हम जब बात सरल संस्कृत का करते हैं तो मेरे
सामने उदाहरण के लिए रामायण, महाभारत और पुराण आते है।
पुराण एक ऐसा साहित्य है,
जिसमें एक प्रश्नकर्ता तथा दूसरा उत्तरदाता
है। पुराण भाषिक साहित्य का अनन्यतम कोश है। लोकवृत्त को कथानकों के माध्यम से इसमें ऐसा गूंथा गया है कि श्रोता मंत्र मुग्ध
हो बस सुनता ही जाता है। अनेक आख्यानों,
उपाख्यानों, गाथाओं आदि से निर्मित इस वाड्मय में रोमहर्षण तथा उनके शिष्य आत्रेय
सुमति, अकृतव्रण काश्यप,
अग्निवर्चा भारद्वाज, मित्रयु वशिष्ठ,
सौमदत्ति सावर्णि तथा सुशर्मा शांशपायन का
योगदान है। व्यास नाम संस्थागत होने के कारण अनेक पुराणों, उपपुराणों तथा औपोपपुराणों की रचना ‘व्यास नाम से की गयी।
सामुहिक मंच के माध्यम से उपदेशात्मक कथा सुनाने की परम्परा का
सूत्रपात करने वाला साहित्य पुराण था और इसकी भाषा संस्कृत थी। आज मंचीय कला में दास्तान
गोई या किस्सा गोई’ पौराणिक परम्परा का निर्वाह है, लेकिन खेद है कि संस्कृत क्षेत्र में धार्मिक कथाओं (जो अब संस्कृत
को छोड़ अन्य भाषा ) में ही इसका प्रयोग दिखता है, संस्कृत में नहीं।
संवाद की भाषा में लिखित पौरोणिक साहित्य की भाषिक संरचना अत्यन्त
सरल व बोधगम्य है। इसमें लोक व्यवहार की भाषा को अपनाया गया। पौराणिक साहित्य इन्हीं
कारणों से जनमानस के करीब भी आ सका। जिस संस्कृत साहित्य की भाषा विद्वत्तापूर्ण एवं
जटिल थी, वह विद्वानों के बीच आदर तो पा गया। एक के बाद एक उपाधि ‘वाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’
उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः
पाता गया। पर जनमानस के करीब भी न आ सका। वैदिक तत्वों को पुराणों में कथा माध्यम से
उपबृंहण किया गया है।
इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं
प्रहरिष्यति। महा.चि.1.267
मैं पुनः
जोर देकर इस बात को कह रहा हूं कि जब तक संस्कृत अलंकार शैली से मुक्त नहीं होगी। संवाद
या भाषिक स्वरूप लेखन में नहीं दिखेगा। संस्कृत कठिनम् गांठ खत्म नहीं होगा।
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