जब मैं छोटा था। प्रथमा और मध्यमा में प्रातः उठकर पठित
पाठ, याद किये गये श्लोकों एवं सूत्रों की आवृत्ति करता
था। प्रातः 7 से 9 के बीच आवृत्ति का समय सुनिश्चित होता था। अब जब मैं सेवा क्षेत्र में आ
गया। एक पुस्तकालय के प्रबन्धन एवं संचालन का दायित्व मुझे सौपा गया था। यूं कहें
सरकार के साथ 58 वर्ष तक की आयु तक के लिऐ वेतन के
एवज में अनुबंध किया। तब से मेरे आवृत्ति की दिशा बदलने लगी। कभी निर्माण से
सम्बन्धित कार्यो की आवृत्ति (मानसिक आवृति वाचिक नहीं) ऋण अदायगी की आवृत्ति आदि।
धीरे-धीरे आवृत्तिक विषयों की संख्या में वृद्धि होती चली गयी। वाचिक आवृत्ति का
स्थान मानसिक आवृत्ति ने ली। यह आवृत्ति सोते जागते, चलते-फिरते, लोगो से बातचीत करते या यूं कहें चतुर्दिक आवृत्ति होने लगी। घर से
कार्यालय, कार्यालय से घर हर जगह संस्कृत के उन्नयन प्रचार-प्रसार की भावी योजना इसके स्वरूप और प्रभाव
कार्यक्षेत्र सहित तमाम उपायों पर मानसिक आवृत्ति होती गयी।
ऐसा होना स्वाभाविक एवं लाजमी था। बचपन से मैं जिन संस्कारों और वातावरण
के साथ पला बढ़ा, उसमें संस्कृत के संरक्षण एवं संवर्धन की पीड़ा भरी गयी। मेरा
जगत् संस्कृत जगत् था। मेरे परिचित, शुभाकांक्षी भी
संस्कृतज्ञ ही थे। इक्का दुक्का इधर-उधर के लोग।
कभी संस्कृत छात्रों की कठिनाइयों को देखकर ‘निर्धन छात्र कोष‘ का निर्माण किया। एक बार तो
मैं ‘विमल फाउण्डेशन‘ नामक
संस्था का विधिवत् भव्य आयोजन कर आधारशिला भी रखी। संस्कृत छात्रों के लिये छात्रवृत्ति
योजना लेकर आया। परन्तु अब एक संस्कृत के प्रचारक संस्था से जुड़ गया हूं। कई
संस्थाओं के साथ कार्य करने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है।
सेवा क्षेत्र में आने पर पुस्तकालय के अतिरिक्त भी कई दायित्व का जिम्मा
भी मुझे दे दिया गया। मैं अपनी पृष्ठभूमि पूर्व में आपको बता ही चुका हूं। संस्कृत के क्षेत्र में कार्यानुभव के कारण इसके विकास एवं प्रचार की एक
सुनिश्चित योजना एवं धारणा मेरे मन में पुष्ट हो चुका है। इन सब के साथ एक झाम फंस
गया सरकारी तंत्र का। इसकी अपनी रीति-नीति एवं नियंता होते हैं।
बात की जाय व्यास महोत्सव की तो इसकी पैदाइश सन् 2007 में हुआ। सम्भावित लक्ष्य व्यास की कृतियों का संरक्षण एवं प्रचार-प्रसार था।
योजना का स्वरूप शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा व्यास साहित्य को
जन-जन तक पहुँचाना। व्यास की कृतियां वेद, वेदान्त, पुराण, धर्मशास्त्र एवं महाभारत पर विद्वानों
की संगोष्ठी एवं गीता कण्ठस्थ पाठ, छन्दोगान (पुराणों
पर आधारित) शोध छात्र संगोष्ठी, चित्रकला प्रतियोगिता
द्वारा महर्षि व्यास की कृतियों एवं संदेशों को पहुंचाना। आम जन तक या
आम जन के लिए मनोरंजन का सशक्त माध्यम सांस्कृतिक कार्यक्रम (गीता, नृत्य, नाटक) का आयोजन। सांस्कृतिक कार्यक्रमों
का आधार, पृष्ठभूमि महर्षि व्यास रचित वाड्मय रखा गया।
मैंने भी पुरजोर कोशिश किया। प्रचार-प्रसार के समस्त सम्भावनाओं को खंगाला। इसे कार्य रूप देने के लिए रात दिन एक कर दिया। व्यास महोत्सव का बेबसाइट बनबाया। महोत्सव की दृष्टि से इसमें तमाम तकनीकि वारीकी को पिरोया, ताकि देश-विदेश के पर्यटक इस अवसर पर आ सकें। दिन रात महोत्सव के बारे में सोचना और उसे किसी भी तरह पूर्ण करना मेरी आदत सी हो गयी। वैसे भी मैं जो कुछ भी करता हूँ पूरी निष्ठा और लगन के साथ। पर्दे के पीछे से ही सही उसके लिए दीर्घकालीन नीति बनाना तथा परिणाम पर पैनी नजर रखना मेरी आदत है।
महोत्सव चल निकला। देश के दिग्गज एक मंच पर आने लगे। जोर शोर से
महोत्सव को भव्य रूप दिया गया था। यहां एक भूल हो गयी। पथ-प्रदर्शन की भूमिका में
विद्वद्जन तो थे परन्तु परिणाम की ओर उन्मुख करने वाला नेतृत्व सम्मुख नहीं था।
जिसे नेतृत्व दिया गया वह अनिश्चित एवं रूचिमान नहीं हुआ। यहीं से महोत्सव में
समस्याओं एवं विडम्बनाओं का दौर शुरू हुआ। अब हम इसकी पड़ताल शुरू करते हैं। शुरू के
महोत्सव में लक्ष्य व्यास साहित्य के अवदान से विश्व जन मानस को परिचित करना था।
इसके लिए विद्वान और छात्र तो थे। (यहाँ एक विशेष ध्यातव्य है कि व्यास की पूरी रचना
संस्कृत भाषा में है व्यास पर चर्चा होते ही संस्कृत भी चर्चा शुरू हो जाती है।
व्यास ने संस्कृत के विकास की परिकल्पना स्वतः
स्फुट है। अन्यथा तो हिन्दी सहित तमाम भाषाओं में रचित साहित्य, कला संस्कृति के ग्रन्थों पर व्यास का अमिट छाप है ही।)
बात हो रही थी व्यास महोत्सव के बारे में मेरी आवृत्ति की, जिसे मैं व्यास महोत्सव सम्भावना एवं तथ्य नाम
से एक अलग पुस्तक लिख चुका हूं। व्यास के अवदान को प्रचारित करने के लिए संस्कृत
के विद्वानों एवं छात्रों का विशाल समूह है ही परन्तु प्रचार-सामग्री में
सोच-सोचकर ऐसे थीम की सर्जना करायी जिसे पूरा कथ्य स्पष्ट हो जाय। आज समस्त प्रचार
सामग्री पर वही थीम प्रिंट की जाती है। बन्धुओं मैंने आज तक न तो संस्कृत के नाम
पर माला पहनी न शाल ओढ़ा। न ही बतौर भाषण कर्ता मंच पर विराजित हुआ। आधार मजबूत
करने वाले का फोटो कभी दिखाई नहीं देता क्योंकि फोटो खिचाने या नामोल्लेख की अभिलाषा
से वहां डटे नहीं रहता। यह तो रूचि एवं स्वभाव से जुड़ा मामला हैं।
कुछ वर्ष वेद पाठ भी हुए। विज़न आया। पेपर में न्यूज आये, परन्तु मेरा मन
इनसे संतुष्ट नहीं हुआ। मैं चाहता रहा कि संस्कृत से जुड़े हर व्यक्ति तक व्यास
महोत्सव की सूचना पहुंचे। उनके लिए भी एक कार्यक्रम हो जिसे कर वे उल्लसित हो सकें।
मैं इसे एक लोक महोत्सव को रूप में देखना चाहता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम को हाल
से निकालकर खुले स्थान अस्सी घाट पर लाया। अस्सी घाट पर लाने के लिए विधिवत् कार्य
योजना बनायी और उसे मूर्त रूप देने में सफल रहा।
आप सोच रहे होंगे। मैंने सोचा और हो गया। ऐसा करना वाकई कठिन था। मैं
निर्णय लेने की भूमिका में नहीं हूं। सिर्फ सोच सकता हूं। निर्दिष्ट कार्य को अमल
में ला सकता हूं। परन्तु निर्णय लेने वाले लोग इस तरह निर्णय लें इसकी योजना तो
बनानी ही पड़ती है फिर उसे वे व्यवहारिक व समयोचित समझ उसे मूर्त रूप देने में
आनाकानी भी न करें। धन व्यवस्था भी तो जरूरी हैं। सबकुछ साफ एवं तैयार हो, लोग मान जायें ऐसी जगह श्रम की आवश्यकता होती है। भारत में जो
कार्य करते है, जिन्हें कार्यानुभव है, जो निश्छल भाव से कार्य को गति देना चाहते
हैं, वें निर्णय नहीं लेते है और जो निर्णय लेते हैं, वे कार्य नहीं करते।
अब प्रचार सामग्री में विविधता आयी। अधिक लोग व्यास महोत्सव को जानने लगे।
पुस्तक मेला, व्यास कथा सहित कई अस्सी घाट पर तो व्यास
महोत्सव का सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो गया। जनसमूह जुड़े साथ में ढेर सारे
विदेशी मेहमान भी, परन्तु स्टेज निर्माण में बहुत धन
व्यय होने लगा। महोत्सव का लक्ष्य ‘संस्कृत संवर्धन‘ गुम होने लगा। प्रारम्भ काल में संस्कृत नाटक आयोजित किये जाते थे। वह अंत
में आकर लुप्त हो गया। संस्कृति विभाग अपने बजट में मंच निर्माण से कलाकारों के
रूकने, भोजन, आवास, मार्गव्यय एवं मानदेय देने तक की स्थिति में नही रहा। पहले मात्र घंटे दो
घंटे के कार्यक्रम होते थे बाद में कलाकारां और कार्यक्रमों की संख्या बढने लगी।
यहां संस्कृत या संस्कृत नहीं था, था तो सिर्फ कला।
केन्द्रीय सहायता बंद हो गयी। कई संस्थाओं द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम बंद होते
गये। कार्यक्रमों की संख्या यथा पुस्तक मेला, व्यास कथा
आदि जोड दिये गये। अंततः संयोजक संस्था उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान अपने बजट को
अल्प पाते हुए सिर्फ शैक्षणिक कार्यक्रमों तक अपने को सीमित रखना उचित समझा
क्योंकि इसके पास कोई और पुरूषार्थी व्यक्ति न होने से इसे घीरे-धीरे सीमित करता
गया। 20 विद्वानों के स्थान पर 10 विद्वान संगोष्ठी में आने हेतु निमंत्रित किये गये।
सबसे बड़ी समस्या दृढ इच्छा शक्ति वाले शक्तिमान व्यक्ति का अभाव पैदा
हुआ। हर एक इसमें अपनी इच्छा शक्ति का स्रोत खोजना शुरू किया। जिसे जहाँ मौका
मिला संस्कृतहित को दरकिनार कर व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के उपाय खोजने में
अपना श्रम व समय लगाया। वैसे भी संस्कृत क्षेत्र में पुजापा की आनादिकालीन परम्परा है। कुछ नया करने की चाहत सीखने सिखाने की परम्परा नहीं है।
जिस महोत्सव की कार्ययोजना 6 माह पूर्व
निर्मित किया जाना चाहिए उसे सप्रयास विलम्बित रखा जाने लगा। यहाँ तक की विद्वानों,
छात्रों के पास आमंत्रण व सूचना अमूमन तीन माह पूर्व जाती है, ताकि ट्रेनों में आरक्षण करा सके परन्तु इसे इतना विलम्ब से शुरू ही किया
जाता है कि लोग आ ही नहीं पाते।
संस्कृत जगत में परमुंडे फलहार तो सदियों से चली आ रही परम्परा है। आमदनी
कितनी भी अधिक हो परन्तु सामाजिक कार्यों हेतु उनके पास सर्वदा धनाभाव ही रहता है।
उचित मंच एवं अवसर के रहते हुए भी संस्कृतज्ञ अपनी एकजुटता नहीं दिखा पाते। उत्तर
प्रदेश में तो कोई भी ऐसा मंच नहीं होता है, जहां से
संस्कृतज्ञ यह संदेश दे सके कि मेरा भी एक समूह है जिसकी अनदेखी करना किसी के लिए
असंभव हो। अत एव उपेक्षित संस्कृतज्ञ होते रहते हैं। सामाजिक अनादर को प्राप्त
होते हैं। समाज इस विद्या को अपनाने में आनाकानी करने लगा। अस्तु संस्कृतज्ञ
द्वारा उपार्जित धन असंस्कृतज्ञों का जेब खर्च होता ही है।
बात चली थी मेरी आवृत्ति और
व्यास महोत्सव पर मेरी आवृत्ति की। मैं हमेशा चाहता रहता हूं कुछ ऐसा कार्य इसमें
हो इसमें हो, जिससे कुछ अधिकाधिक लोग इससे जुडते़ जाये । कारवां बढ़ता जाय। छात्रों को प्रोत्साहन मिले। गीता पढ़ने वाले छात्रों सहित अन्य
प्रतियोगिता पुरस्कार धनराशि बढ़ाने में सफलता मिली।
हजारों
विद्वज्जनों को भी शोधपत्र वाचन का सुअवसर प्राप्त हो एतदर्थ द्वार खुलवाने में
सफल रहा। वस्तुतः जो ऊचें पायदान को प्राप्त है, प्रतिष्ठित
है, जिन्होंने ऊंचे ओहदे को प्राप्त कर मुकाम पा लिये
उनके सिर्फ और सिर्फ आशीर्वाद की ही आवश्यकता है। जरूरी है कि उन लोगों को
उच्चीकृत एवं प्रतिष्ठित किया जाय, जो संघर्षरत हैं।
मुझे कई लोग कहते है, ऊंचे उठाउंगा। मैं
विनम्रता पूर्वक कहता हूं। मैं उठना नहीं, उठाना चाहता हूं, जिस दिन मैं इस दौर में शमिल हो जाऊॅगा तो संस्कृत पीछे रह जाएगा। संस्कृत
के शव पर पांव रख व्यक्तिगत उन्नति की कोई अभिलाषा नहीं। व्यक्तिगत स्वर्ग की
कामना सामूहिक नर्क की सृष्टि करता है। यहां तो होड़ है ही। आ हम तुम्हें माला
पहनाऊॅ तू मुझे पहना।
मैं संस्कृतज्ञों में मठाधीशी स्वंय ब्रह्म भाव देखकर अंचभित हूं।
भला जो विद्या निरंतर लोक अनादर की ओर प्रगति पथ पर हो, उसकी
रोटी खाने वाले प्रहरी की भूमिका में क्यों नहीं आते? मैंने गुरूजनों में
आश्चर्यजनक साक्षी भाव देखी है। ट्रेन का किराया मानदेय न मिला तो संगोष्ठी में
नहीं जाना। क्या विद्वज्जन इतने प्रोफेशनल हो गये, संस्कृत
का बाजार इतना गर्म हो गया कि हर जगह पैसे की अहमियत आ गयी? क्या विद्वान् रूपये
के लिये ही गोष्ठी में जाते हैं? ज्ञान बांटना अपना एक प्रशंसक वर्ग तैयार करना
उनके कार्यक्रमों में शमिल ही नहीं हैं।
व्यास महोत्सव की अवधारणा क्या थी। इसके द्वारा कौन सा लक्ष्य
अर्जित करना था ? कितनी सफलता मिली ? वे कौन है जिनके लिए यह आयोजन शुरू हुआ ? इन
प्रश्नों का ही मन में अनेक उत्तर पाते रहता हूं। उसमें एक उत्तर आप भी जान लें। उच्च पदों पर विराजित चुनिंदा लोगो के लिए आयोजित यह महोत्सव उनकी मनोभिलाषा की
पूर्ति का एक माध्यम था, जिसमें श्रोता तो थे नहीं। दसेक वक्ता जरूर थे।