आचार्य शंकर: जीवन, दर्शन और कृतित्व

आचार्य शंकर, जिन्हें आदि शंकराचार्य के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय दर्शन और संस्कृति के इतिहास में एक महान् विद्वान् और आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका जीवन, उनके द्वारा स्थापित अद्वैत वेदान्त दर्शन, और उनके द्वारा रचित ग्रंथ भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लेख में उनके जन्म, शिक्षा, संन्यास, शास्त्रार्थ, कृतित्व, और निधन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो उनके अलौकिक व्यक्तित्व और योगदान को उजागर करता है।

 

प्रारंभिक जीवन

आचार्य शंकर का जन्म 788 ईस्वी (कुछ विद्वानों के अनुसार 780 ईस्वी) में केरल प्रदेश के मालाबार क्षेत्र में स्थित कालाड़ी ग्राम में हुआ, जो पूर्णानदी के तट पर बसा एक शांतिपूर्ण स्थान है। उनकी माता का नाम विशिष्टा (कुछ स्रोतों में सुभद्रा) और पिता का नाम शिवगुरु था, जो एक विद्वान् ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। ज्योतिषीय गणना के अनुसार, उनका जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ, जो हिंदू पंचांग में शुभ माना जाता है। हालांकि, जन्म तिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं, किंतु 788 ईस्वी को अधिकांश द्वारा स्वीकृत माना जाता है।

 

बचपन से ही शंकर में असाधारण बुद्धि और आध्यात्मिक झुकाव के लक्षण दिखाई देने लगे। पाँचवें वर्ष में उन्हें यज्ञोपवीत संस्कार के बाद गुरु के घर वेदों का अध्ययन के लिए भेजा गया। मात्र सात वर्ष की आयु में उन्होंने वेद, वेदान्त, और वेदांगों का गहन अध्ययन पूरा कर लिया, जो उनके असाधारण प्रतिभा का प्रमाण है। इस अवस्था में ही उन्होंने संन्यास ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की, किंतु माता विशिष्टा ने उनकी युवावस्था तक इसकी अनुमति नहीं दी।

 

संन्यास और अलौकिक घटना

शंकर की संन्यास की इच्छा एक असामान्य घटना से पूरी हुई। एक दिन वे माँ के साथ पूर्णानदी में स्नान करने गए। तभी एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया, जिससे माता हाहाकार मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा कि यदि वे संन्यास की अनुमति दें, तो मगरमच्छ उन्हें छोड़ देगा। माता की सहमति के बाद मगरमच्छ ने उन्हें मुक्त कर दिया—यह घटना उनके जीवन की एक अलौकिक कथा मानी जाती है, जो संन्यास की प्रेरणा बनी। संन्यास लेने से पहले उन्होंने माँ से वचन दिया कि उनकी मृत्यु के समय वे उनके पास उपस्थित रहेंगे। इसके बाद वे घर से निकले और नर्मदा तट पर पहुँचे, जहाँ उन्होंने गोविन्द भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। गोविन्दाचार्य के मार्गदर्शन में उन्होंने योग साधना शुरू की और अल्पकाल में ही योग सिद्धि प्राप्त कर ली।

 

शिक्षा और शिष्य जीवन

गुरु की आज्ञा से शंकर काशी पहुँचे, जो उस समय विद्या और धर्म का प्रमुख केंद्र था। काशी में उन्होंने वेदों, उपनिषदों, और दर्शन शास्त्रों का और गहराई से अध्ययन किया। उनके पहले शिष्य सनन्दन बने, जो बाद में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। शंकर ने अपने शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ रचना भी शुरू की। काशी में एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने तथा वैदिक धर्म के प्रचार का आदेश दिया। यह घटना उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।

 

शास्त्रार्थ और दार्शनिक विजय

शंकराचार्य का जीवन शास्त्रार्थ और विद्वानों से संवाद से भरा रहा। एक बार काशी में एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर उनसे ब्रह्मसूत्र के एक सूत्र का अर्थ पूछा, जिस पर आठ दिन तक शास्त्रार्थ चला। बाद में पता चला कि वह ब्राह्मण साक्षात् वेद व्यास थे, जो उनके ज्ञान की परीक्षा लेने आए थे। इस शास्त्रार्थ ने शंकर की ख्याति को और बढ़ाया।

महिषी गाँव और मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ

शंकराचार्य का सबसे प्रसिद्ध शास्त्रार्थ बिहार के सहरसा जिले में स्थित महिषी गाँव (प्राचीन काल में महिष्मति के नाम से जाना जाता था) में मण्डन मिश्र के साथ हुआ। महिषी एक पवित्र और दार्शनिक केंद्र था, जहाँ विश्वविख्यात दार्शनिक मण्डन मिश्र का जन्म हुआ था। इस गाँव में जगत् जननी उग्र तारा का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है, जो "सिद्ध पीठ" के रूप में प्रसिद्ध है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव सती के शव के साथ विक्षिप्त अवस्था में ब्रह्मांड का विचरण कर रहे थे, सती की नाभि महिषी में गिरी थी। मुनि वशिष्ठ ने इस स्थान पर माँ उग्रतारा पीठ की स्थापना की, जो तंत्र साधना का केंद्र बन गया। मंदिर से सौ कदम की दूरी पर एक वीरान भूमि है, जहाँ एक अदृश्य आकर्षण महसूस होता है—इसी स्थान पर मण्डन मिश्र का जन्म हुआ था।

मण्डन मिश्र, जो उस समय के विख्यात मीमांसक थे, के साथ शास्त्रार्थ में उनकी पत्नी भारती मध्यस्थ बनीं। यह शास्त्रार्थ लंबा और गहन था, जिसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई। किंवदंती है कि भारती ने अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा के लिए शंकराचार्य को चुनौती दी, किंतु अंततः शंकर की विजय हुई। इस पराजय के पश्चात् मण्डन मिश्र ने शंकराचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया और लगभग 60 वर्षों तक द्वितीय शंकराचार्य के रूप में विख्यात रहे। यह घटना लगभग 2400 वर्ष पूर्व की मानी जाती है, और तब से अब तक 70 शंकराचार्य हुए हैं। महिषी की इस पवित्र भूमि पर शास्त्रार्थ का इतना प्रभाव था कि कथाओं के अनुसार वहाँ के तोते और पक्षी भी शास्त्र की बातें करते थे।

 

कृतित्व और ग्रंथ रचना

शंकराचार्य ने मात्र 14 वर्ष की आयु में ब्रह्मसूत्र, गीता, और प्रमुख उपनिषदों पर भाष्य लिखना शुरू कर दिया। 16 वर्ष की आयु में वेद व्यास से भेंट के बाद उनका दार्शनिक कार्य और गहरा हुआ। उनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 262 बताई जाती है, हालांकि सभी की प्रामाणिकता पर विवाद है। उनके प्रमुख ग्रंथ निम्नलिखित हैं:

- ब्रह्मसूत्र भाष्य: अद्वैत वेदान्त का आधार।

- उपनिषद् भाष्य: ईश, कठ, मुंडक आदि पर।

- गीता भाष्य: भगवद्गीता का गहन विश्लेषण।

- विवेकचूड़ामणि: आत्मज्ञान पर काव्यात्मक ग्रंथ।

- आत्मबोधः: आत्मा और ब्रह्म का एकीकरण।

- हस्तामलक भाष्य: सरल शैली में अद्वैत सिद्धांत।

- विष्णु सहस्रनाम भाष्य: भक्ति और दर्शन का मेल।

 

इन ग्रंथों के अलावा उन्होंने प्राकृतिक शास्त्रों, तंत्र, और मंत्र साहित्य पर भी कार्य किया। उनके भाष्य सबसे प्राचीन और प्रामाणिक माने जाते हैं, जो अद्वैतवाद के प्रचार में महत्वपूर्ण रहे।

 

चार मठों की स्थापना

शंकराचार्य ने भारतवर्ष में वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के लिए चार मठों की स्थापना की, जो आज भी हिंदू धर्म के प्रमुख केंद्र हैं:

1. ज्योतिर्मठ, बद्रिकाश्रम (उत्तराखंड): तोटकाचार्य इसके पहले मठाधीश बने।

2. शृंगेरी पीठ, कर्नाटक: विद्या और साधना का केंद्र।

3. द्वारिका पीठ, गुजरात: पश्चिम भारत का धार्मिक केंद्र।

4. पुरि गोवर्धन पीठ, ओडिशा: पूर्व भारत का मठ।

 

इन मठों ने बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम कर वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने में योगदान दिया। प्रत्येक मठ का एक शंकराचार्य आज भी इसका संचालन करता है।

 

भारत भ्रमण और प्रभाव

शंकराचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेक विधर्मियों (बौद्ध, जैन आदि) को शास्त्रार्थ में पराजित कर वैदिक धर्म को स्थापित किया। उनका प्रभाव बिहार के महिषी गाँव से लेकर काशी, प्रयाग, और बदरिकाश्रम तक फैला। महिषी में मण्डन मिश्र की पराजय और उग्रतारा पीठ की सांस्कृतिक महत्ता ने इस क्षेत्र को दार्शनिक केंद्र बनाया।

 

निधन

शंकराचार्य का निधन 820 ईस्वी (लगभग 32 वर्ष की आयु में) में केदारनाथ, उत्तराखंड में हुआ, जहाँ उन्होंने शिवसायुज्य प्राप्त किया। माँ की मृत्यु के समय वे उनके वचन के अनुसार कालाड़ी में उपस्थित रहे, जो उनके पारिवारिक कर्तव्य का प्रमाण है। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके दर्शन और मठ आज तक जीवित हैं।

 

व्यक्तित्व और योगदान

शंकराचार्य का व्यक्तित्व प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार शैली, और भगवद्भक्ति का दुर्लभ संयोग था। उनकी वाणी में सरस्वती का वास माना जाता था। उन्होंने अद्वैत वेदान्त को स्थापित कर भारत में एकता और आध्यात्मिकता का संदेश दिया। उनके द्वारा बौद्ध धर्म को मिथ्या सिद्ध कर वैदिक परंपरा को पुनर्जीवित करना उनके सबसे बड़े योगदान में से एक है।

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संस्कृत विभागों में भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सूचना का अधिकार अधिनियम को जानें।

जन सूचना अधिकारी के कार्य
प्रत्येक सरकारी विभाग में एक या अधिक अधिकारियों को जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) का पद दिया गया है. ये जन सूचना अधिकारी प्रधान अधिकारियों के रूप में कार्य करते हैं. आपको अपनी सूचना हेतु प्रार्थनापत्र इनके पास जमा करनी होती है. यह उनका उत्तरदायित्व होता है कि वे उस विभाग के विभिन्न भागों से आपके द्वारा मांगी गयी जानकारी इकठ्ठा कर आपको प्रदान करें. इसके अलावा, कई अधिकारियों को सहायक जन सूचना अधिकारी के पद पर सेवायोजित किया गया है. उनका कार्य केवल जनता से प्रार्थनापत्र स्वीकारना व उचित पीआईओ के पास भेजना है.
प्रार्थनापत्र की फीस
एक प्रार्थनापत्र की फीस केंद्र सरकार के विभागों के लिए यह 10 रु. है. 
विभिन्न राज्यों ने भिन्न फीसें रखीं हैं. सूचना पाने के लिए, आपको 2रु. प्रति सूचना पृष्ठ केंद्र सरकार के विभागों के लिए देना होता है. यह विभिन्न राज्यों के लिए अलग- अलग है. इसी प्रकार दस्तावेजों के निरीक्षण के लिए भी फीस का प्रावधान है. निरीक्षण के पहले घंटे की कोई फीस नहीं है लेकिन उसके पश्चात् प्रत्येक घंटे या उसके भाग की रु. प्रतिघंटा फीस होगी. यह केन्द्रीय कानून के अनुसार है. प्रत्येक राज्य के लिए, सम्बंधित राज्य के नियम देखें. 
सूचना पाने के लिए फीस की अदायगी
प्रत्येक राज्य का अर्ज़ी फीस जमा करने का अलग तरीका है. साधारणतया, आप अपनी अर्ज़ी की फीस ऐसे दे सकते हैं:
आप फीस नकद में, डीडी या बैंकर चैक या पोस्टल आर्डर जो उस जन प्राधिकरण के पक्ष में देय हो द्वारा जमा कर सकते हैं. कुछ राज्यों में, आप कोर्ट फीस टिकटें खरीद सकते हैं व अपनी अर्ज़ी पर चिपका सकते हैं. ऐसा करने पर आपकी फीस जमा मानी जायेगी. आप तब अपनी अर्ज़ी स्वयं या डाक से जमा करा सकते हैं.
  • स्वयं नकद भुगतान द्वारा (अपनी रसीद लेना न भूलें)
  • डाक द्वारा: 
  • डिमांड ड्राफ्ट से 
  • भारतीय पोस्टल आर्डर से 
  • मनी आर्डर से [केवल कुछ राज्यों में] 
  • कोर्ट फीस टिकट से [केवल कुछ राज्यों में] 
  •  बैंकर चैक से 
  1-कुछ राज्य सरकारों ने कुछ खाते निर्धारित किये हैं. आपको अपनी फीस इन खातों में जमा करानी होती है. इसके लिए, आप एसबीआई की किसी शाखा में जा सकते हैं और राशि उस खाते में जमा करा सकते हैं और जमा रसीद अपनी आरटीआई प्रार्थनापत्र के साथ लगा सकते हैं. 
2- आप अपनी आरटीआई आवेदन के साथ उस विभाग के पक्ष में देय डीडी या एक पोस्टल आर्डर भी लगा सकते हैं.
प्रार्थनापत्र
एक साधारण कागज़ पर अपना प्रार्थनापत्र बनाएं और इसे जन सूचना अधिकारी के पास स्वयं या डाक द्वारा जमा करें. (प्रार्थनापत्र की एक प्रति अपने पास निजी सन्दर्भ के लिए अवश्य रखें)


जन सूचना अधिकारी के उपलब्ध न होने की स्थिति में आप अपना प्रार्थनापत्र एपीआईओ या अन्य प्रार्थनापत्र लेने के लिए नियुक्त अधिकारी के पास अर्जी जमा कर सकते हैं.
पीआईओ या एपीआईओ का पता लगाना
यदि आपको पीआईओ या एपीआईओ का पता लगाने में कठिनाई होती है तो आप अपनी अर्जी पीआईओ c/o विभागाध्यक्ष को प्रेषित कर उस सम्बंधित जन प्राधिकरण को भेज सकते हैं. विभागाध्यक्ष को वह अर्जी सम्बंधित पीआईओ के पास भेजनी होगी.

सूचना प्राप्ति की कोई समय सीमा
आपने अपनी अर्जी पीआईओ को दी है, आपको 30 दिनों के भीतर सूचना मिल जानी चाहिए. यदि आपने सूचना हेतु प्रार्थनापत्र सहायक पीआईओ को दी है तो सूचना 35 दिनों के भीतर दी जानी चाहिए. उन मामलों में जहाँ सूचना किसी एकल के जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करती हो, सूचना 48 घंटों के भीतर उपलब्ध हो जानी चाहिए.
सूचना हेतु प्रार्थनापत्र देने का कारण बताना आवश्यक नहीं है
आपको कोई कारण या अन्य सूचना केवल अपने संपर्क विवरण (जो हैं नाम, पता, फोन न.) के अतिरिक्त देने की आवश्यकता नहीं है. अनुच्छेद 6(2) स्पष्टतः कहता है कि प्रार्थी से संपर्क विवरण के अतिरिक्त कुछ नहीं पूछा जायेगा.
पीआईओ आपकी सूचना हेतु प्रार्थनापत्र (आरटीआई) लेने से किसी भी परिस्थिति में मना नहीं कर सकता. चाहें वह सूचना उसके विभाग/ कार्यक्षेत्र में आती हो, उसे वह स्वीकार करनी होगी. यदि  आवेदन उस पीआईओ से सम्बंधित न हो, उसे वह उपयुक्त पीआईओ के पास 5 दिनों के भीतर अनुच्छेद 6(2) के तहत भेजनी होगी.
जवाबदेही जुर्माना
इतिहास में पहली बार कोई कानून किसी अधिकारी की अकर्मण्यता के प्रति जवाबदेही निर्धारित करता है. यदि सम्बंधित अधिकारी समय पर सूचना उपलब्ध नहीं कराता है, उस पर 250रु. प्रतिदिन के हिसाब से सूचना आयुक्त द्वारा जुर्माना लगाया जा सकता है. यदि दी गयी सूचना गलत है तो अधिकतम 25000रु. तक का जुर्माना लगाया जा सकता है. जुर्माना आपकी अर्जी गलत कारणों से नकारने या गलत सूचना देने पर भी लगाया जा सकता है. यह जुर्माना उस अधिकारी के निजी वेतन से काटा जाता है. जुर्माने की राशि सरकारी खजाने में जमा हो जाती है. हांलांकि अनुच्छेद 19 के तहत, प्रार्थी मुआवजा मांग सकता है.
यदि मुझे सूचना न मिले?
यदि आपको सूचना न मिले या आप प्राप्त सूचना से संतुष्ट न हों, आप पहला अपीलीय अधिकारी के पास सूचना का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 19(1) के तहत एक अपील दायर कर सकते हैं.
पहला अपीलीय अधिकारी पीआईओ से वरिष्ठ रैंक का होता है.
प्रथम अपील का कोई प्रारूप नहीं होता (लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने प्रारूप जारी किये हैं). एक सादा पन्ने पर प्रथम अपीली अधिकारी को संबोधित करते हुए अपनी अपीली अर्जी बनाएं. इस अर्जी के साथ अपनी मूल आवेदन पत्र व पीआईओ से प्राप्त जैसे भी उत्तर (यदि प्राप्त हुआ हो) की प्रतियाँ लगाना न भूलें.आपको प्रथम अपील की कोई फीस नहीं देनी होगी, कुछ राज्य सरकारों ने फीस का प्रावधान किया है.
आप अपनी प्रथम अपील सूचना प्राप्ति के 30 दिनों व आरटीआई  आवेदन दाखिल करने के 60 दिनों के भीतर दायर कर सकते हैं.
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