मगध क्षेत्र की संस्कृत परम्परा 1

अंग देश से पश्चिम के भूभाग का प्राचीन नाम मगध जनपद था। यहाँ चन्द्रवंश के राजा राज्य करते थे।महाभारत के भीष्म पर्व में 240 जनपदों का नामोल्लेख किया गया है,जिसमे मगध भी एक है। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत् आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम मगध का नाम  आया है, जिसमें ब्रह्मा पुत्र कुश के चतुर्थ पुत्र बसु महात्मा द्वारा गिरी ब्रज नामक एक नगर के बसाने की चर्चा आई है, जो वसुमती नाम से प्रसिद्ध हुई। उस नगरी के चारों ओर पांच पर्वत प्रकाशित हो रहे थे। इसीलिए इस पर्वत का नाम गिरी ब्रज रखा गया। यहां पर सारथी नाम की एक रम्य नदी है,जो 500 पर्वतों के मध्य माता की तरह सुशोभित हो रही है। मगध पूरी शस्य श्यामला रमणीय क्षेत्र है। मगध में पाटलीपुत्र और नालंदा ये दोनों विद्या के केंद्र थे। पाटलिपुत्र पुराना केंद्र था। इसकी ख्याति का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पटना की परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर ही संस्कृत विद्या के स्मातकों को आचार्य की पदवी प्राप्त होती थी। भट्ट सोमेश्वर एवं राजशेखर के काव्यमीमांसा के अनुसार उपवर्ष का अन्तेवासी पाणिनि पटना में रहकर उनसे विद्या अध्ययन किये थे। श्रूयते हि पाटलीपुत्रे शास्त्रकारपरीक्षा अत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिंगलाविहव्याडिः। वररुचिपतंजली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपग्मुः।
महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री द्वारा दिसम्बर 1920 में पटना विश्वविद्यालय में दिये व्याख्यान में कहते हैं- Magadha or a part of it from Chunar to Rajgir (Visva Kosa, from Sakti Sangama-Tantra). Many are disposed to think that the word Kikata in Rg-Veda means Magadha.
गयापाटलीपुत्रनालंदा तथा राजगृह ( गिरी ब्रज ) प्राचीनतम शहर थे। गया से सटे बोधगया बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के कारण, गया तीर्थ के लिएपाटलीपुत्र शिक्षा तथा अनेक शासकों की राजधानी के कारणनालंदा शिक्षा के लिए तथा राजगृह बुद्ध के वर्षावास तथा जरासंध आदि राजाओं की राजधानी के लिए ख्यात हुआ।  मगध के ख्यातनाम आचार्यों ने अनेकों शास्त्रों की रचना की । अर्थशास्त्र के उद्भट विद्वान् कौटिल्य तथा ज्योतिष के आर्यभट्ट  का जन्म मगध क्षेत्र में ही हुआ था।  'धर्मकीर्तिके लेखक बुद्धघोष का जन्म 413 ईस्वी में  बिहार के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप हुआ था। देवकुण्ड के समीप जन्मे ऋषि च्यवन की धरा होने के कारण यहाँ आयुर्वेद के अनेकों आचार्यों का भी जन्म हुआ। हर्षचरित में  च्यवनाश्रम का उल्लेख किया गया है। भगवान बुद्ध के समय आजीविक कौमारभृत्य अजातशत्रु के राजवैद्य थे। आयुर्वेद के प्रकाण्ड ज्ञाता "मग'' (शाकद्वीपीय) तथा विषविद्या के ज्ञाता माहुरी जाति के लोगों का यह कर्मभूमि हैं।
 मगध क्षेत्र में दो विश्वविद्यालयपटना विश्वविद्यालयपटना तथा मगध विश्वविद्यालयबोधगया में संस्कृत विषय से B.a. m.a. तदनंतर शोध किए जा सकते हैं। संस्कृत के सर्वांगीण विकास एवं संरक्षण हेतु कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जनवरी 1961 को की गईजिससे मगध क्षेत्र में अनेकों संस्कृत महाविद्यालय सम्बद्ध हैं । श्री स्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालय पूर्व में इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध था। आज इसकी संबद्धता संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से है। बिहार संस्कृत अकादमी पटनाबिहार रिसर्च सोसाइटी पटनाबिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड पटना तथा नव नालंदा महाविहार संस्कृत के लिए कार्य करने वाली शीर्षस्थ संस्थायों इसी क्षेत्र में स्थापित हैं । एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय गया में भी है। मगध क्षेत्र में बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड से संबद्ध अनेकों संस्कृत माध्यमिक विद्यालय हैं। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर आज तक मगध क्षेत्र में संस्कृत के प्रचार प्रसार को गति दी जा रही है। 
श्री स्वामी परांकुशाचार्य
श्रीस्वामी परांकुशाचार्य की जीवनी इस लिंक पर उपलब्ध है। इनके कृतित्व पर भी एक लेख इस ब्लाग पर उपलब्ध है। इनके द्वारा संस्कृत के विकास के  लिए अधोलिखित संंस्थाओं की स्थापना की गयी।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/2017/01/blog-post_28.html
(१) श्रीराम संस्कृत महाविद्यालयसरौतीरामपुर चौरम अरवल (बिहार)।
(२) श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत महाविद्यालयअस्सीवाराणसी (उत्तर प्रदेश)।
(३) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालयहुलासगंजगया (बिहार)।
(४) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य संस्कृत उच्च विद्यालयहुलासगंजगया (बिहार)।
 विशेषतः मगध  क्षेत्र के छात्रों की उच्च शिक्षा के लिए वाराणसी में श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना  की गयी थी। आजकल यह  सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री
जानकीवल्लभ शास्त्री का जन्म गया जिले के मैगरा नामक ग्राम में 5 फरवरी1916 ई में हुआ था। इनके पिता का नाम रामानुग्रह शर्मा थाजो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। आपने 1927 में प्रथमा 1929 में मध्यमा 1931 में शास्त्री तथा 1932 में साहित्याचार्य की परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।  आपकी गुरु परंपरा में आपके पिता पंडित बद्री नाथ मिश्रा पंडित दामोदर मिश्र एवं पंडित पुरुषोत्तम मिश्र का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आपने अंग्रेजी माध्यम से 1935 में मैट्रिक की परीक्षा 1938 में इंटर की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए 1932 में आपने अपने ससुर पंडित लक्षण मिश्र के साथ काशी आकर पंडित मालवीय जी से मिले और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाई। इसके अलावा 1929 में वेदांत शास्त्रीय तथा 1941 में वेदांताचार्य हुए। इलाहाबाद से संगीत प्रभाकर की परीक्षा भी आपने उत्तीर्ण की। बिहार उड़ीसा संस्कृत परिषद परीक्षा में पूर्व के सभी कीर्तिमानों को तोड़ते हुए आपने साहित्य रत्न की परीक्षा में 94 प्रतिशत अंक प्राप्त किया आपकी संस्कृत में गहरी अभिरुचि थी 1929 इसवी से ही आपने संस्कृत में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया। बीसवीं शताब्दी के संस्कृत काव्यों में फारसी या उर्दू काव्य परंपरा का शुरुआत भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने किया। इसके अनंतर पंडित जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी संस्कृत में गजल लिखा।1930 से 1932 के बीच काशीवास के समय आपकी अनेक कविताएं सूर्योदयसुप्रभातम् तथा संस्कृतम् में प्रकाशित हुई। इस तरह 1930 से 1941 ईस्वी के मध्य संस्कृत में आपकी रचना मिलती है। काकली नामक काव्य का 1935 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। काकली को पढ़कर महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आपसे मिलने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में आए। संस्कृत में जानकी वल्लभ शास्त्री विदेश श्रीनिधि तथा ललित ललाम के नाम से लिखा करते थे। काकली के अतिरिक्त बंदीजीवनम् इनका स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित खंडकाव्य है। कवि जानकीवल्लभ ने आधुनिक संस्कृत काव्य में नए युग का सूत्रपात किया। आपने प्राचीन काव्यधारा को आज के साहित्य की नई भावचेतना से जोड़ा। इनके गीतों में अनुप्रास का निर्वाहपदावली की कोमलतारागात्मकता एवं वैयक्तिक करूण कूट-कूट कर भरी है। वे संस्कृत कविता में रोमांटिक प्रवृत्ति के पुरोधा कहे जाते हैं। आज की संस्कृत कविता को उन्होंने प्रयोगशीलता के द्वारा नए आयाम दिए। गीतगोविंद जैसी मधुर कोमलकांत पदावली में आज की सम्वेदनाओं को स्पंदित किया है। भारतीवसंतगीतिः में अपनी कविता को नवावतार घोषित करते हुए कहते हैं- 
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ।
मृदुं गाय गीतिं ललित नीति लीनाम् ॥

मधुर - मञ्जरी- पिञ्जरीभूत- माला:
वसन्ते लसन्तीह सरसा रसाला:
कलापा कलित-कोकिला-काकलीनाम्
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

वहति मन्द-मन्दं समीरे सनीरे
कलिन्दात्मजाया: सवानीर-तीरे
नतां पंक्तिमालोक्य मधुमाधवीनाम्
निनादय नवीनामये वाणी वीणाम् ॥

चलितपल्‍लवे पादपे पुष्‍पपुंजे,
 मलयमारुतोच्‍चुम्बिते मञ्जुकुंजे
स्‍वनन्‍तीन्‍ततिम्‍प्रेक्ष्‍य मलिनामलीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।

लतानां नितान्‍तं सुमं शान्तिशीलम्,
 चलेदुच्‍छलेत्‍कान्‍तसलिलं सलीलम्-
तवाकर्ण्‍य वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय नवीनामये वाणि  वीणाम्।। 

भ्रमरगानम् शीर्षक गीत उपालंभ और प्रतीक विधान का अच्छा उदाहरण है- 
सरसि निवेश्य मुखं सुखं चुचुम्थम्बिथ नवरसं चषन् सन्,
सन्मुखसाम्प्रतमपि कृतवानन्वरविन्दम्
विन्दन्नानन्दं परात् परं किमपि नवीनममन्दम्।
इन्दिन्दिरनिन्दसि मकरन्दम्?
रे भ्रमर! तूमने सरोवर में प्रवेश करके मुख का सुखपूर्वक चुंबन लिया। नवरस को चूसा। अरविंद को तूने अनुपयुक्त बना डाला। कुछ अधिक नवीन आनंद लेता हुआ तुमने उसके मधु की निंदा कर रहा है।
उस समय काशी के पंडित मंडली में श्रेष्ठ महादेव शास्त्री ने 1935 ईस्वी में ही जानकीवल्लभ के काव्य वैशिष्ट्य की प्रशंसा करते हुए पद्य लिखा था।
गोविन्दो गोनविन्दः कविरकविरसौ नीलकण्ठोपकण्ठः  ----काकलीकोकिलेस्मिन् 
द्राक्षामधुर्यदीक्षाक्षममपि गणये पण्डितम्षण्डमेव
 सत्काव्य के उल्लास की लीला से कलरव करने वाले का काकली के इस कोकिल के प्रसातुत हो जाने के कारण गोविन्द वाणी से रहित अकवि बन गए। नीलकंठ भी नीरज कंठ वाले हो गए। क्षेम का भी कल्याण नहीं रहा और मदभार उनका उतर गया। सुबन्धु भी वही हल्के पर गएयहां तक कि द्राक्षा के माधुरी की दीक्षा में समर्थ पंडित पंडित को भी संड (नपुंसक) ही मांगता हूं।
कवि जानकी बल्लभ शास्त्री ने राधा को लेकर हिंदी और संस्कृत दोनों भाषाओं में विपुल काव्य सर्जन की है जिसमें माधुरी का अपूर्व परिपाठ है आधुनिक भावबोध के साथ-साथ प्राचीन परंपरा के समावेश की दृष्टि से उनकी उपलब्धियां संस्कृत काव्य रचना में सर्वथा स्पृहणीय है।
1936 ईस्वी में dav कॉलेज लाहौर में आपने 4 माह तक अध्यापन किया। उसके बाद 1937 से 38 में आप रायगढ मध्य प्रदेश महाराजा के राज्य कवि बन गए। उस समय साक्षात्कार के क्रम में महाराजा ने एक प्रश्न पूछा। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली इसका संस्कृत अनुवाद क्या होगा शास्त्री जी ने कहा प्रतिग्रीवाभंगं नयनसुखसंगं जनयति। इसके आगे राजा ने प्रश्न किया बांके नैना रसीले ने जादू किया शास्त्री जी ने उत्तर दिया बंग नए नैन में मान सम्मोहितंराजा।  ऐसे प्रतिभा संपन्न आशु कवि को पाकर प्रसन्न हुए परंतु वहां भी शास्त्री जी और अधिक दिनों तक नहीं रुक सके। वह मुजफ्फरपुर को अपनी कर्मस्थली बनाई।  यहां वर्ष 1944 से 1952 ईसवी तक आपने धर्म समाज संस्कृत कॉलेज में साहित्य प्राध्यापक पुनः अध्यक्ष पद को अलंकृत किया। 1953 से 1978 ईस्वी तक आप राम दयालु सिंह महाविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक बनकर चले आए। यहीं से उन्होंने 1978 में अवकाश ग्रहण किया।
       मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित आचार्य 1935 से 1945 के बीच 55 कहानियां लिखीं। साथ ही उन्होंने कई पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
आचार्य की मुख्य रचनाओं में ‘रूप-अरूप’, बरगद के साये में, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘मेघगीत’, ‘अवंतिका’, ‘धूप दुपहर की’ (गजल संग्रह) के अलावा ‘दो तिनकों का घोंसला’ और ‘एक किरण : सौ झाइयां’ काफी प्रसिद्ध रहीं। उन्होंने नाटकगीत-नाट्यललित निबंधसंस्मरण और आत्मकथा भी साहित्य संसार को दी। शास्त्री जी की अनमोल कृति ‘राधा’ सात खंडों में विभक्त है। उनकी जितनी रचनाएं प्रकाशित हुई हैंउससे ज्यादा उनकी कृतियां अप्रकाशित हैं। इनमें नाट्य संग्रहगीतगजल भी शामिल हैं।
जानकीवल्लभ शास्त्री को साहित्य में उनके अहम योगदान के लिए दयावती पुरस्कारराजेंद्र शिखर सम्मानभारत भारती सम्मानसाधना सम्मान और शिवपूजन सहाय सम्मान से सम्मानित किया गयालेकिन वर्ष 2010 में पद्मश्री लेने से उन्होंने मना कर दिया था।
 आचार्य को मृत्यु का भान पहले हो गया था। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी छाया देवी से कहा था, “मेरे पास आकर बैठिएअब मैं चल रहा हूं।” आप 7 अप्रैल2011 की रात साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ी शून्यता छोड़ विदा हो गए।
 संस्कृत में आपकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
1.  काकली        काव्य                                     1935 ईस्वी में प्रकाशित
2.  लीलापदम्     300 मुक्तकों का संकलन             1935 
3.  बंदी मंदिरम्   115 श्लोक मंदाक्रांता में प्रकाशित राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत ग्रंथ 1936 ईस्वी
4.  प्रोषितपतिका स्वयं सिद्धा कथा साहित्य              प्रकाशित
5.  प्राच्यसाहित्यम्  आलोचना                             प्रकाशित
6.  श्रव्यकाव्यस्य क्रमिको विकासः                         प्रकाशित
पंडित अंबिकादत्त मिश्र 1890 से 1986
बिहार राज्य के औरंगाबाद जनपद में दधया नामक ग्राम में पंडित सदानंद मिश्र के ही कुल में पंडित अंबिकादत्त मिश्र का जन्म 1890 में रांची नगर में हुआ।  आप वाराणसी से शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त रांची के नगर पालिका द्वारा संचालित संस्कृत विद्यालय में आप आचार्य बने। आपकी शिष्य परंपरा में डॉक्टर सत्य नारायण शर्मा, (मिस्तर विश्वविद्यालय जर्मनी के प्राध्यापक) गंगा बुधिया, संस्कृत सेवक तथा व्यापारी, कर्नल विजय सिंह एवं डॉ. जाकिर हुसैन भूतपूर्व राष्ट्रपति जैसे यशस्वी, योग्य और कर्मठ शिष्य हुए। जब डॉक्टर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे तो उन्होंने  आपको कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय में 6 वर्षों के लिए सीनेट तथा सिंडिकेट का सदस्य नामित किया।संस्कृतकुसुमावली साहित्यिक कृति से आपकी पहचान जन जन तक पहुँची।  यह छोटी सी पुस्तक प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में थे, जिसमें कई लघु कथाएं और श्लोक थे। इसके अतिरिक्त पंडित मिश्र की कोई भी रचना पुस्तक आकार में उपलब्ध नहीं होती है। पत्र-पत्रिकाओं में आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई थी। शिखरिणी संस्कृत पत्रिका में आपके ललित पद्य देखने को मिलते हैं। आपकी रचना आकाशवाणी, रांची से भी प्रसारित होती रहती थी।इस प्रकार पंडित मिश्र जीवनभर संस्कृत की सेवा में सतत संलग्न रहे। 1986 के आसपास आप का देहावसान हो गया।
कामता नाथ शर्मा मदनेश
गया जिले के दधपी नामक गांव में पंडित रघुनंदन शर्मा के यहां 1893 कार्तिक अमावस्या को आपका जन्म हुआ था। आपने 7 वर्ष की अवस्था में अक्षरारंभ शुरू किया। संस्कृत में आपने 1927 से रचना का आरंभ किया। आपके द्वारा रचित काव्य हैं- 1. वसंत सुकुमारकम् 2. श्रृंगारसर्वस्वम् 3. स्वातंत्र्यकौशलम् 4. दरिद्रशतकम् 5. कारुण्यपञ्चाशिका 6. संतापमालिका  मनःशिक्षाशतकम् इसके अतिरिक्त भी आपने धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना की है। जिनके विवरण इस प्रकार हैं- 1.पतिव्रताधर्म 2.रामनाममाहात्म्यम् 3. धर्मप्रावल्यम् 4. ब्राह्मणमाहात्म्यम् हरिवंशभावप्रकाशिका आदि।
छत्रानंद मिश्र 1868-1905
गया जनपद के उतरेन टिकारी ग्राम निवासी पंडित रामेश्वर मिश्र के यहां 1870 ईस्वी में वैशाख शुक्ल षष्ठी को आपका जन्म हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में हुई। तदनन्तर मकसूदपुर निवासी पंडित शिवप्रसाद मिश्र के सान्निध्य में भी आपने शिक्षा ग्रहण किया 20 वर्ष की आयु में काव्य एवं स्मृति विषयों में तीर्थ की उपाधि प्राप्त कर आपने गया के हरिदास सेमिनरी (टाउन स्कूल) में अध्यापक पद पर नियुक्त हुए। उसके बाद टिकारी राज के उच्च विद्यालय में भी आपने अपना योगदान दिया। आप अध्यापन के साथ-साथ लेखन भी करते रहे, जिसके कारण आप की साहित्यिक प्रतिभा निकलकर सामने आई। आप संस्कृत एवं हिंदी के सिद्धहस्त साहित्यकार माने जाते हैं। संस्कृत में आपकी काकदूतम् तथा प्रेमोद्गार रचनाएं प्रकाशित हुई।
तपेश्वर सिंह तपस्वी 1892
आपका जन्म गया जिले के कुडवा नामक ग्राम में आश्विन कृष्ण चतुर्थी रविवार सन् 1892 को हुआ। आपके पिता का नाम बाबू द्वारका सिंह था। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। उसके बाद मैट्रिक से बी.ए. तक की शिक्षा अपने गांव के जनपद गया में तथा कोलकाता विश्वविद्यालय में प्राप्त की । कोलकाता से शिक्षा पाकर आप मुजफ्फरपुर स्थित बी0वी0 कॉलेजिएट स्कूल में नियुक्त हुए। जहां आप प्रधानाध्यापक के रूप में 1914 में सेवा आरंभ किया। इन्हीं दिनों भारत में स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ हुआ और राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत होने के कारण 1921 में आपने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। इस कारण आपने विद्यालय छोड़ दिया। आप 1925 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर गया न्यायालय में वकालत करने लगे। वकालत करते हुए भी आपमें साहित्यिक अनुराग कूट कूट कर भरा रहा। 1918 में आपने लेखन कार्य आरंभ किया। आपकी अनेक  फुट रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई।
पंडित देव नारायण मिश्र  1910
गया जनपद में स्थित पंचानन पुर नाम गांव में पंडित शंकराचार्य मिश्र एवं माता तारा देवी के यहां 1910 ईस्वी में पंडित मिश्र का जन्म हुआ। आपने अपनी आरंभिक शिक्षा पूर्ण कर साहित्य, आयुर्वेद, दर्शन में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। उसके पश्चात् रांची संस्कृत कॉलेज में आयुर्वेद के प्राध्यापक के रूप में 1941 से 1954 तक अध्यापन किया। आप साहित्य में भी गहरी अभी रुचि रखते थे। आपकी अप्रकाशित कृतियां  हैं 1. नवभारतम् तथा 2. राष्ट्रमंगलम्।  नवभारतम् की भाषा सरल, सुगम और सहज बोधगम्य है। इसमें 500 श्लोक हैं। राष्ट्रमंगलम एकांकी गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें गीतों के द्वारा राष्ट्रीय मंगलगान किया गया है। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी रांची से भी आपके काव्यपाठ प्रसारित होते रहे हैं ।
देव नारायण त्रिपाठी 1866 से 1941 
गया जनपद के पुनपुन नदी के पवित्र तट पर पंडित देव नारायण त्रिपाठी का जन्म  1866 में हुआ इनके पिता का नाम राम चरण त्रिपाठी था। आपने टिकारी के पंडित विश्वेश्वर दत्त से व्याकरण शास्त्र की शिक्षा ली। इसके पश्चात् आप अध्ययन हेतु काशी चले गए। वहां पर आपने महामहोपाध्याय शिव कुमार शास्त्री एवं पंडित दामोदर शास्त्री के सानिध्य में रहकर व्याकरण का अध्ययन किया।अध्ययन के उपरांत आप श्रीचंद्र पाठशाला काशी में अध्यापन करने लगे। इसके पश्चात् मालवीय जी के आग्रह पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 1919 से व्याकरण प्राध्यापक पद पर नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया। छह मास बाद ही सर गंगानाथ झा ने आपको अपने संस्कृत कॉलेज में व्याकरण पद पर बुला लिया। यहां पर आप 1920 से 1938 तक रहे। 1941 में आपका देहावसान हुआ। इनके द्वारा रचित ग्रंथ संप्रति उपलब्ध नहीं है।
पंडित भागवत प्रसाद मिश्र राघव 1892
पटना जिले के राघवपुर नामक गांव में पंडित भाई तेरा आज पंडित रघुनाथ मिश्र जी के यहां फाल्गुन कृष्ण शास्त्री बुद्ध हुआ है सन 1892 में आपका जन्म हुआ आपकी अपने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से ही प्राप्त की उसके बाद आपने अनेक विषयों की योग्य विद्वानों से आयुर्वेद तथा ज्योतिष का गहन अध्ययन किया 12 वर्ष की अवस्था में आपने काव्य रचना आरंभ कर दी । संस्कृत और हिंदी की काव्य रचना समान रूप से करते थे, जिसके कारण टिकारी महाराज ने आपको कविंद्र उपाधि से अलंकृत किया गया। पटना तथा आसपास के जिलों में आप की गणना एक अच्छे कवि के रूप में होने लगी।  आपका गया से रागात्मक संबंध हो गया था जिसके कारण आप गया के बहुआरा चौरा नामक मोहल्ले में स्थाई रूप से रहने लगे। आपने चार ग्रंथों की रचना की उद्धव चंपू आचार आदर्श सूक्ति विकास रस मंजूसा इसके अलावा आपके ड्रिंक च खंड में भी चर्चित है।
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र 1868-1905
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र का जन्म पटना मंडल के अंतर्गत राघवपुर में सन् 1868 में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी बुधवार को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित वैद्यनाथ मिश्र था। संस्कृत माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत आप उच्च अध्ययन हेतु वाराणसी चले गए। वाराणसी में आपने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। आपकी सर्जनात्मक प्रतिभा छात्र जीवन से ही थी। आपकी संस्कृत रचनाएं सरल और श्रृंगार पूर्ण हैं। आचर्याचारादर्शरस मंजूषा तथा सुभाषितभूषणम् यह तीन ग्रंथ आपके प्रकाशित हैं। उद्धव चंपू नामक चंपू काव्य का सम्पादन कर आपने चंपू काव्य साहित्य को समृद्ध किया है। इसके अतिरिक्त हिंदी तथा ब्रज भाषा में भी आपने विविध रचनाएं की। आपका देहांत 1905 ईस्वी में भाद्र शुक्ल नवमी को हुआ ।
पंडित रघुनंदन त्रिपाठी
जहानाबाद जनपद के कल्याणपुर नामक गांव में पुनपुन नदी के पावन तट पर पंडित रामफल त्रिपाठी के वात्सल्य भाजन में आपका जन्म हुआ। आपने व्याकरण एवं साहित्य में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। सेठ निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज. पटना सिटी में आपकी नियुक्ति प्राध्यापक पद पर हुई। यहीं पर रहते हुए आपने महामहोपाध्याय पंडित हरिहर कृपालु द्विवेदी के जीवनी पर आधारित हरिहरचरितम् नामक  एक पुस्तक लिखी। पद्यमय इस काव्य में हरिहर द्विवेदी की जीवनी के साथ साथ मुरारका परिवार के वंश तथा उनकी उदारता की चर्चा भी की गयी है।
रामावतार मिश्र
पं. रामावतार मिश्र का जन्म पौष कृष्ण नवमी शुक्रवार विक्रम संवत् 1955 तदनुसार 13 जनवरी 1899 में इनके ननिहाल मखपा गाँव में हुआ था। आपका पैतृक गाँव गया मंडल के टिकारी नगर के निकट बेनीपुर है। ये शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। पिता पं0 वंशीधर मिश्र तथा 19 वर्षीय माता का प्लेग की चपेट में आने से देहान्त हो गया। मखपा में इनके नाना भगवानी मिश्र ने इनका देखभाल किया। 12 वर्ष के बाल्यकाल के बाद इन्होंने गया में शिक्षा ग्रहण किया। पुरानी गोदाम के लब्ध प्रतिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण पं. ज्वाला प्रसाद द्विवेदी के संरक्षण में रहकर पं. देवताचरण के शिष्य बने। 1914 में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्वान्  1923 ईस्वी में आपने आचार्य के समकक्ष साहित्योपाध्याय की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् व्याकरणआयुर्वेद एवं ज्योतिष का गहन अध्ययन किया। पंडित रामावतार मिश्र ने लिखा है कि इनके गुरु कोई साधारण व्यक्ति नहींअपितु सरस्वती के अवतार थे और वह सभी शास्त्रोंसभी विषयोंसभी कलाओं के कोविद तथा रूपगुणशीलआचार-विचार लोकप्रियता आदि में लोकोत्तर थे। गुणग्राही मिश्र ने अपने गुरु के सारे गुणों को ग्रहण किया। महाकवि मिश्र अपने गुरु के परम भक्त थे। उनका विश्वास था कि इन्होंने जीवन में जो कुछ भी पाया है अथवा किया हैवह अपने परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से। इसी असीम भक्ति का फल महाकवि ने पाया भी है।
          1928 ईस्वी में आपने कान्यकुब्ज पाठशालागया में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। गया से प्रकाशित होने वाली रसिक विनोदिनी पत्रिका का आपने सफलतापूर्वक संपादन भी किया। जीवन के अंतिम समय में आप गुरूकुल महाविद्यालयगया में प्राचार्य के रूप में कार्य करते रहे। 24 जून 1984 में आपका देहावसान हो गया। आपने साहित्य सेवा करते हुए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। 1982 तक आपके द्वारा रचित अनेक पांडुलिपियां अप्रकाशित रही। बाद में डॉ. शिवशंकर पंडित ने आपके समस्त कृतियों का संपादन कर प्रकाशित करवाया। आपके द्वारा रचित ग्रंथों के विवरण निम्नानुसार हैं-
1- श्रीदेवीचरित महाकाव्यम्
2- रुक्मिणी मंगलम्
3- कथाकाव्यसंग्रहः
 श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् ग्रंथ 19 सर्गो में है। बीसवीं शताब्दी की यह अनुपम निधि है। इस महाकाव्य में भगवती महिषासुरमर्दिनी के चरित्र का गायन किया गया है। यह पुस्तक 1983 में रुक्मिणी प्रकाशनरांची से प्रकाशित हुआ।
रुक्मिणीमंगलम् एक महाकाव्य है। इसका प्रकाशन 1989 ईस्वी में रुक्मिणी प्रकाशनरांची से हुआ। इसके संपादक डॉ. शिवशंकर पंडित हैं। इसमें 14 सर्ग हैं। महाकाव्य की नायिका विष्णु पुत्री रुक्मिणी है। रुक्मिणी और कृष्ण के प्रेम का इसमें वर्णन किया गया है। रुक्मिणी प्रकाशन से इनकी अन्य पुस्तकें  भारतवर्षेतितिहासः कथाकाव्यसंग्रह (कथा काव्य संग्रह में छंदोबद्ध कृतियां संगृहीत की गई है) रसचंद्रिकाव्यंजनावृत्तिविचार,(व्यंजनोद्धारः) मधुश्रवा माहात्म्यसुरभारतीश्रीगुरुवंशवर्णनम्बन्धकाव्य भी प्रकाशित हुई है। 
कथाकाव्यसग्रहः में ग्यारह काव्यकृतियाँ हैं।-1. गणेशजन्म, 2. शिव-विवाहः, 3. दक्षयज्ञविध्वंशः, 4. श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः, 5. कीचकवधः, 6. अशोकवर्तिनी सीता, 7. कृष्णाभिसारिका, 8.रूक्मिणीपरिणायः, 9. मानिनी राधिका 10. श्रीसीताप्रादुर्भावम्और 11. श्रीराधाचरितम्। इनमें प्रथम नौ काव्यों का रचना काल 1937 है और अन्तिम दो का 1982 0 सुविधा को ध्यान में रखकर इन कथाकाव्यों का प्रकाशन अलग-अलग नहीं करके एक साथ किया गया। औैर इस पुस्तक का नाम रखा गया कथाकाव्यसंग्रह।
          कथाकाव्य से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से हैजिसमें कवि पुराण अथवा इतिहास से किसी कथानक को लेकर अपनी कल्पना का पुट देते हुए काव्य की रचना करता हैजो मौलिक कृति बन जाती है। मिश्र जी के सारे कथाकाव्य बेजोड़ है और ऐसी आशा की जाती है कि संस्कृत साहित्य के इतिहास में ये अद्वितीय स्थान रखेगें।
          श्रीगणेश जन्म में पार्वती ने शिव से पुत्र प्राप्त करने की प्रबल इच्छा प्रकट की है। फलस्वरूप शिव ने उन्हें पुण्यक नामक व्रत करने की राय दी जिसमें अत्यन्त पवित्र श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है। यज्ञ में अनेक विघ्न आयेकिन्तु श्रीकृष्ण की कृपा से यज्ञ की समाप्ति हुई और श्रीगणेश का जन्म हुआ। इस कथा का प्रधान रस श्रृंगार है। यह उपेन्द्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। शिवविवाहः का प्रधान रस हास्य है। इसमें कवि ने दिखाया है कि किस तरह कन्या के माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित रहते हैं। बारात का स्वागत तन-मन-धन लगाकर करने पर भी कन्या पक्षवाले वर पक्षवालों को पूर्ण सन्तुष्ट नही कर पाते। जगदम्बा पार्वती के विवाह में कौन-कौन सी कमी थी ? नाना  प्रकार के उत्तमस्वादिष्ट एवं मधुर खाद्य वस्तुएँ हिमालय के द्वारा भेजी गयींकिन्तु शिवगण असन्तुष्ट ही रहे। उनलोगों ने शिकायत करते हुए कहा -
          न ही विजया न तमालदलानि न हि कनकस्य च मूलफलानि।
          इह न हि धूमजटा अहिफेनो गृहमिदमस्ति महाकृपणस्य।।55।।

          दक्षयज्ञविध्वंशः में दक्षपुत्री सती अपनेे पति की बात नहीं मान कर हठवश अपने पिता के घर यज्ञ देखने जाती हैं। हठ का परिणाम तो बुरा होना ही था। उन्हें पिता ने अपमानित किया और और उनके पति के सम्बन्ध में भी उन्होनें अभद्र बातें कहीं। सती से नहीं सहा जा सका और उन्होनें अपनें प्राण त्याग दिये। इसके पश्चात शिव एवं उनके गणों के द्वारा यज्ञ का विध्वंश होना ही था। इस कथा काव्य में पति की अवज्ञा कर मैके जाने का दुष्परिणाम दर्शाया गया है। यह प्रमाणिका छन्द में लिखा गया है। श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः वितृष्णापूर्ण वीभत्स रस का सुन्दर उदाहरण हैै। इसमें सत्यनिष्ठ हरिशचन्द्र की अन्तिम परीक्षा की कथा है। श्मशान का जीता-जागता चित्र कवि ने प्रस्तुत किया है। अन्त में सत्य की जीत होती है। इस कथा का छन्द है शार्दूलविकीडित। कीचकवधः का प्रधान रस है भयानक। विराट के घर में अज्ञातवास के समय पतिव्रता द्रौपदी पर कीचक के अनुरक्त होने तथा भीम द्वारा उसके वध की कथा इस कथाकाव्य में है। इसमें स्त्रियों के गहन एवं दुर्बोध चरित्र का भी वर्णन है। यह काव्य उपेेद्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। अशोकवर्तिंनी सीता का प्रधान रस है करूण और छन्द है वियोगिनी। इसमें अशोकवाटिका में निशाचरियों द्वारा सीता की प्रताड़ना दिखाई गयी है। जीवन से ऊब कर भगवान् राम का नाम लेती हुई सीता अपने लम्बे केशों से फाॅंसी लगाने को उद्यत होती हैंकिन्तु इसी बीच हनुमान जी ने आ कर उनकी रक्षा की। उपजाति छन्द में रचित कृष्णाभिसारिका किसी कृष्णाभिसारिका नायिका की कथा है। कामविह्वाला नायिका भयानक अंधेरी रात में निर्भीक अपने प्रियतम से मिलने जाती है और मिल कर अत्यन्त प्रसन्न होती है। इस कथाकाव्य का प्रधान रस है श्रृगांर । वसन्ततिलक छन्द में रचित रूक्मिणीपरिणयः रूक्मिणी एवं कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम की कथा है। रसिकशिरोमणि कृष्ण ने रूक्मिणी के अगाध प्रेम को देख कर उनका हरण कर लिया और बेचारा रूक्मी अपमानित हो कर घर वापस लौट आया। इस कथाकाव्य में श्रृगांर एवं वीर रसों का समन्वय दिखलाया गया हैमानिनी राधिका का प्रधान रस है श्रृगांर और यह उपेन्द्रव्रज्रा छन्द में लिखा गया है। ‘ललिता‘ शब्द सुनते ही राधा क्रोध से लाल हो जाती है और अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को फटकार देती है। श्रीकृष्ण के चले जाने पर राधा बेहाल हो जाती है। मालिन का वेश धारण कर श्रीकृष्ण राधा से एकान्त निकुंज में मिलते हैं। राधा का मान तो भंग हो ही चुका था। रामांचित एवं स्वदेशयुक्त तन्वंगी राधा को श्रीकृष्ण ने आलिंगित किया है। श्री सीताप्रादुर्भावम् में सीता के रुप में पराशक्ति के प्रादुर्भाव की कथा है। महाविष्णु के अवतार राम की पत्नी बनकर सीता ने भारत की रक्षा करने में तथा रावण के विनाश में उनकी सहायता की। लव और कुश नामक दो पुत्रों को जन्म देकर वह पृथ्वी के गर्भ द्वार के बाहर से अपने धाम चली गई। यह काव्य उपजाति छंद में विरचित है। वियोगिनी छंद में रचित श्रीराधाचरितम् श्री कृष्ण एवं राधा में प्रेम एवं भक्ति की अपूर्व कथा है। पृथ्वी पर कपटपरपीडनहत्याचोरीलूटआपसी कलहवाक्कटुता आदि का व्यवहार देख आदिशक्ति समस्त विश्व के कल्याण के लिए राधा नाम से अवतरित हुई। इन्होंने श्रीकृष्ण का साथ दिया और दोनों मिलकर मानवीय लीला करते रहे। दुष्टों का विनाश कर राधा ने संसार में शांति स्थापित की। अंत में तो महाकवि ने यह रहस्य खोल ही दिया है कि श्री कृष्ण एवं राधा जी हरि के ही दो रूप है।
          कवि रामावतार मिश्र का काव्य  सरस्वती का श्रृंगार है। इनकी सारी रचनाएं सरलताप्रसाद गुणअर्थसौष्ठव एवं अलंकारों के मंजुल प्रयोग से भरी है।  पंडित मिश्र का अनुभव बड़ा व्यापक हैसाथ ही उनमें जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता भी। श्री मिश्र  मर्मस्पर्शी शब्दों के चयन में प्रवीण तो है ही इनमें अपूर्व भावुकता भी है।
       पंडित मिश्र की लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार तथा श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी सम्प्रति संस्थान के द्वारा वर्ष 1983 के कालिदास पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र 1906
औरंगाबाद जिले के चैनपुर नामक ग्राम में पंडित भूदेव मिश्र के यहां 10.10. 1906 को पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके उपरांत आप पढ़ने के लिए गया एवं कोलकाता गए। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद पंडित मिश्र 1931 से 1935 तक अपने गांव के बच्चों को संस्कृत पाठशाला में शिक्षा देते रहे। 1935 ईस्वी में आपने संस्कृत महाविद्यालय, रांची में प्राचार्य पद पर पदभार ग्रहण किया। राजकीय संस्कृत उच्च विद्यालय में 1966 तक प्रधानाचार्य के रूप में आप कार्यरत रहे। आपने छोटा नागपुर के पठारी भूभाग में हजारों लोगों को संस्कृत विद्या सिखाई। कवि प्रतिभासंपन्न पंडित मिश्र जी की लेखनी कभी नहीं चल पाई। पत्र-पत्रिकाओं में आपके स्फुट पद्य देखने को मिलता है। विजयोपहार नामक एक पद्यमाला पंडित दिनेश प्रसाद पांडे के अभिनंदन में शिखरिणी नामक पत्रिका में इस प्रकार प्रकाशित हुई-
सारण्यं शुभमंडलं बुधवरैर्युक्तं बिहारे भवेत्
सीमान्तं च लवीनमदुत्तमं जातं तदन्तर्गतम्।--
पंडित रुद्रनाथ पाठक
औरंगाबाद जिले के देव ग्राम निवासी पंडित वैद्यनाथ पाठक के यहां आपका जन्म हुआ। आपने आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में प्राप्त की, उसके बाद आपने उच्च शिक्षा प्राप्त किया। आपने अपनी मेधा का परिचय भारतीयरत्नचरितम् नामक ग्रंथ को लिखकर दिया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित है
डॉ. शिव शंकर पंडित 1933
गया जिले के सेनारी गांव में 20.8 1935 को डॉ.पंडित का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव में हुई। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण आपने मैट्रिक से लेकर एम.ए अंग्रेजी तक की परीक्षा स्वतंत्र छात्र के रूप में दी। आपने मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। डॉक्टर पंडित 16 वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में पढ़ाते रहे उसके बाद 1970 में संत जेवियर्स कॉलेज रांची में अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक बने। आंग्लभाषाविद् होते हुए भी आपमें संस्कृत के प्रति अत्यंत ही अनुराग था। आपने महाकवि रामावतार मिश्र की सभी पांडुलिपियों का सफल संपादन कर रुक्मणी प्रकाशन से प्रकाशित कराया तथा उसकी टीका भी आपने लिखा। आप रुक्मणी प्रकाशन के संस्थापक हैं। 
पं. शिव प्रसाद पांडे सुमति 1876-1938
शिव प्रसाद पांडे सुमति का जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी,रविवारसन् 1876 में पटना के रानीघाट मुहल्ले में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. संजीवन पाण्डेय था। आपने अपने अग्रज तथा अम्बिकादत्त व्यास से शिक्षा ग्रहण किया। आप काव्य विधा में भी सफल लेखक कवि प्रतिभा संपन्न संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। पटना कॉलेज पटना के प्राध्यापक पंडित कन्हैया लाल त्रिपाठी से आपने काव्य पुराण एवं उपनिषद की शिक्षा पाकर  इन विषयों में कोलकाता से उपाधि ग्रहण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् आपने कई उच्च विद्यालयों में संस्कृत के अध्यापक पद पर कार्य किया। सन् 1920 ईस्वी में आपने पाटलिपुत्र नामक साप्ताहिक पत्र में सहायक संपादक का कार्य किया। सन् 1921 ईस्वी में खड्ग विलास प्रेस, पटना में प्रधान पंडित के रूप में कार्य किया। ऋतुसंहार का गद्य पद्यात्मक अनुवाद  के साथ संस्कृत साहित्य में आपकी निम्नलिखित रचनाएं हैं-
 शिवमहिम्नस्तोत्र टीका सहित
 गौतमाश्रमोपाख्यान काव्य
 नित्य तर्पण पद्धति
 आपका निधन  31 अक्टूबर 1938 को हुआ। 
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन 1912-1986
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन का जन्म पटना जिले के खगौल मुस्तफापुर ग्राम में हुआ था। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की ही पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम.ए संस्कृत से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आप टी0एन0बी0 कॉलेज, भागलपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपने 1942 से 1949 तक भागलपुर में रहते हुए        1. युगशतदलम् 2. महाभाष्य मंथनी ग्रंथों की रचना की। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी पटना से आपके अनेक संस्कृत निबंध प्रसारित हुए।
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स्वामी पराङ्कुशाचार्य का कृतित्व

स्वामी पराङ्कुशाचार्य                 
जन्म-                 10  मार्च    1865                                          
परमपद-             10 फरवरी   1980
जन्मस्थान-          महमत्पुर, विक्रमपुर,पटना
परमपद स्थल-      हुलासगंज, जहानाबाद
कार्यक्षेत्र-  गया, पटना,नालंदा ,जहानाबाद, अरवल,नवादा और औरंगाबाद,भागलपुर,बाढ
स्वामी पराङ्कुशाचार्य का सम्बन्ध उस मगध जनपद से है,जिसका उल्लेख अथर्ववेद, पंचविंश ब्राह्मण, (17.1.16) तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.4.9) मनुसंहिता (10.47) गौतम धर्मशास्त्र, महाभारत आदि ग्रन्थों में मिलता है। मगध बौद्ध काल और परवर्ती काल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था।राजधानी गिरिब्रज थी। इसमें पटना और गया जिले शामिल थे। ऋषि चरक की जन्मस्थली, बृहद्रथजरासंध तथा अशोक यहाँ के राजा हुए तथा भगवान् बुद्ध को यहीं ज्ञान प्राप्त हुआ।
   स्वामी पराङ्कुशाचार्य एक समाज सुधारक और वैष्णव भक्त संत थे। जिस समय इनका जन्म हुआ, उस समय देश में संतों के द्वारा समाज सुधार का कार्य किया जा रहा था। देश में स्वतंत्रता आन्दोलन का विगुल 1857 में बज चुका था। इन्होंने सरौती,गया,बिहार को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। संस्कृत विद्यालयों की स्थापना के द्वारा वंचित तबकों तक संस्कृत शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए आपने अनथक परिश्रम किया। आपकी जीवनी तथा समसामयिक सामाजिक स्थितियों से ज्ञात होता है कि सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में भक्ति और संस्कृत शिक्षा को आपने एक औजार की तरह प्रयोग में लाया। यही कारण है कि आपकी रचना में प्रपत्ति और शिक्षा का समन्वय देखने को मिलता है। आप संस्कृत के नदीष्ण विद्वान् नहीं थे, वरन् संस्कृत के प्रचारक और आश्रयदाता की भूमिका का निर्वाह किया। पुण्यतीर्थ गया उस समय भी कर्मकाण्ड का केन्द्र था। मगध के समकालीन विद्वान् कर्मकाण्ड ग्रन्थों की रचना कर खुद को श्रेष्ठ संस्कृत विद्वान् मान रहे थे। उसी समय सहजानन्द सरस्वती भी समाज सुधार के क्षेत्र में सक्रिय थे। इन सभी का प्रभाव आप पर पहुंचना स्वाभाविक था। आपका जन्म एक छोटे से ग्राम महमत्पुर में हुआ था। उत्तर भारत के मंदिरों को मुगलों ने नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। इस क्षेत्र में भव्य और विस्तृत मंदिर नहीं थे। भक्ति हेतु आकर्षण का कोई महनीय केन्द्र नहीं था। आपने अपने गुरु राजेन्द्राचार्य के साथ दक्षिण प्रदेशों के मंदिरों को देखा और अभिभूत हो गये।बुद्धिजीवियों से निरंतर सम्पर्क के कारण अपने यहाँ हो रहे सामाजिक भेदभाव को पहचाना। उस समय शाकद्वीपीय ब्राह्मण भुमिहार ब्राह्मण को कमतर मानते थे। अकर्मण्य भुमिहार को कर्मण्य भुमिहार ब्राह्मण तक की यात्रा कराने में इन्हें कई अवरोधों का सामना करना पडा। संस्कृत नहीं पढना, कर्मकाण्ड नहीं कराना ही भुमिहारों की अकर्मण्यता थी। ये इसे हेय कर्म मानते थे। जातीय समकक्षता के लिए संस्कृत का ज्ञाता होना आवश्यक था। यही एक अस्त्र था, जिसके बलबूते सामाजिक विषमता को चुनौती दी जा सकती थी। संस्कृत अपनाने और प्रचार की पृष्ठभूमि अलग होने कारण आपकी परम्परा को संस्कृत की अन्य धारा से पृथक कर देखना अनिवार्य होगा। यही कारण है कि इनकी रचनाओं में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए पुकार सुनाई नहीं देती। परन्तु इतना सत्य है कि इनके द्वारा स्थापित संस्कृत शिक्षा केन्द्रों से शिक्षित होकर अनेकों ने रोजगार के अवसर पाये।
  स्वामी पराङ्कुशाचार्य ने  दक्षिण बिहार विशेषतः मगध क्षेत्र में संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु संस्कृत में कर्मकाण्ड के ग्रन्थों का लेखन, जनजागरण तथा अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। आपने मगही बोली में अर्चा गुणगान की रचना की । मगही बिहार राज्य के मगध क्षेत्र में बोली जाने वाली एक बोली है। दक्षिण भारत में प्रतिष्ठित देवविग्रह के स्वरुप तथा यहाँ द्रविड संस्कृत के मेल से उत्पन्न प्रपत्ति के सिद्धान्त को मगही में प्रतिष्ठित करने वाले एकमात्र संत रहे हैं। मेरा सौभाग्य कि मैं इनके साहित्यिक अवदान तथा मगध में संस्कृत को प्रतिष्ठा दिलाने में इनकी भूमिका पर चर्चा करुँगा। मगध,काशी  से होते हुए इनकी वाणी भारत के अन्य भूभाग तक पहुँच चुकी है तथा इसका प्रभाव अब देश विदेश में भी शीघ्र दिखने लगा है। आपके शिष्य रंगरामानुजाचार्य ने आपको विशेष प्रसिद्धि दिलायी। पराङ्कुशाचार्य दक्षिण भारत में उद्भूत रामानुजीय वैष्णव परम्परा के सन्त थे। अर्चा गुणगान में विष्णु के स्वरुप में पूजित होने वाले श्रीनिवास वेङ्कटेश एवं रङ्गनाथ के अंग प्रत्यंगों, करुणा, प्रपत्ति तथा उनके ऐश्वर्य का ठीक वैसा ही वर्णन किया जैसा कि यामुनाचार्य के आलवन्दार स्तोत्र में किया है। कृपालो हे कृपा करके प्रभो क्यों ना  चिताते हो। बहुत अपराध जन्मों से किया है मोह के वश हो पंक्ति में अपराधसहस्रभाजनं की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। भक्तगण जब अर्चा गुणगान के पदों को गाते थे तो पराङ्कुशाचार्य प्रभु भक्ति में भावविभोर हो नृत्य करने लगते थे। इस क्षेत्र के हर गायक का सपना होता है कि इनके द्वारा रचित भक्ति पदों को अपने अंदाज में स्वर दें। ऐसा इसलिए भी कि इनके गीत क्षेत्रीय भाषाई विरासत को तो समेटे है ही गायकों को भीतर तक शान्ति का अनुभव कराता है। कई गीतकारों ने आपके सम्मान में गीतों की रचना की है एवं गायकों ने भी उसे स्वर दिया है। इस प्रकार के गीत हुलासगंज एवं इससे सम्बद्ध संस्थाओं के धार्मिक आयोजनों एवं यज्ञों में सुने जा सकते हैं।
        परांकुशाचार्य के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के समकालीन घटनाक्रम, क्षेत्र की शैक्षणिक स्थिति को जानना भी आवश्यक है।  कोलकाता, रांची, गया तथा वाराणसी आदि मगध का निकटवर्ती संस्कृत शिक्षा का क्षेत्र था। यहाँ पर संस्कृत की स्थिति पर दृष्टिपात करना आवश्यक होगा, क्योंकि मगध क्षेत्र के लोग इन्हीं विद्या के केंद्रों में जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। वे इन विद्या केंद्रों से प्रभावित हो रहे थे। इस कालखंड में एक और ईसाई मिशनरियों के द्वारा शिक्षा सुधार लाया जा रहा था।  कोलकाता, वाराणसी आदि स्थानों में नए-नए विश्वविद्यालय स्थापित हो रहे थे।  अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा केंद्र तथा एक भारतीय संत के द्वारा शिक्षा केंद्र की स्थापना में मौलिक अंतर यह था कि जहां अंग्रेज भारतीय रीति रिवाज परंपरा को समझकर भारतीयों पर शासन करने के लिए शिक्षा केंद्र स्थापित किये, वहीं भारतीय संत के द्वारा वंचितों को मुख्यधारा से जोड़ने का जद्दोजहद दिखता है।
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित सुप्रीम कोर्ट कोलकाता में जूनियर जज पर तैनात विलियम जोंस 1783 में कोलकाता आये। उन्होंने कोलकाता में संस्कृत व्याकरण और काव्य की बारीकियों को पढ़ कर जाना। विलियम जोंस कानून, दर्शन, धर्म, राजनीति, नैतिकता, अंकगणित, चिकित्सा विज्ञान आदि विषयों की गहन जानकारी के लिए संस्कृत विद्या का अध्ययन कर रहे थे। इसी समय हेनरी टॉमस कोलब्रुक तथा नैथे नीयल हॉलहेड संस्कृत भाशा सीखकर संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद कर रहे थे। यह सभी भारतीय विरासत को समझने के प्रयास में लगे थे। इसी समय जोन्स ने इनसे मिलकर एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल का गठन किया तथा वहीं से एशियाटिक रिसर्च शोध पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। श्रीमती योगमाया देवी बिहार के संस्कृत शिक्षा में स्त्रियों के लिए अलग पाठ्यक्रम बनाए जाने तथा बिहार संस्कृत कन्वोकेशन में महिला प्रतिनिधि को शामिल कराने के लिए संघर्ष कर रही थी। बिहारी छात्राओं की सफलता नामक लेख में सरस्वती देवी लिखती है कि 1931 के अप्रैल में योगमाया देवी ने महिलाओं में संस्कृत के प्रचार के लिए अलग कोर्स बनाने की मांग बिहार लेजिस्लेटिव असेंबली में की थी। बिहार संस्कृत एसोसिएशन की संचालिका सभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की भी मांग की। जिस समय पंडित ईश्वरदत्त शास्त्री के सभापतित्व में वाराणसी में आयोजित अखिल भारतीय संस्कृत छात्र संघ का अधिवेशन हो रहा था और महिलाओं को संस्कृत शिक्षा में अधिकार दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी, उस समय भूमिहार ब्राह्मण भी संस्कृत शिक्षा से बंचित थे। इससे यह तो स्पष्ट हो चुका है कि उस समय स्त्रियों तक संस्कृत शिक्षा नहीं पहुंच पा रही थी। वैष्णव संतो द्वारा स्थापित संस्कृत के शिक्षा केंद्रों में भी स्त्रियों के लिए संस्कृत शिक्षा देने हेतु कोई व्यवस्था नहीं की गई, इस प्रकार संस्कृत शिक्षा से एक बहुत बड़ा वर्ग उपेक्षित रह गया। ईसाई मिशनरियों का बहुत बड़ा केंद्र रांची था। वे पलामू,हजारीबाग सहित अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार में निरंतर लगे हुए थे। फादर कामिल बुल्के भी भारत में मिशनरी स्कूलों में अध्यापन के लिए पधारे थे परंतु संयोग ऐसा कि वह राम के चरित्र से प्रभावित होकर भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में प्रचलित रामकथाओं का संकलित करने में अपना जीवन अर्पित कर दिया। फादर कामिल बुल्के भी संस्कृत की शिक्षा ग्रहण किये। हरिनारायण शर्मा ने अपने भूखंड पर दानापुर के कैंट रोड पर मुस्तफापुर,खगौल में 1901 में वेद रत्न विद्यालय की स्थापना की गई। बाद में इसे देबघर स्थानान्तरित कर यहाँ वेदरत्न उच्च विद्यालय की स्थापना की गयी। आप आर्य समाज के अनुयाई तथा आयुर्वेद के ज्ञाता थे । यहां से संस्कृत विद्या प्राप्त कर अनेकों विद्वानों ने शिक्षा पाई। इन सभी घटनाक्रमों से तरेतपाली तथा सरौती का शिक्षणकेन्द्र असम्बद्ध दिखता है, क्योंकि पराङ्कुशाचार्य एक प्रपत्ति के साधक थे,जिसके लिए संस्कृत शिक्षा अनिवार्य है। जातीय समकक्षता पाने में संस्कृतविद्या सहायक थी। तबतक शिक्षा का माध्यम संस्कृत ही हुआ करता था, इनके द्वारा गुरुकुल में बालकों को संस्कृत शिक्षा दी जाती थी, ताकि वे जगह जगह जाकर कर्मकाण्ड करा सकें। भारतीय समाज में महिलाओं द्वारा कर्मकाण्ड कराने की परम्परा नहीं थी इस कारण से भी संस्कृत शिक्षा में आधी आवादी उपेक्षित रह गयी। कुल मिलाकर परांकुशाचार्य एक शिक्षाविद् न होकर एक धार्मिक संत थे, जो एक वर्ग विशेष में संस्कृत को पहुंचाने का सार्थक कार्य कर रहे थे। अतः इस परिधि में रहकर इनके व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर विचार करना चाहिए।
          पराङ्कुशाचार्य दक्षिण भारत के आलवार परम्परा से थे,जहाँ ज्ञान के स्थान पर भक्ति का अधिक महत्व था। इन्होंने अपनी भक्ति और कर्मसाधना से ईश्वर को प्रत्यक्ष किया। स्वयं पराङ्कुशाचार्य ने स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं की थी,परन्तु सूर, कबीर,मीरा आदि मध्यकालीन भक्त संतों की तरह इन्होंने भी भक्तिभाव से ओत प्रोत लगभग 65 पदों की रचना की हैं। इनके द्वारा लिखित अधोलिखित पुस्तकें श्री स्वामी पराङ्कुशाचार्य  संस्कृत संस्कृति संरक्षा परिषद् , हुलासगंज, जहानाबाद से प्रकाशित हैं।                 

1. ध्रुव प्रह्लाद चरित्र
2. सुदामा चरित्र
3. राम और हिंसा
4. राम रहस्य
5. सांप्रदायिक प्रश्नोत्तर
6. एक ही नारायण उपास्य क्यों?
7. सीताराम परिचय एवं मानस शंका समाधान
8. अर्चागुणगान
9. राजेन्द्र सूरी जी महाराज की जीवनी (4 खंड)
10. नारायणवली श्राद्ध पद्धति

परांकुशाचार्य की कुछ रचनायें मगही बोली है। एक भाषिक बोली में काव्यसर्जना कर इन्होंने इस बोली को पहचान दिलाने का कार्य किया। इनके साहित्य में मगही शब्दों का भरपूर प्रयोग करने साथ ही इन्होंने अपने साहित्य में मगही तथा संस्कृत शब्दों में संतुलन भी बनाये रखा,जिससे हर भाषाभाषी को इनके साहित्य का सहजबोध होता है। इन्होंनें स्वयं तो मगही में रचना की ही, इसके अतिरिक्त मगध के लोकगीत को अपने कृतित्व के द्वारा उर्वरा भूमि भी प्रदान की। स्वामी परांकुशाचार्य की जीवन लीला तथा वैकुण्ठगमन का प्रसंग बनाकर अनेकों लोकगीत रचित हैं, यथा- स्वामी जी कैलन वैकुण्ठ पयनवां स्वामी जी लोक महनवां ना। वस्तुतः आप संतशिरोमणि तो थे ही मगध और मगही के गौरव पुरुष भी थे। इनके जीवनी पर आधारित एक पुस्तक स्वामी परांकुशाचार्य चरितामृतम् प्रकाशित है।  
       बचपन में हुलासगंज में अध्ययन के समय मैं भी श्रीनिवास प्रताप दिनकर पद का नित्य गायन करता था। गया,जहानाबाद,औरंगाबाद,नवादा,अरवल,पटना सहित अनेक जनपदों में त्यौहारों तथा धार्मिक उत्सव के समय आपके द्वार रचित पदों को गाने की परम्परा है। आपसे प्रेरित होकर लक्ष्मी स्वामी ने मगही में भावपूर्ण गेय पदों से युक्त लक्ष्मी विलास रस नामक पुस्तक को लिखा। इस सबके बाबजूद आश्चर्य है कि भक्ति रचनाओं के द्वारा मगही साहित्य को जीवन्त बनाये रखे इस महापुरुष की रचनाओं की ओर अबतक मगही साहित्य के इतिहास लेखक और समीक्षक की दृष्टि इस ओर क्यों नहीं पड सकी? 1960-62 के बीच महाकवि योगेश द्वारा मगही का पहला महाकाव्य गौतम लिखा गया,जबकि इसके अनेकों वर्ष पूर्व पराङ्कुशाचार्य जी ने मगही में रचना की थी। मगही को चाहने वाले उन 2 करोड़ लोगों को इनके जन्म दिन पर इन्हें अवश्य याद करना चाहिए।  

                            अर्चा गुणगान :

1. श्रीनिवास  भगवान की स्तुति

1.    श्रीनिवास प्रताप दिनकर भ्राजता सब लोक मे ।
सो दीन जन के तारने प्रभु आवते भूलोक में ।
वह कृपा चितवन नाथ की जन को सनाथ बनावता ।
वारीश करूण ऊमड़ घुमड़ अघ सकल दूर दहावता ।
प्रभु दिव्य दक्षिण हस्त में ज्यों अस्त्रराज विराजहीं ।
त्यों तेजमय अतिपाञ्चजन्यसु वामकर वर गाजहीं ।
है कान्तिमत सुन्दर पीताम्बर अति विचित्र किनारियॉ ।
सो काछनी कटि में सुहावनी सबन के मन हारियॉ ।
वनमाल औ मनिमाल अगनित पुष्प मोतिन लर रहे ।
पुनि तैसेहीं भगवान के भगवान माला बन रहे।
औ श्रवण कुण्डल मुकुट भूषण गणन मे बहु मणिगणा ।
ज्यों श्याम घन में दामिनी बहु चन्द्र रवि तारे गना ।
प्रभु दिव्य दक्षिण हस्त से निज चरण शरण बतावहीं ।
ना भव तुम्हारे जानु लो सो बाम से दिखलावहीं ।
वह ज्योति जगमग जासु दस दिसि विदिसहु छायी महा ।
सो देखते दर्शक गनो के भागते अघतम महा ।
फणिराज पंकज रूप धर कर दिव्य आसन सोहहीं ।
हो दल अनेको पादतल सो लखित मुनि मन मोहहीं ।
व्यूह पर वैभवन व्यापेहुॅ कौन पाते यत्न से।
भगवान अर्चा रूप धरकर जनन से मिल सुगम से ।
पर्ण फल जल पुष्प से सेवा सुलभ अति प्रेम से ।
इसके लिये यह तन मिला लख व्यास के उपदेश से ।
भूधर समान न और भूधर भूमि पर पाते कहीं ।
सदग्रंथ में जब देखते इनके सुयश सर्वत्र हीं ।
है धन्य कुधर शिखर अहो त्रैलोक नायक को धरे ।
ले साथ में आकाश गंगा धार झरझर झरझरे ।
औ अनंता अलवार के पावन सरोवर हैं जहॉ ।
है मुक्ति की ईच्छा जिसे वैकुंठ में रहते तहां ।
भाष्यकार स्वयं जिन्हें बन ससुर गुरू सेवा किये ।
सब दास को शिक्षा दिये अरू आप पावन यश लिये ।
हैं धन्य नर जो देखते पल स्वप्न में उस ठाम को ।
सो देव हैं नर नर नहीं हैं नरन में भगवान को ।
भव भीति का न डर कभी जो मन बसे हरि गीतिका ।
आशा बड़ी युग चरण की है  है कृपा परिपालिका ।
है प्रणतपाल कृपालु हरि के चरण धर जीवन लहो ।
सो दीन बंधु कृपालुता बश द्रवित होंगे ही अहो ।

2. श्रीनिवास भगवान की उदारता

श्रीनिवास भगवान  हमहि अपने अपनाये जी।
ग्रथन में यह  मिलत सबन में ..
नरतन सुर दुर्लभ भारत में
देकर के भगवान हमहि
वैष्णव बनवाये जी।। श्रीनिवास भगवान  ……
पञ्चरात्र से शास्त्र मनोहर
गीता के ज्ञान अति सुन्दर
ऐसे वचन  सुनाय सुगम
मारग बतलाये जी ।। श्रीनिवास भगवान ……
भाष्यकार के चरण लगाकर
भगवत जन के सुहृद बनाकर
इनकर सेवा देकर सुलभ
उपाय बताये जी ।। श्रीनिवास भगवान………
दीन हीन लख कृपा किये प्रभु
आरत हर गुण प्रकट किये हरि
युगल चरण अति सुन्दर
सिद्ध उपाय बताये जी ।। श्रीनिवास भगवान……

3.  श्रीनिवास भगवान के अर्चा रूप का उद्देश्य

श्रीनिवास आश्रित हित अपना अर्चा रूप बनाते हैं।
द्रवित हृदय से आये गिरि पर  वेङ्कटनाथ कहाते हैं।
व्रात जनों के रक्षण हित रक्षा कङ्कण  बन्धवाते हैं।
शरणागत पर प्रेममयी शीतल अ‍ँखिया दिखलाते हैं।
दक्षिण  कर से सब प्रकार युग चरण उपाय बताते हैं।
त्यों वामे करसे भव के लघु तरतर भाव बताते  हैं।
अन्य  हाथ में शङ्ख सुदर्शन धर ऊँचे दिखलाते हैं।
डरो नहीं तुम डरो नहीं तुम डरो नहीं हम  आते हैं।
मैं हूँ अखिल लोक के नायक मुकुट पहन बतलाते हैं।
देखो वेद पुराण  सूत्र गण मेरे ही गुण  गाते हैं।

4. वेङ्कटेश भगवान  का स्वरूप वर्णन


वेङ्कट  गिरि पर स्वामी वैकुण्ठ से ही आये।
श्री श्रीनिवास  जन को यह भाव हैं बताये।।
है हस्त कमल सुन्दर दक्षिण अधो अपाने।
करके उपाय सर्वोपरि चरण को दिखाये।।
है शङ्ख चक्र धर के प्रतिद्वन्द को हटाते।
तैसे ही वाम करसे भव नाप को बताते।।
जो दिव्य मुकुट माथे त्रैलोक्य नाथ नाते।
है  दास  को  यहॉ से वैकुण्ठ को ले जाते।।
यह गिरि समान गिरिवर ब्रह्माण्ड में न पाते।
इनके समान जनहित तिहु लोक में न आते।।
वह दीन वचन सुनकर हरि दूर से ही धाते।
भगवान कृपा करके हर रूप भी दिखाते।।

5. श्रीवेङ्कटेश भगवान एवं आळवार संत

वेङ्कट गिरिपर भगवान जी.. आये अधम उधारन।
भू योगीश्वर महत भट्टवर.. भक्तिसार अगवान जी।।आये
कुलशेखर श्रीयोगी वाहन.. भक्तचरण रजमान  जी ।आये
जामातृ परकाल वीरवर.. जिनसे लुटाये भगवान जी। आये
भाष्यकर यामुन  मुनि योगी.. राममिश्र परधान  जी। आये
स्वामी पुण्डरीक लोचन वर.. कृपा किये जनजान जी।आये
नाथमुनिहुँ शठकोप मुनीश्वर.. विष्वकसेन परधान जी। आये
माता श्री लक्ष्मी महारानी.. दया करो जन जान जी।आये
दीनहिं के हित भूतल आये.. जानत परम सुजान जी।आये

6. वेङ्कटेश भगवान का भजन

मन श्रीनिवास भज रे।टेक।
होय परम कल्याण तुम्हारे. चरणन जाय परे।
लक्ष्मीमाता पास खड़ी हैं. तब तुम काह डरे।
युगल चरणहिं उपाय तुम्हारे. सब दुःख दूर करे।
नारायण के ध्यान धरे से. सब विधि काज सरे।
दीनन हित वैकुण्ठ छाड़ि के. वेङ्कट गिरि पधरे।

7. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति

मोहि रङ्गनाथ अपनाये। टेक।
परम दयालु कृपा करके प्रभु .अपने शरण बुलाये।
मन्त्रराज द्वय चरम मन्त्र को. सब विधि से सुनवाये।
सुन्दर चरण उपाय बताकर. अरचि राह दिखलाये।
ऐसी कृपा दीन पर करि हरि. दुरित दूर भगाये।
मोहि रङ्गनाथ अपनाये।

8. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति   2

कृपालो हे कृपा करके प्रभो क्यों ना  चिताते हो।
बहुत अपराध जन्मों से किया है मोह के वश हो।
तुम्हारे देखते सबहीं बहिर अन्तर निवसते हैं।
करूणाकर करूण वश हो क्षमा कर दे तु सकते हो।
यही है दीन की आशा सतत लखते ही रहते हो।
हमारा कर्म तब देखो नरक बाइस बनाना हो।
निजी गुण को लखें भगवन अपर अपवर्ग लाना हो।
बचना जो बहुत श्रम से हटा दो ही क्षमा करके।
गुणन गण में वही है जो अविज्ञाता कहाते हो।

9. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति   3

रङ्ग रइया ये करूणा नजर से चिताय
हो के करूणाकर जी ठाने निठुरइया
रङ्ग रइया ये हमनि के कवन उपाय ।।1
वेद सब तोहि नेति नेति कहि गावै
रङ्ग रइया ये प्रभु रूप अर्चा बनाय।।2
छोड़ दिव्य लोक अरू अवधि नगरिया
रङ्ग रइया ये रहले दक्षिण दिशि जाय।।3
बाहर भीतर रह के करे रखवरिया
रङ्ग रइया ये अब जनि रहतू भुलाय ।।4
दीन हीन दास तोर तुहीं मोर स्वामी
रङ्ग रइया ये कहु पग धरन उपाय।।5

10. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 4

अर्चारूप बनकर अपनी सुलभता दिखाओ रङ्ग रइया।
ईक्ष्वाकु पर कृपा किये प्रभु कुल से पुजायो ।।1
कौसल्या जब पाक बनाई अपने मन खायो।।2
पुनि दो बालक देख देख डेराई स्वरूप दिखाओ।।3
रघुपति से लङ्कापति पाये दखिन दिश आयो ।।4
गङ्गा कावेरी  की  गोदी तुमहीं मन भायो।।5
राग भोग सैया सुखदाई वितान बनायो।।6
पान किये योगी वाहन को सुतन में मिलायो।।7
यह  जन वत्सलता गुण तुम्हरे सुविरद बढ़ायो।।8
दीनन पर चरणों की छाया सदाहि बचायो।।9

11. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 5

दया दरसाये रङ्ग रइया
रङ्गनायकी के सङ्ग आके । दया
यह जन बत्सलता गुण तुम्हरे सुअर्चा बनाये।।दया
भाष्यकार के सब जन गण को चरण में लगाये।।दया
श्रीस्वामी कुरेश के बर दे दीनहुँ अपनाये।दया
सब कल्याण गण तुमरे । न गन हूँ गनाये।दया

12. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 6

देखन चलिये रङ्गवर की सवारी ।।टेक
सुरतरू वाहन अधिक सुहावन तापर रङ्गनाथ पगधारी।।देखन
आगे चतुर वेद पाठक गण पाछे प्रबन्ध सुरस ध्वनि न्यारी।।देखन
आलवार आचारिन वीथिन सबकी सन्निधियों  में अधिक तैयारी।।देखन
सब भक्तन  के घरनिन विविध भॉंति नैवेद्य संवारी।।देखन
द्वार द्वार सब चौके पूरी नीराजन  लिये हाथ में थारी।।देखन
आड़ा विविध ताल से बाजत तैसीन फिरीहुँ की पिहकारी।।देखन
महामेघ डंमर दो झलकत युगल काहली की ध्वनि भारी।।देखन
प्रति वीथिन में करूणाकर हरि दर्शन देहि दीनन हितकारी।।देखन

13. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 7

रङ्ग न लगा श्रीरङ्ग का तुम नॉहक बना वेढंग का।
दशो दिशा में व्यर्थ ही धाया रङ्गपुरी में कबहु न आया
मिथ्या चाल कुरंग का।।तुम
कावेरी गङ्गा न नहाया वह पवित्र जल तनिक न पाया
भूला यम के दण्ड का। तुम
रङ्गनाथ पगतर न गिरा जो  चरणामृत नहि पान किया सो
लगहिं लात बजरङ्ग का । तुम
माता रङ्गनाथ को जानो  रङ्गावरहिं पिता कर मानो
वचन ये वेद वेदान्त का । तुम
त्रिगुणों के घेरा में पड़कर त्रिविध ताप ज्वाला में जलकर
जैसा हाल पतङ्ग का । तुम
श्री रङ्गेश चरण मन धर कर दीनबन्धु के नाम सुमिरकर
महिमा लहत सतसङ्ग का। तुम

14. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 8

रङ्गनाथ मम नाथ प्रभो अब ना तुम छोड़ो जी।
रक्षक पिता सखा भर्ता पति ज्ञाता भूति आधार रमापति
हौं शेषी गुरूदेव बहुत नाता जनि तोड़ो जी।।
भोक्ता ज्ञाता प्रेरक अन्तर कहत वेद इतिहास निरन्तर
प्रभु तुम दीन दयाल दया से मुख मत मोड़ो जी।।
स्वामी सेव्य अभद्र गुणाकर सब कारण तारण भव सागर
शुभ  गुण में अब आन निठुरता मत तुम जोड़ो जी।।

15. रङ्गनाथ भगवान की स्तुति 9

यही वर भावै रङ्गरइया।टेक
श्रीरङ्ग पुर के भीतर  हमको कुकुर्वा वनावै।
खाने को मोहि भक्तन के जूठन पत्तल ही चटावै।
प्यासे में कावेरी के पानी पीलाबैं।। यही
चतुरानन  गोपुर के आगे रेती पर सुतावैं। यही
जब प्रभु परिकरमा में आवैं पीछे से लगावैं। यही
मङ्गल गिरि पर आप विराजैं आगे में वैठावैं। यही
रङ्गनायकी रङ्गनाथ प्रभु अपना बनावै। यही
तुम स्वामी  हो अन्तर्यामी अपने अपनावैं। यही
यह तन रङ्गपुरी में छोड़ा के  चरण में लगावैं। यही
नित्य मुक्त वैष्णव गण सङ्ग में सेवन समुझावैं । यही

16. वरदराज भगवान की स्तुति 1

वरद रइया सब देले बनाय। टेक
चौरासी में भ्रमित श्रमित लख  कृपादृष्टि प्रभु करके चिताय। वरद
करूणा कर नर देह बनाय  भव से तरण कर सुलभ उपाय।वरद
अशरण शरण सुयश संभारे  हरि दोउ चरणन दिन्ह धराय।वरद
अस प्रभु मोहि दीन अपनाये तेहि कारण दीनबन्धु कहाय।वरद

17. वरद रइया मग देले दिखाय।टेक

भाष्यकर के सम्बन्धि बन तुम सोवहुँ भव भय को भगाय।वरद
नारायण के चरण शरण एक  भव से तरन कर सिद्ध उपाय।वरद
दृढ़पन करि हरि दिन्ह अभय वर  मा शुच पद प्रभु दिन्ह सुनाय।वरद
दीन जनन के तारण कारण सदा करे करि गिरि पर छाय।वरद

18. वरदराज भगवान की स्तुति 2

बना है विश्व में सबको  वरद के वरद हस्तों से ।
यही सब वेद गाते हैं  सकल मिल एकहीं स्वर से ।।
बना सुक वामदेवों को  वरद ही के बनाने से।
सुधारा बाल ध्रुव को भी वरद ने वरद हस्तों से।।
बना जैसे विभीषण को वरद के वरद हस्तों से।
अकिंचन दीन को सब दिन बनाये वरद हस्तों से।।
बने वैसे विदुर घरही  वरद के वरद हस्तों से।
बना उस गिद्ध को सबसे वरद के हस्त से जैसे।।

बनेगा दीन को वैसे वरद के वरद हस्तों से।।
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