धन्वन्तरि से दिवोदास तक: आयुर्वेद की गौरवशाली परंपरा

      हरिवंश पुराण के अनुसार समुद्र मन्थन से अब्जदेवता का आविर्भाव हुआ। धन्व ने इस देवता की भक्तिपूर्वक आराधना की। प्रसन्न होकर यही देवता धन्व का पुत्र धन्वन्तरि के रुप में अवतरित हुआ। यह अब्ज देवता सोम है। सोम के अधिष्ठातृ  देवता इन्द्र हैं। इन्द्र और विष्णु दोनों सहोदर भाई थे। महाभारत तथा अग्निपुराण में भी यही उल्लेख प्राप्त होता है। अर्थात् अब्ज देवता भी विष्णु ही थे, जिसके अवतार धन्वन्तरि हुए। पौराणिक उपाख्यानों में तथा महाभारत में यह भी लिखा है कि धन्वन्तरि अमृत से भरे हुए कलश को हाथ में उठाये हुए समुद्र से अवतीर्ण हो गये।
   धन्वन्तरि धन्व का बेटा था। उसे इतिहास और पुराण कोई समुद्र का बेटा नहीं कहता। समुद्र में से आविर्भूत धन्वन्तरि पहले कहां थे ? काशी में ही कैसे पहुंच गये ? इसका उल्लेख न पुराण में है न इतिहास में।
            छन्दोग्य उपनिषद में लिखा है कि वस्तुतः देवता और असुर एक ही वंश की संतान थे। विचारों के भेद ने दोनों दलों में भारी भेद उत्पन्न कर दिया। देवता आस्तिक थे और असुर नास्तिक। देव आत्मा में विश्वास करते थे और असुर भौतिक देह में ही। इसी विचार भेद ने विश्व का इतिहास बदल दिया। धन्वन्तरि ने लिखा कि वस्तुतः प्राण के मोह में ही असुर मारे गये।
      सुश्रुत संहिता के अनुसार धन्वन्तरि ने इन्द्र से आयुर्वेद प्राप्त किया था। परन्तु हरिवंश पुराण में महार्षि भारद्वाज से भी धन्वन्तरि का विद्या ग्रहण करने का उल्लेख है।
धन्वन्तरि के विद्याग्रहण और अष्टांग विभाग करने के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उल्लेख परस्पर विरोधी नहीं है। वास्तविकता यह है कि धन्वन्तरि ने इन्द्र से भी पढ़ा और भरद्वाज से भी। आत्रेय ने भी प्रथम भरद्वाज से ज्ञान प्राप्त किया, और तदन्तर रसायन विज्ञान अध्ययन करने के लिये हिमालय के सम्राट इन्द्र के विद्यालय में नन्दनबन भी गये। एक ही व्यक्ति अनेक विषयों का उतना विशेषज्ञ नहीं होता जितनी योग्यता भिन्न-भिन्न विशेषज्ञों को अपने-अपने विषयों के विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की परिपाटी भारत के विद्वानों में प्राचीन काल से रही है।
            इस प्रकार हम यह जानते हैं कि भगवान धन्वन्तरि उन महापुरूषों में से थे जिन की व्यवस्थायें परिषदों में सिद्वांत बन गई। धन्वन्तरि ने शल्य शास्त्र पर जो महत्वपूर्ण गवेषणायें की थीं, उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें और परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश किया। सुश्रुत संहिता का प्रथम अध्याय इस बात को भली भांति स्पष्ट करता है। ग्रंथ प्रारंभ करते हुए ही इस भाव को प्रस्तुत किया गया है, ‘यथोवाच भगवान् धन्वन्तरि। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि दिवोदास की योग्यता भी चोटी तक पहुंची इसीलिये उनके सम्मान के लिये उनके प्रपितामह का नाम ही उनकी उपाधि वन गया-दिवोदास धन्वन्तरि। फलतः दिवोदास का शल्य शास्त्रीय उपदेश भगवान धन्वन्तरि की विरासत ही है।
       महाराज दिवोदास से पूर्व भगवान् धन्वन्तरि अथवा उनके किसी शिष्य ने कोई ग्रन्थ लिखा था या नहीं, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वैसा कोई ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं। फिर भी प्राचीन उल्लेखों के आधार पर प्रतीत होता है कि धन्वन्तरि-संहितानामक कोई ग्रन्थ अवश्य था। प्राचीन ग्रन्थों में धन्वन्तरिएवं ‘‘धान्वन्तर मतजैसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। यह उसी संहिता का निर्देश देते प्रतीत होते है। परन्तु आज धन्वन्तरि के विज्ञान वैभव की बानगी महाराज देवोदास के उपदेशो में ही देखी जा सकती है।
पुराणों में भी कतिपय दिवोदासों का उल्लेख है। परन्तु यहां तो काशिराज दिवोदास की ही चर्चा करनी है। हरिवंश पुराण के 29 वें अध्याय में काश नामक राजा के वंश का वर्णन मिलता है। महाराज काश के ही वंश में धन्वन्तरि का जन्म हुआ था। दिवोदास भी इसी वंश के एक पुरूषरत्न थे। उक्तपुराण में काशी के राजवंश की परम्परा दी गई है।
                        प्रतीत होता है कि धन्वन्तरि के पिता ने परसीक पश्चिम ईराक तक विजय की। वह प्रदेश धन्व से छू गया हैं। इसलिये उनका विरूद धन्व ही रहा। किन्तु उनके बेटे ने धन्व के अन्त तक विजयश्री का डंका बजा दिया, इसलिये उसे धन्वन्तरि का गौरव प्रदान किया जाना उचित ही था। उल्हण ने अपनी सुश्रुत व्याख्या में धनुका अर्थ शल्य शास्त्र लिखा है।
            औरभ्र उर (बैबीलोन) के निवासी, तथा पारसी धर्म-ग्रंथ आवेस्ता में दिवोदास, सुश्रुत एवं करवीर्य करवीर पुर दृषद्वती या आमू (दरिया के तट पर) निवासी, तथा पारसी धर्मग्रंथ अवेस्ता में दिवोदास, सुश्रुत एवं करवीर्य आदि नामों की प्रतिच्छाया यह स्पष्ट करती कि धन्वन्तरि का विरूद भूमध्य के रेगिस्तानों को पार कर गया था।

स्थिति काल

 आयुर्वेद के  अंग

आयुर्वेद का अष्टांग विभाग करने का श्रेय कुछ प्राचीन ग्रंथकारों ने भरद्वाज को और कुछ ने धन्वन्तरि को दिया है। किन्तु सुश्रुत संहिता का कथन यह है कि स्वंय ब्रह्देव ने ही आयुर्वेद को आठ अंगो में विभाजित कर दिया था। वे आठ अंग वे है-
1.   शल्य
2.   शालाक्य
3.   कायचिकित्सा
4.   भूत विद्या
5.    कौमार भूत्य
6.   अगद तन्त्र
7.   रसायन तन्त्र
8.   वाजीकरण तन्त्र।
            धन्वन्तरि तथा अन्य महर्षियों ने इन आठ अंगो का विस्तार किया है सुश्रुत संहिता का प्रारंभिक गुरू सूत्र भी यही बतलाता है कि शल्य, शालाक्य आदि आयुर्वेंद के आठों अंग पृथक-पृथक पूर्व से थे ही, धन्वन्तरि ने उन्हें विस्तृत किया है।
            सुश्रुत संहिता एक व्यक्ति का नहीं, किन्तु धन्वन्तरि, दिवोदास और सुश्रुत इन तीन महापुरूषों के वैज्ञानिक जीवन का मूर्त रूप है। आज भले ही आयुर्वेद शल्यविज्ञान में शिथिल प्रतीत होता है, किन्तु इतिहास साक्षी है कि आयुर्वेद का वह विज्ञान प्राचीन काल में पराकाष्ठा तक पहुंचा हुआ था। पूषा के दांत, इन्द्र की भुजायें, और यज्ञ के ब्रह्ाा का कटा हुआ सिर जोड़ने वाले अश्विनी कुमार धन्वन्तरि से बहुत पूर्व स्वर्ग में ही विद्यमान थे। वह विज्ञान धन्वन्तरि जैसे प्रतिभाशाली महापुरूष की बुद्धि से विकसित विद्यमान थे। वह विज्ञान धन्वन्तरि जैसे प्रतिभाशाली महापुरूष की बुद्धि से विकसित होकर कई गुना समृद्ध हो गया था।

काशी से सम्बन्ध


            काशी जैसे समृद्ध साम्राज्य की नींव डालकर महाराज काश (काश्य) ने जो विशाल राष्ट्र निर्माण किया, भगवान् धन्वन्तरि ने विद्या एवं विज्ञान के अक्षय वैभव से सुसज्जित कर उसे वसुधा का स्वर्ग बना दिया। और महाराज दिवोदास ने इस स्वर्ग का अनूठा वैभव विश्व को वितरित करके अपने वंश के यश की धवल ध्वजा इतिहास के शिखर पर गाड़ दी। वह आज भी उनका परिचय दे रही है। भले ही भारत का प्राचीन इतिहास अन्धकार में चला गया हो, किन्तु दिवोदास और धन्वन्तरि उसके उज्जवल प्रकाश स्तम्भ है। प्रतिवर्ष उन्हीं की स्मृति में हम धन्वन्तरि त्रयोदशी (धन तेरस) का पर्व मानते हैं। 
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वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का विश्लेषण

        

वैशेषिक दर्शन भारतीय ज्ञानपरंपरा का एक प्राचीन एवं विश्लेषणात्मक तत्त्वचिंतन है। इसे भौतिक विज्ञान का आद्य प्रवर्तक भी कहा गया है, क्योंकि इसमें पदार्थ के स्वरूप, भेद, तथा गुणात्मक विशिष्टताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।

दर्शन का नाम और महत्त्व

यह दर्शन ऋषि कणाद द्वारा प्रणीत होने के कारण कणाद दर्शन कहलाता है। चूँकि इसमें 'तम' अर्थात् अंधकार (प्रकाश का अभाव) का भी तात्त्विक विवेचन किया गया है, अतः इसे औलूक्य दर्शन भी कहा गया।

श्रीहर्ष ने नैषधीयचरितम् में इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है—

"ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे।
औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत् क्षमं तपस्तत्त्वनिरूपणाय।।"

अर्थात् अंधकार (ध्वान्त) जैसे सूक्ष्म विषयों के विचार में वैशेषिक मत मुझे प्रिय लगता है; जिसे औलूक्य दर्शन कहा गया है, वह तपस्वियों के लिए तत्त्व-निरूपण में सक्षम है।

रचना-काल

वैशेषिक दर्शन की प्राचीनता अनेक शास्त्रीय ग्रंथों से प्रमाणित होती है—

·       ललितविस्तर, मिलिंदपञ्हो, लंका-अवतार सूत्र जैसे बौद्ध ग्रंथों में इसका उल्लेख है।

·       चरक संहिता (ई. पू. प्रथम शती) में गुण और धर्म की व्याख्या वैशेषिक दर्शन के अनुसार की गई है।

इन सन्दर्भों के आधार पर वैशेषिक दर्शन का रचना-काल ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी के लगभग माना जाता है।

कणाद ऋषि एवं दर्शन की उत्पत्ति

वायु पुराण के अनुसार, ऋषि कणाद का जन्म द्वारका के समीप प्रभास क्षेत्र में हुआ था।

·       'कणाद' नाम का एक कारण यह है कि वे खेतों में बचे अन्न-कणों को एकत्र कर भोजन करते थे।

·       'कण' (परमाणु) के विश्लेषण में अग्रणी होने के कारण भी यह नाम प्रचलित हुआ।

·       वे पदार्थ-चिंतन में इतना लीन रहते थे कि चलते समय भी आँखें बंद रखते; इसलिए उन्हें अक्षपाद भी कहा गया।

·       एक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव ने उन्हें उलूक रूप में दर्शन देकर यह ज्ञान प्रदान किया — जिससे यह दर्शन औलूक्य दर्शन कहलाया।

वैशेषिक दर्शन का प्रतिपाद्य विषय

वैशेषिक सूत्रइस दर्शन का मूल ग्रंथ — दस अध्यायों (अध्याय = अधिकरण) में विभक्त है, जिनमें दो-दो आह्निक हैं।
👉 कुल सूत्र: 370

मुख्य विषय —

·       द्रव्य (Substance)

·       गुण (Quality)

·       कर्म (Action)

·       सामान्य (Generality)

·       विशेष (Particularity)

·       समवाय (Inherence)

·       अभाव (Non-existence) (बाद में जोड़ा गया)

प्रशस्तपाद एवं अन्य व्याख्याकार

प्रशस्तपाद (ई. 500–600)

इन्होंने वैशेषिक सूत्र पर पदार्थधर्मसंग्रह’ नामक अत्यंत प्रसिद्ध भाष्य लिखा। यह भाष्य सूत्र पर स्वतंत्र (सूत्रनिरपेक्ष) है, परंतु स्पष्ट, गूढ़ और अनुकरणीय है।

पदार्थधर्मसंग्रह पर टीकाएँ:

1.     व्योमवतीव्योमशिवाचार्य

2.     न्यायकन्दलीश्रीधराचार्य

3.     किरणावलीउदयनाचार्य (इन्होंने अभाव को सातवाँ पदार्थ माना)

4.     लीलावतीवल्लभाचार्य

5.     वृत्तिचन्द्रानन

6.     मिथिला वृत्तिमिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित

7.     सूत्रोपस्कारशंकर मिश्र

8.     भाष्यसूक्तिजगदीश भट्टाचार्य

9.     सप्तपदार्थी, लक्षणमालाशिवादित्य मिश्र

10.  सेतु टीकापद्मनाभ मिश्र

इन सभी टीकाओं ने वैशेषिक सूत्र या पदार्थधर्मसंग्रह को विशद व्याख्या प्रदान की है।

उत्तरकालीन विकास

विश्वनाथ पंचानन (17वीं शती)

·       इन्होंने भाषापरिच्छेद नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें 168 कारिकाएँ हैं।

·  इस पर उन्होंने स्वयं न्यायसिद्धान्तमुक्तावली नामक टीका लिखी, जो आज भी प्रमुख विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है।

इस टीका पर दो प्रसिद्ध व्याख्याएँ उपलब्ध हैं:

·       दिनकरी

·       रामरुद्री

इसके अतिरिक्त किरणावली सहित अनेक टीकाएँ संस्कृत और हिंदी में उपलब्ध हैं।

बालकों हेतु तर्कशास्त्र का सरल रूप

अन्नं भट्ट ने तर्कसंग्रह नामक ग्रंथ रचा, जिसमें न्याय एवं वैशेषिक दर्शन के सिद्धांतों को सरल एवं बालबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस पर उन्होंने स्वयं दीपिका टीका भी लिखी।

👉 तर्कसंग्रह पर कुल १६ टीकाएँ उपलब्ध हैं —
जैसे:

·       न्यायबोधिनी,

·       सिद्धान्तचन्द्रोदय,

·       पदकृत्य,

·       नीलकण्ठी,

·       भास्करोदय आदि।

वैशेषिक दर्शन, पदार्थों के तात्त्विक विश्लेषण का अनुपम उदाहरण है। यह दर्शन परमाणु सिद्धांत, गुणधर्म, संबंध, वियोग और अभाव जैसे गहन विषयों को विश्लेषणात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करता है।

कणाद का यह चिंतन, न केवल भारतीय दर्शन की वैज्ञानिकता को उद्घाटित करता है, बल्कि आधुनिक भौतिक विज्ञान से भी कुछ बिंदुओं पर साम्यता रखता है। इसकी संगठित संरचना, तर्कप्रधान व्याख्या और सूक्ष्मता इस दर्शन को दार्शनिक चिंतन की उच्च श्रेणी में प्रतिष्ठित करती है।

वैशेषिक का पदार्थ विश्लेषण

जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थ माने गए हैं—
छः भाव पदार्थ (जो अस्तित्व रखते हैं) तथा एक अभाव पदार्थ (जो अनुपस्थिति को व्यक्त करता है)।

सप्त पदार्थ —

1.   द्रव्य

2.   गुण

3.   कर्म

4.   सामान्य

5.   विशेष

6.   समवाय

7.   अभाव

इनमें से प्रथम छह पदार्थों को सत्त्ववत्त्व (अस्तित्व से युक्त) कहा गया है, जबकि सातवाँ अभाव पदार्थ विशेष रूप से अनुपस्थिति का दार्शनिक विश्लेषण है।

1. द्रव्य (Substance)

द्रव्य वह आधार है जिसमें गुण और कर्म स्थित रहते हैं। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य को नौ भागों में विभाजित किया गया है:

1.   पृथ्वीस्पर्श, रूप, गन्ध, रस युक्त; स्थूलता एवं स्थैर्य का गुण।

2.   जलस्पर्श, रूप, रस युक्त; शीतलता का कारण।

3.   तेजस्पर्श और रूप युक्त; उष्णता का स्रोत।

4.   वायुकेवल स्पर्श गुण युक्त; गमनशीलता इसकी विशेषता।

5.   आकाशकेवल शब्द गुण युक्त; स्थान का द्रव्य।

6.   कालसमय का आधार; भूत, भविष्य, वर्तमान का निर्धारक।

7.   दिक् (दिशा)स्थान की दिशा का बोध कराने वाला।

8.   आत्माचेतन सत्ता; ज्ञान, इच्छा आदि का आधार।

9.   मनअत्यंत सूक्ष्म इन्द्रिय; संज्ञान की एकता का कारण।

इन नौ द्रव्यों को नित्य (काल, दिक्, आत्मा, आकाश, मन) एवं अनित्य (पृथ्वी, जल, तेज, वायु) वर्गों में भी बाँटा जाता है।

2. गुण (Quality)

गुण वह है जो द्रव्य में रहता है, परंतु स्वयं में किसी अन्य गुण या कर्म का आधार नहीं बनता। वैशेषिक में २४ गुणों का उल्लेख मिलता है, जैसे—रूप, रस, गन्ध, संख्‍या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विकल्प, बुद्धि, सुख, दुःख, इत्यादि।

गुण नित्य नहीं होता, वह द्रव्य के साथ उत्पन्न और नष्ट होता है। इसका अस्तित्व केवल द्रव्य में ही संभव है।

3. कर्म (Action)

कर्म वह गति है जो द्रव्य में परिवर्तन का कारण बनती है। यह पाँच प्रकार की होती है—

1.   उत्क्षेपण (ऊपर की ओर फेंकना)

2.   अवक्षेपण (नीचे की ओर गिरना)

3.   आकुञ्चन (सिकुड़ना)

4.   प्रसारण (फैलना)

5.   गमन (चलना)

कर्म के माध्यम से द्रव्यों में संयोग एवं वियोग उत्पन्न होता है।

4. सामान्य (Universality)

सामान्य वह तत्त्व है जो अनेक वस्तुओं में एक समान रूप से पाया जाता है। यह जातिगत समानता या विशेषता की सामान्य सत्ता को दर्शाता है, जैसे—“घटत्व”, “पृथ्वीत्व” आदि।

सामान्य नित्य होता है तथा अपने आश्रय द्रव्य, गुण या कर्म में विद्यमान रहता है।

5. विशेष (Particularity)

विशेष वह तत्त्व है जिसके कारण प्रत्येक परमाणु एक-दूसरे से भिन्न होता है। यह परमाणु, आत्मा आदि नित्य वस्तुओं में पाया जाता है। विशेष के कारण ही एक पृथ्वी-अणु दूसरे से भिन्न माना जाता है।

6. समवाय (Inherence)

समवाय वह अविनाभाव-संबंध है जिसके द्वारा कोई गुण या कर्म किसी द्रव्य में अव्यभिचार रूप से स्थित होता है। यह एक विशेष प्रकार का संबंध है, जो—

·       गुण और द्रव्य

·       कर्म और द्रव्य

·       विशेष और परमाणु

·       अंग और शरीर
में पाया जाता है।

समवाय संबंध नित्य होता है और केवल एक ही प्रकार का होता है

7. अभाव (Non-existence)

अभाव, वस्तु की अनुपस्थिति को सूचित करता है। यह भले ही न दिखे, फिर भी तर्क और अनुभव में इसका स्पष्ट स्थान है। वैशेषिक में अभाव को चार प्रकारों में विभाजित किया गया है:

1.   प्रागभावउत्पत्ति से पूर्व का अभाव

2.   प्रध्वंसाभावविनाश के बाद का अभाव

3.   अत्यन्ताभावसर्वथा अनुपस्थिति

4.   अन्योन्याभावएक वस्तु का दूसरी से भिन्न होना

यद्यपि अभाव वस्तुतः “न-होना” है, फिर भी वैशेषिक इसे पदार्थ की संज्ञा देता है क्योंकि इसका बोध ज्ञान में होता है।

वैशेषिक दर्शन की यह पदार्थ योजना भारतीय तत्त्वचिन्तन की सूक्ष्मता और तार्किक गहराई का अनुपम उदाहरण है। इसमें न केवल भौतिक तत्त्वों को बल्कि ज्ञान, चेतना और शून्यता (अभाव) तक को विश्लेषणात्मक ढंग से समझने का प्रयास किया गया है। यह दर्शन पदार्थों के व्यवहारिक स्वरूप के साथ-साथ उनके अस्तित्वगत संबंधों को भी गहराई से स्पष्ट करता है।

👉 शेष विश्लेषण (जैसे—द्रव्य की नित्य/अनित्य प्रकृति, आत्मा का स्वरूप, मन की विशेषताएँ आदि) पर चर्चा अगले लेख में की जाएगी।

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