वैशेषिक दर्शन भारतीय ज्ञानपरंपरा
का एक प्राचीन एवं विश्लेषणात्मक तत्त्वचिंतन है। इसे भौतिक विज्ञान का आद्य
प्रवर्तक भी कहा गया है, क्योंकि
इसमें पदार्थ
के स्वरूप, भेद,
तथा गुणात्मक
विशिष्टताओं का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
दर्शन
का नाम और महत्त्व
यह दर्शन ऋषि कणाद द्वारा प्रणीत होने के कारण कणाद दर्शन कहलाता है। चूँकि
इसमें 'तम' अर्थात् अंधकार (प्रकाश का अभाव) का भी
तात्त्विक विवेचन किया गया है, अतः
इसे औलूक्य
दर्शन भी
कहा गया।
श्रीहर्ष ने नैषधीयचरितम् में इसकी प्रशंसा
करते हुए लिखा है—
"ध्वान्तस्य
वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे।
औलूकमाहुः खलु दर्शनं
तत् क्षमं तपस्तत्त्वनिरूपणाय।।"
अर्थात् अंधकार (ध्वान्त) जैसे सूक्ष्म
विषयों के विचार में वैशेषिक मत मुझे प्रिय लगता है; जिसे औलूक्य दर्शन कहा गया है, वह तपस्वियों के लिए तत्त्व-निरूपण में
सक्षम है।
रचना-काल
वैशेषिक दर्शन की
प्राचीनता अनेक शास्त्रीय ग्रंथों से प्रमाणित होती है—
· ललितविस्तर, मिलिंदपञ्हो, लंका-अवतार सूत्र जैसे बौद्ध ग्रंथों
में इसका उल्लेख है।
· चरक संहिता (ई. पू. प्रथम शती) में गुण और धर्म की
व्याख्या वैशेषिक दर्शन के अनुसार की गई है।
इन सन्दर्भों के आधार पर वैशेषिक दर्शन
का रचना-काल ईसा पूर्व 5वीं शताब्दी के लगभग माना जाता
है।
कणाद
ऋषि एवं दर्शन की उत्पत्ति
वायु पुराण के अनुसार, ऋषि कणाद का जन्म द्वारका के समीप प्रभास क्षेत्र में हुआ था।
· 'कणाद' नाम का एक कारण यह है कि वे खेतों में
बचे अन्न-कणों को एकत्र कर भोजन करते थे।
· 'कण' (परमाणु) के विश्लेषण में अग्रणी होने के
कारण भी यह नाम प्रचलित हुआ।
· वे पदार्थ-चिंतन में इतना लीन रहते थे
कि चलते समय भी आँखें बंद रखते; इसलिए
उन्हें अक्षपाद भी कहा गया।
· एक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव ने उन्हें उलूक रूप में दर्शन देकर यह
ज्ञान प्रदान किया — जिससे यह दर्शन औलूक्य दर्शन
कहलाया।
वैशेषिक
दर्शन का प्रतिपाद्य विषय
वैशेषिक सूत्र
— इस दर्शन का मूल ग्रंथ — दस अध्यायों
(अध्याय = अधिकरण) में
विभक्त है, जिनमें दो-दो आह्निक
हैं।
👉 कुल सूत्र: 370
मुख्य विषय —
· द्रव्य (Substance)
· गुण (Quality)
· कर्म (Action)
· सामान्य (Generality)
· विशेष (Particularity)
· समवाय (Inherence)
· अभाव (Non-existence) (बाद में जोड़ा गया)
प्रशस्तपाद
एवं अन्य व्याख्याकार
प्रशस्तपाद (ई. 500–600)
इन्होंने वैशेषिक सूत्र पर ‘पदार्थधर्मसंग्रह’ नामक अत्यंत प्रसिद्ध भाष्य लिखा। यह
भाष्य सूत्र पर स्वतंत्र (सूत्रनिरपेक्ष) है, परंतु स्पष्ट, गूढ़ और अनुकरणीय है।
पदार्थधर्मसंग्रह पर टीकाएँ:
1. व्योमवती — व्योमशिवाचार्य
2. न्यायकन्दली — श्रीधराचार्य
3. किरणावली — उदयनाचार्य (इन्होंने अभाव को सातवाँ पदार्थ
माना)
4. लीलावती — वल्लभाचार्य
5. वृत्ति — चन्द्रानन
6. मिथिला वृत्ति — मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित
7. सूत्रोपस्कार — शंकर मिश्र
8. भाष्यसूक्ति — जगदीश भट्टाचार्य
9. सप्तपदार्थी, लक्षणमाला — शिवादित्य मिश्र
10. सेतु टीका — पद्मनाभ मिश्र
इन सभी टीकाओं ने वैशेषिक सूत्र या
पदार्थधर्मसंग्रह को विशद व्याख्या प्रदान की है।
उत्तरकालीन
विकास
✅ विश्वनाथ
पंचानन (17वीं
शती)
· इन्होंने भाषापरिच्छेद
नामक ग्रंथ की रचना
की, जिसमें 168 कारिकाएँ हैं।
· इस पर उन्होंने स्वयं न्यायसिद्धान्तमुक्तावली नामक टीका लिखी,
जो आज भी प्रमुख विश्वविद्यालयों में
पढ़ाई जाती है।
इस टीका पर दो प्रसिद्ध व्याख्याएँ
उपलब्ध हैं:
· दिनकरी
· रामरुद्री
इसके अतिरिक्त किरणावली
सहित अनेक टीकाएँ
संस्कृत और हिंदी में उपलब्ध हैं।
बालकों
हेतु तर्कशास्त्र का सरल रूप
अन्नं भट्ट ने तर्कसंग्रह नामक ग्रंथ रचा,
जिसमें न्याय एवं वैशेषिक दर्शन के
सिद्धांतों को सरल एवं बालबोध शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस पर उन्होंने
स्वयं दीपिका टीका भी लिखी।
👉 तर्कसंग्रह
पर कुल १६ टीकाएँ उपलब्ध हैं —
जैसे:
· न्यायबोधिनी,
· सिद्धान्तचन्द्रोदय,
· पदकृत्य,
· नीलकण्ठी,
· भास्करोदय आदि।
वैशेषिक दर्शन,
पदार्थों के तात्त्विक विश्लेषण का
अनुपम उदाहरण है। यह दर्शन परमाणु सिद्धांत, गुणधर्म, संबंध, वियोग और अभाव जैसे गहन विषयों को
विश्लेषणात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करता है।
कणाद का यह चिंतन, न केवल भारतीय दर्शन की वैज्ञानिकता को
उद्घाटित करता है, बल्कि
आधुनिक भौतिक विज्ञान से भी कुछ बिंदुओं पर साम्यता रखता है। इसकी संगठित संरचना,
तर्कप्रधान व्याख्या और सूक्ष्मता इस दर्शन को दार्शनिक
चिंतन की उच्च श्रेणी में प्रतिष्ठित करती है।
वैशेषिक का पदार्थ विश्लेषण
जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके
हैं, वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थ माने गए
हैं—
छः भाव पदार्थ (जो अस्तित्व रखते हैं) तथा एक अभाव पदार्थ (जो अनुपस्थिति को व्यक्त करता है)।
सप्त पदार्थ —
1. द्रव्य
2. गुण
3. कर्म
4. सामान्य
5. विशेष
6. समवाय
7. अभाव
इनमें से प्रथम छह पदार्थों को सत्त्ववत्त्व
(अस्तित्व
से युक्त) कहा गया है, जबकि सातवाँ अभाव पदार्थ विशेष रूप से
अनुपस्थिति का दार्शनिक विश्लेषण है।
1. द्रव्य (Substance)
द्रव्य वह आधार है जिसमें गुण और कर्म
स्थित रहते हैं। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य को नौ भागों में विभाजित किया गया है:
1. पृथ्वी — स्पर्श, रूप, गन्ध, रस युक्त; स्थूलता एवं
स्थैर्य का गुण।
2. जल — स्पर्श, रूप, रस युक्त; शीतलता का कारण।
3. तेज — स्पर्श और रूप युक्त; उष्णता
का स्रोत।
4. वायु — केवल स्पर्श गुण युक्त; गमनशीलता
इसकी विशेषता।
5. आकाश — केवल शब्द गुण युक्त; स्थान का
द्रव्य।
6. काल — समय का आधार; भूत, भविष्य, वर्तमान का निर्धारक।
7. दिक् (दिशा) — स्थान की दिशा का बोध कराने वाला।
8. आत्मा — चेतन सत्ता; ज्ञान, इच्छा आदि का आधार।
9. मन — अत्यंत सूक्ष्म इन्द्रिय; संज्ञान
की एकता का कारण।
इन नौ द्रव्यों को नित्य (काल, दिक्, आत्मा, आकाश, मन) एवं अनित्य (पृथ्वी, जल, तेज, वायु) वर्गों में भी
बाँटा जाता है।
2. गुण (Quality)
गुण वह है जो द्रव्य में रहता है, परंतु स्वयं में किसी
अन्य गुण या कर्म का आधार नहीं बनता। वैशेषिक में २४
गुणों का उल्लेख मिलता है, जैसे—रूप,
रस, गन्ध, संख्या,
परिमाण, पृथकत्व, संयोग,
विकल्प, बुद्धि, सुख,
दुःख, इत्यादि।
गुण नित्य नहीं होता, वह द्रव्य के साथ
उत्पन्न और नष्ट होता है। इसका अस्तित्व केवल द्रव्य में ही संभव है।
3. कर्म (Action)
कर्म वह गति है जो द्रव्य में
परिवर्तन का कारण बनती है। यह पाँच प्रकार की होती है—
1. उत्क्षेपण (ऊपर की ओर फेंकना)
2. अवक्षेपण (नीचे की ओर गिरना)
3. आकुञ्चन (सिकुड़ना)
4. प्रसारण (फैलना)
5. गमन (चलना)
कर्म के माध्यम से द्रव्यों में संयोग
एवं वियोग उत्पन्न होता है।
4. सामान्य (Universality)
सामान्य वह तत्त्व है जो अनेक वस्तुओं
में एक समान रूप से पाया जाता है। यह जातिगत समानता या विशेषता की सामान्य सत्ता को दर्शाता है, जैसे—“घटत्व”,
“पृथ्वीत्व” आदि।
सामान्य नित्य होता है तथा अपने आश्रय
द्रव्य, गुण या कर्म में विद्यमान रहता है।
5. विशेष (Particularity)
विशेष वह तत्त्व है जिसके कारण
प्रत्येक परमाणु एक-दूसरे से भिन्न होता है। यह परमाणु, आत्मा आदि नित्य
वस्तुओं में पाया जाता है। विशेष के कारण ही एक पृथ्वी-अणु दूसरे से भिन्न माना
जाता है।
6. समवाय (Inherence)
समवाय वह अविनाभाव-संबंध
है जिसके द्वारा कोई गुण या कर्म किसी द्रव्य में अव्यभिचार रूप से स्थित होता है।
यह एक विशेष प्रकार का संबंध है, जो—
·
गुण और द्रव्य
·
कर्म और द्रव्य
·
विशेष और परमाणु
·
अंग और शरीर
में पाया जाता है।
समवाय संबंध नित्य
होता है और केवल एक ही प्रकार का होता है।
7. अभाव (Non-existence)
अभाव, वस्तु की अनुपस्थिति को सूचित
करता है। यह भले ही न दिखे, फिर भी तर्क और अनुभव में इसका
स्पष्ट स्थान है। वैशेषिक में अभाव को चार प्रकारों में विभाजित किया गया है:
1. प्रागभाव — उत्पत्ति से पूर्व का अभाव
2. प्रध्वंसाभाव — विनाश के बाद का अभाव
3. अत्यन्ताभाव — सर्वथा अनुपस्थिति
4. अन्योन्याभाव — एक वस्तु का दूसरी से भिन्न होना
यद्यपि अभाव वस्तुतः “न-होना” है, फिर भी वैशेषिक इसे पदार्थ की संज्ञा देता है क्योंकि इसका बोध ज्ञान में होता
है।
वैशेषिक दर्शन की यह पदार्थ योजना भारतीय
तत्त्वचिन्तन की सूक्ष्मता और तार्किक गहराई का अनुपम उदाहरण है। इसमें न केवल
भौतिक तत्त्वों को बल्कि ज्ञान, चेतना और शून्यता (अभाव) तक को विश्लेषणात्मक ढंग से
समझने का प्रयास किया गया है। यह दर्शन पदार्थों के व्यवहारिक स्वरूप के साथ-साथ
उनके अस्तित्वगत संबंधों को भी गहराई से स्पष्ट करता है।
👉 शेष विश्लेषण (जैसे—द्रव्य की
नित्य/अनित्य प्रकृति, आत्मा का स्वरूप, मन की
विशेषताएँ आदि) पर चर्चा अगले लेख में की जाएगी।
वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक को कणाद क्यों कहा गया है?
जवाब देंहटाएंवैशेषिक दर्शन को विस्तृत में लिखें!
जवाब देंहटाएंवैशेषिक दर्शन कितने अध्यायो में विभक्त है ,कितने सूत्र हैं एवं अहनि्क सहित बताइए!
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