प्रौढमनोरमा

 पाणिनि व्याकरण को दो प्रकार से अध्ययन किया जाता है।

१.अष्टाध्यायी क्रम - इसे प्राचीन व्याकरण कहते हैं।

२. सिद्धांतकौमुदी क्रम - इसे नव्य व्याकरण कहा जाता है । दोनों पद्धति में अष्टाध्यायी के सूत्रों को ही पढ़ा जाता है। बस सूत्रों को पढ़ने का क्रम बदल जाता है।

प्रयोगसिद्धि की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए (कार्यकाल पक्ष को अङ्गीकार कर) अनेक आचार्यों ने नवीन दृष्टिकोण से ग्रन्थों की रचना की।  इस नवीन दृष्टि तथा क्रम को नव्य व्याकरण कहा जाता है। प्रयोग सिद्धि की दृष्टि से जब जिस सूत्र की आवश्यकता हुई उसके अनुसार सूत्रों के स्थापन से यह परिवर्तन  सरल प्रतीत हुआ तथा परिवर्तनानुकूल सूत्रों की वृत्तियों में भी नवीनता लाई गयी। इस परिवर्तन के प्रवर्तकों में रामचन्द्राचार्य, शेष श्रीकृष्ण, भट्टोजीदीक्षित, नागेश आदि उल्लेखनीय हैं।

भट्टोजीदीक्षित ने अष्टाध्यायी के समान लौकिक और वैदिक शब्दों की सिद्धि तथा वार्तिकों एवं प्राचीन वैयाकरणों के सिद्धान्तों का यथास्थान समावेश कर सिद्धांतकौमुदी ग्रन्थ की रचना की । तत्पश्चात् इस सिद्धांतकौमुदी पर प्रौढमनोरमा की व्याख्या लिखी।

मैं बाल्यकाल में अष्टाध्यायी पढ़ा तत्पश्चात् नव्य व्याकरण को। आज मेरे सम्मुख भट्टोजिदीक्षित कृत सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या प्रौढमनोरमा उपस्थित है। यह नव्य व्याकरण की पुस्तक है।

इस लेख में मैं आपको प्रौढमनोरमा पुस्तक तथा उसपर की गयी टीका की जानकारी दे रहा हूं।

इस ग्रन्थ पर उनके पौत्र हरिदीक्षितने वृहच्छब्दरत्न तथा लघुशब्दरत्न दो व्याख्याएँ लिखी हैं। यह व्याख्या विषम स्थलों पर भाष्योक्त निर्णय को प्रकाशित करती है। लघुशब्दरत्न पर भी टीकाएँ रची गयीं। इसके अतिरिक्त सिद्धान्त कौमुदी की २४ टीकाएँ ज्ञात हैं।

पायगुण्डोपाह्व वैद्यनाथ कृत सशब्दरत्न प्रौढ़मनोरमा की व्याख्या भावप्रकाशका रचना काल प्रायः १७५० वैक्रमाब्द है, व्याख्याकार महामहोपाध्याय नागेश भट्ट के शिष्य है। भावप्रकाश व्याख्या कारक प्रकरणान्त ही उपलब्ध है।

भैरवमिश्र कृत सशब्दरत्न प्रौढ़मनोरमा की व्याख्या रत्नप्रकाशिका” (कारकान्त) है। इसका रचना काल प्रायः १८७५ वैक्रमाब्द है। रत्नप्रकाशिका को "भैरवी" भी कहा जाता है।

 काशीनाथ के शिष्य भागवतोपनामक हरिशास्त्रिकृत शब्दरत्न व्याख्या चित्रप्रभा (कारक पर्यन्त) है।

सभापतिशर्मोपाध्यायकृत रत्नप्रभाटीका (अव्ययीभावान्त) का रचनाकाल २००० वैक्रमाब्द है।

महामहोपाध्याय माधव शास्त्री भाण्डारी की प्रभानाम्नी टिप्पणी (अव्ययीभावान्त) है।

महामहोपाध्याय जगन्नाथ शास्त्रीकृत रत्नदीपकटिप्पणी (अव्ययीभावान्त) है।

 जगन्नाथ शास्त्रीकृत सशब्दरत्न प्रौढ़मनोरमा व्याख्या ज्योत्सनाभी उपलब्ध है।

 पं. सदाशिव शास्त्रीकृत विभाटिप्पणी (अव्ययीभावान्त) प्रकाशित है।

प्रौढ़मनोरमा के खण्डन में रसगङ्गाधरकार पण्डितराज जगन्नाथ कृत कुचमर्दिनीव्याख्या पञ्चसन्ध्यन्त मिलती है।

महामहोपाध्याय नित्यानन्द पन्त पर्वतीय के शिष्य श्री गोपालशास्त्रि नेने ने  प्रौढ़मनोरमा के "लघुशब्दरत्न" (अव्ययी भावान्त) पर सरला नामक टिप्पणी लिखा। इसका रचना काल १९९९ वैक्रमाब्द के लगभग है।

 ‘प्रौढ़मनोरमाएक व्याख्या ग्रन्थ है, जिसपर अनेक टीका ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।

मेरा सौभाग्य रहा है कि अपने छात्र जीवन में मैंने गुरुमुख से भैरवी सहित अनेक टीकाओं का अध्ययन श्रवण किया था। यह नव्य व्याकरण के कठितम टीकाओं में से एक है।

ध्यात्वा देवं परं ब्रह्म जानकीपतिमव्ययम् ।

विदुषां प्रीतिदां लध्वीमृज्वीं रत्नप्रकाशिकाम् ॥ १ ॥

नत्वा तातं जगद्वन्द्यं भवदेवाभिधं गुरुम् ।

सीताख्यां जननीं कुर्वे भैरवोऽगस्त्यसम्भवः ॥
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