मेघदूतम् के लेखक महाकवि कालिदास हैं। यह एक खंडकाव्य है। यह पूर्व एवं उत्तर मेघ के रूप में दो भागों में विभाजित है। पूर्वमेघ में 63 श्लोक तथा उत्तरमेघ में 52 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या में अन्तर देखने को मिलता है। इसमें लगभग 15 प्रक्षिप्त श्लोक प्राप्त होते हैं। कवि ने इसमें “मंदाक्रांता" छन्द का प्रयोग किया है।
इस संदेश-काव्य में एक विरही यक्ष द्वारा अपनी प्रिया के पास मेघ (बादल) से संदेश प्रेषित किया गया है। वियोग-विधुरा कांता के पास मेघद्वारा प्रेम-संदेश भेजना कवि की मौलिक कल्पना का परिचायक है। इसमें गीति काव्य व खंडकाव्य दोनों के ही तत्त्व हैं। अतः विद्वानों ने इसे गीति प्रधान खंडकाव्य कहा है। इसमें विरही यक्ष की व्यक्तिगत सुख-दुःख की भावनाओं का प्राधान्य है, एवं खंडकाव्य के लिये अपेक्षित कथावस्तु की अल्पता दिखाई पड़ती है।
"मेघदूत" की कथावस्तु इस प्रकार है-
धनपति कुबेर ने अपने एक यक्ष सेवक को,
कर्तव्य-च्युत होने के कारण एक वर्ष के लिये अपनी अलकापुरी से
निर्वासित कर दिया है। कुबेर द्वारा अभिशप्त होकर वह अपनी नवपरिणीता वधू से दूर हो
जाता है, और भारत के मध्य विभाग में अवस्थित रामगिरि नामक
पर्वत के पास जाकर निवास करता है। वह स्थान जनकतनया के स्नान से पावन तथा
वृक्षछाया से स्निग्ध है। वहां वह निर्वासनकाल के दुर्दिनों को वेदना-जर्जरित होकर
गिनने लगता है। आठ मास व्यतीत हो जाने पर वर्षाऋतु के आगमन से उसके प्रेमकातर हृदय
में उसकी प्राण-प्रिया की स्मृति हरी हो उठती है, और वह मेघ
के द्वारा अपनी कांता के पास प्रणय-संदेश भिजवाता है।
यह कथा बीज " 'आषाढ कृष्ण एकादशी (योगिनी) माहात्म्य कथा" से मिलता जुलता है। उसमें नव विवाहित यक्ष हेममाली अपनी नववधू विशालाक्षी से रममाण रहकर मानस सरोवर से कुबेर के लिये कमल फूल न लाने की भूल करता है। उसे कुबेर द्वारा दण्ड मिलता है- एक वर्ष तक प्रिया का विरह तथा श्वेतकुष्ठ । हिमालय में विचरण करते हुए उसे मार्कण्डेय ऋषि से उपदेश तथा शाप-निवारण मिलता है। इस कथा में काव्य की उपयुक्तता से उचित हेर फेर महाकवि कालिदास ने किये हैं। प्रिया के वियोग में रोते-रोते काव्य नायक का शरीर कृश होने के कारण उसके हाथ का कंकण गिर पड़ता है। आषाढ के प्रथम दिवस को रामगिरि की चोटी पर मेघ को देख कर उसकी अंतर्वेदना उद्वेलित हो उठती है और वह मेघ से संदेश भेजने को उद्यत हो जाता है। वह कुटज-पुष्प के द्वारा मेघ को अर्ध्य देकर उसका स्वागत करता है, तथा उसकी प्रशंसा करते हुए उसे इन्द्र का "प्रकृति-पुरुष" एवं "कामरूप" कहता है। इसी प्रसंग में कवि ने रामगिरि से लेकर अलकापुरी तक के भूभाग का अत्यंत काव्यमय भौगोलिक चित्र उपस्थित किया है। इस अवसर पर कवि मार्गवर्ती पर्वतों, सरिताओं एवं उज्ययिनी जैसी प्रसिद्ध नगरियों का भी सरस वर्णन करता है। इसी वर्णन में पूर्व मेघ की समाप्ति हो जाती है। पूर्वमेघ में महाकवि कालिदास ने भारत की प्राकृतिक छटा का अभिराम वर्णन कर बाह्य प्रकृति के सौंदर्य एवं कमनीयता का मनोरम वाङ्मय चित्र निर्माण किया है।
उत्तरमेघ में अलका नगरी का वर्णन, यक्ष के
भवन एवं उसकी विरह-व्याकुल प्रिया का चित्र खींचा गया है। तत्पश्चात् कवि ने यक्ष
के संदेश का विवेचन किया है जिसमें मानव-हृदय के कोमल भाव अत्यंत हृदयद्रावक एवं
प्रेमिल संवेदना से पूर्ण हैं। 'मेघदूत" की प्रेरणा,
कालिदास ने वाल्मीकि रामायण से ग्रहण की है। उन्हें वियोगी यक्ष की
व्यथा में सीता हरण के दुःख से दुःखित राम की पीडा का स्मरण हो आया है। कवि ने
स्वयं मेघ की तुलना हनुमान् से तथा यक्ष-पत्नी की समता सीता से की है । (उत्तरमेघ 37) । इसकी प्रशंसा आचार्य क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "सुवृत्ततिलक"
में की है। मल्लिनाथ की टीका के साथ "मेघदूत" का प्रकाशन 1849 ई. में बनारस से हुआ और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 1869 ई. में कलकत्ता से स्वसंपादित संस्करण प्रकाशित किया। इसके आधुनिक
टीकाकारों में चरित्रवर्धनाचार्य एवं हरिदास सिद्धांतवागीश अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।
इन टीकाओं के नाम हैं- “चारित्र्यवर्धिनी” व "चंचला"।
मेघदूत के टीकाकार- ले.- (1) कविचन्द्र, (2) लक्ष्मीनिवास,(3) चरित्र्यवर्धन, (4) क्षेमहंसगणी, (5) कविरत्न, (6) कृष्णदास, (7) कृष्णदास, (8 जनार्दन, (9) जनैन्द्र, (10) भरतसेन, (11) भगीरथ मिश्र, (12) कल्याणमल्ल, (13) महिमसिंहगणि, (14) राम उपाध्याय, (15) रामनाथ, (16) वल्लभदेव, (17) वाचस्पति- हरगोविन्द, (18) विश्वनाथ, (19) विश्वनाथ मिश्र, (20) शाश्वत, (21) सनातनशर्मा, (22) सरस्वतीतीर्थ, (23) सुमतिविजय, (24) हरिदास सिद्धान्तवागीश, (25) मेघराज, (26) पूर्णसरस्वती, (27) मल्लीनाथ, (28) रामनाथ, (29) कमलाकर, (30) स्थिरदेव, (31) गुरुनाथ, काव्यतीर्थ, (32) लाला मोहन, (33) हरिपाद चट्टोपाध्याय, (34) जीवानन्द, (35) श्रीवत्स व्यास, (36) दिवाकर, (37) असद, (38) रविकर, (39) मोतिजित्कवि, (40) कनककीर्ति, (41) विजयसूरि (42) ओड़िशा निवासी नरहरि उपाध्याय कृत ब्रह्म प्रकाशिका टीका तथा कुछ अज्ञात टीकाकार।
मेघदूतम् के आधार पर अनेक दूतकाव्य लिखे गये। इन काव्यों में प्लबंग, हंस, मानस, चेतस्,
मनस्, चन्द्र, कोकिल,
तुलसी, पवन, मारुत,
आदि संदेश वाहक बने। कहीं केवल अनुकरण, कहीं
कथावस्तु में वृद्धि, कहीं धार्मिक रूप देकर अपने गुरु को
संदेश (विशेषतः जैन कवि) तो कहीं बिडम्बनात्मक रचना, जैसे
काकदूतम्, मुद्गरदूतम् आदि।
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