पठनात् पाठनाच्चैव प्रचाराद् व्यवहारतः ।
रक्षिष्यामि प्रयत्नेन
स्वीयं सारस्वतं निधिम् ॥ १ ॥
पठन,
पाठन, प्रचार तथा व्यवहार इन उपायों से
में प्रयत्न पूर्वक अपनी सारस्वत निधि की रक्षा करूंगा ।। १ ।।
मनूपदिष्ट-मार्गेण विद्या
चारित्र-संयुतः ।
चरित्रं शिक्षयिष्यामि
पृथिव्यां सर्वमानवान् ॥ २ ॥
विद्या
और चरित्र से युक्त होकर मैं मनु के उपदेशानुसार पृथिवी के समस्त मानवों को चरित्र
की शिक्षा दूँगा ॥ २ ॥
हिताय सर्वजगतो भारतीयार्य-संस्कृतिम्
।
पुनः प्रचारयिष्यामि
समस्ते पृथिवातले ॥ ३ ॥
समस्त
जगत् के कल्याण के लिये मैं सम्पूर्ण पृथिवी मंडल पर भारतीय आर्य-संस्कृति का पुनः
प्रचार करूंगा ॥ ३ ॥
सर्वान् सामाजिकान्
दोषान् कुरीतीरखिलास्तथा ।
नाशयित्वा करिष्यामि
समाजं च समुज्ज्वलम् ॥ ४ ॥
समाज
में प्रचलित समस्त दोषों तथा सभी कुरीतियों को नष्टकर में समाज को सब प्रकार से
निर्दोष तथा निर्मल बनाऊँगा ॥ ४ ॥
सर्वं प्राच्यं तथा नव्यं
ज्ञानं विज्ञानमेव च ।
ज्ञात्वा सम्यग्
गुणैस्तेषां साधयिष्ये जगद्धितम् ॥ ५ ॥
समस्त
प्राचीन तथा नवीन ज्ञान-विज्ञान का समुचित रूप से अध्ययन कर उनके गुणों और उनकी
निर्दोष कल्याणकारी मन्यताओं से जगत् का हितसाधन करूंगा ॥ ५ ॥
ज्ञानं सत्यं सदाचारं
स्नेहं न्यायं च सर्वतः ।
स्थापयित्वा करिष्यामि
सुखशान्तिमयं जगत् ॥ ६ ॥
ज्ञान, सत्य, सदाचार,
स्नेह तथा न्याय का सर्वत्र स्थापन एवं प्रचार कर जगत को सुख और
शांतिमय बनाऊंगा ॥ ६ ॥
आत्मज्ञानेन विज्ञानं
सदाचारेण शिक्षणम् ।
बुद्धया धर्मं च संयोज्य
करिष्ये विश्वमङ्गलम् ॥ ७ ॥
आत्मज्ञान
से विज्ञान को, सदाचार से शिक्षा को तथा बुद्धि से धर्म को संयुक्तकर समस्त विश्व का
मङ्गल-साधन करूंगा ।। ७ ।।
त्यक्त्वा सङ्कीर्णतां
सर्वां सदा भूमानमास्थितः ।
उच्चलक्ष्यो विशालात्मा
वर्तिष्ये लोकसंग्रहे ॥ ८ ॥
सभी संकीर्णताओं को त्यागकर, सदा भूमा (आत्मानन्द) को हो
दृष्टि में रखते हुए उच्च लक्ष्य एवं विशाल हृदय हो कर लोकसंग्रह में संलग्न
रहूंगा ॥ ८ ॥
नेतृत्वं शासनं शस्त्रं
सेवां साहित्यमेव वा ।
गृहीत्वा
राष्ट्रसेवायाश्चरिष्ये व्रतमुत्तमम् ॥ ६ ॥
नेतृत्व, शासन, शस्त्र,
सेवा अथवा साहित्य के माध्यम से राष्ट्रसेवा के श्रेष्ठ व्रत का
पालन करता रहूँगा ॥ ९ ॥
(लेखक- पं० वासुदेव द्विवेदी शास्त्री)
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