यह अंश महाभारत के अनुशासन पर्व के 11वें अध्याय से लिया गया है। यहाँ पर भीष्म तथा युधिष्ठिर का संवाद चल रहा है। युधिष्ठिर भीष्म से पूछते हैं कि किस प्रकार के पुरुष तथा किस प्रकार की स्त्री में लक्ष्मी निवास करती है? युधिष्ठिर द्वारा पूछे जाने पर भीष्म श्री तथा रुक्मिणी के संवाद को कहते हैं। श्रीकृष्ण की गोद में बैठी हुई लक्ष्मी से रुक्मिणी- कानीह भूतान्युपसेवसे त्वं इत्यादि प्रकार का अनेक प्रश्न पूछती है, जिसके उत्तर में वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने इत्यादि उत्तर देती है। सम्पूर्ण सम्वाद अधोलिखित है-
युधिष्ठिर
उवाच।
कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु
भरतर्षभ।
श्रीः पद्मा वसते नित्यं तन्मे
ब्रूहि पितामह।। 1।।
युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा- हे तात
! भरतश्रेष्ठ ! किस तरह के पुरुष में और किस तरह की स्त्रियों में नित्य लक्ष्मी
निवास करती है ? यह आप मुझे बोलें।
भीष्म
उवाच।
अत्र ते वर्णयिष्यामि यथावृत्तं
यथाश्रुतम्।
रुक्मिणी देवकीपुत्रसन्निधौ
पर्यपृच्छत।।2।।
भीष्म ने कहा- यहाँ मैं तुम्हें एक
यथार्थ वृत्तान्त को मैंने जैसा सुना है वैसा सुनाऊँगा। यह वृत्तान्त देवकी
के पुत्र श्रीकृष्ण के समीप रुक्मिणी देवी ने (लक्ष्मीसे) पूछा था।
दृष्ट्वा
श्रियं पद्मसमानवक्त्राम्।
कौतूहलाद्विस्मितचारुनेत्रा
पप्रच्छ
माता मकरध्वजस्य।। 3 ।।
भगवान् नारायण के अङ्कमें बैठी हुई कमलके समान कान्तिवाली लक्ष्मी को अपनी प्रभासे प्रकाशित होती देख जिनके मनोहर नेत्र आश्चर्य से खिल उठे थे, उन प्रद्युम्न जननी रुक्मिणीदेवी ने कौतूहलवश लक्ष्मी से पूछा-
सन्तिष्ठसे
कानि च सेवसे त्वम्।
तानि त्रिलोकेश्वरभूतकान्ते
तत्त्वेन
मे ब्रूहि महर्षिकल्पे।।4।।
त्रिलोकीनाथ भगवान् नारायण- की
प्रियतमे ! देवि ! तुम इस जगत् में किन प्राणियोंपर कृपा करके उनके यहाँ रहती हो ?
कहाँ निवास करती हो और किन-किन का सेवन करती हो ? उन सबको मुझे यथार्थ रूप से बताओ ॥
एवं तदा श्रीराभिभाष्यमाणा
देव्या
समक्षं गरुडध्वजस्य।
उवाच वाक्यं मधुराभिधानं
मनोहरं
चन्द्रमुखी प्रसन्ना।।5।।
रुक्मिणी के इस प्रकार पूछने पर
चन्द्रमुखी लक्ष्मीदेवी ने प्रसन्न होकर भगवान् गरुडध्वज के सामने ही मीठी वाणी में
यह वचन कहा ।।
श्रीरुवाच।
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे
दक्षे नरे
कर्मणि वर्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे
जितेन्द्रिये
नित्यमुदीर्णसत्वे।।6।।
लक्ष्मी बोलीं- सुभगे ! मैं
प्रतिदिन ऐसे पुरुष में निवास करती हूँ, जो
कार्यकुशल, कर्म में लगा हुआ, क्रोधरहित,
देवाराधन तत्पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्वगुण से युक्त हो ॥
न नास्तिके
साङ्करिके कृतघ्ने।
न भिन्नवृत्ते न नृशंसवृत्ते
न चाविनीते
न गुरुष्वसूये।।7।।
जो पुरुष अकर्मण्य,
नास्तिक, वर्णसङ्कर, कृतघ्न, निर्धारित वृत्ति से अलग कार्य करने वाला , क्रूर,
चोर, अशिष्ट तथा गुरुजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूँ ॥
ये चाल्पतेजोबलसत्त्वमानाः
क्लिश्यन्ति
कुप्यन्ति च यत्र तत्र।
न चैव तिष्ठामि तथाविधेषु
नरेषु
सङ्गुप्तमनोरथेषु।।8।।
जिनमें तेज,
बल, सख और गौरवकी मात्रा बहुत थोड़ी है,
जो जहाँ-तहाँ हर बात में खिन्न हो उठते हैं, जो
मन में दूसरा भाव रखते हैं और ऊपरसे कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे
मनुष्योंमें मैं निवास नहीं करती हूँ ॥
यश्चात्मनि प्रार्थयते न किञ्चि-
द्यश्च
स्वभावोपहतान्तरात्मा।
यश्च स्वभावोपहतान्तरात्मा।
नरेषु नाहं
निवसामि सम्यक्।।9।।
जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता,
जिसका अन्तःकरण मूढ़ता से आच्छन्न है, जो अपने
स्वभाव से अंतरात्मा का विनाश कर लिया हो, ऐसे मनुष्योंमें
मैं भलीभाँति निवास नहीं करती हूँ ॥
स्वधर्मशीलेषु च धर्मवित्सु
वृद्धोपसेवानिरते
च दान्ते।
कृतात्मनि क्षान्तिपरे समर्थे
क्षान्तासु
दान्तासु तथाऽबलासु।।10।।
जो अपने धर्म पालन का स्वभाव हो,
धर्मज्ञ, बड़े-बूढ़ों की सेवामें तत्पर,
जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले, क्षमाशील और सामर्थ्यशाली हैं, ऐसे पुरुषोंमें तथा
क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूँ।
सत्यस्वभावार्जवसंयुतासु
वसामि देवद्विजातिपूजिकासु
।
प्रकीर्णभाण्डामनपेक्ष्यकारिणीं
सदा च
भर्तुः प्रतिकूलवादिनीम्।।11।।
जो स्त्रियाँ स्वभावतः सत्यवादिनी
तथा सरलता से संयुक्त है, जो देवताओं और
द्विज की पूजा करनेवाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूँ ।
जो घरके बर्तनोंको सुव्यवस्थित
रूपसे न रखकर इधर- बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर
काम नहीं करती हैं, सदा अपने पतिके प्रतिकूल ही बोलती हैं-
परस्य वेश्माभिरतामलज्जा-
मेवंविधां
तां परिवर्जयामि।
पापामचोक्षामवलेहिनीं च
व्यपेतधैर्यो
कलहप्रियां च।। 12।।
दूसरोंके घरोंमें घूमने-फिरनेमें
आसक्त रहती हैं और लज्जाको सर्वथा छोड़ बैठती हैं, निर्दयी, अपवित्र, अवहेलना करने वाली, धैर्य को खोने वाली, कलह करने वाली
को मैं त्याग देती हैं ॥
निद्राभिभूतां सततं शयाना-
मेवंविधां तां
परिवर्जयामि।
सत्यासु नित्यं प्रियदर्शनासु
सौभाग्ययुक्तासु
गुणान्वितासु।।13।।
जो स्त्री हमेशा नींद में बेसुध
होकर सदा सोती रहती है, ऐसी नारी से मैं
सदा दूर ही रहती हूँ ॥
जो स्त्रियाँ सत्य बोलने वाली, देखने में प्रिय होती हैं, जो सौभाग्यशालिनी, सद्गुणवती, होती है, ऐसी स्त्रियों में मैं सदा निवास करती हूँ ॥
वसामि नारीषु पतिव्रतासु
कल्याणशीलासु
विभूषितासु।
यानेषु कन्यासु विभूषणेषु
यज्ञेषु
मेघेषु च वृष्टिमत्सु।।14।।
पतिव्रता एवं कल्याणमय व्यवहार में
लगी हुई, वस्त्र आभूषणों से विभूषित रहने वाली, सुन्दर
सवारियों में, रमणीयों में, आभूषणों
में, यज्ञों में, वर्षा करने वाले
मेघों में मैं सदा निवास करती हूँ।।
वसामि फुल्लासु च पद्मिनीषु
नक्षत्रवीथीषु
च शारदीषु।
गजेषु गोष्ठेषु तथाऽऽसनेषु
सरःसु
फुल्लोत्पलपङ्कजेषु।।15।।
मैं खिले हुए कमलों में,
शरद् ऋतु की नक्षत्र-मालाओं में, हाथियों और
शालाओं में, सुन्दर आसनों में तथा खिले हुए उत्पल और कमलों से
सुशोभित सरोवरों में निवास करती हूँ ॥
नदीषु हंसस्वननादितासु
क्रौञ्चावघुष्टस्वरशोभितासु।
विकीर्णकूलद्रुमराजितासु
तपस्विसिद्धद्विजसेवितासु।।16।।
नदियों में, हँस की मधुर ध्वनियों
में, कुररी (पक्षी) के कलरव से शोभित स्थलों में, जो अपने तटों पर फैले हुए वृक्षों की श्रेणियों से शोभायमान हैं, तपस्वी, सिद्ध और ब्राह्मण सेवित स्थलों में मैं
निवास करती हूँ।
वसामि नित्यं सुबहूदकासु
सिंहैर्गजैश्चाकुलितोदकासु।
मत्ते गजे गोवृषभे नरेन्द्रे
सिंहासने
सत्पुरुषेषु नित्यम्।।17।।
बहुत जल से भरे स्थलों में तथा सिंह
और हाथी जिनके जल में अवगाहन करते रहते हैं, मतवाले
हाथी, साँड़, राजा, सिंहासन और सत्पुरुषों में मेरा नित्य-निवास है।
यस्मिन् जनो हव्यभुजं जुहोति
गोब्राह्मणं
चार्चति देवताश्च
काले च पुष्पैर्बलयः क्रियन्ते
तस्मिन्गृहे
नित्यमुपैमि वासम्।।18।।
जिस घर में लोग अग्नि में आहुति
देते हैं,
गौ, ब्राह्मण तथा देवताओं की पूजा करते हैं और
समय- समय पर जहाँ फूलों से देवताओं को उपहार समर्पित किये जाते है, उस घरमें मैं नित्य निवास करती हूँ ॥
स्वाध्यायनित्येषु सदा द्विजेषु
क्षत्रे च
धर्माभिरते सदैव।
वैश्ये च कृष्याभिरते वसामि
शूद्रे च शुश्रूषणनित्ययुक्ते।।19।।
नित्य स्वाध्याय में तत्पर रहनेवाले
ब्राह्मणों, स्वधर्म परायण क्षत्रियों,
कृषि कर्ममें लगे हुए वैश्यों तथा नित्य सेवा परायण शूद्रों के यहाँ
भी मैं सदा निवास करती हूँ ॥
नारायणे त्वेकमना वसामि
सर्वेण
भावेन शरीरभूता।
तस्मिन् हि धर्मः सुमहान्निविष्टो
ब्रह्मण्यता
चात्र तथा प्रियत्वम्।।20।।
सभी भावों (आदरों) से नारायण में
आत्मा तथा शरीर के रूप में एकचित्त हो गये हों, उनमें महान् धर्म संनिहित है। उनका
ब्राह्मणों के प्रति प्रेम है और उनमें स्वयं सर्वप्रिय होने का गुण भी है ॥ २० ॥
नाहं शरीरेण वसामि देवि
नैवं मया
शक्यमिहाभिधातुम्।
भावेन यस्मिन्निवसामि पुंसि
स वर्धते
धर्मयशोर्थकामैः।।21।।
हे देवि ! मैं शरीर से निवास नहीं करती
यहाँ ऐसा नहीं कह सकती। जिस पुरुष में मैं भाव से निवास करती हूँ वह धर्म, यश तथा काम
के सम्पन्न होकर सदा बढ़ता रहता है।
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि श्रीरुक्मिणीसंवादे एकादशोऽध्यायः।। 11 ।।
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