'मुखं व्याकरणं स्मृतम्' संस्कृत साहित्य के अध्ययन के लिए व्याकरण शास्त्र का अध्ययन करना नितान्त आवश्यक है। पतंजलि ने जिन व्याकरण के प्राचीन आचार्यों का उल्लेख किया है, उनमें व्याकरण के प्रथम प्रवक्ता के रूप में इन्द्र थे। बृहस्पति ने सर्व प्रथम एक हजार वर्ष लगातार देवाधिपति इन्द्र को प्रतिपदपाठ द्वारा शब्दों का उपदेश किया था, जैसा कि महाभारत में लिखा है-"बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं वर्षसहस्रं प्रतिपदोक्तानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच"।
वोपदेव ने भी आठ प्रकार के वैयाकरणों की चर्चा करते हुए सर्व प्रथम इन्द्र का ही नाम लिया है-
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशिली शाकटायनः।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा: जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः।। वोपदेवः ।
विनय विजय और लक्ष्मी बल्लभादि १८ वीं शती के जैन विद्वानों ने भगवान् महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त होने से इनका नाम जैनेन्द्र रखा। डा० कीलहान ने भी कल्प सूत्र की समय सुन्दर कृत टीका और लक्ष्मी बल्लभ कृत उपदेश-माला-कर्णिका के आधार पर इसे महावीर-प्रोक्त स्वीकार किया है। हरिभद्र ने आवश्यकीय सूत्रवृत्ति में और हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में महावीर द्वारा इन्द्र के लिए प्रोक्त व्याकरण का नाम ऐन्द्र है इस तरह लिखा है। युधिष्ठिर मीमांसक ने माना है कि ये सब लेख जैनेन्द्र में वर्तमान ‘इन्द्र' पद की भ्रान्ति से प्रसूत हैं। जैनेन्द्र का अर्थ है--'जिनेन्द्रेण प्रोक्तम्' अर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रोक्त। जैनेन्द्र व्याकरण देवनन्दी-प्रोक्त है, यह पूर्वरूपेण प्रमाणित है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनन्दी का एक नाम जिनेन्द्र भी था।
इस व्याकरण के कर्ता देवनन्दि दिगंबर-सम्प्रदाय के आचार्य थे। उनके पूज्यपाद और जिनेन्द्रबुद्धि ये दो और नाम भी प्रचलित थे। 'देव' इस प्रकार संक्षिप्त नाम से भी लोग उन्हें पहिचानते थे। उन्होंने बहुत से ग्रन्थों की रचना की है । लक्षणशास्त्र में देवनंदि उत्तम ग्रंथकार माने गये हैं। इनका समय विक्रम की छठी शताब्दी है ।
यशः कीर्तिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः ।
श्रीपूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकरः ॥ नन्दीसंघपट्टावली ।
बोपदेव ने जिन आठ प्राचीन वैयाकरणों का उल्लेख किया है उनमें जैनेन्द्र भी एक हैं । ये देवनन्दि या पूज्यपाद विक्रम की छठी शताब्दी में विद्यमान थे ऐसा विद्वानों का मंतव्य है। जहाँ तक मालूम हुआ है, जैनाचार्य द्वारा रचे गये मौलिक व्याकरणों में 'जैनेन्द्र-व्याकरण' सर्वप्रथम है ।
एक जिनेन्द्रबुद्धि नाम के बोधिसत्वदेशीयाचार्य या बौद्ध साधु विक्रम की वीं शताब्दी में हुए थे, जिन्होंने 'पाणिनीय व्याकरण' की 'काशिकावृत्ति' पर एक न्यासग्रन्थ की रचना की थी, जो 'जिनेन्द्रबुद्धि-न्यास' के नाम से प्रसिद्ध है। लेकिन ये जिनेन्द्रबुद्धि उनसे भिन्न हैं। यह तो पूज्यपाद का नामान्तर है, जिनके विषय में इस प्रकार उल्लेख मिलता है : 'जिनवद् बभूव यदनगचापहृत् स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधु वर्णितः ।' -श्रवण बेलगोल के सं०१०८ (२८५) का मंगराजकवि (सं० १५०० ) कृत शिलालेख, श्लोक १६.
'प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्'
इस व्याकरण में पाँच अध्याय होने से इसे 'पञ्चाध्यायी' भी कहते हैं। इसमें प्रकरण-विभाग नहीं है। पाणिनि की तरह विधानक्रम को लक्ष्य कर सूत्र-रचना की गई है। एकशेष प्रकरण-रहित याने अनेकशेष रचना इस व्याकरण की अपनी विशेषता है। संज्ञाएँ अल्पाक्षरी हैं और 'पाणिनीय व्याकरण' के आधारपर यह ग्रन्थ है परन्तु अर्थगौरव बढ़ जाने से यह व्याकरण क्लिष्ट बन गया है। यह लौकिक व्याकरण है, इसमें छांदस प्रयोगों को भी लौकिक मानकर सिद्ध किये गये हैं।
देवनंदि ने इसमें श्रीदत्त', यशोभद्र भूतबलि प्रभाचन्द्र', सिद्धसेन और समंतभद्र-इन प्राचीन जैनाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है। परन्तु इन आचार्यों का कोई भी व्याकरण-ग्रंथ अद्यापि प्राप्त नहीं हुआ है, न कहीं इनके वैयाकरण होने का उल्लेख ही मिलता है।
जैनेन्द्रव्याकरण' के दो तरह के सूत्रपाठ मिलते हैं। एक प्राचीन है, जिसमें ३००० सूत्र हैं, दूसरा संशोधित पाठ है, जिसमें ३७०० सूत्र हैं। इनमें भी सब सूत्र समान नहीं हैं और संज्ञाओं में भी भिन्नता है। ऐसा होने पर भी बहुत अंश में समानता है। दोनों सूत्रपाठों पर भिन्न-भिन्न टीकाग्रन्थ हैं, उनका परिचय अलग दिया गया है।
पं० कल्याणविजयजी गणि इस व्याकरण की आलोचना करते हुए इस प्रकार लिखते हैं : "जैनेन्द्रव्याकरण आचार्य देवनन्दि की कृति मानी जाती है, परंतु इसमें जिन-जिन आचार्यों के मत का उल्लेख किया गया है, उनमें एक भी व्याकरणकार होने का प्रमाण नहीं मिलता। हमें तो ज्ञात होता है कि पिछले किन्हीं दिगम्बर जैन विद्वानों ने पाणिनीय अष्टाध्यायी सूत्रों को अस्त-व्यस्त कर यह कृत्रिम व्याकरण बनाकर देवनन्दि के नाम पर चढ़ा दिया है।"
१. 'गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् ॥ १. ४.३४ ॥ २. 'कृवृषिमुजां यशोभद्रस्य' । २. १. ९९ ॥ ३. 'राद् भूतबले' ॥ ३. ४. ८३ ॥ ४. 'रात्रैः कृतिप्रभाचन्द्रस्य' ॥ ४. ३. १८० ॥ ५. 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य ॥ ५.१.७ ॥ ६. 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' ॥ ५. ४. १४० ॥ ७. 'प्रबन्ध-पारिजात' पृ०२१४.
देवनन्दि या पूज्यपाद ने अपने 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर स्वोपज्ञ न्यास और 'पाणिनीय व्याकरण' पर 'शब्दावतार' न्यास की रचना की है, ऐसा शिमोगा जिला के नगर तहसील के ४६ वे शिलालेख से ज्ञात होता है । इस शिलालेख में इन दोनों न्यास-ग्रन्थों के उल्लेख का पद्यांश इस प्रकार है :
'न्यासं 'जैनेन्द्र'संज्ञं सकलबुधनतं पाणिनीयस्य भूयो, न्यासं 'शब्दावतारं' मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ।'
श्रुतकीर्ति ने 'जैनेन्द्रव्याकरण' की 'पंचवस्तु' नामक टीका में 'भाष्योऽथ शय्यातलम्'–व्याकरणरूप महल में भाष्य शय्यातल है—ऐसा उल्लेख किया है। इसके आधार पर 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर 'स्वोपज्ञ भाष्य' होने का भी अनुमान किया जाता है लेकिन यह भाष्य या उपर्युक्त दोनों न्यासों में से कोई भी न्यास प्राप्त नहीं हुआ है।
अभयनंदि नामक दिगम्बर जैन मुनि ने देवनन्दि के असली सूत्रपाठ पर १२००० श्लोक-परिमाण टीका रची है, जो उपलब्ध टोकाओं में सबसे प्राचीन है । इनका समय विक्रम की ८-९वीं शताब्दी है।
पंचवस्तु' टीका के कर्ता श्रुतकीर्ति ने इस वृत्ति को 'जैनेन्द्रव्याकरण' रूप महल के किवाड़ की उपमा दी है। वास्तव में इस वृत्ति के आधार पर दूसरी टीकाओं का निर्माण हुआ है। यह वृत्ति व्याकरणसूत्रों के अर्थ को विशद शैली में स्फुट करने में उपयोगी बन पाई है।
जैनेन्द्र व्याकरण के सम्प्रति दो संस्करण उपलब्ध हैं। एक-औदीच्य दूसरा दाक्षिणात्य। औदीच्य संस्करण में लगभग ३००० सूत्र हैं और दाक्षिणात्य संस्करण में ३७०० सूत्र उपलब्ध होते हैं।
अभयनन्दि ने अपनी गुरु-परंपरा या ग्रंथ-रचना का समय नहीं दिया है तथापि वे ८-९ वीं शताब्दी में हुए हैं ऐसा माना जाता है। डॉ० बेल्वेलकर ने अभयनंदि का समय सन् ७५० बताया है। परन्तु यह ठीक नहीं है। अभयनंदि के अन्य ग्रन्थों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
शब्दाम्भोजभास्करन्यास :
शब्दाम्भोजभास्करन्यास :
दिगंबराचार्य प्रभाचंद्र (वि० ११ वीं शती) ने 'जैनेन्द्रव्याकरण' पर 'शब्दाम्भोजभास्कर' नाम से न्यास-ग्रन्थ की रचना लगभग १६००० श्लोक-परिमाण वाला है।
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