽपि न स्यादिति ।

स्मृतिरपि द्विविधा । यथार्थायथार्था च । प्रमाजन्या यथार्था । अप्रमाजन्याऽयथार्था ।

सर्वेषामनुकूलवेदनीयं सुखम् ।

सर्वेषां प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् ।

इच्छा कामः । क्रोधो द्वेषः । कृतिः प्रयत्नः ।

विहितकर्मजन्यो धर्मः ।

निषिद्धकर्मजन्यस्त्वधर्मः ।

बुद्ध्यादयोऽष्टावात्ममात्रविशेषगुणाः । बुद्धीच्छा प्रयत्ना द्विविधाः । नित्या अनित्याश्च । नित्या ईश्वरस्य अनित्या जीवस्य ।

संस्कारस्त्रिविधः । वेगो भावना स्थितिस्थापकश्चेति । वेगः पृथिव्यादिचतुष्टयमनोवृत्तिः । अनुभवजन्या स्मृतिहेतुर्भावना । आत्ममात्रवृत्तिः । अन्यथाकृतस्य पुनस्तदवस्थापकः स्थितिस्थापकः कटादिपृथिवीवृत्तिः ॥

चलनात्मकं कर्म । ऊर्ध्वदेशसंयोगहेतुरुत्क्षेपणम् । अधोदेशसंयोगहेतुरपक्षेपणम् । शरीरसंनिकृष्टसंयोगहेतुराकुञ्चनम् । विप्रकृष्टसंयोगहेतुः प्रसारणम् । अन्यत्सर्वं गमनम् । पृथिव्यादिचतुष्टयमनोमात्रवृत्तिः ॥ ६५॥

नित्यमेकमनेकानुगतं सामान्यं द्रव्यगुणकर्मवृत्ति । तद्द्विविधं पराऽपरभेदात् । परं सत्ता । अपरं द्रव्यत्वादिः ॥ ६६॥

नित्यद्रव्यवृत्तयो व्यावर्तका विशेषाः ॥ ६७॥

नित्यसम्बन्धः समवायः । अयुतसिद्धवृत्तिः । ययोर्द्वयोर्मध्ये एकमविनश्यदपराऽश्रितमेवावतिष्ठते तावयुतसिद्धौ। यथा अवयवाऽवयविनौ, क्रियाक्रियावन्तौ, जातिव्यक्ती विशेषनित्यद्रव्ये चेति ॥ ६८॥

अनादिः सान्तः प्रागभावः । उत्पत्तेः पूर्वं कार्यस्य ।

सादिरनन्तः प्रध्वंसः । उत्पत्यनन्तरं कार्यस्य ।

त्रैकालिकसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽत्यन्ताभावः । यथा भूतले घटो नास्तीति ।

तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽन्योन्याभावः । यथा घटः पटो नेति ॥ ६९॥

सर्वेषां पदार्थानां यथायथमुक्तेष्वन्तर्भावात्सप्तैव पदार्था इति सिद्धम् ॥ ७०॥

कणादन्यायमतयोर्बालव्युत्पत्तिसिद्धये ।

अन्नंभट्टेन विदुषा रचितस्तर्कसंग्रहः ॥

 

इति श्रीमहामहोपाध्याय अन्नंभट्टविरचिततर्कसंग्रहः समाप्तः ॥

Share:

अनुवाद सुविधा

ब्लॉग की सामग्री यहाँ खोजें।

लोकप्रिय पोस्ट

जगदानन्द झा. Blogger द्वारा संचालित.

मास्तु प्रतिलिपिः

इस ब्लॉग के बारे में

संस्कृतभाषी ब्लॉग में मुख्यतः मेरा
वैचारिक लेख, कर्मकाण्ड,ज्योतिष, आयुर्वेद, विधि, विद्वानों की जीवनी, 15 हजार संस्कृत पुस्तकों, 4 हजार पाण्डुलिपियों के नाम, उ.प्र. के संस्कृत विद्यालयों, महाविद्यालयों आदि के नाम व पता, संस्कृत गीत
आदि विषयों पर सामग्री उपलब्ध हैं। आप लेवल में जाकर इच्छित विषय का चयन करें। ब्लॉग की सामग्री खोजने के लिए खोज सुविधा का उपयोग करें

समर्थक एवं मित्र

सर्वाधिकार सुरक्षित

विषय श्रेणियाँ

ब्लॉग आर्काइव

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 1

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 2

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 3

Sanskritsarjana वर्ष 2 अंक-1

Recent Posts

लेखानुक्रमणी

लेख सूचक पर क्लिक कर सामग्री खोजें

अभिनवगुप्त (1) अलंकार (3) आधुनिक संस्कृत गीत (16) आधुनिक संस्कृत साहित्य (5) उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (1) उत्तराखंड (1) ऋग्वेद (1) ऋषिका (1) कणाद (1) करवा चौथ (1) कर्मकाण्ड (47) कहानी (1) कामशास्त्र (1) कारक (1) काल (2) काव्य (18) काव्यशास्त्र (27) काव्यशास्त्रकार (1) कुमाऊँ (1) कूर्मांचल (1) कृदन्त (3) कोजगरा (1) कोश (12) गंगा (1) गया (1) गाय (1) गीति काव्य (1) गृह कीट (1) गोविन्दराज (1) ग्रह (1) छन्द (6) छात्रवृत्ति (1) जगत् (1) जगदानन्द झा (3) जगन्नाथ (1) जीवनी (6) ज्योतिष (20) तकनीकि शिक्षा (21) तद्धित (11) तिङन्त (11) तिथि (1) तीर्थ (3) दर्शन (19) धन्वन्तरि (1) धर्म (1) धर्मशास्त्र (14) नक्षत्र (2) नाटक (4) नाट्यशास्त्र (2) नायिका (2) नीति (3) पतञ्जलि (3) पत्रकारिता (4) पत्रिका (6) पराङ्कुशाचार्य (2) पर्व (2) पाण्डुलिपि (2) पालि (3) पुरस्कार (13) पुराण (3) पुस्तक (1) पुस्तक संदर्शिका (1) पुस्तक सूची (14) पुस्तकालय (5) पूजा (1) प्रतियोगिता (1) प्रत्यभिज्ञा शास्त्र (1) प्रशस्तपाद (1) प्रहसन (1) प्रौद्योगिकी (1) बिल्हण (1) बौद्ध (6) बौद्ध दर्शन (2) ब्रह्मसूत्र (1) भरत (1) भर्तृहरि (2) भामह (1) भाषा (1) भाष्य (1) भोज प्रबन्ध (1) मगध (3) मनु (1) मनोरोग (1) महाविद्यालय (1) महोत्सव (2) मुहूर्त (1) योग (5) योग दिवस (2) रचनाकार (3) रस (1) रामसेतु (1) रामानुजाचार्य (4) रामायण (4) रोजगार (2) रोमशा (1) लघुसिद्धान्तकौमुदी (46) लिपि (1) वर्गीकरण (1) वल्लभ (1) वाल्मीकि (1) विद्यालय (1) विधि (1) विश्वनाथ (1) विश्वविद्यालय (1) वृष्टि (1) वेद (6) वैचारिक निबन्ध (26) वैशेषिक (1) व्याकरण (46) व्यास (2) व्रत (2) शंकाराचार्य (2) शरद् (1) शैव दर्शन (2) संख्या (1) संचार (1) संस्कार (19) संस्कृत (15) संस्कृत आयोग (1) संस्कृत कथा (11) संस्कृत गीतम्‌ (50) संस्कृत पत्रकारिता (2) संस्कृत प्रचार (1) संस्कृत लेखक (1) संस्कृत वाचन (1) संस्कृत विद्यालय (3) संस्कृत शिक्षा (6) संस्कृत सामान्य ज्ञान (1) संस्कृतसर्जना (5) सन्धि (3) समास (6) सम्मान (1) सामुद्रिक शास्त्र (1) साहित्य (7) साहित्यदर्पण (1) सुबन्त (6) सुभाषित (3) सूक्त (3) सूक्ति (1) सूचना (1) सोलर सिस्टम (1) सोशल मीडिया (2) स्तुति (2) स्तोत्र (11) स्मृति (12) स्वामि रङ्गरामानुजाचार्य (2) हास्य (1) हास्य काव्य (2) हुलासगंज (2) Devnagari script (2) Dharma (1) epic (1) jagdanand jha (1) JRF in Sanskrit (Code- 25) (3) Library (1) magazine (1) Mahabharata (1) Manuscriptology (2) Pustak Sangdarshika (1) Sanskrit (2) Sanskrit language (1) sanskrit saptaha (1) sanskritsarjana (3) sex (1) Student Contest (2) UGC NET/ JRF (4)