शंकराचार्य की जीवनी
आचार्य शंकर का जन्म केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में ७८० ईस्वी में हुआ। माता विशिष्टा ने वैशाख शुक्ल पंचमी को इन्हें जन्म दिया। उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है लेकिन अधिकांश लोगों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में
आविर्भूत हुए । उनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा था।
उनके बचपन से ही मालूम होने लगा कि किसी महान् विभूति का अवतार हुआ है।
पाँचवे वर्ष में यज्ञोपवीत करा कर इन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेजा गया और सात वर्ष की आयु में ही आप वेद, वेदान्त
और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन कर वापस आ गये। वेदाध्ययन के उपरान्त आपने संन्यास ग्रहण करना चाहा
किन्तु माता ने उन्हें आज्ञा नहीं दी।
एक दिन वे माँ के साथ नदी पर स्नान करने गये, वहाँ मगर ने उन्हें पकड़ लिया। माँ हाहाकार
मचाने लगी। शंकर ने माँ से कहा तुम यदि मुझे संन्यास
लेने की अनुमति दो तो मगर मुझे छोड़े देगा। माँ ने
आज्ञा दे दी। जाते समय माँ से कहते गये कि तुम्हारी
मृत्यु के समय मैं घर पर
उपस्थित रहूँगा। घर से चलकर
आप नर्मदा तट पर आये, वहाँ गोविन्द-भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण
की। उन्होंने गुरु द्वारा बताये गये मार्ग से साधना
शुरु कर दी अल्पकाल में ही योग सिद्ध महात्मा हो गये। गुरु
की आज्ञा से वे काशी आये। यहाँ उनके अनेक शिष्य बन गये, उनके पहले
शिष्य बने सनन्दन जो कालान्तर में पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ ग्रंथ भी लिखते जाते थे।
कहते हैं कि एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रुप में उन्हें दर्शन दिया और ब्रह्मसूत्र
पर भाष्य लिखने और धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। जब
भाष्य लिख चुके तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गंगा तट पर
उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। उस सूत्र पर उनका उस
ब्राह्मण के साथ आठ दिन तक
शास्त्रार्थ हुआ।
बाद में मालूम हुआ
कि ब्राह्मण और कोई नहीं साक्षात् भगवान् वेद व्यास थे।
वहाँ के कुरुक्षेत्र
होते हुए वे बदरिकाश्रम पहुँचे। उन्होंने अपने सभी
ग्रंथ प्राय: काशी या बदरिकाश्रम में लिखे थे, वहाँ से वे
प्रयाग गये और कुमारिल भट्ट से भेंट की। कुमारिल भट्ट के कथनानुसार वे माहिष्मति नगरी में मण्डन
मिश्र के पास शास्त्रार्थ के लिए आये। उस शास्त्रार्थ में मध्यस्थ थीं मण्डन मिश्र की विदुषी पत्नी भारती। इसमें मण्डन मिश्र की पराजय हुई, और उन्होंने
शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार
भारत-भ्रमण के साथ विद्वानों
को शास्त्रार्थ में पराजित कर वे बदरिकाश्रम लौट आये । वहाँ ज्योतिर्मठ की स्थापना की
और तोटकाचार्य को उसका मठाधीश बनाया। अंतत: वे केदार क्षेत्र में आये और वहीं इनका जीवन सूर्य अस्त हो गया।
शंकर की कृपा से
जन्में बालक का नाम शंकर पड़ा। आठवें
वर्ष में शंकर ने सन्यास ले लिया। गुरु की खोज में
ओंकारेश्वर पहुँचे जहाँ इन्हें गोविन्दाचार्य मिले। तीन
वर्ष अध्ययन करके बारह वर्ष की आयु में ये काशी पहुँचे।
काशी में गंगा स्नान करके लौटते समय एक
चांडाल को मार्ग से हटो कहा तब चांडाल ने इन्हें 'अद्वैत'
का वास्तविक ज्ञान दिया और काशी में चांडाल रुपधारी शंकर से पूर्ण
शिक्षा प्राप्त की। इन्होंने केदार धाम में ३२ वर्ष की आयु में शिवसायुज्य प्राप्त किया।
शंकराचार्य का कृतित्व
आचार्य शंकर ने १४ वर्ष की उम्र में ब्रह्मसूत्र, गीता,
उपनिषद् पर भाष्य लिखे। सोलह वर्ष की
उम्र में वेदव्यास से भेंट हुई। प्रयाग में
कुमारिल भट्ट से मिले, महिष्मति में मंडन
मिश्र से शास्त्रार्थ किया।
भगवान् शंकर के संबंध में जो भी पाठ्य सामग्री प्राप्त है
तथा उनके जीवन संबंध में जो भी घटनाएँ मिलती हैं उनसे
ज्ञात होता है कि वे एक अलौकिक व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में प्रकाण्ड पाण्डित्य, गंभीर विचार
शैली, अगाध भगवद्भक्ति आदि का दुर्लभ समावेश दिखायी देता है।
उनकी वाणी में मानों सरस्वती का वास था।
उनके ही समय में भारत में वेदान्त दर्शन
अद्वैतवाद का सर्वाधिक प्रचार हुआ, उन्हें अद्वैतवाद का प्रवर्त्तक माना जाता है।
ब्रह्मसूत्र पर जितने भी भाष्य मिलते हैं उनमें सबसे प्राचीन शंकर
भाष्य ही है।
उनके लिखे ग्रंथों की संख्या २६२ बतायी जाती है, लेकिन यह
कहना कठिन है कि ये सारे ग्रंथ उन्हीं के लिख हैं। उनके प्रधान
ग्रंथ इस प्रकार हैं - ब्रह्मसूत्र भाष्य, उपनिषद् भाष्य,
गीता भाष्य, विष्णु सहस्रनाम भाष्य, सनत्सुजातीय भाष्य, हस्तामलक भाष्य आदि।इन्होंने
समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित करके वैदिक धर्म को
पुनरुजीवित किया था । इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों
की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके
प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी शंकराचार्य कहे जाते है ।
वे चारों स्थान निम्न- लिखित हैं—(१) बद्रिकाश्रम,
(२) करवीरपीठ, (३) द्वारिका-
पीठ और (४) शरदापीठ । इन्होंने अनेक
विधर्मियों को भी अपने धर्म में दक्षित किया था । ये शंकर के अवतार माने जाते है ।
बिहार के सहरसा
स्थित महिषी गाँव (प्राचीन काल में इसे महिष्मा के नाम
से जाना जाता था) में विश्व विख्यात दार्शनिक मंडन मिश्र का
आविर्भाव हुआ था, साथ ही महामान्य आदि शंकराचार्य के पवित्र
चरण भी पड़े थे। इसी स्थल पर जगत जननी उग्र तारा का प्राचीन मंदिर भी अवस्थित है
और इसे “सिद्धता” भी प्राप्त है। यह भी
उल्लेख मिलता है कि शिव तांडव में सती कि बायीं आँख इसी स्थान पर गिरी थी, जहाँ अक्षोभ्य ऋषि सहित नील सरस्वती तथा एक माता भगवती के साथ महिमामयी
उग्रतारा की मूर्ति भी विराजमान है।
पौराणिक आख्यानों
की मानें तो जब भगवान शिव महामाया सती का शव लेकर विक्षिप्त अवस्था में ब्रह्मांड
का विचरण कर रहे थे, सती की नाभि महिषी गाँव में गिरी थी। मुनि वशिष्ठ ने उस जगह
माँ उग्रतारा पीठ की स्थापना की। इसीलिए यह मंदिर सिद्ध पीठ और तंत्र साधना का
केंद्र है। इस मंदिर से सौ कदम दूर लगभग दो एकड़ की एक वीरान भूमि है जहाँ पैर
रखते ही एक अदृश्य आकर्षण आज भी होता है, इसी
स्थान पर उस महापुरुष मंडन मिश्र का जन्म हुआ था जिनकी पत्नी भारती ने अपने पति के
स्वाभिमान की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
इस पराजय के
पश्चात् आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो साठ
वर्षों तक द्वितीय शंकराचार्य के रूप में विख्यात हुए। यह घटना आज
से लगभग 2400 वर्ष पूर्व की है और तब से लेकर अब तक सत्तर
शकाराचार्य हो चुके हैं। अतीत में और पीछे जाएँ तो पाते हैं कि मुनि वशिष्ठ ने
हिमालय की तराई तिब्बत में उग्रतारा विद्या की महासिद्धी के बाद धेमुड़ा
(धर्ममूला) नदी के किनारे स्थित महिष्मति (वर्तमान महिषी) में माँ उग्रतारा की
मूर्ति स्थापित की थी। किंवदंतियां यह भी है कि निरंतर शास्त्रार्थ के कारण यहाँ
के तोते और अन्य पक्षी भी शास्त्र की बातें करते थे।
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