श्रममाहात्म्यम्

 श्रममाहात्म्यम्

गोधान्य धनदानानि प्रशस्यान्यपि सर्वथा ।

शरीरश्रमदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १ ॥

शमिनो दमिनस्तद्वद्यागिनो योगिनोऽपि वा !

तेऽजस्त्रं श्रमिणः क्षेत्रे तुलां नार्हन्ति कर्हिचित् ॥ २॥

प्रश्राम्यन् पङ्किले क्षेत्रे पङ्कलिप्ततनुर्हि यः ।

स वन्द्योऽश्रमिणः साधोर्भस्माङ्किततनोरपि ॥ ३ ॥

श्रमिणो व्रणचिह्नानि क्षेत्रेऽरण्ये रणेऽथवा ।

तानि प्रवालमालाभ्यो रोचिष्मन्ति विभान्ति मे ॥ ४ ॥

स्वश्रमोपार्जितं ह्यन्नं तन्नूनं परमामृतम् ।

न तत् क्षीराब्धिसम्भूतं न वा यज्ञहुतं हविः ॥ ५ ॥

श्राम्यन्ति गृहिणो यत्र सर्वेऽपि सततं गृहे ।

स्वच्छता सुव्यवस्था च राजते तत्र देवता ॥ ६ ॥

न तद् बिभर्ति पावित्र्यं गाङ्गं वा यामुनं जलम् ।

कृषीवलस्य तप्तस्य कायोत्थं श्रमवारि यत् ॥ ७ ॥

यदाज्याहुतिभिः पुण्यं दीर्घसत्रेष्ववाप्यते ।

नूनं शतगुणं तस्मात् क्षेत्रेषु जलसिञ्चनैः ॥ ८ ॥

श्राम्यन्तः खलु यज्वानः श्राम्यन्तः खलु योगिनः ।

श्राम्यन्त एव दातारः श्रीमन्तो न कथञ्चन ॥ ९ ॥

श्रीमन्तः श्रमवन्तश्च नैव तुल्याः कदाचन ।

भान्ति रत्नोपलैरेके श्रमवारिकणैः परे ॥ १० ॥

श्रीमतां श्रमहीनानां भारात् खिन्नां वसुन्धराम् ।

प्रीणयन्ति स्वकौशल्यैः श्राम्यन्तः कारुशिल्पिनः ॥ ११ ॥

जयन्ति ते कलावन्तः सन्ततश्रमनैष्ठिकाः ।

येषामद्भुतनिर्माणैर्जगदेतदलङ्कृतम् ॥ १२ ॥

धिग् धिक् तं मांसलं देहं रूपयौवनशालिनः ।

यो न धत्ते श्रमाभावाद् गात्रस्नायुकठोरताम् ॥ १३ ॥

न मुक्तासु न हीरेषु तत्तेजः खलु राजते ।

शिल्पिनः श्रमतप्तस्य स्वेदाम्बुकणिकासु यत् ॥ १४ ॥

मांसलोऽपि हि कायोऽसौ नूनं पाषाणनिर्मितः ।

न यः परिश्रमैरेति प्रस्विन्नाखिलगात्रताम् ॥ १५ ॥

प्रियं पद्मादपीशस्य नीहारकणिकाचितात् ।

मुखं स्वेदाम्बुस‌ङ्क्लिन्नं शिल्पिनः श्रमजीविनः ॥ १६ ॥

अधनेनापि जीयन्ते श्रमिणा धनसम्पदः ।

सधनेन तु हीयन्तेऽश्रमिणा कुलसम्पदः ॥ १७ ॥

पदवाक्यमयी वाणी जिह्वयैव निगीर्यते ।

सा तु श्रममयी वाणी सर्वैरङ्गैरुदीर्यते ॥ १८ ॥

श्रमेण दुःखं यत्किञ्चित् कार्यकालेऽनुभूयते ।

कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रमोदायैव कल्पते ॥ १९ ॥

पुष्पिण्यौ श्रमिणो जङ्घे गतिर्धीरोद्धता तथा ।

व्यूढं वक्षो दृढावंसौ वपुरारोग्यमन्दिरम् ॥ २० ॥

श्राम्यतः शुभकार्येषु जागरूकतयाऽनिशम् ।

श्रमश्रान्तानि नियतं दैन्यानि खलु शेरते ॥ २१ ॥

ज्ञानभक्तिविहीनोऽपि यः श्राम्यति सुकर्मसु ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ २२ ॥

(१९७७)

श्रमयोगः

योगिनामपि सर्वेषां पूजनीयो हि सर्वथा ।

एकाकी प्रतपन् श्रेत्रे श्रमयोगी कृषीवलः ॥ १ ॥

श्रमयोगी महायोगी श्रमिको धार्मिको महान् ।

श्रमाचारी ब्रह्मचारी श्रमशीलो हि शीलवान् ॥ २ ॥

श्राम्यन्तोऽविरत लोके श्रेयांसो वृषभा हि ते ।

अलसाः किन्तु न श्लाध्याः सिंहा गह्वरशायिनः ॥ ३ ॥

ब्रह्मर्षीणां कुले जातो भूदेवो नहि तत्त्वतः ।

अकुलीनोऽपि भूदेवो यो भुवं सम्प्रसेवते ॥ ४ ॥

पूजार्हो नरदेवानां भूदेवानाञ्च सर्वथा ।

श्रमदेवो महात्माऽसौ निशि जाग्रन् दिवा तपन् ॥ ५ ॥

भूदेवानां नृदेवानां देवानां स्वर्गिणामपि ।

श्रमदेवो हि पूजार्हः प्राणिनां वृषभो यथा ॥ ६ ॥

वृषो हि भगवान् धर्मो मुनीनामपि सम्मतः ।

परिश्राम्यत्यविश्रान्तं यदसौ लोकहेतवे ॥ ७ ॥

शोचनीयो यथा लोके पतितो निर्धनो जडः ।

श्रमात् पराजितो नूनं शोचनीयतरस्ततः ॥ ८ ॥

कृशोत्साहः कृशबलः कृशकर्मा कृशश्रमः ।

स एव हि कृशो नूनं न शरीरकृशः कृशः ॥ ९ ॥

ये शास्त्रपण्डिता लोके येऽथवा शस्त्रपण्डिताः ।

श्रमिकैरेव पाल्यन्ते देवैराराधका इव ॥ १० ॥

श्रमिकं निर्धनञ्चापि भूदेवा भूभृतस्तथा ।

वणिजोऽप्युपजीवन्ति श्रमिको जीवनप्रदः ॥ ११॥

(१९७७)

लेखकः- श्रीधरभास्करवर्णेकरः

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संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग-13)

 तदेव गगनं सैव धरा

 तदेव गगनं सैव धरा

जीवनगतिरनुदिनमपरा

तदेव गगनं सैव धरा।।

पापपुण्यविधुरा धरणीयं

कर्मफलं भवतादरणीयम्।

नैतद्-वचोऽधुना रमणीयं

तथापि सदसद्-विवेचनीयम्।।

मतिरतिविकला

सीदति विफला

सकला परम्परा। तदेव....

शास्त्रगता परिभाषाऽधीता

गीतामृतकणिकापि निपीता ।

को जानीते तथापि भीता

केन हेतुना विलपति सीता ।।

सुतरां शिथिला

सहते मिथिला

परिकम्पितान्तरा । तदेव.......

 जनताकृतिः शान्तिसुखहीना

संस्कृति-दशाऽतिमलिना दीना।

केवल-निजहित-साधनलीना

राजनीतिरचना स्वाधीना ।।

न तुलसीदलं

न गङ्गाजलं

स्वदते यथा सुरा । तदेव.....

देवालयपूजा भवदीया

कथं भाविनी प्रशंसनीया।

धर्म-धारणा यदि परकीया

नैव रोचते यथा स्वकीया।।

भक्तिसाधनं

न वृन्दावनं

काशी वा मथुरा। तदेव..

 

स्पृहयति धनं स्वयं जामाता

परिणय-रीतिराविला जाता।

सुता न परिणीतेति विधाता

वृथा निन्द्यते रोदिति माता ॥

चरणवन्दनं

भीतिबन्धनं

मोहमयी मदिरा । तदेव ...

सपदि समाजदशा विपरीता

परम्परा व्यथते ननु भीता ।

अपरिचिता नूतननैतिकता

शनैः शनैः प्रतिगृहमापतिता ।।

त्यज चिरन्तनं

हृदयमन्थनं

गतिरपि नास्त्यपरा । तदेव....

 

भारतीयसंस्कृतिमञ्जूषा

प्रतिनवयुग-संस्कार-विभूषा ।

स्वर-परिवर्तन-कृताभिलाषा

सम्प्रति लोक-मनोरथभाषा ।

नवयुगोचिता

मनुज-संहिता

विलसतु रुचिरतरा । तदेव......

लेखकः – श्रीनिवास रथ

हिन्दी

वही आकाश वही धरती

गति जीवन की नित नयी बदलती, है वही आकाश वही धरती ।

पाप पुण्य का भार धरा पर कर्म के अनुरूप मिलता फल, माना, अब ये बातें नहीं सुहाती फिर भी भले बुरे का तो कुछ करना होगा कही विवेचन । चकराने लगता है माथा समूची परम्परा लगती विफल सिसकती । है वही...

शास्त्रों वाली परिभाषायें पढ़ ली, पी गये अमृत बिन्दु सम वचनों वाली गीता, फिर भी किसे पता है ? किस कारण डरी डरी रोती है सीता ?

इसीलिए बेहाल कापते अन्तर से है मिथिला सब सहती । है वही..

सुख शान्ति से है दूर जनता, केवल अपने ही हित साधन में लीन राजनीति के हर करतब को मिल गयी स्वाधीनता ।

न तुलसी दल न गंगा जल में कहीं वह स्वाद या वह भावना दिखती, कि जितनी मन भावन रसीली अब सुरा लगती । है वही..

आपके मन्दिर की, पूजा की प्रशंसा कौन करेगा ? कैसी ! अगर परायी धर्म-धारणा नयी सुहाती खुद अपनी ही पूजा जैसी ।

वृन्दावन नहीं भक्ति का साधन न काशी या मथुरा भक्ति भक्त के मन में बसती । है वही......

जमाई राज अब खुद हो कर चाहने लगा वधू से बढ़ कर धन, हुए व्याह के तौर तरीके दूषित, भाग्य को बेकार कोसती माता 

है दिन रात रोती चरण वन्दन ये डरावने बन्धन एक मदिरा है भरम भरती । है वही......

दशा समाज की फिलहाल है विपरीत दुखी है परम्परा भयभीत । हर घर आँगन में उतर रही है धीरे धीरे एक नयी नैतिकता अपरिचित । 

छोड़ो चिरन्तन हृदय-मन्थन गति भी कोई और नही दिखती । है वही...

भारतीय संस्कृति की मंजूषा सक्षम है करने में नवयुग के संस्कार अलंकृत । स्वर परिवर्तन की अभिलाषा व्यक्त कर रही सम्प्रति जन मानस की भाषा ।

सुरुचिपूर्ण अति सुन्दर नयी संहिता मनुज जाति की अब निर्मित हो नव संयोजन करती। है वही...
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क्षणिकविभ्रमः (हिन्दी अनुवाद सहित)

 


पुण्यपुरात्पञ्चक्रोषादूरस्थायां ग्रामटिकायामेकस्यां न कोऽपि प्रायेण वृत्तपत्रमपठत्। अतो भूयिष्ठा ग्रामवासिनः स्वग्रामाद्वहिर्वर्तमानस्य वृत्तस्यानभिज्ञा आसन्। परमभूदपि काचित्कुलाङ्गना स्वग्रामवृत्तमप्यजानती खलु सुनीतिनाम्नी। क्वचित्पठितत्यक्तायाः केसरीनामपत्रिकायाः केनापि प्रेषितायाः प्रतिलेखाः सुहृत्कश्चिद्रामदासाभिधस्तस्या उपकर्तुमुच्चस्वरेण पठति स्म। परं वृत्तजातमिदं व्यतीतनैकसप्ताहमनवमेवासीत् ।

पुण्यपुर (पूणे) से पाँच कोस दूर स्थित एक गाँवों में प्रायः में कोई भी अखबार नहीं पढ़ता था । इसलिए अधिकांश ग्रामीण इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके गांव के बाहर क्या हो रहा है। सुनीति नाम की एक कुलीन महिला थी जो अपने गाँव का समाचार भी नहीं जानती थी । रामदास नाम का एक मित्र, किसी के द्वारा भेजा गया केसरी नामक पत्रिका का लेख, जो पढ़कर छोड़ गई थीं, मदद के लिए जोर-जोर से पढ़ रहा था। हालाँकि, यह घटना एक सप्ताह बीतने के पहले की होती थी।

पञ्चविंशतेर्वत्सरेभ्यः प्राक् कश्चितरुणो हरिर्नाम त्रयोदशवर्षीयां शारदामिव विशारदामनसूयामिवानसूयामल्पवर्षीयामपि परिणतवयस्कामिव सुवर्णमिव सुवर्णां सुगृहीतनाम्नीं सुनीतिमिमां परिणीतवान्। अभूत्कस्याचित्पाठशालायां मुख्याध्यापको हरिः। वत्सरद्वयोत्तरं धनवैकल्यवशात्पाठशालायां पिहितायामपि स्वार्थत्यागी हरिः कथमपि विद्यालयमिमं व्ययीकृतसर्वस्वं स्वयमेव निरवाहयद्यावन्निष्फलितप्रयत्नो नैराश्यपरवशोऽनिच्छन्नपि परोपकारादस्माद् व्यरमत्। न चिराच्च धनसाधनाभावाज्जायापती दारिद्यपीडितौ क्षुधयासन्न-मरणाविव स्थितौ ।

पच्चीस साल पहले हरि नाम के कोई एक तरूण ने तेरह साल की एक लड़की सुनीति से शादी की, जो शारदा जितनी कुशल, अनसुया जैसी ईर्ष्या से रहित, अल्पावस्था में भी शादी की हूई वयस्क स्त्री के समान, सुवर्ण जैसी सुन्दर वर्ण वाली, अपने नाम के समान गुण को धारण करने वाली सुनीति से विवाह किया। वह हरि किसी स्कूल का प्रधानाध्यापक बना। धन की कमी के कारण स्कूल दो साल तक बंद रहने के बाद भी, स्वार्थ का त्याग करने वाला हरि ने किसी तरह अपना सभी खर्च कर इस स्कूल को बनाए रखा, जब तक कि व्यर्थ में, वह निराश होने के बावजूद दूसरों की भलाई करना बंद कर दिया । कुछ ही समय में, पति-पत्नी गरीबी से पीड़ित होकर भूख से शीघ्र मरने वाले हो गए।

निर्वर्तितकन्योद्वाहौ पितरौ सुनीतेः कोङ्कणावनिमण्डलवर्तिन्यां कस्याचित्पल्लिकायां कृतावासौ पत्रलेखकस्य व्यवसायमधिगमिष्यावस्त्वत्कृत आगम्यतामिहेति जामातरं सभार्यं साग्रहमामन्त्रयामासतुः। परमसिद्धिं स्वयत्नस्योरीकर्तुमनिच्छता स्वाभिमानाद्धरिणा श्वशुरस्य निमन्त्रणं निराकृतम्। योगक्षेमाय तावन्न किञ्चिदप्यवशिष्टं द्रव्यं तयोः। अतो विवाहसमये यद्रजतहेमाभरणस्वल्पजातं सुनीत्यै तेन कृतोपहारमासीत्तस्मादेकैकं कुसीदिकेषु निक्षिप्य कथमपि सभार्यस्यात्मनो जठराग्निमुपशमितवान् हरिः। उपजीविकां प्रेप्सुस्तान्नियोगपदं यदाऽभ्यार्थयत तदाऽतिक्रान्तानुरूपवयोवशातदयोग्यतावशाद्वा कार्याधिकारिभिः प्रतिवारं प्रत्याख्यातोऽभूत्।

अपनी पुत्री की शादी सम्पन्न कर चुके सुनीता के पिता और माँ,  कोंकण जिले के एक पल्ली में बस गए और अपने दामाद और पुत्री को यह कहते हुए वहाँ आने के लिए आमंत्रित किया कि वे एक पत्र लेखक का व्यवसाय करा देंगे। अपने प्रयासों से अपने कल्याण चाहने वाला अभिमान के कारण हरि ने अपने ससुर के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया । आजीविका के लिए उनके पास कुछ भी नहीं बचा, इसलिए हरि ने सुनीति को उसके विवाह के समय उपहार के रूप में दिए गए छोटे चांदी और सोने के आभूषणों में से प्रत्येक को ब्याज पर रूपये देने वाले के पास रखकर किसी तरह अपनी पत्नी के पेट की आग को बुझाया। जब उन्होंने आजीविका की तलाश में रोजगार की स्थिति के लिए आवेदन किया, तो उनकी उम्र या अयोग्यता के कारण अधिकारियों द्वारा उन्हें बार-बार अस्वीकार कर दिया गया।

अथैकदा व्यवसायान्वेषी संमन्त्रणार्थं नियोगाधिकारिभिः समाहूतो नगरान्तरं प्रति प्रतस्थे हरिः । स्वल्पदिनोत्तरं चाकाण्डमकल्पितं च धूमयानाधिकारिभ्यो मुद्राणां शतत्रयं सुनितिः प्राप्तवती । धूमयाने मृतस्य भवत्या भर्तुर्घातकस्य कञ्श्रुककोशे द्रव्यमिदमुपलब्धमस्माभिरिति तैर्विज्ञापिता तपस्विनीयं शोकाग्निनावलीढापि कुत एतावद्द्रव्यं निर्धनेन दयितेन प्राप्तमिति परमविस्मयमगात् सुनीतिः । मासान्तरे पठितत्यक्तकेसरीपत्रिकाद्वारा धूमयाने संवृत्तो व्यतिकरोऽपाठि तत्पुरो रामदासेन। अनेन दैवोपहतो हरिधूमयाने केनापि दुष्टेन निहत इति विदितमभूद्विश्वेषाम् ।

एक दिन हरि, व्यापार की तलाश में, साक्षात्कार के लिए नियोक्ताओं द्वारा बुलाए जाने पर दूसरे शहर के लिए निकल पड़े। कुछ दिनों बाद सुनीति को अप्रत्याशित रूप से रेल के अधिकारियों से तीन सौ सिक्के मिले, जिसकी कल्पना नहीं की गई थी। जब उन्होंने उसे सूचित किया कि उन्हें यह पदार्थ उसके पति के हत्यारे के खजाने में मिला है, जो एक ट्रेन में मर गया था, तो दुःख की आग में जलती हुई सुनीति को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने गरीब प्रेमी को इतना दिव्य उपहार कैसे मिला। एक महीने बाद परित्यक्त केसरी पत्रिका को सुनीति के सम्मुख रामदास ने रेल गाड़ी में हुई कष्टकारी घटना को  पढ़ा। हरि को ट्रेन में किसी दुष्ट व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी है, यह सभी को यह ज्ञात हो गया ।

परमस्य मृत्योः कारणीभूतं द्रव्यमिदं कथं तद्धस्तगतमभूदिति बहुधा चिन्तयन्त्यपि याथार्थ्यं नोपलब्धवती सा। घातकश्च हरे राजकुलेऽभियुक्तः प्राड्विवाकेन येरवडाप्रदेशस्ये कारालये विंशतिवर्षपर्यन्तं वासितं इति वृत्तपत्रादवागच्छत्सुनीतिः । कतिपयदिवसोत्तरं च प्रासूत सा पुत्रमेकम्। अपत्यस्यास्य संवर्धनशिक्षणादि निर्वाहयितुं सीवनादिव्यवसायैः सुस्थितानां गृहेषु मोदकादिनिष्पत्तिकार्यैश्च कथं कथमपि धनं समुपार्जयत्सा।

इस मृत्यु का कारण बनने वाला यह पदार्थ उसके हाथ में कैसे आ गया, इसके बारे में उसने कई बार सोचा लेकिन वह सत्य का पता नहीं लगा सकी । सुनीति को अखबार से पता चला कि राजकुल के अभियुक्त हरि के हत्यारे को एक प्रारंभिक न्यायाधीश ने यरवदा प्रांत में उसे बीस साल की जेल की सजा सुनाई थी। कुछ दिनों बाद सुनीति ने एक बेटे को जन्म दिया । अपने बच्चे के पालन-पोषण और शिक्षा का संवर्धन करने के लिए उसने किसी तरह सिलाई और अन्य व्यवसायों तथा अच्छे घरों में हलवा और अन्य लड्डू आदि बनाकर पैसा कमाया।

    अथ संजाताष्टादशवर्षीयस्तदात्मजः कस्यचित्कृपणस्य वणिजो विपण्यां नियोजितः सन् दशमुद्राङ्कितपत्रं मूषकैः सामिचूर्णितमपाहरदिति प्राड्विवाकस्यादेशादेकवर्षपर्यन्तमुपरिनिर्दिष्टे कारागारे न्यरोधि। सर्वमेतत्संवृत्तं नितरामसहामभूत्सुनीत्याः। व्यचिन्तयच्च सा। 'कलङ्कोऽयं मरणादप्यतिरिच्यते खलु । वरं यदि पुत्रो मेऽमरिष्यन्न सहे हि कुलदूषणमिदम् । अहो बटोर्जन्मतः प्रागेव तदीयपितृपादा दिवं गता इति महानुग्रहः खलु विधेरि'ति। भूयिष्ठा भारतीययोषित इव हि पत्यौ बद्धनिष्ठा पुत्रस्य पुरतः सत्यव्रतादर्शमन्यमानानां गुणगणाननवरतं प्रशंसन्ती सत्यदेवताया अपरिमितवैशिष्ट्यं बालहृदये दृढं निवेशयितुमहरहः प्रायतत साध्वी।

फिर, जब वह अठारह वर्ष का था, तब उसके बेटे ने, जो बाज़ार में एक गरीब व्यापारी के यहाँ काम करता था, दस मुहरों वाला एक पत्र को चूहों ने कुतर कर चुरा लिया, जिसके अभियोग में प्रारंभिक न्यायाधीश ने उसे एक वर्ष के लिए उपर्युक्त जेल में कैद कर दिया। सुनीति के लिए यह सब लगातार होना सहन करने योग्य नहीं हुआ। और उसने इसके बारे में सोचा। 'यह कलंक सचमुच मृत्यु से भी बदतर है। मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा मर जाए, क्योंकि मैं अपने परिवार का यह दूषण सहन नहीं कर सकता। ओह, यह सचमुच विधाता की बड़ी कृपा है कि पुत्र के जन्म से पहले ही उसके पिता स्वर्ग में चले गये। अधिकांश भारतीय महिलाओं की तरह, पति के प्रति निष्ठा रखने वाली वह लगातार अपने बेटे के हृदय में उन लोगों के गुणों की प्रशंसा करती थी जो सच्चाई को आदर्श मानते थे। हर दिन बच्चों के दिलों में असीम विशिष्टता को दृढ़ता से स्थापित करने का प्रयास करती थी।

परं हन्त प्रयत्ना इमे निष्फला एवासन्निति विगलितधैर्या समभूदियम्। तावत्सज्जनमहितं हरिं स्मारं स्मारं सुतं दिदृक्षुः सुनीतिरेकदा वैशाखमासे मार्तण्डस्य चण्डातपक्लान्ता कारालयं प्रति प्राचलत्। दीर्घाध्वनि स्खलत्पद्भ्यां शनैः शनैर्गच्छन्तीयं कथमपि बन्धनागारमासाद्य बहिर्वन्दिनामाप्तजनस्य तं तं द्रष्टुमौसुक्यभाजः सन्दोहमद्राक्षीत्। परतः स्वात्मजमुद्याने भूमिं खनन्तं न्यशामयत्तं कनिष्ठापराधिनिर्विशेषमेवाकलयत्सा। युवकस्तु निशितशूलाग्रेणेव विद्धहृदयामेतां समुपेत्य सोत्साहं सप्रेम च समालिङ्गन् ।

लेकिन अफ़सोस ये कोशिशें व्यर्थ रहीं । इस तरह सुनीति अपने धैर्य को खो दी। अपने बेटे को देखने की इच्छा से हरि को बार बार याद करती हुई वैशाख माह के सूर्य के पचण्ड धूप में जेल में गई लंबी सड़क पर धीरे-धीरे पैर को गिरने से रोकते हुए हुए चलते हुए वह किसी तरह जेल पहुंची और बाहर लोगों को देखने के लिए उत्सुक थी । बाद में उसने अपने बेटे को बगीचे में खुदाई करते हुए पाया और उसे लगा कि वह सबसे कम उम्र का अपराधी है । वह युवक हृदय को एक तेज़ भाले की नोक से छेदने के समान (पीड़ा देता) उसके पास आया, और उत्साह और प्रेम से उसे गले लगा लिया।

कुमारः - अम्ब किमित्येतावान् विलम्बः कृतस्त्वया। दशनिमिषमात्रं स्थितिस्तेऽत्रानुमंस्यते ।

इत्युक्त्वा सखेदं बटुर्गुरुखनित्रं भुवि निक्षिप्य विजनं कोणमुद्यानस्य जननीमनयत्। कुतश्चिरायितासीति पुनरनुयुक्ता सा संमृज्य स्वेदबिन्दुचिह्नितं ललाटं सकृच्छ्रश्वासमवादीत्सुनीतिर् 'ग्रामादितो दीर्घमार्गं शिथिलाङ्गया मया शीघ्रं चलितुं न पार्यते बाल।' इत्यभिधाय तरोरेकस्याधो विषमशिलायामुपविश्य पटच्चीवरसंपुटीकृतान् खाद्यखण्डान् सुताय प्रादात्। तिलशर्करामयाञ्च- क्राकारान्मोदकानालोक्य, ', अपि त्वयैव निष्पादिता एते' इति सहर्षं साभिलाषं निगद्य मातुश्चरणयोः सविधमुपविश्य च भूतले मिष्टखण्डान् निष्पेष्टुं दन्तैरारब्धवति माणवके सुनीतिरतिविषण्णहृदया जोषमतिष्ठत् ।

कुमार: माँ, तुम इतनी देर से क्यों आई हो? यहां आपकी स्थिति केवल दस मिनट के लिए ही दी जाएगी।

इतना कहकर खेद के साथ बटु ने कुदाल को ज़मीन पर गिराकर माँ को बगीचे के एक सुनसान कोने में ले आया । फिर से पूछा कि वह देर सेक्यों आयी, ऐसा पूछे जाने पर सुनीति ने पसीने की बूंदों से चिन्हित अपना माथा पोंछा और जोर-जोर से साँस ली। गांव से यहाँ तक का रास्ता लम्बा है और कमजोर शरीर से मुझे जल्दी नहीं चला गया, ऐसा कहकर वह एक पेड़ के नीचे एक ऊबड़-खाबड़ चट्टान पर बैठ गयी और अपने बेटे को भोजन के टुकड़े कपड़े में लपेटकर दिए। वह तिल, चीनी और की ओर देखकर बोली, 'अरे, क्या तुमने ही इसे बनाया है,' और अपनी मां के पैरों के पास बैठ गया। सुनीत का विषाद युक्त हृदय आनन्द से भर गया।

कुमारः - अम्ब, वर्ततेऽत्र कश्चित्सौम्यो महानुभावो येन सह संलपितुमर्हसि। ममेहागमदिनादारभ्य चिरपरिचितः सुहृदिव मयि स्निह्यत्येषः । सर्वैरपि बन्दिभिः संभावितोऽसौ । प्रतिदिनमस्मान् विनोदयितुं रामायणं प्रोच्चैः पठत्येषः ।

युवक: माँ, यहाँ एक सज्जन व्यक्ति हैं जिनसे आप बातचीत कर सकती है। जिस दिन से मैं यहां आया हूं, वह मुझे लंबे समय से जानते हैं और एक दोस्त की तरह मुझसे जुड़े हुए हैं । सभी कैदी उनका सम्मान करते हैं । हमारा मनोरंजन करने के लिए वह हर दिन जोर-जोर से रामायण पढ़ता है।

इत्युक्त्वा मिष्टपूरितमुखेन वक्तुमक्षमो व्यरमत्क्षणं बटुः। सुनितिस्तु पुरो बद्धदृष्टिः सबाष्पलोचना पूर्वापरशोचनीयसंवृत्तस्मृतिपरम्परां स्वजीवनस्य चिन्तयन्ती नतमुखी निश्चलैवावातिष्ठत । कुमारस्तावत्पुनर्मुखरीभूय संलपितुमुपाक्रमत।" एतादृशः पुण्यात्मा कुतः कारायां वासित इति न वेद्मि किल। न कदापि भाषतेऽसौ ह्यात्मानमधिकृत्य।"

इतना कहकर मिठास से भरे मुँह से कुछ बोल सकने में अक्षम वह बटुक एक पल के लिए रुका । हालाँकि, सुनीति निश्चल खड़ी रही, उसकी आँखें नम थीं और उसका चेहरा झुका हुआ था, वह अपने जीवन को अतीत और भविष्य की खेदजनक यादों की एक श्रृंखला के रूप में सोच रही थी। युवक ने फिर मुंह घुमाया और बातचीत करने लगा, "मैं नहीं जानता कि इतना धर्मात्मा आदमी कहां जेल में बंद है। वह कभी अपने बारे में कुछ नहीं बोलता।"

इति सुहृतस्तवनपटोर्बटोर्वचो विषादशून्यमानसायास्तस्याः कर्णशष्कुलीं नास्पृशत् खलु। सा हि बधिरप्राया पुत्रस्याधागतिदर्शनाच्छोकातिशयेनाभिभूता त‌द्घुटिकबद्धशृङ्खलाझणत्कारेण श्रवणकटुना तदीयरुक्षवसनावलोकनेन च 'भगवत्कृपया पूर्वजानां पुण्येनैव च पितास्य शोचनीयदशामेतां प्रत्यक्षीकर्तुं नाजीवदि' ति पुनः पुनर्धन्यवाद- कृतज्ञतापुरःसरं परमात्मानमध्यासीत्।

मित्र के गुण का बखान करने में दक्ष उस बालक की बातें, अवसाद के कारण शून्य मन वाली सुनीति के कानों पर न पड़ी। क्योंकि वह अपने बेटे की अधोगति को देखकर लगभग बहरा थी, उसकी बंधी जंजीर की खनक से, उसके सूखे कपड़ों की दुर्गन्ध देखकर, भगवान की कृपा और अपने पूर्वजों की पुण्य से ही इसकी शोचनीय दशा को देखने के लिए इसके पिता जीवित नहीं हैं। इस तरह परमात्मा को पुनः पुनः धन्यवाद तथा कृतज्ञता अर्पित करती हुई परमात्मा में लीन हो गयी।

कुमारः - अम्ब ! स्निह्यति मयि पुत्रनिर्विशेषं महाभागोऽयम्। मदम्बां द्रष्टुमर्हसीति मया प्रार्थितोऽयं किञ्चिद्दोलायमानचेता ह्रेपित इव तूष्णीमतिष्ठत्। न जाने क्वाद्य गतोऽस्ति । प्रायः पर्वतीशैलं यातः स्यात् ।

कुमार: माँ! यह परम भाग्यशाली व्यक्ति मुझे बिना किसी भेद-भाव के अपने पुत्र के समान प्रेम करता है जब मैंने उससे मेरी माँ को देखने की विनती की तो वह थोड़ा लज्जित मन से चुप रहा। मुझे नहीं पता कि वह आज कहाँ गया है। हो सकता है वह पहाड़ों पर गया हुआ हो।

सुनीतिः - पर्वतीदेवालयम् ?

कुमारः - नहि, नहि,। पर्वतीशैले खण्डिताश्मराशिं संचेतुमेव ।

सुनीति: पहाड़ी मंदिर?

कुमार: नहीं, नहीं, पहाड़ी पर टूटे हुए पत्थरों का ढेर एकत्र करने ही गये होंगे।

संयमितबाष्पप्रवाहा यावदेषा तपस्विनी स्तम्भिता निःशब्दा मुहूर्तं तिष्ठति तावदभ्यागतानां ततो निर्गमद्योतको घण्टानादः प्रोच्चकैरध्वनत्प्रत्यध्वनच्च । तदाकर्ण्य सपद्यासनादुत्थितां तामभणन्माणवकः 'कदा पुनरायास्यसी' ति। शृङ्खालितपादस्यात्मजस्य दुरवस्थादर्शनमसहमाना सा प्रत्यवादीद् 'वत्स, पुनरागन्तुं न पार्यते मया। रामदासपितृव्यस्तु प्रतिसप्ताहमायास्यति त्वत्कुशलवृत्तोपलब्ध्यै। तेन साकं तवाभीष्टं खाद्यं प्रेषयिष्यामि इति सगद्गदं निगद्य तनजुस्य कुन्तलकलापपरिकलितमुत्तमाङ्गं परामृश्य निरयात्सुनीतिः । पुत्रदर्शनोत्कण्ठितयापि तपस्विन्या पुनर्नैव तद्दिशि दृष्टिक्षेपः कृतः।

     जब तक आँसुओं की धारा को संयत कर वह तपस्विनी क्षण भर के लिए स्तब्ध और निःशब्द हुई तभी आदमी को बाहर जाने के उद्येश्य से ऊँची आवाज में घंटी बज उठी। उसको सुनकर वह तुरंत अपनी सीट से उठ गया और उससे पूछा, 'तुम कब वापस आओगी?' अपने बेटे को जंजीर से बंधे पैर की दुर्दशा में देखने में असमर्थ होने पर उसने उत्तर दिया, 'मेरे बेटेमैं वापस नहीं आ सकती । रामदास चाचा हर सप्ताह आपका हालचाल लेने आएंगे । सुनीति ने घुटी हुई आवाज़ में कहा, "मैं तुम्हें उसके साथ वह खाना भेज दूंगी जो तुम चाहते हो,"। ऐसा गद्गद स्वर में बोलकर अपने पुत्र के घुंघराले बालों से ढका हुआ ऊपरी शरीर को छूने के बाद वहाँ से बाहर चली गई। अपने पुत्र को देखने के लिए उत्सुकता होने पर भी तपस्वी ने फिर कभी उस दिशा में नज़र नहीं डाली।

    तावत्कुलदेवतां भगवतीं शान्तादुर्गामर्चयन्ती प्रोच्चस्वरेण सुहृदा रामदासेन पठितां महाभारतकथां प्रतिसायं सावधानं शृण्वती क्वचिद्रात्रौ नेदिष्ठमंदिरपुरोहितेनानुष्ठितस्य हरिकीर्तनस्य श्रवणेनात्मान विशोधयन्ती, दिवा च सीवनादिकार्यैः स्वल्पद्रव्यं समर्जन्ती पत्युर्विनाशोत्तरं स्वजीवनं तृणाय मन्यमाना स्वपुत्रस्य कुशलमन्तरा विधूतेतरवासना पूतहृदया कथमपि कालमयापयत्साध्वीयम् ।

इस बीचवह कुल देवता भगवती शांतादुर्गा की पूजा करती थीहर शाम अपने मित्र रामदास द्वारा पढ़ी गई महाभारत की कहानी को ध्यान से सुनती थीकभी-कभी रात में वह समीप में स्थित मंदिर के पुजारी द्वारा किए गए हरिकीर्तन को सुनकर खुद को शुद्ध करती थी। दिन में सिलाई आदि कार्यों के द्वारा थोड़ा धन अर्जित करती हुई, पति की मृत्यु के पश्चात् अपने जीवन को तृण के समान मानती हुई, अपने पुत्र की कुशलता के अतिरिक्त अन्य किसी भी इच्छा को न रखने वाली, पवित्र हृदय वाली यह साध्वी किसी प्रकार अपना समय व्यतीत करती रही। 

अथाद्य सुतः कारालयान्मोच्यत इति श्रुत्वा सोत्कण्ठमाभानूदयात्तं, प्रतीक्षमाणा तस्य शय्यागारं प्रत्यग्रजलसिञ्चितं सुव्यवस्थितं च विधाय तस्याभीष्टमिष्टखाद्यं निष्पाद्य मुखशालायां भित्तिगतफलकेषु स्थापितानि ताम्रपात्राणि निपुणं निर्णिज्य, प्रवेशद्वाराग्रेऽवलम्ब्य मङ्गलसूचकाशोकद्रुमदलमालामुपलिप्याजिरं, द्वारस्य बहिःकुट्टिटमभूतले श्वेतरक्तपीतहरितचूर्णेन रुचिररुचिररेखाचित्रचयं विरचय्य, मुखशालाया निर्मलकोणे स्थापितायाः कुलदेवतायाः प्रतिमां नवदुकलाम्बरेण परिधार्य रूपित्वा च तल्ललाटमुत्फुल्लकेतकीरजःपुञ्जपिञ्जरेण, मालनीसुममालया- लङ्कृत्य च तां, पराह्णे सूनोर्धीतधवलवस्त्रजातस्य संशोध्य च्छिद्राणि, पुनश्च तस्य निपुणं सपुटीकरणे सा व्यापृताभूत्। सुहृद्रामदासस्तावदैनिकनियममनुसृत्य श्रीमन्महाभारतं प्रोच्चैः पठंस्तस्य महाराष्ट्रीयभाषया सानुवादं प्रवचनमकार्षीत्। क्वचित्तावत् समीपवर्तिदेवमन्दिरादनवरतं सायंतनिकघण्टानिनादः, क्वचिन्नेदीयसो ग्रामाद् धान्यादिपूरितशकटपरम्परायाः क्वणितं पल्लिकराजमार्गे स्वनत्, क्वचिद् ग्रामस्यार्धनग्नानामर्भकाणां ग्रामचत्वरस्थे कच्चरराशौ धान्यकणान्मार्गयतामाक्रोशः, क्वचित्सोज्झम्पं परिक्रीडमानानामन्येषां बटूनां कलकलः श्रवणगोचरतामयात् ।

फिर, यह सुनकर कि उसका बेटा आज जेल से रिहा हो जाएगा, वह सूर्योदय से पहले चिंता से उठी, उसके शयनकक्ष को सीधे पानी से छिड़का और अच्छी तरह से व्यवस्थित किया, उसके वांछित व्यंजनों को बनाकर देहरी की दीवाल में बने पाटे पर रखे गऐ ताँबे के बर्तन में अच्छी तरह से रखकर, प्रवेशद्वार के आगे मङ्गलसूचक अशोक वृक्ष के पत्ते की माला लटकाकर, आँगन को लीपकर, द्वार के बाहर भूमि को समतल करके सफेद-लाल-पीले-हरे चूर्ण से सुन्दर-सुन्दर रेखाचित्र समूह (रंगोली) बनाकर, देहां के स्वच्छ कोने में स्थापित कुलदेवता की प्रतिमा को नवीन रेशमी वस्त्र पहनाकर, खिले हुए केतकी की रक्तपीत (वर्ण की) परागराशि से उनके मस्तक को सजाकर और मालतीपुष्प की माला से उन्हें अलंकृत कर, दोपहर में पुत्र के धुले हुए श्वेत वस्त्रों में के हुए छेदों को ठीक करके और पुनः अच्छी तरह से लपेटकर उसने व्यस्थित करके रख दिया। तब तक मित्र रामदास ने दैनिक नियमों का अनुसरण करके श्रीमन्महाभारत का उच्च स्वर से पाठकर, उसका मराठी भाषा में सानुवाद प्रवचन करना आरम्भ किया। तब तक कहीं पर पास के मंदिर से शाम की लगातार बजती घंटियों की आवाज, कई समीपवर्ती गाँव से धान्यादि से भरे हुए बैलगाड़ियों द्वारा शब्दायमान ग्रामीण राजमार्गों में कोलाहल, कहीं पर गाँव के अर्धनग्न छोटे-छोटे बच्चों का गाँव के चौराहों पर एकत्रित कूड़े के ढेर पर से धान्य के कणों को खोजने का आक्रोश, कहीं पर उछल-कूदकर खेलते हुए अन्य बच्चों का कोलाहल सुनाई दे रहा था।

रामदासः - अत्र समाप्तः शान्तिपर्वणि षड्विंशतितमोऽध्यायः ।

रामदास- यहाँ शांति पर्व का छब्बीसवाँ अध्याय समाप्त होता है।

सुनीतिः - (कृतज्ञतापूर्वकम्) सुदीर्घं पठितं भवद्भिरद्य। षड्वादनसमयोऽधुना। न चिरात्सूर्यास्तमनं भविष्यति। परं वत्सो नाद्यावधि समायातः ।

सुनीति: (आभारपूर्वक) आपने आज बहुत देर तक पढ़ा। अभी छह बजे हैं। सूरज जल्द ही अस्त हो जाएगा, लेकिन पुत्र अभी तक नहीं आया है।

रामदासः - समाश्वसिहि, भ्रातृजाये।

रामदास: शांत हो जाओ भाभी।

सुनीतिः - (सकातर्यम्।) अप्यन्यथा निश्चितं स्यादधिकारिभिः ।

सुनीति : (डरते हुए) कहीं अधिकारी द्वारा अन्यथा भी निर्णय न लिया गया हो

रामदासः - नहि, नहि,। न ब्रह्मापि सकृन्निश्चितमन्यथा कर्तुं पारयेत् । नास्ति धर्मालयः कारागारः खलु। भवत्याः सुतस्य बन्धनावधिः समाप्तिं गतोऽद्य। तदद्यैव निर्मोक्ष्यतेऽसौ ।

रामदास: नहीं, नहीं,. ब्रह्मा भी एक बार जो निश्चय कर लेते हैं उसके अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकते। यहां कोई धर्मशाला नहीं अपितु जेल  है। आपके पुत्र की कारावास की अवधि आज समाप्त हो गयी है वहीं से आज उनकी रिहाई होने जा रही है।

सुनीतिः - कच्चिदर्पितास्मै भवद्भिर्वसनपो‌ट्टलिका। (तथैवेति सकन्धरकम्पं सूचिते) कथमेष प्रत्यभात् ?

सुनीति: मुझे आशा है कि आपने उसे कपड़े की थैली दिया होगा। ( कंधे हिलाने का संकेत करते हुए) यह कैसा आभास हुआ?

रामदासः - काराया विमोचनं न तस्मै सुखयति। 'विषण्णोऽहं मत्सहवासिनं विस्रष्टुमि' त्यब्रवीदसौ ह्यः।

रामदास: जेल से रिहा होने से उसे खुशी नहीं होगी. उन्होंने कल कहा, 'मैं अपने साथ रहने वाले को छोड़ने से उदास हूं।

सुनीतिः - किं बन्दिना सह बद्धसख्योऽस्ति मम सूनुः ? अहह ! केयं विधेर्घटना यत्कारावासिनि जने स्निह्यत्येषः।

सुनीति: क्या मेरा बेटा कैदी का दोस्त है? आह! विधाता की ये कौन सी घटना है जो जेल में बंद लोगों से यह प्रेम करता है।

रामदासः - भ्रातृजाये ! चिराद्वासितोऽपि कारायामनिन्द्याचारः पुरुषोऽयमिति वदन्त्यधिकारिणः। भवत्याः पुत्रोऽस्य परमप्रीतिपात्रमिति श्रुतं मया।

रामदास: भाभी! अधिकारियों का कहना है कि लंबे समय तक जेल में रहने के बावजूद वह बेदाग आचरण वाला व्यक्ति है। मैंने सुना है कि आपका बेटा उसे सबसे अधिक प्रिय है।

सुनीतिः - (सविषादम्) किं भविता बटोर्मे। हन्त विश्वेषामपि विदितास्ति सा तस्य स्तेयवार्ता।

सुनीति : (उदास होकर) मेरा बेटा क्या होगा? खैर दुनिया में हर कोई उसकी चोरी की खबर को जानता है।

रामदासः - अलं शोकेन, भ्रातृजाये। सर्वमपि पर्यन्ते शुभमेव भविष्यति। कारावासेन वत्सः शुद्धाचारो भवितेति निश्चिनोमि ।

अथ क्रमेण मन्दिरस्य घण्टानिनादेन समेधमानेन सह सुनीतेः पुत्रस्य पुनर्दशनोत्कण्ठापि घनीभूता।

रामदास: भाभी, बहुत शोक करने से कोई फायदा नहीं, । अंत में सब अच्छा होगा। मुझे यकीन है कि कारावास से आपका पुत्र शुद्ध आचरण वाला हो जाएगा।

फिर, जैसे-जैसे मंदिर की घंटियाँ धीरे-धीरे बढ़ती गईं, सुनीता की अपने बेटे को देखने की बेचैनी फिर से तेज़ हो गई।

सुनीतिः - (कम्पितशिराः सविषादम् ।) सुदीर्घपरिश्रमस्य कीदृगशुभोदर्कोऽयम् ।

सुनीति : (दुख से सिर हिलाते हुए) लम्बे परिश्रम का कितना शुभ फल है।

रामदासः - अलमतिखेदेन । मङ्गलदिनेऽस्मिन् भवत्या विधूय सर्वशोकावहचिन्तनं प्रसन्नात्मना भाव्यम्। न चिरादायास्यति नन्दनो भवतीममन्दानन्दनयनजल-बिन्दुभिः स्नापयितुम्।

रामदास: बहुत चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। इस शुभ दिन पर आपको सभी दुखद विचारों को दूर रखना चाहिए और खुश रहना चाहिए । जल्द ही नंदन तुम्हें अपनी धीरे-धीरे आनंदित आंखों से पानी की बूंदों से स्नान कराने आएंगे।

सुनीतिः - (मित्रस्य वचनमश्रुण्वतीव) नैकवर्षाण्येकैकजलबिन्दुवत्स्वल्पनाणकानि प्रतिदिनं संरक्षितानि मया। देवमन्दिरनिर्माणेन दीर्घकालीनव्रतस्य निर्वृत्तिर्भवेदिति पुरोहितेनाभिहितम्।

सुनीति : (मानो अपनी मित्र की बात न सुन रही हो) मैं कई वर्षों से प्रतिदिन पानी की बूँद की तरह छोटे-छोटे सिक्के अपने पास बचाती रही हूँ। पुजारी ने उसे बताया कि देवताओं का मंदिर बनाकर वह अपनी लंबे समय से चली आ रही मन्नत पूरी कर सकेगा।

रामदासः - विदितमेव सर्वमेतन्मे । परं कार्येऽस्मिन् सुमहान् व्ययो भविता।

रामदास: यह सब मुझे मालूम है. लेकिन इस काम में बड़ा खर्चा आएगा ।

सुनीतिः - अथ किम्। अन्यथा किमर्थमनल्पकष्टानि सोढ्वा धनं संचितं मया। इदानीं पर्याप्तमस्ति मत्सविधे वित्तं देवमन्दिरनिर्मित्यै ।

सुनीति: फिर क्या, नहीं तो मैंने इतना अधिक कष्ट सहकर क्यों धन संचय किया है। अब मेरे पास देवताओं के लिए मंदिर बनाने के लिए पर्याप्त धन है।

गृहाद्वहिस्तावत्पादन्यासध्वनिमाकर्ण्य 'समायातो वत्सइति ससंभ्रमं च द्वारं प्रति यास्यतीं क्षणं प्रतीक्ष्यतामहमेव यास्यामीति निवार्य रामदासस्तां सत्वरं बहिरगात्। सुनीतिश्च तावत्सधडधडं स्फुरद्वक्ष उपशमयितुमिव महानसमसृपत्। तावद्रामदासेनानुगम्यमानः प्राविशन्मुखशालां विंशतिवर्षीयः प्रांशुरपि सरलाङ्गयष्टिः कृशाङ्गोऽपि चारुशरीरः प्रफुल्लाननः सूनुः सुनीत्याः। 'कियन्नामाल्हादकं पुनरागमनमिह। क्वास्ति मदीयाम्बे'तीतस्ततो वीक्ष्य च प्रमृज्य कञ्चुकनालिकया स्वेदबिन्दुरुषितललाटमब्रवीद्युवकः । महानसं प्रत्यङ्गुल्या निर्दिश्य 'तव मित्रस्यागमनमत्र सावधानं समार्दवं निवेदनीयं भगवत्यै सुनीतिदेव्या' - इत्यादिशद्रामदासः ।

     घर के बाहर कदमों की आवाज सुनकर 'पुत्र आ गया' इस तरह असमंजस में दरवाजे तक जाती हुई सुनीति को रामदास ने रोका और कहा, 'एक मिनट रुको, मैं ही चला जाऊंगा,' और तेजी से बाहर आ गया। सुनीति भी खूब घिसटती हुई मानो अपनी कांपती छाती को शांत कर रही हो। इतने में रामदास के पीछे पीछे आता हुआ, जो बीस वर्ष का लंबा, दुबला पतला शरीर वाल, मोटा होता हुआ भी सुंदर शरीर और खिले हुए चेहरे वाला, सुनीति का पुत्र हॉल में दाखिल हुआ। 'यहां वापस आना कितनी खुशी की बात है। मेरी माँ कहाँ है?' यह कहता हुआ युवक ने इधर उधर देखकर और अपने कंचुक से उसके माथे पर आई पसीने की बूँद को पोंछ दिया। रामदास ने रसोई घर की ओर इशारा करते हुए कहा, 'तुम्हारे मित्र के यहां आगमन पर सावधानी और दयालुता के साथ देवी सुनीतिदेवी को अर्पित किया जाना चाहिए।

कुमारः - कुतः ? अपि मत्सहचरस्य प्रवेशस्तस्यामसंतोषं जनयेत् ? स्वल्पकालमेवात्र स्थास्यत्येषः । प्रायः कतिपयघटिकोत्तरमपि निर्यास्यति ।

कुमार: कहाँ? क्या मेरे साथी के प्रवेश से उसे असंतोष होगा? वह यहां थोड़े समय के लिए रहेंगे।  आमतौर पर वह कुछ घंटों के बाद निकल जाएगा।

रामदासः - वत्स, त्वां पुनरालोक्य त्वज्जननी किञ्चिसंभ्रान्ता भवेत्। क्वास्ति ते सखेदानीम् ?

रामदास: बेटा, तुम्हारी माँ तुम्हें दोबारा देखकर थोड़ी उलझन में होगी। तुम्हारा दोस्त इस समय कहाँ है?

कुमारः - प्रतीक्षतेऽसौ चत्वरस्य कोणे। आवयोर्मातापुत्रयोः समागमसुखस्य विच्छेदो मा भूदिति 'गम्यतां तावत्। सोत्कण्ठं प्रतीक्षमाणा तव जननी पुनरागमनेन प्रहर्षबाष्पधाराभिः प्रक्षाल्यताम्। पश्चात् त्वामनुयास्यामी'ति सविवेकमुक्तं तेन ।

कुमार-वह चौराहे के कोने में बैठा इंतज़ार कर रहा है। हम दोनों मां और बेटे के मिलन की खुशी में व्यवधान न हों।' तुम्हारी माँ, जो उत्सुकता से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है, उसके लौटने पर खुशी के आँसुओं की धारा से बह जाये। 'मैं बाद में आपका अनुसरण करूंगा,' उसने विवेकपूर्वक उत्तर दिया।

इति वदति तरुणे प्रादुरभूत्सुनीतिर्मुखशालायाम्। आलोक्यैनामम्ब ! अम्ब ! इति सहर्ष संबोध्य तां प्रत्यधावत्कुमारः। सा च तं गाढं परिष्वज्य वत्स ! वत्सेति निगद्य संयम्य रुदितं नयने च सद्यो वस्त्रप्रान्तेन प्रमृज्य कियान् क्षामः क्षामः संवृत्तोसीति पुत्रस्य ग्रीवां, पृष्ठं बाहू च समस्पृशत्पुत्रवत्सला सुनीतिः ।

युवक यह कह ही रहा था कि सुनीति हॉल में आ गयी । उसे देखते ही युवक ने ख़ुशी से अम्बा! माँ! उसे संबोधित कर उसके पीछे पीछे भागा । और उसने उसे कसकर गले लगा लिया, पुत्र! "मेरे प्यारे बच्चे" यह कहने के बाद, सुनीति, जो अपने बेटे से स्नेह करती थी, ने खुद को रोने से रोका और तुरंत अपने कपड़े के किनारे से अपनी आँखें पोंछ कर कितने दुबले हो गये हो, यह कहकर सुनीति ने अपने पुत्र पर स्नेह करते हुए उसकी गर्दन, पीठ और भुजाओं को छुआ।

कुमारः - (प्रहस्य) अम्ब ! पूर्वापेक्षया पीनाङ्गोऽस्म्यद्य।

इत्युक्त्वा मुखशालाया मध्यवर्तिन्यां दोलायां तामुपवेश्य स्वयं च तस्याः पादयोः सविधं भूतले समुपविश्य कुतो नागतासि पुनः कारामिति मातुर्हस्तपल्लवं भूयो भूयः परिचुम्ब्यापृच्छद्युवकस्ताम्।

कुमार : (हँसते हुए) माँ! मैं पहले की तुलना में आज अधिक मोटा हो गया हूं।

यह कहकर युवक ने उसे सामने हॉल के बीच में झूले पर बैठाया और खुद उसके पैरों के पास फर्श पर बैठ गया और अपनी माँ के हाथ की हथेली पर उसे बार-बार चूमा और उससे पूछा कि वह पुनः कारागार में क्यों नहीं आई।

रामदासः - वत्स ! नास्ति समीपं कारागृहम्। देहदौर्बल्याद्दीर्घाध्वानं क्रमितुं कथं प्रभवेत्तवाम्बा।

रामदास: पुत्र! जेल निकट में नहीं है. तुम्हारी माँ अपनी कमज़ोरी के कारण लम्बी दूरी तक कैसे चल पाती।

कुमारः - वर्तते भवत्सविधे यानम्। किमिति नानीतेयं भवद्भिस्तेन ।

कुमार- आपके पास गाड़ी है. तुम उसे उसके पास क्यों नहीं लाए?

सुनीतिः - वत्स ! श्रृङ्खलितपादं त्वामालोकयितुं दुःसहमभून्मे ।

सुनीति: पुत्र! मैं तुम्हारे पैरों को जंजीरों से जकड़े हुए देखना सहन नहीं कर सका।

कुमारः - अम्ब ! मत्तो हापितासीत्वमिति न विस्मये। इतः परमाजीवं सदाचारनिष्ठः स्थास्यामि।

कुमार: माँ! मुझे आश्चर्य नहीं है कि तुमने मुझे खो दिया है। यहां से, मैं जीवन भर सदाचार के प्रति समर्पित रहूंगा।

सुनीतिः - किं नाम वक्ष्यन्ति प्रतिवेशिन इति शङ्कतेतरां मच्चेतः ।

सु. - पड़ोसी क्या कहेंगे, इसे लेकर मेरे मन में बहुत ज्यादा शंका है।

कुमारः - अम्ब ! मा स्म शुचः। नगरान्तरं यास्यामि। कियद् व्यथितोऽभवं बहुविधं कालमनुतापवेदनयेति परमात्मैव वेत्ति खलु । अनवरतं विचिन्तयन स्वापराधं निशासु दीर्घमुन्निद्रचक्षुः स्थण्डिलेऽशयि ।

कुमार: माँ! दुखी मत होइए । मैं दूसरे शहर चला जाऊंगा। इतने समय तक मैंने पश्चाताप की पीड़ा में कितना कष्ट सहा है, यह केवल परमात्मा ही जानता है। मैं रात में बहुत देर तक आंखें बंद करके फर्श पर पड़ा रहा और लगातार अपने अपराध के बारे में सोचता रहा।

रामदासः - नास्ति किमपि जगति पावनतरमनुतापात्।

रामदास: संसार में पश्चाताप से अधिक पवित्र कुछ भी नहीं है।

कुमारः - भूतपूर्वो मदीयः स्वामी कृपणो गर्हणीयोऽत्र । आसूर्योदयादानक्तं परिश्राम्यतेऽपि मे सप्त मुद्रा एव स प्रायच्छत्। वेतनमिदं जठरपूर्तयेऽपि नालमासीत्। अथ वस्त्रादिकस्य का कथा? अम्ब ! सुपोषितस्त्वयापि मिष्टाभिलाषुकोऽतितरामभवम्। परमद्यप्रभृति मद्दुष्कर्मजनितं कलङ्कं परिमार्ष्टुं प्राणव्ययेनापि प्रयतिष्ये।

कुमार: मेरा पूर्व स्वामी यहाँ कंजूस और घृणित है। हालाँकि मेरे द्वारा सूरज उगने से लेकर रात तक परिश्रम करने पर भी उसने मुझे केवल सात मुहरें दीं । यह वेतन पेट भरने के लिए भी पर्याप्त नहीं था। कपड़ों का क्या कहना? माँ! आपने मुझे अच्छा खाना खिलाया और मैं मिठाई के लिए बहुत अभिलाषी हो गया हूँ। इस समय से मैं अपने बुरे कर्मों के कारण लगे कलंक को मिटाने के लिए अपने जीवन की कीमत पर भी प्रयास करूंगा ।

सुनीतिः - हन्त। भग्नस्फटिकं प्रतिसमाहितमपि न जातु पूर्ववद्भवेत्।

सुनीति: खेद है अगर टूटे हुए स्फटिक को फिर से जोड़ भी दिया जाए तो वह पहले जैसा कभी नहीं होगा।

रामदासः - अलमतिशोकेनाद्य। शुभप्रसङ्गेऽस्मिन्मार्गभ्रष्टोप्यात्मजो भवत्या भोज्यतां मिष्टान्नेन ।

रामदास: आज बहुत अधिक शोक न करें। इस शुभ अवसर पर यदि आपका पुत्र मार्ग से भटक गया हो तो भी उसे मीठा भोजन खिलाएं।

कुमारः - (सोत्साहम्) मिष्टभोजनम् अम्ब ! किं निष्पादितं त्वयामिष्टापूपाः ? (इङ्गितेन तथैवेति निवेदिते सुनीत्या) अम्बश्रुणु तावत् । आमन्त्रितो मया कश्चन महानुभावः । सज्जनोऽयं दुर्दैववशात्कारायां विंशतिं वर्षाणि वासितोऽभूत् । ख्यातपूर्वोऽयं ते मां द्रष्टुं कारालय आगतायै।

कुमार: (उत्साह से) मिठाई? माँ! क्या आपने बनायी है? मीठा पूआ? (वैसा ही, सुनीति इशारे से कहती है) माँ, मेरी बात सुनो। मैंने एक महान सज्जन को आमंत्रित किया है। दुर्भाग्यवश, इन सज्जन को बीस वर्ष की कैद हुई। जब तुम मुझसे मिलने जेल आयी हो, तब मैंने एसके बारे में बताया था।

पुत्रस्य वचनेऽनवधानैवान्यमनस्का सुनीतिरवादीत्। 'वत्स वपनस्रानादिकमपेक्ष्यतेतरां त्वयाद्य। वर्तते विपुलं जलमङ्गणे। धावितं त्वद्वस्त्रजातमेतत्। तव शय्यागारं निपुणं विरचितमस्ति। त्वत्कृते नवीनकञ्चुकोऽपि क्रीतो मया। एहि तावत्। भोजनात्पूर्वमादाय पुष्पमालां देवतामन्दिरं गन्तव्यं त्वया।'

अपने बेटे की बात को नजरअंदाज करते हुए सुनीति अनमने सी बोली । 'पुत्र, तुम्हें आज बाल कटाने और नहाने से ज्यादा की आवश्यकता है। आंगन में भरपूर पानी है । ये तुम्हारे कपड़े धुलने योग्य हो गये हैं । तुम्हारा शयनकक्ष विशेषज्ञ ढंग से सजाया गया है। मैंने आपके लिए एक नया कुर्ता भी खरीदा है। अब आओ। भोजन से पहले तुमको फूलों की माला लेकर भगवान के मंदिर में जाना चाहिए।

कुमारः - (प्रहस्य) कुतः।

कुमार : (हँसकर) कहाँ से । क्यों

सुनीतिः - संध्योपासनार्थम्। असमाप्तसन्ध्येन त्वयाऽऽहारो नैव कर्तव्य इति ।

सुनीति: संध्या वंदन के लिए। संध्यावंदन पूर्ण किए विना तुम्हें भोजन नहीं करना चाहिए।

कुमारः - परमम्ब मत्सहचरः सेवनीयो मया। सोऽतिभीरुर्विनीतश्च । पितृव्येण प्रत्यक्षीकृतोऽस्ति सोऽसकृत्।

कुमार: परन्तु माँमुझे अपने साथी की सेवा करनी चाहिए। वह बहुत डरपोक और विनम्र है। चाचा ने  उसे कई बार देखा है ।

सुनीतिः - हा! वत्स ! कीदृङ् नीचैरवस्थायां पतितोऽसि यद्वन्दिभिर्वद्धसख्योऽसि । किमवदिष्यन् पितृचरणास्तव दुर्दशामवलोक्य ।

सुनीति: हा! पुत्र! तुम कैसी नीच स्थिति में पड़ गए हो, जो कि तुम वन्दियों के साथ मित्रता किए हो। तुम्हारे पिता तुम्हारी इस दुर्दशा देखकर क्या कहेंगे?

कुमारः - आत्मनोऽमितगुणगणेनाकृष्टानां तातपादानां ध्रुवं प्रेमपात्रमभविष्यत्सुहृन्मे।

युवक: मेरा दोस्त, अपने अतुलनीय गुणों के कारण निश्चित रूप से मेरे पिता के प्रेम का पात्र बनेगा। 

सुनीतिः - को विजानाति कोऽपराधोऽनेनाकारीति । प्रायस्तेन भार्यया व्यच्छेदि नासिका। कोऽपि मन्दभाग्यो वा विगतासुर्व्यधायि ।

सुनीति : कौन जानता है, उसने क्या अपराध किया है? उसने अपनी पत्नी से तो लगभग नाक ही कटवा ली । कोई अभागा है, जिसने अपनी जान गंवाई है।

रामदासः - शान्तं पापम्। शान्तं पापम्।

रामदास: पाप शांत  हो, पाप शांत हो। (चुप रहो)

कुमारः - अम्ब ! तादृशः पुण्यात्मा सकलग्रामेऽप्यस्मिन्नोपलभ्येत । पुरातनमहर्षीणामर्वाचीनानां श्री-तुकारामरामदासादीनां वा पुण्यात्मनां सदाचारमनुकरोत्येषः। न केवलं कारानिवासस्य किन्तु नरकवासस्यार्होऽहमिति भूयो भूयोऽभिहितमनेन ।

कुमार: माँ! ऐसी पुण्यात्मा इस पूरे गाँव में नहीं मिल सकता। वह प्राचीन महर्षियों या आधुनिक श्री-तुकाराम रामदास और अन्य पवित्र आत्माओं के सदाचार का अनुकरण करता है। उसने बार-बार स्वयं कहा कि वह न केवल जेल में रहने का बल्कि नरक में रहने का हकदार है।

सुनीतिः - तद् ध्रुवं कोऽपि दारुणोऽपराधः कृतः स्यादनेन ।

सुनीति- उसने जरूर कोई भयंकर अपराध किया होगा।

कुमारः - (मातुर्वचनमवधीर्य) (अवधीर्य - अव + धॄ + ल्यप् - धॄ वयोहानौ इत्यन्ये - क्र्यादिः – सेट्

अवधार्य - अव + धृ + ण्यत् - धृञ् धारणे - भ्वादिः - अनिट्) वाटिकायां परिश्राम्यन् स्वेदविन्दुक्षालिताननः कारां प्रविष्टमात्रं मा चिरान्नष्टोपलब्धमिवाप्तजनं निरीक्षमाणः स्तब्ध इव स्थितवानसौ मुहूर्तम्।

युवक: (अपनी माँ के शब्दों को समझाते हुए) बगीचे में परिश्रम करता हुआ, उसका चेहरा पसीने की बूंदों से धुला हुआ था, कारागार में प्रवेश करते ही वह एक पल के लिए स्तब्ध रह गया, अपने प्रियजनों को ऐसे देख रहा था जैसे वे खोकर मिल गए हों ।

सुनीतिः - प्रायो घातको निजसुतमस्मरत्। अलमिदानीं कारागारस्य वार्तया। सर्वमेतत्स्मृतिपटलात् प्रमाष्टुमीहे। वत्स! एहि तावन्नापितश्चिरात्त्वां प्रतीक्षते गोशालायाम्।

सुनीति: शायद उस हत्यारे को अपने बेटे की याद आ गई हो। अब जेल की बातें बहुत हो गईं। मैं यह सब स्मृति पटल से मिटा देना चाहता हूँ। वत्स! अब आ जाओ बहुत देर से गौशाला में नाई तुम्हारा इंतजार कर रहा है ।

कुमारः - तिष्ठतिष्ठ क्षणमात्रम् । मित्रमुद्दश्य भूरि निवेदनमवशिष्यतेऽद्यापि ।

कुमार- रुको, कुछ देर रुको। मुझे अभी भी अपने मित्र के बारे में बहुत कुछ बताना है।

सुनीतिः - (तत्कुन्तलकलापाभ्यन्तरे हस्तं निवेश्य) निपुणं संमार्जनमपेक्ष्यसे। एहि सत्वरं तावत्।

सुनीति : (उसके बालों की लटों के अंदर हाथ डालकर) अच्छी तरह सफाई की जरूरत पड़ेगी। तो फिर जल्दी आओ।

कुमारः - (निर्गन्तुमनिच्छन्) अम्ब प्रतिक्ष्यतां क्षणम्। अर्धमपि न मयाभिहितम् ।

    समीपवर्तिनो देवालयस्य घण्टानादेन प्रवर्तितेव त्वरया सुतस्य करमादाय मुखशालाया निर्गमिष्यन्ती सुनीतिरब्रवीद् 'वत्सयाहि तावत्। स्नानादिविधिर्विधीयतामाशु। व्यतीतप्रायः संध्यार्चनसमयः किन्न श्रुणोषि घण्टाघोषम्। त्वत्प्रायश्चित्तविधिं निर्वर्तयितुं पुरोहितेन प्रतीक्षमाणेन भाव्यम्। विलम्बः शुभोदर्कविघटक एव संभवेत्।'

कुमार : (जाने का मन नहीं करते हुए) माँ, एक मिनट रुको। मैंने आपको इसका आधा भी नहीं बताया।

     पास के मंदिर की घंटी बजने से प्रेरित होकर अपने बेटे का हाथ पकड़कर हॉल से बाहर जाती हुई सुनीति  बोली, 'मेरे बेटे, जाओ। तुरंत स्नान और अन्य अनुष्ठान करें। संध्योपासन का समय लगभग समाप्त हो गया है। तुम्हें घंटी की आवाज़ क्यों नहीं सुनाई देती? पुजारी आपके लिए प्रायश्चित का अनुष्ठान करने की प्रतीक्षा कर रहा होगा। देरी अच्छे फलों को नष्ट करने वाली हो सकती है।

कुमारः - अथ गम्यतां पुरः। अनुयास्यामि त्वां सह सहचरेण मे।

कुमार- तो आप फिर आगे बढ़ें। मैं अपने साथी के साथ तुम्हारे पीछे आऊँगा।

सुनीतिः - भवतु । तत्प्रतीक्षेऽहं क्षणमत्र । (इत्युक्त्वा दोलायाः समीपं तस्थौ सा।)

सुनीति : ठीक है। मैं यहां एक पल के लिए इंतजार कर रही हूं। (ऐसा कहकर वह झूले के पास रूक गयी।)

कुमारः - अम्ब ! अकथयं यदा तस्मै मम स्तेयवार्ता तदा सानुकम्पं बाष्पबिन्दुभिराकुलितनयनोऽतिविषण्णोऽभूत् सः।

कुमार: माँ! जब मैंने उसे अपनी चोरी की बात सुनाया तो वह बहुत दुःखी हो गया, उसकी आँखों में अनुकम्पापूर्वक करुणा से भरे आँसू थे ।

सुनीतिः - प्रायः स्वदुष्कृत्यस्य स्मरणं तदन्तरविध्यत्।

सुनीति- उसे लगभग अपने कुकर्मों की स्मृति अन्तःकरण को विद्ध किया हो।

कुमारः - (मातुर्वचनं विगणय्य) प्रातस्तरां श्रीभगवद्गीतामपठच्चासौ प्रत्यहम्। (प्रातर् + तरप् -अत्यन्तप्रातः काले )

युवक: (अपनी मां की बात को नजरअंदाज करते हुए) वह प्रतिदिन सुबह श्री भगवद् गीता पढ़ता है। 

सुनीतिः - अहोविडम्बनेयम्।

सुनीति: ओह, यह विडम्बना है।

कुमारः - (किञ्चिदुर्मनायमानः) मा विडम्बय सुकृतिनमेतम्। (इति बद्धाञ्जलिर्जननीमभ्यार्थयत।) वत्सरमेकं शीघ्रं तथा व्यतीतं यथा प्रत्यासीदद् विमोचनक्षणं मामखिन्दत्तराम्। मित्रं विस्रष्टुमनिच्छतो मे निर्गमसमयं विलम्बयेयुरधिकारिण इत्यप्याकाङ्क्षितं मया।

युवक : (थोड़ा निराश होकर) इस अच्छे काम का मजाक मत उड़ाओ। (इस प्रकार उसने हाथ जोड़कर अपनी माँ से विनती की।) एक वर्ष इतनी जल्दी बीत गया कि मेरे रिहाई का क्षण वह खिन्न हो गया। मैं यह भी चाहता था कि अधिकारी मेरे जाने में देरी करें क्योंकि मैं अपने दोस्त को छोड़ना नहीं चाहता था।

सुनीतिः - (सविस्मयं सखेदं च) परमात्मन् । अहो वैलक्षण्यमाकाङ्क्षायाः स्नेहबन्धस्य च।

सुनीति: (आश्चर्यचकित और खेद के साथ) हे ईश्वर। अरे आकांक्षा और स्नेह का बंधन विलक्षण है।

रामदासः - भगवति नेदं विस्मयावहम्। आपद्यस्तयोः सहनिवासिनोः परस्परविरहोऽविदुः सह एव।

रामदास: देवी, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। विपत्तिग्रस्त दो सहवासियों का वियोग को साथ वाले ही जान सकते हैं ।

कुमारः - साधुवृत्तिरयं पुरुषः स्वविमोचनविषये नित्यं निरीहः स्थितवान् । अथ मध्याह्नेऽद्य कारातो निर्गमिष्यता मया तस्य नामघोषणाऽश्रावि सहसा । अम्ब ! सोऽपि स्वतन्त्रोऽभूत् । तद्विमोचनोदन्ते पुनः पुनरुद्घोषिते झटिति तमुपेत्य सरभसं व्यचालयम्। स तु शून्यदृष्टिर्निश्शलो विनष्टवागिव तस्थौ।सखे किमिति मौनमालम्ब्यते त्वये'ति पृष्टोऽपि नाम 'श्रेयो यदि मामधिकारिणो न मोचयेयुः। न कोऽपि मां जानाति जगत्यांन कोऽपि या मां प्रतीक्षते। मृतकल्पस्य मे किं स्वातन्त्र्येण ।इति पुनः पुत्रः सगद्दमगदत्सः । आगम्यतां तावत्सह मयाऽस्मद्रेहमितितदैन्येनाकुलितोऽहमभ्यार्थये साग्रहं तम्।

कुमार: अच्छे आचरण वाला यह आदमी अपनी रिहाई के बारे में हमेशा निरीह रहा है। फिर, आज दोपहर के समय, जैसे ही मैं जेल से निकलने वाला था, मैंने अचानक उसके नाम की घोषणा सुनी। माँ! वह भी स्वतंत्र हो गये। जब इसकी रिलीज के अंत में बार-बार इसकी घोषणा की गई तो मैं अचानक इसके पास पहुंचा और इसे जोर से हिलाया  ।लेकिन वह अपनी आँखें सूनी और अवाक करके वहीं खड़ा रहा । 'मेरे दोस्त, तुम चुप क्यों हो?' मेरे द्वारा पूछे जाने पर उसने कहा अच्छा होगा यदि मेरे अधिकारी मुझे नहीं छोड़ें। दुनिया में कोई मुझे नहीं जानता, मेरा कोई नहीं है, जो मेरा इंतज़ार करता हो। मरे हुए के समान मेरे लिए स्वतंत्रता का क्या उपयोग?'  इस प्रकार वह गद्गद स्वर में कहा। तो मेरे साथ धर आओ, ऐसा उसकी दीनता के कारण व्याकुल मैंने उनसे आग्रहपूर्वक विनती करता हूं ।

सुनीतिः - (बीभत्सितेव) किम्। निमन्त्रितस्त्वया घातकोऽत्र वत्सवत्स किं वक्ष्यन्ति प्रतिवेशिनः तत्प्रवेशोऽत्र नानुमन्यते मया। तादृशेन व्यवहारेण विप्रवंशावतंसैर्जनकचरणैः परमपूज्यैर्भूयोपि पङ्केनाङ्कितैर्भाव्यम । मम च कुलदेवताया दीर्घोपासनानुष्ठानादिना नैष्फल्यतां गन्तव्यम्। एतादृशः पुरुषस्य प्रतिषेध्यः प्रवेश इह। विद्यन्ते धर्मशालाः पुण्यनगरे नातिदूरमितः। सर्वेपि समाश्रीयन्ते तत्र। दोषिणोऽपि।

सुनीति : (जैसे भयभीत होकर) क्या। आपने हत्यारे को यहाँ आमंत्रित किया? पुत्र, पुत्र, पड़ोसी क्या कहेंगे? मैं यहां उस प्रवेश की अनुमति नहीं देता। इस तरह के व्यवहार से ब्राह्मणों वंश के पूजनीय पिता पंक से कलंकित हो जायेंगें। और मुझे अपने कुल देवता की लंबी पूजा और अनुष्ठान से निष्फल हो जाना होगा। ऐसे आदमी का यहां प्रवेश वर्जित है। पूणे शहर में यहाँ से धर्मशाला बहुत दूर नहीं हैं। वहां हर कोई ठहरता है। यहां तक ​​कि दोषी भी ।

कुमारः - हन्त ! किमित्यनपराधो जनोऽन्यथा व्यपदिश्यते त्वया। यदि त्वमेतमवलोकयेस्तर्हि न कदाप्येवं ब्रूयाः। भवतु। यद्येनं सत्कर्तुं नेच्छसि तदहमपि सहानेन क्वापि यास्यामि।

कुमार: अच्छा! तुम निर्दोष लोगों को अपराधी क्यों समझाती हो? अगर तुम इसे देख लेती तो ऐसा कभी नहीं कहती। जाने भी दो। यदि आप उसका सम्मान नहीं करना चाहते तो मैं उसके साथ कहीं चला जाऊँगा।

सुनीतिः - (सविषादम्) बन्दिना सार्धं क्वास्यासि बत?

सुनीति : (उदास होकर) अरे तुम कैदी के साथ कहां जाओगे?

कुमारः - अलं चिन्तया मद्विषये। अत्रापि धनार्जनं दुःसाध्यं मे भवेदेव ।

कुमार : मेरे विषय में बहुत चिन्ता की आवश्यकता नहीं है। यहां भी मेरे लिए पैसा कमाना मुश्किल होगा।

सुनीतिः - (दीर्घं निश्वस्य।) तव पितुर्हंससितयशोऽवलम्ब्य तव भावि क्षेमं बलवदाशास्यते मया। परं बन्दिनां संसर्गेण सर्वथा तव विनाश एव भविता ।

सुनीति: (गहरी आह भरते हुए) मैं तुम्हारे पिता के हंस के तुल्य धवल यश का आश्रय करते हुए तुम्हारे भविष्य के कल्याण की प्रबल आशा करती हूं। परन्तु बन्दियों के सम्पर्क से तुम सब प्रकार से नष्ट हो जाओगे ।

रामदासः - वत्स ! अलं संत्रास्य मातरम्।

रामदास: पुत्र! अपनी माँ को अधिक कष्ट मत दो।

कुमारः - (साभिनिवेशम्।) परं निमन्त्रितोऽस्ति मयासौ। अम्ब ! अनाश्रितपरिपालनं धर्मो साधूनामिति त्वयैव बहुधा मे कथितम्।

युवक: (प्रेम के साथ) लेकिन मैंने उसे आमंत्रित किया है। माँ! आपने मुझसे कई बार कहा है कि जिसका कोई आश्रय नहीं हो, उसका पालन करना साधु का धर्म है।

सुनीतिः - (सरभसम्।) भयावहः किल घातकस्य प्रवेशोऽत्र। कुमार्गे त्वां नयेत्। स विलुण्ठेदप्यस्मान्।

सुनीति : (क्रोध पूर्वक) यहां हत्यारे का प्रवेश करना निश्चय ही भयानक है। यह आपको गलत रास्ते पर ले जाएगा। वह हमें भी लूट लेगा।

रामदासः - भ्रातृ‌जायेमा स्म वृथा भैषीः । वत्सस्योत्साहो न प्रतिहन्तव्यः ।

रामदास : भाभी, व्यर्थ में मत डरो। पुत्र का उत्साह ख़राब नहीं करना चाहिए।

सुनीतिः - हाहाकारासहवासिनमनवरतं ध्यायतोऽस्य चेतो द्वादशमासान् नित्यबाप्पप्रवाहादंधीभूतकल्पाया मातुर्विचारविधुरं स्यादिति सुतरां शोचनीयं खलु। (इति संरुद्धकण्ठमुदीर्य ललाटतलमताडयत् सा।)

सुनीति: अफसोस, अफसोस, कैदी का लगातार ध्यान करते हुए, इसका चित्त बारह महीने से निरंतर तक बाष्प प्रवाह से अंधी हो गई अपनी माँ के विचारों से शून्य होगा। यह वास्तव में अधिक दयनीय है । (रूंधे हुए गले से वह अपने माथा हाथ से मारते हुए कहा।) 

कुमारः - (समार्दवम्) अम्ब ! मैवं मैवम् ! (तस्याश्चरणं परिचुम्ब्य) वेत्सि यत्त्वय्येव स्निह्यामीति। प्रसीद तावत्। निराश्रयो मत्सुहृद्रात्रौ समाश्रीयताम्। न कोऽप्यनुतापस्ते भवितेति प्रतिजाने सशपथम्।

युवक : (कोमलता के साथ) माँ! ऐसा नहीं है ! (उसके पैरों को चूमते हुए)  मालूम है कि मैं तुमसे ही प्यार करता हूं।  प्रसन्न हो जाओ। विना आश्रय वाले मेरे मित्र को रात बिताने दो । मैं आपसे शपथ लेकर वादा करता हूं कि आपको कोई पछतावा नहीं होगा।

सुनीतिः - (अथ किञ्चिद्द्रुतान्तःकरणा) वाढम् । प्रदास्यतेऽस्मै भोजनम् । गोशालायां भुङ्क्ताम् तत्रैव च शेतां नक्तम्।

सुनीति : (फिर द्रवीभूत मन से) अच्छा है। उन्हें भोजन दिया जाएगा। गौशाला में खायें और वहीं रात में सो जायें।

कुमारः - (सरोषम्।) अहह ! गोशालायां बहिष्कृत इव चाण्डाल इवकुशुनक इव। भवतु तावत्। अहमपि तत्रैव स्वप्स्यामि भूतलेप्रदास्यामि चास्मै मत्खट्वाम्।

युवक: (क्रोध से) आह! गोशाला में एक निर्वासित व्यक्ति की तरह? चाण्डाल की तरह? गन्दे कुत्ते की तरह । तो ठीक है । मैं भी वहीं भूमि पर सो जाऊंगा और उसके लिए अपनी खाट दे दूंगा ।

सुनीतिः - कुतः काराया विमुक्तमात्रो कलहायसे सह मयाकिमिति दुर्भाग्यां मामाकुलयितुं प्रवृत्तोऽसि। देवालयं सत्वरमागच्छ । अहं तावत्प्रदक्षिणां देवतागारमभितो विधाय त्वांं प्रतीक्षमाणा तत्रैव स्थास्यामि । श्रूयते घण्टाघोषः। गन्तव्यं मयेदानीम् ।

इति व्याहृत्य द्वारं प्रति प्रतस्थे सुनीतिः । भग्नमनोरथं बटुमनुकम्पमानः - 

सुनीति- क्यों जेल से छूटते ही मुझसे झगड़ रहे हो? यह क्या है कि   तुम मुझ दुर्भाग्यशाली को  व्याकुल कर रहे हो, ? जल्दी से मंदिर आ जाओ। इस बीच, मैं देवताओं के मंदिर की परिक्रमा करूंगा और वहीं रहकर आपकी प्रतीक्षा करूंगा। घंटी की आवाज सुनाई देती है। अब मुझे जाना होगा।

यह कहकर सुनीति दरवाजे की ओर चल पड़ी। टूटे हुए दिल से बटु कांपते हुए -

रामदासः - वत्समा स्म शुचः । निवसतु महानुभावोऽयं मद्गेहे । नववस्त्राण्यपेक्षतेऽसौ ।

रामदास: पुत्र, चिंता मत करो। यह महापुरुष को मेरे घर में निवास करें। उसे नए कपड़ों की आवश्यकता है।

सुनीतिः - (सपदि परावृत्य) वत्सत्वत्प्रकोष्ठेस्थापिता पेटिका मे सावधानं रक्ष्यताम्। तदभ्यन्तरे निहितं सर्वमेव मद्द्रव्यम्। (इति सरभसमादिश्य सत्वरं निरगात्।)

सुनीति : (जल्दी से पलटकर) बेटे, तुम्हारे कोठरी में रखा गया संदूक (पेटी) को संभालकर रखना। इसमें भीतर रखा मेरा धन है। (इस तरह संकोच में आदेश देकर जल्दी से बाहर चला गया।)

कुमारः - (सनैराश्यम् ।) अहो कठोरता प्रकृत्याः शिरीषपुष्पकोमलहृदयाया जनन्या मे। सत्पथस्यादर्शभूतो मत्सखा नीचात्मेव परकीयधनमाहरेदिति कुत्सितो विचारस्तदन्तः प्रविष्ट इति चेखिद्यते मच्चेतः। (सतिरस्कारम्) पादाङ्गुष्ठेनापि न तत्स्पृशेत् सः ।

युवक: (निराशा के साथ) ओह,  प्रकृति से शिरीष फूल की तरह कोमल हृदय वाली मेरी माँ की कठोरता,। सन्मार्ग का उदाहरण भूत मेरा मित्र स्वयं दूसरों का धन चुराना चाहिए, ऐसा नीच विचार उसमें घुस गया है। मेरा मन इस बात से दुःखी है । (तिरस्कार करते हुए) वह इसे अपने पैर के अंगूठे से भी नहीं स्पर्श करेगा।

रामदासः - वत्स ! प्रायेण भूयिष्ठाः सदङ्गना बन्दिवर्गाद् बिभ्यति।

रामदास: पुत्र! अधिकतर पतिव्रता स्त्रियाँ कैदियों से लगभग डरती हैं ।

इत्युक्तमात्रे रामदासेन 'नाहमेतामुपालभे वाइति द्विरुदीरितं वचोऽश्रावि सहसा । तत्क्षणं च व्यलोकि देहल्यामेकः पञ्चाशद्वर्षीयो बन्दिवेषधार्यनावृतशिरा अनुपानत्कः श्मश्रुलः पुरुषः।

रामदास के इतना कहते ही,  'मैं इसे नहीं लूँगा' इस तरह रामदास ने दो बार कहते हुए सुना,। और तुरंत उसने देखा कि चौखट पर एक लगभग पचास वर्ष का आदमी देखा, जो कैदियों के कपड़े पहने हुए, जिसका सिर खुला था और उसकी मूंछें थीं।

कुमारः - (सहर्षम्) आः ! आगम्यताम! आगम्यताम् ! सखे कदाऽऽयातोऽसि कुतः प्रविष्टोऽसि ?

कुमार : (प्रसन्न होकर) ओह! आओ ! आओ! मित्र तुम कब आये? आप कहाँ से प्रवेश किए हो?

गृहाभ्यागतः- कारायास्तव निर्गमनोत्तरमिह न चिराच्चत्वरं संप्राप्य पृष्टद्वारेणालक्षितः प्राविशम् ।

मैं घर आया हुआ: तुम्हारे जेल से निकलने के बाद कुछ समय बाद ही मैं चौराहे पर पहुंचा और पीछे के दरवाजे से अंदर दाखिल हो गया ।

कुमारः - (रामदासस्य कर्णे) तदनेन संलापो नः श्रुतः स्यात्।

कुमार : (रामदास के कान में) इसने वह सब बातचीत नहीं सुनी होगी।

गृह. - (तस्य पृष्ठे हस्तं विन्यस्यन्) वत्स ! आस्तां तावत्। मा ग्लपयात्मानं वृथा।

गृह. - (उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए) पुत्र! आराम से बैठो। अपने आप को व्यर्थ में ग्लानि में नहीं डालो ।

कुमारः - आयासेनोपलब्धं स्यात् सदनमिदं त्वया। अपरिचितावसथोपलब्धौ निपुणोऽसि सखे।

कुमार- विना किसी कठिनाई के तुम्हें यह मकान मिला होगा। तुम अपरिचित परिस्थितियों का पता लगाने में अच्छे हो, मेरे दोस्त।

गृ. - विंशतिवत्सरोत्तरमप्यवलोकितस्य स्वचित्रस्याभिज्ञाने किं नाम नैपुण्यं द्योतेत ।

गृ.. - बीस साल बाद देखा गया अपने ही चित्र को पहचानने में क्या यह कौशल दिखाई देता है?

कुमारः - तत्परिचितं गृहमेतत्ते ?

कुमार: क्या यह आपका परिचित घर है?

गृ. - यथात्मानं तथैवावैमि किलेदम्।

गृ. - जैसे मैं अपने को जानता हूँ वैसे ही इसे जानता हूं ।

कुमारः - (विस्मितो रामदासं संबोध्य) कथमेतत्संभाव्यम्।

कुमार : (आश्चर्य से रामदास को संबोधित करके) यह कैसे संभव है?

रामदासः - स्वयमेव तदाख्यास्यति महाभागः ।

रामदास: वह महाशय तुम्हें स्वयं बता देगा।

कुमारः - अथ मदम्बापि परिचिता स्यादस्य।

कुमार : तो मेरी माँ भी उसका परिचित होगी।

रामदासः - अथ किम् ।

रामदास: और क्या?

कुमारः - (सखेदम्) तत्किं भवद्भिर्न विज्ञापिता सा?

कुमार: (खेद के साथ) आपने उसे (माँ को) क्यों नहीं बताया?

रामदासः - यतस्'त्वत्तादात्म्यरहस्यभेदं भगवत्याः सुनीतिदेव्याः पुरो न करिष्येइति तस्मै चिरात्प्रतिश्रुतवानहम् ।

रामदास: क्योंकि मैंने उनसे बहुत पहले वादा किया था कि मैं आपकी पहचान के रहस्य को देवी सुनीति की उपस्थिति नहीं करूंगा।

कुमारः - तत्तादात्म्यम् ? (ससंभ्रममुभौ तौ निरीक्षमाणः) कुतस्तद्रिरक्षिषुस्त्वम्कथय विशकलय्य सर्वम्।

कुमार: वह पहचान? (उन दोनों को असमंजस में देखकर) तुम उसकी रक्षा क्यों कर रहे हो? मुझे सब कुछ विस्तार से बताओ

गृ. - वत्स ! सर्वमेव वृत्तं ते कथयिष्ये । मद्दर्शनात्वन्माता संक्षुब्धा भवेदिति शङ्कयोपस्थातुमिह नैच्छम्। परं प्रतिश्रवस्य मे भङ्गो मा भूदिति समायातोऽस्मि ।

गृ. - पुत्र! मैं तुम्हें वह सब घटना बताऊंगा । मैं इस डर से यहां नहीं आना चाहता कि तुम्हारी मां मुझे देखकर दुखी हो जाएंगी लेकिन मेरा अपना वादा नहीं टूटे अतः यहां आया हूं

कुमारः - कुतः संक्षुब्धा भवेदम्बाऋजुस्वभावाऽन्वर्थनामा किल मत्प्रसवित्री।

कुमार-माँ क्यों दुखी होगी?  निश्चित रूप से सीधी-सादी अन्वार्था नाम वाली मेरी जन्मदात्री है।

गृ. - वत्ससाक्षादेषा भगवती क्षमादेवतेति विदितमेव। तव जन्मतः प्रागेव परिचितेयं मे।

गृ. - पुत्र, यह सर्वविदित है कि यह देवी क्षमा की देवी है। मैं उसे तुम्हारे जन्म से पहले से जानता हूं ।

कुमारः - (सविस्मयम्) मज्जन्मतः प्राक्?

कुमार : (आश्चर्य से) मेरे जन्म से पहले?

रामदासः - तथैव ।

रामदास: यह बात है।

कुमारः - (उभौ निपुणं निरीक्ष्य) क एषः कस्त्वम्?

कुमार : (दोनों को गौर से देखकर) यह कौन है? आप कौन हैं?

रामदासः - (मन्दमन्दम्) नास्त्येष तव जनकेतरः ।

रामदास : (धीरे-धीरे) तुम्हारे पिता के अलावा कोई नहीं है।

कुमारः - (प्रोच्चैः पुनः पुनः प्रहस्य) मज्जनकः कुतो मां विप्रलब्धुं प्रवृत्तौ स्थः। अलं क्ष्वेलया।

कुमार : (बार-बार ज़ोर से हँसते हुए) मेरे पिता? आप दोनों मुझे ठगने की कोशिश क्यों कर रहे हो? मजाक करना (खेल करना) बंद कीजिए।

गृ. - यदि सजीवोऽहमिति विश्वसिषि तत्तव पिताहमित्यपि विश्वसिहि ।

गृ. - यदि तुम्हें विश्वास है कि मैं जीवित हूं, तो विश्वास करो कि मैं तुम्हारा पिता हूं।

कुमारः - कुतस्त्वया नोक्तं पूर्वमेतत् किमेतद्गूढम् आबाल्यान्मदीयतात-पादा धूमशकटे केनचन साध्वगेन निहता इति निवेदितोऽहमम्बया । (प्रहस्य पुनः पुनः) नहिनहिसखे नर्मप्रियः संजातोऽसि बन्धनविमोचनात्। त्वां जीवन्तं जानती चेन्मज्जननी विना त्वद्दर्शनं क्षणमपि न प्राणानधारयिष्यत्। न ह्येकोऽपि न दिवसो व्यतीतस्तमचिन्तयन्त्यास्तस्याः ।

कुमार- यह बात आपने पहले क्यों नहीं कही? यह रहस्य क्या हैबचपन से मेरी माँ ने मुझे बताया कि मेरे पिता को किसी ने रेल गाड़ी में मार दिया था। (बार-बार हंसते हुए) नहीं, नहीं मेरे दोस्त, जब से तुम बंधन से छूटे हो, तब से तुम चुटकुलों के शौकीन हो गये हो। यदि मेरी माँ को मालूम होता कि तुम जीवित हो तो तुम्हें देखे बिना एक क्षण भी जीवित न रहती। एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता था जब वह उसके बारे में न सोचती हो।

हरिः - (सखेदम्) हन्तन व्यजानात्सा यदहं कारायां वासित इति।

हरि: (खेद के साथ) हाय, उसे नहीं पता था कि मैं जेल में था।

कुमारः - परं प्रातरेवाद्य प्रोक्तं त्वया यन्निराश्रयं मां न कोऽपि प्रतीक्षत इति।

कुमार- लेकिन आज सुबह तो आपने मुझसे कहा कि मुझ आश्रयहीन का कोई इन्तजार नहीं कर रहा।

गृ. - वत्ससत्यमेव तदपि । (मन्दस्वरेण) विंशतिं वर्षाणि मृतकल्पः स्थितोऽहम् ।

गृ. - पुत्र, यह भी सच है। (धीमी आवाज में) मैं बीस साल से मरे हुए के समान पड़ा हूं ।

कुमारः - अथ को निहतो धूमयाने। अपि त्वया.... नहिनहि। उदयेद्दिवाकरः पश्चिमदिशिनिशापतिरपि गगनतलात्पुष्पवृष्टि निपातयेत्परं पुण्यसञ्चयस्य प्रसवेन त्वया घोरमिदं कृत्यं व्यधायीति स्वप्नेऽपि न चिन्तयेयम्। तथापि कुतस्त्वामाजीवंं कारायां न्यक्षिपन्नाधिकारिणः ।

कुमार- तो फिर रेल गाड़ी में कौन मारा गाया? तो क्या आपके द्वारा... नहीं, नहीं। सूर्य पश्चिम से उग जायें और चन्द्रमा भी आकाश से फूल बरसा दें, फिर भी संचित पुण्यों से उत्पन्न हुए आपके द्वारा यह कृत्य किया गया है, यह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता। फिर भी अधिकारियों ने तुम्हें आजीवन कारावास में क्यों डाल दिया?

हरिः - वृत्तान्तानुमेयप्रमाणादेव। (ललाटं प्रमृज्य) हन्तकथयिष्यामि क्रमेण सर्वं ते।

हरि: यह वृत्तान्त प्रमाणों से जाना जा सकता है। (माथा पोंछकर) खेद है, मैं तुम्हें सब कुछ क्रम से बताऊँगा।

रामदासः - उपविशतु तावत्। दीर्घाध्वानं पादचारिणानेन श्रान्तेन भाव्यम्।

रामदास- तब तक बैठिए। पैदल चलने से लम्बा मार्ग आपको थका दिया होगा।

उपविश्यतामुपविश्यतामित्युक्त्वा करमादाय हरेः कुमारो दोलायां तं समुपवेश्य तद्वृत्तशुश्रूषोत्कण्ठितस्तत्पार्श्वं पर्याकुलो यावत्तिष्ठति तावत् पूर्ववृत्तं कथयितुमारभत हरिः।

बैठिए बैठिए ऐसा कहकर कुमार ने हरि का हाथ पकड़कर उन्हें झूले में बैठाकर उस बात को सुनने के लिए उत्कण्ठित होकर उनके पास व्याकुल होकर जब तक बैठा तब तक हरि ने अपना पूर्ववृतान्त बताना आरम्भ कर दिया। 

हरिः - 'अपि तव जनन्या कदाचित्कथितं ते यत्त्वज्जन्मनः पूर्वमेकदा व्यवसायगवेषपरो धूमयानेन नगरान्तरं प्रस्थितः पुनश्च गेहं नायात इति। (तथेति कुमारेण प्रतिपन्ने) समयेऽस्मिंस्तपस्विन्यानया निजावशिष्टकाभरणम् केयूरं विक्रीयानीता मत्प्रवासाय पर्याप्ता मुद्राः। ता आदाय प्रतस्थेऽहमितः । अथ प्रचलति सवेगं धूमयाने घोरदुश्चिन्तासन्तानेनसहसाऽऽक्रान्तोऽभवम् । येभ्यः कुसीदिकेभ्योऽस्मद्भृतये वैकल्यादेकमात्राहाराभ्यामावाभ्यां कथं कथमपि प्राणान् धारयद्भ्यामृणं गृहीतं तेऽमी वितीर्णधनं प्राप्तुं पत्यहमिह समुपजग्मुः । आसीदत्तदा तव जननी प्रसवोन्मुखी। इति चिन्ताग्निपरितापाभिभूतो धूमयाने उन्निद्रनेत्रः स्थितवाहनम् । व्यचिन्तयं च। अहो सहाध्यायिनो मे मदपेक्षया न्यूनाभ्यस्ता अपि स्वस्वव्यवसायेषु लब्धवर्णाः । परं दैवोपहतस्य मे चिरं कृतदीर्घायासस्य प्रयत्नाः सर्वेऽपि नैष्फल्यमेव प्रापुः। हन्त इदानीं भिक्षापात्रहस्तस्य द्वाराद्वारं पर्यटनसमयः मे समुपस्थितप्रायइति ।

अत्र रुद्धकण्ठेऽस्मिन् विरतवचसि 'गहना कर्मणो गतिरिति रामदासः सानुकम्पं दुःखग्रस्तं मित्रं सान्त्वयितुं भगवतः श्रीकृष्णस्य मुक्तिरत्नमुदैरयत् ।

हरि- कदाचित तुम्हारी माँ ने तुम्हें बताया होगा कि तुम्हारे जन्म से पूर्व एकबार रोजगार की खोज में रेलगाड़ी से दूसरे नगर को गया और पुन: लौटकर नहीं आया। (ऐसा ही कुमार के द्वारा कहने पर)  उस समय इस तपस्विनी ने अपने बचे हुए आभूषण केयूर को बेचकर मेरे प्रवास के लिए पर्याप्त मुद्रा लायी। उन्हें लेकर मैं यहाँ से प्रस्थान कर गया। उस समय तुम्हारी माँ आसन्नप्रसवा थी। जिन ऋणदाताओं से अपने के लिए कुलाव एकमात्र (एकसमय के) आहार से हम दोनों ने किसी प्रकार प्राणों को धारण करते हुए जो ऋण लिया था, वे हमें उस दिए धन को (वापिस करने के लिए, प्रतिदिन यहाँ उपस्थित होने लगे। 

उस समय तुम्हारी माँ इस चिन्ताग्नि के परिताप से अभिभूत होकर रेलगाड़ी में मैं उनींदी आँखों से बैठकर अर्थात जागता रहा और सोचता रहा 'अहो मेरे सहपाठी, मेरी अपेक्षा कम अभ्यस्त हुए भी अर्थात् कम अनुभव वाले होते हुए भी) अपने-अपने व्यवसाय में लब्ध प्रतिष्ठित है। परन्तु दुभाग्यवश मेरे लम्बे समय से किए गए दीर्घ आयास वाले सभी प्रयास पर भटकने का मेरा समय उपस्थित सा हो गया है। खेद की बात है कि अब भिक्षापात्र हाथ में लेकर द्वार पर भटकाने का मेरा समय उपस्थित सा हो गया है।

यहाँ, रूंधे हुए कंठ में, वाणी रहित होकर, कर्म की गति गूढ़ है यह रामदास ने अपने दुःखी मित्र को सांत्वना देने के लिए करुणापूर्वक भगवान कृष्ण के उक्ति रत्न का उच्चारण किया।

हरिः - "व्यचिन्तयमहं जन्मान्तरे किं नाम घोरपापं व्यधायि मया यस्य फलमनुभूयतेऽस्मि जन्मनि । ततश्च 'गुरुणामभिमतं तिरस्कुर्वाणान्मनुजान् कुलदेवता न हि क्षमतइति सुनीत्या भूयो भूयः समुदीरितं वचोऽस्मरम्। विपज्जालमिदं ध्यायतो मदन्तर्लीना काऽपि वाक्सहसा मामवोचद्यथा- 

'यावत्तव दिवंगताया मातुः प्रतिज्ञा न त्वया निर्वर्तिता स्यात् तावदापत्परम्परामेव त्वमनुभविष्यसी'ति । क्रमेण तावत्कस्मिंश्चित् स्थानके धूमशकटान्तरं प्राविशम्। प्रकोष्ठेऽस्मिन्नेक एव गाढनिद्रितः सहाध्वगो व्यलोकि मया। धूमयाने महावेगेन सखडखडशब्दं धावति सरभसमनवरतं प्रकम्पितोऽपि मूर्छित इव पान्थोऽयमविच्छिन्ननिद्रः काष्ठपीठे शयित एव स्थितः। कतिपयक्षणोत्तरं कुसुमशबलमिव तारकितं वियदराजत। न चिराच्च कृष्णपक्षकलावानमृतदीधितिः पाण्डुरपिङ्गलद्युतिर्धृतकषायाम्बर इव संजातनिर्वेद इव विभावर्याः पराङ्मुख इवाध्यतिष्टदन्तरीक्षम् । क्रमेण विगलितोदयरागो द्विजराजोऽम्बरापगावगाहमानो धौतसिन्दूर इव धूमयानस्य गवाक्षतः स्वपाण्डुधाराभिः सुप्तस्य पथिकस्याननं प्राक्षालयत्। अहं तु सुप्तस्य निस्तेजो मुखं दीर्घं निरीक्षमाणः। संमुखीने विष्टरे स्थितवान्।" 

हरि - मैंने सोचा कि पूर्वजन्म में मेरे द्वारा कौन सा घोर पाप किया जिसका फल मुझे इस जन्म में अनुभूत हो रहा है। उसके बाद गुरु द्वारा कहे गए वचनों का तिरस्कार करने वाले मनुष्यों को कुल देवता क्षमा नहीं करते यह सुनीति द्वारा कहे गए वाणी को बार-बार स्मरण किया। इन विपत्तियों की याद करते हुए मुझमें अन्तलीन किसी वाणी ने अचानक मुझसे कहा कि, "

जब तक तुम्हारी दिवंगत माता की प्रतिज्ञा तुम्हारे द्वारा सम्पन्न नहीं होगी तब तक तुम आपत्ति का ही अनुभव करोगे' । इसी क्रम में किसी स्टेशन पर मैंने दूसरे रेल गाड़ी में प्रवेश किया। इस प्रकोष्ठ (डिब्बे) में मैंने एक ही सहयात्री को गहरी नींद में देखा। रेलगाड़ी के अत्यन्त वेगपूर्वक खड़खड़ शब्द करते हुए दौड़ने के वेग से निरन्तर हिलता हुआ भी मूर्च्छित के समान वह पथिक बिना निद्रा भग्न हुए रेलगाड़ी की सीट पर सोता ही रहा। कुछ क्षणों बाद रंग-बिरंगे पुष्पों के सम्मान तारों से आकाश सुशोभित होने लगा। और शीघ्र ही कृष्णपक्ष की कलाओं से युक्त चन्द्रमा को श्वेत-रक्ताभ कान्ति को धारण किए हुए मानो कषायित (लाल रंग के) वस्त्र के समान मौनवैराग्य उत्पन्न होने के कारण रात्रि से पराङ्गमुख सा अन्तरिक्ष सुशोभित हुआ। इसी क्रम में (चन्द्रमा ने) उदयकालीन लालिमा के समाप्त हो जाने पर आकाशगंगा में स्नान करने वाले गजराज (ऐरावत) के धुले हुए सिन्दूर के समान रेलगाड़ी की खिड़की से अपनी श्वेत धाराओं द्वारा सोते हुए यात्रियों के मुख को धो दिया। मैं तो सोते हुए (उस पथिक) के निस्तेज मुख को देखते हुए सामने की सीट पर बैठ गया।

    अत्र क्षणं विरतवचसि हरौ 'क आसीत्पुरुषोऽयम् भवतः कारावासस्य कः संबन्धोऽनेने'ति तद्वार्तायामविश्वसन्निव बटुरवादीदधीरम्।

इधर, एक पल के लिए हरि के रूकने पर 'यह आदमी कौन था? 'तुम्हारे कारावास का इससे क्या लेना-देना है?' इस तरह हरि की बात पर अविश्वास करता हुआ बटु अधीर होकर बोला

हरिः - (निर्व्याजम्) वत्सन खलु मिथ्यावार्ताजालं विरच्यते मया। निद्रिताध्वगस्य मृत्युकल्पेन वैवर्ण्येन तन्निश्चलत्वेन चाकृष्ट इव कुतूहलात्तमुपेत्य निपुणं तन्मुखं न्यरूपयम्। तावदुत्पादितो नादोऽपि मया च्छत्राग्रेण। परं भग्नस्वापो नाभूदेषः । ततश्च सशङ्कं तदुपरि नत्वा निर्गतश्वासोऽयमित्यबोधि मया। कोऽयं नु पान्थः कथमवसन्नदेहः समभूदिहेति कुतूहलपरवशस्तमचालयम् । परं दारुखण्ड इव निश्चल एवायमासीत् । पुनरपि सरभसमेतं यावद्विचालयामि नावत्तदुपबर्हादधश्चर्मनिर्मितं कोशमेकं न्यपतद् भुवि। कोडीकृतं तदन्तरे सावरणं पत्रमेकमपश्यम्। आवरणोपरि पान्थस्य नामधेयं वासस्थानं च लिखिते आस्ताम् ।

हरि - (बिना कपट के) बेटा! मैं कोई झूठी खबरों का जाल नहीं रच रहा हूँ। सोए हुए उस यात्री की मृतप्रायता, कान्तिहीनता तथा निश्चलता से आकृष्ट सा मैंने जिज्ञासावश समीप जाकर ठीक ढ़ंग से उनके मुख का निरीक्षण किया। मैंने छाते के आगे से आवाज भी उत्पन्न की, परन्तु उसकी निद्रा नहीं टूटीं । तत्पश्चात् शङ्कापूर्वक उनके ऊपर झुककर मैंने यह जाना कि इनकी साँसे चली गयी हैं। कौन यह पथिक है? यह कैसे मृत हुआ इस कौतूहलवश मैंने उसे हिलाया। परन्तु लकड़ी के टुकड़े के समान वह निश्चल ही रहा। पुनः भी मैंने वेगपूर्व जब उसे हिलाया तभी उसकी तकिए के नीचे से चमड़े का बना हुआ एक बटुआ (थैला) भूमि पर गिर पड़ा। उसके बाद उसे गोद में उठाने पर एक लिफाफा युक्त पत्र देखा। लिफाफे के ऊपर उस यात्री का नाम और निवास स्थान लिखा हुआ था।

कुमारः - क आसीदेषः 

कुमारः - वह कौन था 

हरिः - केनचिदविज्ञानेन क्षेत्रपतिना पञ्चाम्बुदेशीयेन भाव्यमनेनेति तन्नामतस्तर्कितं मया। कोशेऽस्मिं स्त्रिंशतमुद्राङ्गितपत्रपुञ्जं निवेशितमासीत्। व्यचिन्तयं च । अहो! हस्तगतेयदृद्रव्यो वराकोऽत्र मद्वितीयो विगतासुः। केयं घटना विधेः । आगामिनि स्थानके कोऽपि चपलहस्तः पथिकोऽत्र प्रविश्यैनं द्रव्यभाराल्लंघयिष्यति । 

हरि- यह कोई पंजाब देश का अज्ञात किसान होगा ऐसा उसके नाम में से मैंने सोचा। इस कोश में तीन सौ रूपये का बंडल रखा हुआ था। और मैंने सोचा। ओह ! हाथ में आये हुए जो द्रव्य है उसका स्वामी यह बेचारा अद्वितीयप्राणरहित हो गया। यह विधाता की कैसी घटना है। अगले स्टेशन पर कोई चपल हाथों वाला पथिक आकर इस पैसे को ले लेगा। 

'कुत आगतोऽयंक्व गन्तुं प्रावर्तत, कथमकस्माद् गतासुरभूदि'ति ध्यायतो 

ममान्तराभासमयतामापद्यमाना यावत्तव दिवंगताया मातुर्व्रतं न निर्वर्त्स्येत तावद्विपत्परंपरामेवानुभविष्यसी ति पुनः पुनः हृदि मे कापि वाक् प्रादुरभूत्। अवधूय हृद्गतां वाणीमिमां प्रस्तुतविषयमधिकृत्य समधिकजिज्ञासाविवशः कोशस्याभ्यन्तरे पुनर्निपुणं निरीक्ष्य तद्धस्ताङ्कितं पत्रमेकमपश्यम्। 

यह कहाँ से आया था कहाँ जाना चाहता थाअचानक कैसे प्राण रहित हो गया, ऐसा ध्यान करते हुए मेरे अन्तःकरण में ऐसी वाणी उत्पन्न हुई। जबतक तुम दिवंगत माता की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं करते तब तक विपत्तियों का ही अनुभव करते रहोगे। ऐसी बारम्बर मेरे हृदय से कोई वाणी निकलती रही। हृदयगत इस वाणी को रोककर सम्मुख उपस्थित विषय को लेकर अत्यधिक जिज्ञासा से विवश होकर मैने उसके बटुए के भीतर पुनः अच्छे से निरीक्षण करके उसके हाथों से लिखा एक पत्र देखा।

लिखितं चासीत्तस्मिन् । 'दैवयोगाद्यस्य कस्यापि करतले त्रिशतं मुद्रा इमा निपतेयुस्तेनोपयुज्येत द्रव्यमिदं भृतये कस्याप्यकिञ्चनस्य देवताराधनार्थं वा। नास्ति मे जगत्यां कोऽपि वान्धवो न वा सुहृत्। दैवाधीनायां मृतौ मे न कोऽपि प्रतिवाच्यइति । 

 उसमें लिखा भी था-'संयोगवश जिस किसी के भी हाथों में ये तीन सौ मुद्राएँ गिरती है, वह इस धन का उपयोग किसी निर्धन के पालन पोषण में अथवा देवताओं की आराधना में करें। इस संसार में मेरा कोई भी भाई अथवा मित्र नहीं है। दुर्भाग्य से मेरे मर जाने पर कोई भी मुझे नहीं पूछेगा।

पत्रमेतत्पाठं पाठं व्यचिन्तयम्। 'अपि घटनेयं वैकल्यग्रस्तस्य दुःखोपशमनाय मे विधिना विरचिते 'ति । परं झटिति विचारमिमं विधूय कोशे पत्रधनादिकं निवेश्य यथापूर्वं प्रेतस्योपधानस्याधः पुनर्निधाय च संमुखीनविष्टरे कृतपदः स्वप्तुं प्रायते । परं निद्रादेव्या परित्यक्तस्य चिरमुन्निद्रनयनस्य चेतसि मे क्रियासमभिहारेण स एव ध्वनिरनवरतं प्रत्यध्वनत्। 

इस पत्र को बार-बार पढ़कर मैंने यही सोचा कि क्या यह घटना भी आपदाग्रस्त मेरे दुःख को दूर करने के लिए विधाता द्वारा रची गयी है। परन्तु शीघ्र विचारों को छोड़कर (उसी) बटुए में पत्रधनादि रखकर पहले जैसे ही उस तकिए के नीचे पुनः रखकरउसके सामने के आसन पर पैर रखकर मैंने सोने का प्रयास किया। परन्तु निद्रा देवी के द्वारा त्यागे हुए लम्बे समय से जागती आँखों वाले मेरे मन इन सारी क्रियाओं के साथ वही ध्वनि निरन्तर गूँजती रही।

सपत्नीकस्य मे द्वाराद्वारमटतस्तुम्बीकरस्य प्रत्यासन्नसम्भवस्य तव बुभुक्षयाऽक्रन्दतश्च चित्रयुग्मं मच्चेतश्चक्षुगोचरतामगमत्स्फुटम्। दुर्निवारचिन्तासन्तानार्दितोऽहं जगत्यामात्मानमसहायमपश्यम्। निर्गतासुः पान्थोऽपि मां साग्रहं प्रावर्तयदिति व्यभावयम्। 'भोः सुयोगोऽयं दैववशात्समुपस्थितोऽस्ति ते। तमपयापयसि चेत्तदन्यः कोऽपि तेनात्मन उपकुर्यात्। श्लाघ्यः खलु तव हृद्गतविषयः। वित्तमेतद् गृहाण क्षुधार्तां दयितां भोजय च। प्रसादय वा कुलदेवतामात्मनइति प्रेतो मां प्राणूनुददिव। मदन्तर्गतध्वनिं मृताध्वगस्यादेशं च प्रतिरुरुत्सुरप्यहं मत्कञ्चुककोशगते घटीयन्त्रे सार्धद्विवादनसमयमङ्कितमालोक्य न चिरान्निर्दिष्टस्थानं धूमशकटः समासदेत्। तत्क्षणस्याप्यपव्ययो मा भूदि'ति निश्चितं मया। यदृच्छायोपपन्नः सुयोगोऽयं भाविदुःसहानर्थसन्दोह निवारयेदिति विलक्षणव्यवहारे प्रवृत्तोऽभवम्। न चिरात् पारस्परिकवस्त्रपरिवर्तनं विधाय पथिकस्य कोशाच्छतत्रयं मुद्राणां चापहृत्य न्यवेशयं तत्स्वपरिवर्तितकञ्चुकस्य कोषे । ततश्च तद्धस्ताङ्कितं पत्रं विदार्य पत्रखण्डानि बहिरक्षिपम्। तदनु मन्नामवासस्थानाङ्कितपत्रिकां घटियन्त्रं च पथिकस्य रिक्तकोषान्तर्विन्यस्य यथापूर्वं तदुपवर्हस्याधः स्थापयित्वा तन्नामाङ्कितं रिक्तपत्रावरणं मत्कोशे न्यधायि मया।

पत्नी सहित मेरे द्वार-द्वार हाथ में कटोरा लेकर खाली हाथ लौटने की सम्भावना का और तुम्हारे भूख से का क्रन्द्रन का चित्रयुगल मेरे चित्त व नेत्रों के आगे स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था। दुर्निवार चिन्ता-समूहों से पीड़ित मैने जगत में स्वयं को असहाय देखा। ऐसा मुझे लगा कि यह निष्प्राण पथिक भी मुझे आग्रहपूर्वक प्रेरित कर रहा है कि, 'अरे! संयोगवश यह सुयोग तुम्हारे लिए उपस्थित हुआ है, यदि उसे तुम छोड़ दोगे तो दूसरा कोई भी उनसे (धन से) अपना उपकार कर लेगा। तुम्हारे हृदय का विचार प्रशंसनीय है। इस धन को ले लो और भूख से पीड़ित पत्नी को भोजन कराओ अथवा कुलदेवता को प्रसन्न करो' ऐसा मृतक मुझे प्रेरित सा किया। मेरी अन्तर्ध्वनि और मृत सहयात्री के भी आदेश से प्रेरित हुए मैने अपने कुर्ते की जेब में रखी घड़ी में ढाई बजे का समय अङ्कित देखकर और शीघ्र ही रेलगाड़ी निर्धारित स्थान पर पहुँच जाएगी यह सोचकर, एक क्षण का भी अपव्यय न हो ऐसा मैने निश्चय किया। आकस्मिक संयोग से प्राप्त यह सुयोग भावी असहनीय कष्ट समूहों को हटा देगा, इस कारण से मैं विलक्षण क्रिया-कलाप में प्रवृत्त हो गया। शीघ्र ही आपस में वस्त्र- परिवर्तन करके पथिक के बटुए से तीन सौ मुद्राएँ लेकर अपने उस बदले हुए कुरते की जेब में रख दिया। तत्पश्चात् उसके हाथों लिखे पत्र को फाड़कर, पत्र के टुकड़ों को बाहर फेंक दिया। फिर उसके पश्चात् मेरे नाम, आवास स्थान (पता) लिखी हुई पर्ची एवं घड़ी पथिक के खाली बटुए में रखकर पूर्ववत् वहीं उसी तकिए के नीचे रखकर उसका नाम लिखे हुए पत्र के लिफाफे को मैने अपने बटुए में रख लिया।

कुमारः - (विस्फारितनयनः) अहहह ! किं वक्ष्यत्यम्बा निशम्यैतत् !

कुमार: (आँखें फैलाकर) आह्ह! यह सुनकर माँ क्या कहेगी!

रामदासः - 'त्वत्सतव जनकेन स्वकीयनाम्नः सहाध्वगस्य धनेन विनिमयः कृतइत्येव सा वक्ष्यति ।

रामदास: 'तुम्हारे पिता ने एक सहयात्री के पैसे के बदले उसके नाम के साथ अदलाबदली किया,' यही वह कहेगी।

हरिः - अहो ! महापातकेनानेनात्मानं दण्डार्हं कृतवानहम् ।

इति रुद्धकण्ठमुदीर्यं हस्तपल्लवाभ्यामाच्छादयत्स्वबाप्पाश्रुमिलितमाननम् हरिः ।

हरि: ओह! मैंने स्वयं को इस महान पाप के लिये दण्ड के योग्य बना लिया है। 

इस तरह रुंधे हुए स्वर में बोलकरहरि ने अपना आंसुओं से ढका हुआ चेहरा को अपनी हथेलियों से ढक लिया

रामदासः - (सानुकम्पम्) सखेक्षणिकविभ्रम एवासीत्किलैषः । कृत्येनानेन तु व्यथाजातं सोढं त्वया विंशतिं वर्षाणि खलु।

रामदास: (करुणापूर्वक) मित्र, यह तो क्षणिक भ्रम था। इस कृत्य से उत्पन्न पीड़ाओं को आपने बीस वर्षों तक सहन किया है।

कुमारः - अनेनाजीवं कारायां न्यक्षिपंस्त्वां जाल्मा अधिकारिणः ?

कुमार: - जालिम अधिकारियों ने आपको इसके लिए आजीवन जेल में डाल दिया?

हरिः - प्रथमतस्तावद् वृत्तान्तानुमेयप्रमाणात्ततश्च परधनाहरणस्याभ्युपगमात् स्वयमेव दण्डार्हमकारयमात्मानम्।

हरि: सबसे पहले, कहानी के अनुमानित साक्ष्य से और फिर दूसरे लोगों के पैसे चुराने के अपराध से, मैंने स्वयं को सजा के लायक बना लिया।

कुमारः - घातकस्त्वमिति कथं प्रमाणीकृतमधमैस्तैः तव धूमयानप्रवेशात्प्रागेव पथिको मृत आसीदिति कुतस्त्वया नोक्तम् ?

कुमार- उन्होंने यह कैसे सिद्ध कर दिया कि तुम हत्यारे हो? आपने यह क्यों नहीं कहा कि रेल गाड़ी में प्रवेश करने से पहले यात्री मर चुका था?

हरिः - आत्मानमवितुं न मया व्यवसितम्। शतत्रयस्य मुद्राणामुद्गमं मा जानीयात्तव जननीति। यद्यात्मानं घोराभियोगादभिरक्षितुं प्रायतिष्ये तदा मत्तादात्म्यरहस्यभेदोऽप्यभविष्यदेव ।

हरि: मैंने खुद को बचाने का फैसला नहीं किया है। तुम्हारी माँ तीन सौ सिक्कों की उत्पत्ति के बारे में नहीं जाने । अगर मैं खुद को घोर अपराध से बचाने की कोशिश करूंगा तो मेरे उस रहस्य में फर्क आ जाएगा।

कुमारः - तात! तर्हि वधस्तम्भेऽपि त्वामारोपयिष्यन् रक्षिणः।

कुमार: पिताजी! तब रक्षक तुम्हें फाँसी की सजा भी दे देते।

हरिः- अयुक्तकारिणमात्मानं दण्डयितुमिच्छन् सर्वथा सन्नद्धोऽहमासं प्रेयस्या विश्वासनिरासान्मरणं श्रेय इति। नास्ति हि जगतीतले तदपेक्षया प्रशस्तं स्त्रीरत्नमन्यत्। सेयं साक्षान्मूर्तिः सावित्रीदेव्याः। दिष्ट्या पथिकस्य विषये गवेषणपरो न कोऽप्यासीत् ।

हरि: मैं कुछ अन्यायपूर्ण करने के लिए स्वयं को दंडित करने के लिए पूरी तरह से तैयार था और कह रहा था कि अपने प्रेयसी को निराश करने की तुलना में मर जाना बेहतर है। उससे बढ़कर कोई अन्य स्त्री रत्न पृथ्वी पर नहीं है । यह साक्षात् सावित्री देवी की मूर्ति है। सौभाग्य से, यात्री के बारे में शोध करने वाला कोई  नहीं था।

कुमारः - हन्त ! तन्नाम चाङ्गीकृत्य विंशतिं वर्षाणि कारायां यापितानि त्वया। अहो किमियं निष्ठुरघटना विधेर्यदियत्समीपस्थमपि त्वां लोकान्तरगतममंस्ताम्बा ।

हरिः - जीवन्नपि मृतप्राय आसमहम् ।

हरि: मैं जीवित होते हुए भी लगभग मर चुका था।

कुमारः - (रामदासं संबोध्य) सर्वमेतद्विदितमासीद्भवताम्। किमिति न तत्कथितं मदम्बायै भवद्भिः ?

कुमार : (रामदास को सम्बोधित करके) आपको यह सब मालूम था। आपने मेरी माँ को वह क्यों नहीं बताया?

हरिः - वत्स ! न तव पितृव्योऽत्र दोषास्पदम् । तव मातुरवमाननं मा भूदिति मद्रहस्यभेदं मा स्म कार्षीरिति प्रार्थितवानहम्। मन्मरणोदन्तो हि दुःखदोऽपि कारादण्डवृत्तान्न दुःसहतरो भवेदस्या इति ।

हरि: पुत्र! इसमें तुम्हारे चाचा का दोष नहीं है।मैंने आपसे विनती की कि तुम्हारे माँ का अपमान न हो  आप मेरे रहस्यों उजागर न करें ।  मेरी मृत्यु के बाद दुःखद होते हुए भी कारावास की सजा की कहानी सके लिए अधिक कष्टदायक न हो।

कुमारः - अयि पितृव्य ! अपि सा नगरान्तरात्तन्निवर्तनाभावान्न चिन्ताकुलाऽभूत् ।

कुमार: ओह, मेरे चाचा ! क्या वह बात से चिंतित नहीं हुई कि वह दूसरे शहर से लौटा नहीं ।

रामदासः - दिष्ट्या त्वत्पितुर्निर्गमाद् द्वित्रदिनोत्तरं त्वां प्रासूत सा। हन्तपतिं सोत्कण्ठं प्रतीक्षमाणायै वृत्तपत्रे तस्य मरणोदन्तोऽपाठि मयेत्यलीकमेवाकथयं तत्रभवत्यै। अपि च धूमयाने स्थितस्य तव पितुः शवस्य दाहस्तदौर्ध्वदैहिकक्रिया च तद्वासस्थानानभिज्ञतया रक्षिभिरेव निर्वर्तितेति सव्याजं न्यवेदि मया तपस्विन्यै तस्यै।

रामदास: सौभाग्य से आपके पिता के दो-तीन दिन जाने के बाद उसने आपको जन्म दिया। खैरमैंने आपको वहां बताया था कि जब वह अपने पति का उत्कण्ठा से इंतजार कर रही थी तो मैंने अखबार में उसका मौत का समाचार पढ़ा था। इसके अलावा मैंने उस तपस्विनी को (तुम्हारी मां को) दिलचस्पी के साथ सूचित किया कि रेल गाड़ी में स्थित आपके पिता के शरीर का अंतिम संस्कार उनके निवास स्थान की जानकारी नहीं होने के कारण उन गार्डों द्वारा किया गया था ।

कुमारः - (हरिम्) किमिति मे कारायां वृत्तमिदं न कथितं भवता ।

युवक: (हरि से) आपने मुझे जेल में  यह समाचार क्यों नहीं बताया कि क्या हुआ?

हरिः - (सविषादम्) इदानीमपि त्वं कारायां नावेदिष्यः । अहो ! स्वतन्त्रतायाः परमानन्दः ! अहो विमुक्तेर्विमलानिलनिः श्वसनम् ! पुनरागच्छेयमिहेति स्वप्नेपि न मया तर्कितम्।

    इत्युक्त्या हस्ताभ्यामावृत्याननं मुक्तकण्ठमरोदीद्धरिः। क्षणोत्तरं किञ्चिदुपशमितदुःखावेगो 'हन्त! इदानीं तु धरणिभारभूतो मृत्पिण्ड इव निरुपयोगः समुपस्थितोऽस्मी'ति न्यगदत्स सगद्दम् ।

हरि : (उदास होकर) अब भी तुम जेल में नहीं रहोगे। ओह ! आज़ादी का परम आनंद! ओह, मुक्ति की शुद्ध हवा की सांस! मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं यहां वापस आऊंगा।

इतना कहकर हरि ने अपना चेहरा हाथों से ढककर गला खोलकर रोने लगा । एक क्षण बाद उसकी दुख वेदना कुछ कम हुई, वह गद्गद कंठ से बोला 'हंत! परन्तु अब मैं मिट्टी का लोंदा के समान पृथ्वी पर बोझ और निकम्मा हूं।

कुमारः - (बाष्पपूरितलोचनः) मैवं मैवं वदतु। पत्नीप्रणयिना भवता स्वजीवितं तृणमिव निक्षिप्य चरमो यज्ञो व्यधायीति धन्योस्ति भवान्। अपि विभेषि कुत्सितात्मनां प्रतिवेशिनां निन्दायाः अलं भिया तात। स्वार्थत्यागेन पूजार्ह भूतोऽसि । श्रुत्पीडितकुलाभिरक्षणाय कारावासोऽङ्गीकृतो भवेति कथयिष्यामि तेभ्यः । विद्यार्थिभ्यो विद्याप्रदाने त्वया सर्वस्वं व्ययीकृतम्। नैष्फल्यं गतेषु च प्रयासेषु न कोऽपि ग्रामेऽस्मिन् साहाय्यं ते व्यतरदिति।

कुमार : (आँखों में आँसू भरकर) ऐसा मत कहो। आप धन्य हैं कि अपनी पत्नी से प्रेम करने वाले आपने अपना जीवन घास की तरह त्याग कर सर्वोच्च यज्ञ किया। क्या आप अपने कुत्सित आत्मा वाले पड़ोसियों की निंदा से डरते हैं? अब डरने की आवश्यकता नहीं है, पिताजी। स्वार्थ को त्यागने से तुम पूज्य बन गये हो। भूख से प्रताड़ित अपने परिवार की रक्षा के लिए आपने कारावास स्वीकार किया यह मैं उनसे कहूंगा। आपने अपनी सारी संपत्ति विद्यार्थियों को ज्ञान प्रदान करने में खर्च कर दी। आपके कोशिशों के निष्फल होने पर गांव में किसी ने भी आपकी मदद नहीं की ।

हरिः - वत्सकिमाख्यानेनानेनविपुला हि पृथिवी। पर्याप्तं च पृथिवीतलं विश्वेषां समाश्रयाय।

    इति भणिते हरिणा समाकर्णि तावद्गृहाद्वहिः पादविन्यासध्वनिः। न चिराच्च प्रवेशद्वारमुदघाट्यत। तदाकर्ण्य 'सावधानम्। समायातास्ति सुनीतिदेवी' - त्यब्रवीद्रामदासः ।

हरि: - पुत्र, इस कहानी के बारे में क्या? क्योंकि पृथ्वी विशाल है। और पृथ्वी का सतह सभी को आश्रय देने के लिए पर्याप्त है।

     हरी ने ऐसा कहते घर के बाहर से आते क़दमों की आवाज़ सुनाई दी  । शीघ्र ही प्रवेश द्वार खुल गया। यह सुनकर रामदास ने कहा, 'सावधान।  सुनीति देवी आ गई हैं।

कुमारः - (ससंभ्रमं सहर्षं च) परमानन्दार्णवेऽसौ निमङ्क्ष्यतीति नास्ति सन्देहलेशोऽपि।

कुमारः - (आश्चर्य और प्रसन्नता के साथ) इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि वह परम आनंद के सागर में डूब जाएगी।

रामदासः - शनैः शनैरेव सर्वमिदं वृत्तं निवेदनीयं तस्यै । (हरिम्) सखेप्रकोष्ठान्तरं गम्यतां क्षणमात्रम्।

   इति रामदासस्य वचः प्रतिपद्य शीघ्रं समीपवर्तिप्रकोष्ठं प्रति यास्यन्तं हरिं "महोत्सवदिवसोऽयंतात। ब्रह्मानन्दं प्राप्स्यत्येवाम्बा पुनः सङ्गमेन भवता" इत्युदीर्य सोज्झम्पं कुमारस्तमन्वगात्। सुनीतिर्मुखशालां प्रविश्य 'क्वास्ति वत्सइति यावत्पृच्छति रामदासं तावद्युवकोऽपि स्वशयनागारान्निर्गतः ।

रामदास: धीरे-धीरे ही, उसे यह सब समाचार बताना चाहिए। (हरि से) मित्र, चलो एक क्षण के लिए दूसरे कमरे में जाओ।

     इस प्रकार रामदास के शब्दों को सुनकरतेजी से दूसरे निकटतम कक्ष में जा रहे हरि को "यह एक महान दिन है, मेरे पिता जी। मेरी माँ आपसे दोबारा मिलकर ब्रह्म आनंद प्राप्त करेगी। यह बोलकर कमार दौड़ कर उसका पीछा किया। सुनीति ने मुख्य हॉल में प्रवेश कर 'मेरा बेटा कहां है' जब जब तक रामदास से पूछा तब तक वह युवक भी अपने शयनकक्ष से बाहर निकल आया।

सुनीतिः- कथम् नाद्यापि किं स्नानादिविधिः समापितस्त्वयापुरोहितश्चिराय त्वां प्रतीक्षते । अरे कस्मिन् कर्मणि व्यापृतोऽस्येतावत्कालम् ?

सुनीति: - कैसे? क्या आपने अभी तक स्नान अनुष्ठान पूरा नहीं किया है? पुजारी बहुत देर से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। ओह, तुम इतने समय किस काम में लगे हो?

रामदासः - सहचरेण सार्धं संलपन् ।

रामदास:- साथी के साथ बात करते हुए ।

सुनीतिः- सह बन्दिना ? (संत्रस्ता) हा! परमात्मन् कथमत्र प्रविष्टोऽयम् ?

इत्युक्त्वा ससंभ्रममितस्ततो निरीक्ष्य समीपवर्तिप्रकोष्ठं प्रति यास्यन्तीं तां न्यवारयत्तरुणः प्रसारितहस्ताभ्याम् ।

सुनीति: कैदी के साथ? (भयभीत हुई) हा! हे परमेश्वरयह यहाँ कैसे प्रवेश कर गया?

इतना कहकर युवक ने असमंजस में इधर-उधर देखा और हाथ फैलाकर उसे पास की कोठरी में जाने से रोक दिया ।

कुमारः - (प्रफुल्लवदनः) विद्यतेऽसौ क्वाप्यत्रैव। प्रायो गोशालायाम्। तद्दर्शनेनापारहर्षं यास्यसीति सशपथं ब्रवीति सुतस्ते। अपि च तं भोजयिष्यसे महानसेमुखशालायामपि। मिष्टान्नपूरितपात्रेण तं सेविष्यसे। तदनु सर्वेऽपि वयं चत्वारः परमपरमानन्दापगापतिमवगाहमानाः सुखं प्लोष्यामहे।

इत्युदीर्य मातुर्हस्तमादाय समार्दवं तं पर्यचुम्बत्प्रमुदितान्तर्वटुः ।

कुमारः - (प्रसन्न मुख से) वह यहीं कहीं मौजूद है। लगभग गौशाला में. आपका बेटा शपथ पूर्वक कहता है कि आप उसे देखकर बहुत खुश होंगी। और तुम उसे रसोई घर में आर मुख-कक्ष में भी खिलाओगी। तुम उसे मीठे भोजन से भरे पात्र से भोजन कराओगी। तब हम चारों परम आनंद के भगवान में गोता लगाते हुए खुशी से तैरेंगे।

इतना कहकर वह वटु अपनी माँ का हाथ पकड़ लिया और उसे स्नेहपूर्वक चूम लिया।

सुनीतिः - पुनस्त्वां सनिश्चयं वच्मि यदस्मद्गेहे बन्दिनः प्रवेशेन न भाव्यम् इति। (पुत्रस्य प्रोच्चप्रहसनेन रुष्टेव) सद्य एव केषाञ्चित्प्रतिवेशिनां तद्विषये कुत्सितसंवादोऽश्रावि मया। यदि पुरुषोऽयमिहालोक्येत प्रतिवेशिभिस्तदाधिकाधिकनिन्दापङ्केन लिप्तौ भविष्यावः । (कुमारो भूयो भूयः प्रहसंस्तां परिष्वजते।) हन्त ! निर्लज्जता बटोरस्य ! तव तातपादास्त्रपयाऽमरिष्यन् (रामदासम्) वेत्त्यैतद् भवान्। नहिनहि। सदोषोऽयं नालोक्येत गृहेऽस्मिन् । निर्गच्छतु शीघ्रम्। (धनकोशादुद्धृत्य रूप्यपादम्) देहि तस्मा एतत्। अनेन किमपि खाद्यं क्रीणातु। निर्गमय तं झटिति । न तुष्येदनेन चेदधिकं प्रदास्यामि। रूप्यार्धंरूप्यमपि। परं सपदि निर्गच्छतु वराकोऽऽयम्।

सुनीति: मैं तुम्हें फिर से निश्चय पूर्वक कहती हूं कि हमारे घर में कोई कैदी नहीं आना चाहिए। (अपने बेटे की तेज़ हँसी पर नाराज हुई) मैंने अभी ही कुछ पड़ोसियों को इसके बारे में निन्दनीय बात करते हुए सुना । अगर यह आदमी यहां हमारे पड़ोसियों को दिख जाए तो हम और भी अधिक निंदा के कीचड़ से सने होंगे। (युवक बार-बार हंसता है और उसे गले लगा लेता है।) दुर्भाग्य है! इस बटु की बेशर्मी! तुम्हारे पिता शर्म से मर जायेंगे। (रामदास को)  यह आप जानते हैं? नहीं, नहीं, यह दोष पूर्ण व्यक्ति इस घर में नहीं दिखे। जल्दी से यहाँ से निकल जाओ। (खजाने से रूपये निकालकर) उसके लिए इसे दे दो। इससे खाने के लिए कुछ खरीदें । उसे जल्दी से बाहर निकालो। यदि वह इससे संतुष्ट नहीं हो तो मैं और भी अधिक दूँगी । आधा रुपया, एक रुपया भी। लेकिन यह व्यक्ति तुरंत बाहर चला जाय ।

    अथ युवको मुहुर्मुहुः प्रसहन् रामदासेन दत्तसंज्ञः प्रकोष्ठं प्रति यावद् गच्छति तावद् गृहाणैतानि पञ्च रूप्याणि देहि तानि च तस्मा इति सुनीतिरब्रवीत्। परं मातुर्वचनमश्रुण्वन्निव ततोऽभ्यधावद्युवा।

    इसके बाद वह युवक बार-बार हंसते हुए रामदास दिए गए नाम वाले कोठरी की ओर जब तक जाता है तब तक सुनीति ने कहा, ''ये पाँच रुपये ले लो और उसे दे दो। लेकिन अपनी माँ की बात नहीं सुनता सा वह युवा उसकी ओर दौड़ा ।

सुनीतिः - अहोमौर्ख्यं सुतस्य मे। देवमन्दिरनिर्मितेः प्रतिज्ञापि निरर्थिका भविष्यत्यद्य। विश्वगेव नतशिरसा स्थेयं मया। हन्त ! हन्त ! बालिशता बटोः।

सुनीति : हाय, मेरे बेटे की मूर्खता। देवताओं का मन्दिर बनाने का वादा भी आज व्यर्थ हो जायेगा। मुझे ब्रह्मांड की तरह सिर झुकाकर खड़ा होना चाहिए। मुझे क्षमा करें! मुझे क्षमा करें! बटु का बचपना।

रामदासः - नहिनहि। भवत्या नन्दनः साधुरेव । तरुणानां प्रतिभायुजामात्मबोधो वैशिष्ट्यं भजति खलु।

रामदास: नहीं, नहीं. तुम्हारा नंदन सही है। युवाओं की आत्म-जागरूकता वास्तव में उनकी प्रतिभा की एक विशिष्ट विशेषता है।

सुनीतिः - (तं निरीक्षमाणा ससन्देहम्) किमित्येवं भाष्यते भवद्भिरद्य नावगम्यते मया भवदीयाऽपि वाक्।

 तस्मिन्नेव क्षणे प्रकोष्ठान्ततो निर्गतो निर्गतः पितृव्य निर्गत इत्याक्रोशन् ससंभ्रमं मुखशालां पुनः प्राविशत्कुमारो विषण्णतमः । 

सुनीति : (सशंकित दृष्टि से देखकर) आज आप ऐसी बात क्यों कर रहे हैं? मुझे आपकी बातें भी समझ नहीं आ रही हैं।

  उसी क्षण वह युवक, अत्यंत निराश होकर,  "चले गए, चले गए !" पिता जा चले गए इस तरह दूसरे कमरे चिल्लाता हुआ विशाद से भरा हुआ युवक मुख्य हॉल में प्रवेश कर गया ।

सुनीतिः - को निर्गतः ।

सुनीतिः - कौन चला गया ।

कुमारः - " मदीयं मित्रम्। मदीय......"

कुमार: "मेरा दोस्त. मेरा..

सुनीतिः - अथ किं त्वयाधिकमपेक्षितम्। अपराधिनो न कदापि विश्वसनीया इति कथितमेव ते पूर्वं मया।

सुनीति: तो फिर क्या आप और अधिक उम्मीद करते हैं? मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया है कि अपराधियों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए।

कुमारः - अम्बनासीदपराधी मत्सखा। हन्त ! विनष्टमेतं न कदापि द्रक्ष्यामि पुनः। 'नाभिमतोऽहमत्रेति व्यजानात्। (इति वदन्नरोदीन् मुक्तकण्ठम्।)

कुमार: माँमेरे दोस्त अपराधी नहीं था । दुख है, मुझे क्षमा करें! मैंने उन्हें खो दिया, फिर कभी नहीं देखूंगा  । उन्होंने कहा, 'मुझे यहां कोई दिलचस्पी नहीं है।' (यह कहते हुए खुले गले से रोते हुए)

रामदासः - नातिदूरं गतः स्यात् । अत्रैव क्वापि भाव्यं तेन ।

रामदास: वह ज्यादा दूर नहीं गया होगा । उसे यहीं कहीं होना चाहिए।

कुमारः - न क्वापि स वर्तते। सर्वत्रैव गवेषितो मया। गोशालायामपि।

    इति वदन् भूतले निपात्यात्मानं युवकोऽधिकाधिकमाक्रन्दत्। पर्यन्ते पुत्रस्य शोकस्य स्वयमेव कारणीभूतेति तत्सविधमुपविश्य भुवि तं च समार्दवं संस्पृश्य-

कुमार- वह कहीं नहीं है। मैंने हर जगह खोजा। गौशाला में भी।

यह कहते हुए वह युवक जमीन पर गिर गया और और जोर से रोने लगा । अंत में, बेटे के दुःख का कारण वह स्वयं है यह समझकर वह जमीन पर बैठ गई और उसे प्यार से छूते हुए कहा -

सुनीतिः - अलमलं रुदितेन। आगच्छतु तव सुहृदत्र। प्रायो निष्कृत्युत्तरं सर्वमेव साधु भवेत्। उत्तिष्ठ स्नापयात्मानं च शीघ्रम्। (रामदासम्) अन्विष्यतां तावत्।

    रामदासो गृहात् सपदि निर्ययौ।

सुनीति : अधिक रोने से कोई फायदा नहीं । आपका दोस्त यहाँ आये। प्रायश्चित के बाद लगभग सब कुछ ठीक हो जाना चाहिए। उठो और जल्दी से नहा लो। (रामदास से) आप उसे ढूंढ लें।

     रामदास तुरंत घर से निकल गया।

घटिकाद्वयोत्तरं निष्कृतिविधौ यथाविधि देवमन्दिरपूजकैर्विहिते कुमारः सह जनन्या सदनं निवृत्तो मुखशालायां चिरमितस्ततोऽस्वस्थो गतागतं कृतवान् । स्वल्पिष्टनादश्रवणाद्भूयो भूयो वातायनं सरभसमधावच्च। क्रमेण रामदासः शुभ्राम्बरधारिणा हरिणा मुण्डितश्मश्रुकूर्चेनानुगम्यमानो मुखशालां प्राविशत्। प्रविष्टमात्रं हरिं कुमारो यावद्गाढं परिष्वजते तावत्कुलदेवतोपादानाय पुष्पमोदकदीपादिसम्भृतं पात्रं धारयन्ती करपल्लवे सुनीतिः हरिं विलोक्य देहल्यामेव भ्रष्टसंज्ञेव स्तिमितलोचनोत्कीर्णकाष्ठमूर्तिरिव भूलग्ना क्षणं तस्थौ। पूजाभाजनं तत्करादपासृपत्क्षितितले बद्धाञ्जलिर्हरिर्यावत्तामुपैति  तावत्पिशाचावलोकनाद्भयग्रस्तेव सनियताक्रोशं सा न्यपतदधः। तदनु हरिणा समार्दवं संबोधिता सा विस्मयभयाकुलान्तरा तं निरीक्षणमाणा चिरं बद्धवागवस्थिता। क्रमेण भर्तृनन्दनाभ्यां शूश्रूषिता रामदासेन च सावधनं बोधितयाथार्थ्यां शनैः शनैः स्वास्थ्यमवाप सुनीतिः ।

दो घंटे बाद, देवताओं के मंदिर के उपासकों द्वारा बताए गए शुद्धिकरण के अनुष्ठान के बाद, कुमार अपनी मां के साथ घर लौट आया और काफी देर तक सामने के हॉल में रहा, फिर अस्वस्थ हो गया और इधर-उधर जाने लगा। हल्की सी सीटी की आवाज सुनकर बार-बार हवा चलने लगी। धीरे-धीरे रामदास ने प्रवेश कक्ष में प्रवेश किया और उसके पीछे सफेद वस्त्र और मुंडित मूंछें वाले हरि आया । जैसे ही युवक अंदर आया, सुनीति, कुल देवता को चढ़ाने के लिए फूल, पानी, दीपक और अन्य वस्तुओं से भरा एक बर्तन लेकर दरबाजे पर एक पल के लिए खड़ी हो गई, जैसे कि वह बेहोश हो गई हो और जमीन पर लेटी हो। उसकी आँखें अभी भी, पूजा का पात्र उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर गया और हाथ जोड़कर खड़े हो गए मानो राक्षस को देखकर भयभीत हो गए हों। तब हरी ने उसे धीरे से संबोधित किया और वह बहुत देर तक अवाक खड़ी आश्चर्य और भय से उसकी ओर देखती रही । धीरे-धीरे पति और पुत्र की सेवा और रामदास द्वारा यथार्थ बताए जाने पर धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया ।

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