संस्कृत कवियों की प्रशस्ति, परिचय तथा वन्दना

संस्कृत साहित्य में कवियों की प्रशंसाउनके परिचय और वन्दना को श्लोकों के माध्यम से सुंदरता से व्यक्त किया गया है। ये श्लोक कवियों की काव्य-प्रतिभाउनके जीवन और उनके द्वारा की गई वन्दना को दर्शाते हैं। नीचे विभिन्न संस्कृत कवियों के लिए संग्रहीत श्लोक प्रस्तुत हैंजो प्रशस्तिपरिचय या वन्दना के रूप में हैं। प्रत्येक श्लोक के साथ कवि का संक्षिप्त परिचय और अर्थ शामिल है। 

वाल्मीकि

कवीन्दुं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीं कथाम्।

चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव कोविदाः ।।

अर्थ: मैं कवियों के राजा वाल्मीकि की वन्दना करता हूँ, जिनकी रामायण नामक कथा इतनी सुंदर है कि विद्वान लोग इसे चकोर पक्षी की भाँति चंद्रिका (चाँदनी) की खोज की तरह तलाशते और आनंद लेते हैं।

विश्लेषण: भावार्थ: यह श्लोक वाल्मीकि को कवियों में सर्वोच्च (कवीन्दु) मानते हुए उनकी रचना रामायण की महिमा का वर्णन करता है। चकोर और चंद्रिका की उपमा से यह दर्शाया गया है कि विद्वान रामायण के ज्ञान को उत्सुकता से ग्रहण करते हैं, जैसे चकोर चाँदनी को।

 

वाल्मीकिकविसिंहस्य कवितावनचारिणः।

शृण्वन् राम-कथा-नादं को न याति परां गतिम् ।।

 

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ।।

 

व्यास

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम्‌।

पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम्।।

 

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।

नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥

 

नमः सर्वविदे तस्मै व्यासाय कविवेधसे।

चक्रे पुण्यं सरस्वत्या यो वर्षमिव भारतम् ।।

 

नमोस्तु ते व्यासविशालबुद्धे

फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र ।

येन त्वया भारततैलपूर्णः

प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ।।

 

श्रवणाञ्जलिपुटपेयं विरचितवान्भारताख्यममृतं यः ।

तमहमरागमकृष्णं कृष्णद्वैपायनं वन्दे ॥ वेणीसंहारनाटकम् ॥

 

नमः सर्वविदे तस्मै व्यासाय कविवेधसे ।

चक्रे पुण्यं सरस्वत्या यो वर्षमिव भारतम् ॥ हर्षचरितम्।।

 

शंकराचार्य

अष्टवर्षे चतुर्वेदीद्वादशे सर्वशास्त्रवित् ।

षोडशे कृतवान् भाष्यम् द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् ।।

 

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते

स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।

वर्गे देहभृतां निसर्गमलिने जातोपसर्गेऽखिले

सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।। शंकरदिग्विजय।।

 

पाणिनि

येनाक्षरसमाम्नायमधिगम्य् महेश्वरात् ।

कॄत्स्नव्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः॥

येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः।

तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ॥

नमः पाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह ।

आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम् ।।

 

सुबन्धौ भक्तिर्नः क इह रघुकारे न रमते

धृतिर्दाक्षीपुत्रे हरति हरिचन्द्रोऽपि हृदयम्।

विशुद्धोक्तिः शूरः प्रकृतिसुभगा भारविगिर-

स्तथाप्यन्तर्मोदं कमपि भवभूतिर्वितनुते।।

 

#### १. कालिदास 

(४ठी-५वीं शताब्दीसंस्कृत के महाकविरचनाएँ: अभिज्ञानशाकुंतलम्मेघदूतम्रघुवंशम्) 

- प्रशस्ति:  

पुरा कवीनां गणनाप्रसङ्गे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः |

अद्यापि तत्तुल्य कवेर्भावदनामिका सार्थवती बभूव ॥

 

निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु । 

प्रीतिमधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते ॥ 

अर्थ: कालिदास के सुंदर सूक्तियों में प्रीति उत्पन्न होती हैजो मधुर रस से परिपूर्ण मंजरियों की भाँति हैऐसा किसी और के नहीं होता। 

  (कालिदास की काव्य-शक्ति की प्रशंसा।)

स्रोत: यह श्लोक कालिदास की प्रशंसा में बाद के विद्वानों (जैसे मल्लिनाथ) द्वारा लिखित टीकाओं या प्रशस्ति-ग्रंथों से प्रेरित हो सकता है। मूल स्रोत के रूप में "कालिदास-प्रशस्ति" (कालिदास की रचनाओं के परिशिष्ट) का उल्लेख मिलता है, जो १४वीं शताब्दी के बाद प्रचलित हुआ। संदर्भ: कालिदास-ग्रंथमाला (संस्कृत अकादमी, चेन्नई)।

 

 

पुष्पेषु चम्पा नगरीषु काञ्ची

नदीषु गङ्गा नृपतौ च रामः |

नारीषु रम्भा पुरुषेषु विष्णुः

काव्येषु माघः कवि कालिदासः ॥

 

कालिदासगिरां सारं कालिदासः सरस्वती ।

चतुर्मुखोऽथवा साक्षाद्विदुर्नान्ये तु मादृशाः ।।

 

कालिदास कविता नवं वय: माहिषं दधि सशर्करं पय:।

एणमांसमबला सुकोमला संभवन्तु मम जन्म-जन्मनि।।

एकोऽपि जीयते हन्त कालिदासो न केनचित्।

शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदास त्रयी किमु॥

 

माघश्चोरो मयूरो मुररिपुरपरो भारविः सारविद्यः

श्रीहर्षः कालिदासः कविरथ भवभूत्याह्वयो भोजराजः।

श्रीदण्डी डिण्डिमाख्यः श्रुतिमुकुटगुरुर्भल्लटो भट्टबाणः

ख्याताश्चान्ये सुबन्ध्वादय इह कृतिभिर्विश्वमाह्लादयन्ति॥

 

यस्याश्चोरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरो मयूरो

भासो हासः कविकुलगुरुः कालिदासो विलासः।

हर्षो हर्षो हृदयवसतिः पञ्चबाणस्तु बाणः

केषां नैषा कथय कविताकामिनी कौतुकाय॥

- परिचय: 

  कालिदासः कविश्रेष्ठः प्रकृतिप्रियदर्शकः । 

  रघुशाकुन्तलमेघैः काव्यजालं चकार सः ॥ 

  अर्थ: कालिदासकवियों में श्रेष्ठप्रकृति के प्रिय दर्शकरघुशाकुंतल और मेघदूत के माध्यम से काव्य-जाल रचते हैं। 

  (स्वयं का परिचय और कृतियों का उल्लेख।)

- वन्दना: 

  सरस्वतीं वन्दे कालिदासेन सत्कृताम् । 

  यया काव्यं निर्मितं सुन्दरं सर्वलोकहितम् ॥ 

  अर्थ: मैं उस सरस्वती की वन्दना करता हूँजिसे कालिदास ने सम्मानित कियाजिसके द्वारा सुंदर और सर्वलोकहितकारी काव्य रचा गया। 

  (देवी सरस्वती की वन्दना।)

####भवभूति 

(८वीं शताब्दीनाटककाररचनाएँ: उत्तररामचरितम्मालतीमाधवम्) 

- प्रशस्ति: 

  भवभूतिर्यत्कवित्वं तद्विश्वं प्रशंसति । 

  रामचरितमालत्या नाटकैः स्फुरति शोभया ॥ 

  अर्थ: भवभूति का कवित्व विश्व में प्रशंसित हैजो रामचरित और मालती के नाटकों से शोभायमान होता है। 

  (काव्य-प्रतिभा की प्रशंसा।)

 

- परिचय: 

  भवभूतिरहम् कविर्ज्ञानविज्ञाननिष्ठितः । 

  नाटकं रचयाम्यद्य रामस्य चरितं शुभम् ॥ 

  अर्थ: मैं भवभूति कवि हूँजो ज्ञान और विज्ञान में निष्ठित हूँआज राम के शुभ चरित्र का नाटक रचता हूँ। 

  (स्वपरिचय और काव्य का संकेत।)

 

- वन्दना: 

    नमामि शिवं भवभूतिना स्तुतम् । 

  येन काव्यं शुद्धं च निर्मलं भवेत् ॥ 

  अर्थ: मैं भवभूति द्वारा प्रशंसित शिव की वन्दना करता हूँजिसके द्वारा काव्य शुद्ध और निर्मल होता है। 

  (शिव की वन्दना।)

 

####बाणभट्ट 

(७वीं शताब्दीगद्य कविरचनाएँ: हर्षचरितम्कादम्बरी) 

- प्रशस्ति: 

  बाणभट्टेन रचितं हर्षस्य चरितं महत् । 

  काव्यं येन प्रशस्तं स्यात् सर्वलोकहिताय च ॥ 

  अर्थ: बाणभट्ट द्वारा रचित हर्ष का महान चरित्र काव्यजो सभी लोकों के हित के लिए प्रशंसित है। 

  (हर्ष और काव्य की प्रशंसा।)

 

- परिचय: 

  बाणभट्टः कथाकारः हर्षस्य चरितं वदन् । 

  कादम्बरीमहाकाव्यं रचयामि सुदुर्लभम् ॥ 

  अर्थ: मैं बाणभट्ट कथाकार हूँजो हर्ष का चरित्र कहता हूँ और कादम्बरी महाकाव्य को दुर्लभ रूप में रचता हूँ। 

  (स्वपरिचय और कृतियों का उल्लेख।)

 

- वन्दना: 

  विष्णुं वन्दे बाणेन पूजितम् । 

  येन काव्यं सुदिव्यं भवति सत्यम् ॥ 

  अर्थ: मैं बाण द्वारा पूजित विष्णु की वन्दना करता हूँजिसके द्वारा काव्य सुंदर और दिव्य होता है। 

  (विष्णु की वन्दना।)

 

####जयदेव 

(१२वीं शताब्दीभक्ति कविरचना: गीतगोविन्दम्) 

- प्रशस्ति: 

  जयदेवेन गीतं गोविन्दं प्रशंसति लोके । 

  राधाकृष्णयोः प्रेमं वर्णयति सुदिव्यं ॥ 

  अर्थ: जयदेव द्वारा गाया गया गोविन्द गीत लोक में प्रशंसित हैजो राधा-कृष्ण के प्रेम को दिव्य रूप से वर्णित करता है। 

  (काव्य और प्रेम की प्रशंसा।)

 

- परिचय: 

    जयदेवः कविरहं भक्तिरसनिष्ठितः । 

  गीतगोविन्दं रचामि कृष्णस्य चरितं शुभम् ॥ 

  अर्थ: मैं जयदेव कवि हूँजो भक्ति-रस में निष्ठित हूँऔर कृष्ण के शुभ चरित्र का गीतगोविन्द रचता हूँ। 

  (स्वपरिचय और काव्य का संकेत।)

 

- वन्दना: 

  कृष्णं वन्दे जयदेवेन स्तुतम् । 

  येन प्रेमं जगति प्रसिद्धं भवेत् ॥ 

  अर्थ: मैं जयदेव द्वारा प्रशंसित कृष्ण की वन्दना करता हूँजिसके द्वारा प्रेम जगत में प्रसिद्ध हुआ। 

  (कृष्ण की वन्दना।)

 

####भर्तृहरि 

(५वीं-६वीं शताब्दीनीति और शृंगार कविरचनाएँ: नीतिशतकम्शृंगारशतकम्) 

- प्रशस्ति: 

  भर्तृहरेः शतकानि प्रशंसन्ति विद्वांसः । 

  नीति शृंगारयोः रसैः स्फुरति काव्यशोभया ॥ 

  अर्थ: भर्तृहरि के शतक विद्वानों द्वारा प्रशंसित हैंजो नीति और शृंगार के रसों से काव्य की शोभा को दर्शाते हैं। 

  (काव्य-प्रतिभा की प्रशंसा।)

 

- परिचय: 

  भर्तृहरिरहम् कविर्नीति शृंगारसंस्थितः । 

  शतकं रचयामि यत् लोकहिताय चिन्तितम् ॥ 

  अर्थ: मैं भर्तृहरि कवि हूँजो नीति और शृंगार में स्थित हूँऔर लोकहित के लिए शतक रचता हूँ। 

  (स्वपरिचय और उद्देश्य।)

 

- वन्दना: 

  गणेशं वन्दे भर्तृहरिणा पूजितम् । 

  येन बुद्धिः काव्ये सिद्धा भवति सत्यम् ॥ 

  अर्थ: मैं भर्तृहरि द्वारा पूजित गणेश की वन्दना करता हूँजिसके द्वारा काव्य में बुद्धि सिद्ध होती है। 

  (गणेश की वन्दना।)


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