श्रममाहात्म्यम् संस्कृत ग्रंथ या श्लोक-रचनाओं का संग्रह है, जो श्रम की महत्ता और उसके समाज एवं व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव को दर्शाता है।
यह विद्यार्थियों के लिए
विशेष रूप से उपयोगी है क्योंकि:
· यह संस्कृत श्लोकों के माध्यम से नैतिक शिक्षा देता है।
· श्लोकों में संस्कृत भाषा, अलंकार और भाव का अध्ययन संभव है।
· छात्रों को शब्दार्थ, भावार्थ और आधुनिक जीवन में अनुप्रयोग समझने
का अवसर मिलता है।
श्रममाहात्म्यम् के प्रमुख श्लोक और उनका हिंदी अर्थ
श्लोक / उद्धरण |
हिंदी अर्थ |
स्वश्रमोपार्जितं हि अन्नं तन्नूनं परमामृतम् |
स्वयं किए गए परिश्रम से अर्जित भोजन ही सबसे श्रेष्ठ और
अमृत तुल्य है। |
श्रमेण यः सन्तुष्टो भवति सः मोक्षमार्गे अग्रसरः |
जो व्यक्ति अपने परिश्रम से संतुष्ट है, वह आध्यात्मिक
मार्ग पर भी अग्रसर होता है। |
कर्मण्येवाधिकारः ते मा फलेषु कदाचन |
केवल कर्म करने में अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं — (कर्मयोग का सार)। |
परिश्रमेण सर्वं साध्यते |
परिश्रम से ही सब कुछ संभव है। |
शैक्षिक उद्देश्य
1. भाषा अध्ययन: श्लोकों में प्रयुक्त शब्दों, उपमा, अलंकार आदि को समझना।
2. नैतिक शिक्षा: श्रम का महत्व और व्यक्तिगत
व सामाजिक जीवन में इसका स्थान।
3. सृजनात्मक अभ्यास: श्लोकों का आधुनिक जीवन
में अनुप्रयोग सोचकर उदाहरण देना।
4. साक्षरता अभ्यास: श्लोकों का सही उच्चारण
और भावानुवाद।
प्रश्नोत्तरी (तैयारी के लिए)
1. “स्वश्रमोपार्जितं
हि अन्नं तन्नूनं परमामृतम्” श्लोक का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
2. श्रम
की महत्ता पर आधारित किसी श्लोक का आधुनिक जीवन में उदाहरण दीजिए।
3. लेखक
ने “श्रममाहात्म्यम्” में किस प्रकार
के नैतिक और दार्शनिक संदेश दिए हैं?
4. श्लोक
“परिश्रमेण सर्वं साध्यते” का सामाजिक
और व्यक्तिगत जीवन में महत्व समझाइए।
5. इस
लेख के अनुसार, परिश्रम और संतोष के बीच क्या सम्बन्ध
है?
तैयारी टिप्स छात्रों के लिए
· श्लोकों को अलग-अलग पढ़कर उनके अर्थ और भाव नोट करें।
· प्रत्येक श्लोक के अलंकार और शब्द चयन पर ध्यान दें।
· श्लोकों के आधुनिक जीवन में उपयोग पर विचार करें और अपने उदाहरण बनाएं।
· श्लोकों के अनुवाद और भावार्थ लिखकर अभ्यास करें।
श्रममाहात्म्यम् मूलपाठ
गोधान्य धनदानानि प्रशस्यान्यपि सर्वथा ।
शरीरश्रमदानस्य कलां
नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १ ॥
शमिनो दमिनस्तद्वद्यागिनो
योगिनोऽपि वा !
तेऽजस्त्रं श्रमिणः
क्षेत्रे तुलां नार्हन्ति कर्हिचित् ॥ २॥
प्रश्राम्यन् पङ्किले
क्षेत्रे पङ्कलिप्ततनुर्हि यः ।
स वन्द्योऽश्रमिणः
साधोर्भस्माङ्किततनोरपि ॥ ३ ॥
श्रमिणो व्रणचिह्नानि
क्षेत्रेऽरण्ये रणेऽथवा ।
तानि प्रवालमालाभ्यो
रोचिष्मन्ति विभान्ति मे ॥ ४ ॥
स्वश्रमोपार्जितं ह्यन्नं
तन्नूनं परमामृतम् ।
न तत् क्षीराब्धिसम्भूतं
न वा यज्ञहुतं हविः ॥ ५ ॥
श्राम्यन्ति गृहिणो यत्र
सर्वेऽपि सततं गृहे ।
स्वच्छता सुव्यवस्था च
राजते तत्र देवता ॥ ६ ॥
न तद् बिभर्ति पावित्र्यं
गाङ्गं वा यामुनं जलम् ।
कृषीवलस्य तप्तस्य
कायोत्थं श्रमवारि यत् ॥ ७ ॥
यदाज्याहुतिभिः पुण्यं
दीर्घसत्रेष्ववाप्यते ।
नूनं शतगुणं तस्मात्
क्षेत्रेषु जलसिञ्चनैः ॥ ८ ॥
श्राम्यन्तः खलु यज्वानः
श्राम्यन्तः खलु योगिनः ।
श्राम्यन्त एव दातारः
श्रीमन्तो न कथञ्चन ॥ ९ ॥
श्रीमन्तः श्रमवन्तश्च
नैव तुल्याः कदाचन ।
भान्ति रत्नोपलैरेके
श्रमवारिकणैः परे ॥ १० ॥
श्रीमतां श्रमहीनानां
भारात् खिन्नां वसुन्धराम् ।
प्रीणयन्ति स्वकौशल्यैः
श्राम्यन्तः कारुशिल्पिनः ॥ ११ ॥
जयन्ति ते कलावन्तः
सन्ततश्रमनैष्ठिकाः ।
येषामद्भुतनिर्माणैर्जगदेतदलङ्कृतम्
॥ १२ ॥
धिग् धिक् तं मांसलं देहं
रूपयौवनशालिनः ।
यो न धत्ते श्रमाभावाद्
गात्रस्नायुकठोरताम् ॥ १३ ॥
न मुक्तासु न हीरेषु
तत्तेजः खलु राजते ।
शिल्पिनः श्रमतप्तस्य
स्वेदाम्बुकणिकासु यत् ॥ १४ ॥
मांसलोऽपि हि कायोऽसौ
नूनं पाषाणनिर्मितः ।
न यः परिश्रमैरेति
प्रस्विन्नाखिलगात्रताम् ॥ १५ ॥
प्रियं पद्मादपीशस्य
नीहारकणिकाचितात् ।
मुखं स्वेदाम्बुसङ्क्लिन्नं
शिल्पिनः श्रमजीविनः ॥ १६ ॥
अधनेनापि जीयन्ते श्रमिणा
धनसम्पदः ।
सधनेन तु हीयन्तेऽश्रमिणा
कुलसम्पदः ॥ १७ ॥
पदवाक्यमयी वाणी जिह्वयैव
निगीर्यते ।
सा तु श्रममयी वाणी
सर्वैरङ्गैरुदीर्यते ॥ १८ ॥
श्रमेण दुःखं यत्किञ्चित्
कार्यकालेऽनुभूयते ।
कालेन स्मर्यमाणं तत्
प्रमोदायैव कल्पते ॥ १९ ॥
पुष्पिण्यौ श्रमिणो जङ्घे
गतिर्धीरोद्धता तथा ।
व्यूढं वक्षो दृढावंसौ
वपुरारोग्यमन्दिरम् ॥ २० ॥
श्राम्यतः शुभकार्येषु
जागरूकतयाऽनिशम् ।
श्रमश्रान्तानि नियतं
दैन्यानि खलु शेरते ॥ २१ ॥
ज्ञानभक्तिविहीनोऽपि यः
श्राम्यति सुकर्मसु ।
साधुरेव स मन्तव्यः
सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ २२ ॥
(१९७७)
श्रमयोगः
योगिनामपि सर्वेषां
पूजनीयो हि सर्वथा ।
एकाकी प्रतपन् क्षेत्रे
श्रमयोगी कृषीवलः ॥ १ ॥
श्रमयोगी महायोगी श्रमिको
धार्मिको महान् ।
श्रमाचारी ब्रह्मचारी
श्रमशीलो हि शीलवान् ॥ २ ॥
श्राम्यन्तोऽविरत लोके
श्रेयांसो वृषभा हि ते ।
अलसाः किन्तु न श्लाध्याः
सिंहा गह्वरशायिनः ॥ ३ ॥
ब्रह्मर्षीणां कुले जातो
भूदेवो नहि तत्त्वतः ।
अकुलीनोऽपि भूदेवो यो
भुवं सम्प्रसेवते ॥ ४ ॥
पूजार्हो नरदेवानां
भूदेवानाञ्च सर्वथा ।
श्रमदेवो महात्माऽसौ निशि
जाग्रन् दिवा तपन् ॥ ५ ॥
भूदेवानां नृदेवानां
देवानां स्वर्गिणामपि ।
श्रमदेवो हि पूजार्हः
प्राणिनां वृषभो यथा ॥ ६ ॥
वृषो हि भगवान् धर्मो
मुनीनामपि सम्मतः ।
परिश्राम्यत्यविश्रान्तं
यदसौ लोकहेतवे ॥ ७ ॥
शोचनीयो यथा लोके पतितो
निर्धनो जडः ।
श्रमात् पराजितो नूनं
शोचनीयतरस्ततः ॥ ८ ॥
कृशोत्साहः कृशबलः
कृशकर्मा कृशश्रमः ।
स एव हि कृशो नूनं न
शरीरकृशः कृशः ॥ ९ ॥
ये शास्त्रपण्डिता लोके
येऽथवा शस्त्रपण्डिताः ।
श्रमिकैरेव पाल्यन्ते
देवैराराधका इव ॥ १० ॥
श्रमिकं निर्धनञ्चापि
भूदेवा भूभृतस्तथा ।
वणिजोऽप्युपजीवन्ति
श्रमिको जीवनप्रदः ॥ ११॥
(१९७७)
लेखकः-
श्रीधरभास्करवर्णेकरः
श्रममाहात्म्यम् अर्थ सहित
गोधान्य धनदानानि
प्रशस्यान्यपि सर्वथा ।
शरीरश्रमदानस्य कलां नार्हन्ति
षोडशीम् ॥ १ ॥
हिन्दी अर्थ: - गायों, अनाज और धन के दान को सभी
दृष्टियों से प्रशंसनीय माना जाता है, फिर भी ये दान
शरीर के श्रम से किए गए दान के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं।
शमिनो दमिनस्तद्वद्यागिनो
योगिनोऽपि वा !
तेऽजस्त्रं श्रमिणः
क्षेत्रे तुलां नार्हन्ति कर्हिचित् ॥ २ ॥
हिन्दी अर्थ: - शांत
स्वभाव वाले, आत्म-संयमी, यज्ञ करने वाले, या योगी—ये
सभी श्रम करने वाले व्यक्ति के साथ किसी भी क्षेत्र में तुलना के योग्य नहीं हैं, क्योंकि श्रम का महत्व इन सबसे अधिक है।
प्रश्राम्यन् पङ्किले
क्षेत्रे पङ्कलिप्ततनुर्हि यः ।
स वन्द्योऽश्रमिणः
साधोर्भस्माङ्किततनोरपि ॥ ३ ॥
हिन्दी अर्थ: - जो
व्यक्ति कीचड़युक्त क्षेत्र में श्रम करते हुए अपने शरीर को कीचड़ से लथपथ कर लेता
है, वह
श्रम करने वाले साधु का सम्मान करने योग्य है, भले ही
उसका शरीर भस्म से अंकित क्यों न हो।
श्रमिणो व्रणचिह्नानि
क्षेत्रेऽरण्ये रणेऽथवा ।
तानि प्रवालमालाभ्यो
रोचिष्मन्ति विभान्ति मे ॥ ४ ॥
हिन्दी अर्थ: - श्रम करने
वाले व्यक्ति के शरीर पर खेत, जंगल, या युद्ध में
प्राप्त व्रण चिह्न मेरे लिए प्रवाल की माला की भाँति प्रकाशमान और सुंदर प्रतीत
होते हैं।
स्वश्रमोपार्जितं ह्यन्नं
तन्नूनं परमामृतम् ।
न तत् क्षीराब्धिसम्भूतं
न वा यज्ञहुतं हविः ॥ ५ ॥
हिन्दी अर्थ: - अपने श्रम
से अर्जित किया हुआ अन्न निश्चित रूप से परम अमृत के समान है, न कि वह जो क्षीरसागर से
प्राप्त हो या यज्ञ में आहुति के रूप में प्रयुक्त हो।
श्राम्यन्ति गृहिणो यत्र
सर्वेऽपि सततं गृहे ।
स्वच्छता सुव्यवस्था च
राजते तत्र देवता ॥ ६ ॥
हिन्दी अर्थ: - जिस घर
में सभी गृहिणियाँ सतत रूप से श्रम करती हैं, वहाँ स्वच्छता और सुव्यवस्था शोभायमान होती है, और उसी में देवता निवास करते हैं।
न तद् बिभर्ति पावित्र्यं
गाङ्गं वा यामुनं जलम् ।
कृषीवलस्य तप्तस्य
कायोत्थं श्रमवारि यत् ॥ ७ ॥
हिन्दी अर्थ: - न तो गंगा
का जल और न ही यमुना का जल उस पवित्रता को धारण करता है, जो कष्ट सहते हुए किसान के
शरीर से निकला हुआ श्रम का पसीना है।
यदाज्याहुतिभिः पुण्यं
दीर्घसत्रेष्ववाप्यते ।
नूनं शतगुणं तस्मात्
क्षेत्रेषु जलसिञ्चनैः ॥ ८ ॥
हिन्दी अर्थ: - जो पुण्य
दीर्घ सत्रों में घी की आहुतियों से प्राप्त होता है, वह निश्चित रूप से खेतों में
जल सिंचन के श्रम से सौ गुना अधिक है।
श्राम्यन्तः खलु यज्वानः
श्राम्यन्तः खलु योगिनः ।
श्राम्यन्त एव दातारः
श्रीमन्तो न कथञ्चन ॥ ९ ॥
हिन्दी अर्थ: - यज्ञ करने
वाले श्रम करते हैं, योगी
भी श्रम करते हैं, दान करने वाले भी श्रम करते हैं, किंतु धनवान लोग कदापि श्रम नहीं करते।
श्रीमन्तः श्रमवन्तश्च
नैव तुल्याः कदाचन ।
भान्ति रत्नोपलैरेके
श्रमवारिकणैः परे ॥ १० ॥
हिन्दी अर्थ: - धनवान और
श्रम करने वाले कभी समान नहीं होते; धनवान रत्न-उपलों से चमकते हैं, जबकि श्रम करने वाले श्रम के पसीने की बूंदों से प्रकाशित होते हैं।
श्रीमतां श्रमहीनानां
भारात् खिन्नां वसुन्धराम् ।
प्रीणयन्ति स्वकौशल्यैः
श्राम्यन्तः कारुशिल्पिनः ॥ ११ ॥
हिन्दी अर्थ: - धनवान और
श्रमहीन लोगों के बोझ से थकी हुई पृथ्वी को कारीगर शिल्पी अपने कौशल और श्रम से
संतुष्ट करते हैं।
जयन्ति ते कलावन्तः
सन्ततश्रमनैष्ठिकाः ।
येषामद्भुतनिर्माणैर्जगदेतदलङ्कृतम्
॥ १२ ॥
हिन्दी अर्थ: - उन
कलाकारों की जय हो, जो
सतत श्रम और निष्ठा से कार्य करते हैं, जिनके अद्भुत
निर्माणों से यह जगत सुशोभित है।
धिग् धिक् तं मांसलं देहं
रूपयौवनशालिनः ।
यो न धत्ते श्रमाभावाद्
गात्रस्नायुकठोरताम् ॥ १३ ॥
हिन्दी अर्थ: - धिक्कार
है उस मांसल शरीर को, जो
रूप और यौवन से युक्त होने के बावजूद श्रम के अभाव से अपनी मांसपेशियों और
स्नायुओं की कठोरता नहीं धारण करता।
न मुक्तासु न हीरेषु
तत्तेजः खलु राजते ।
शिल्पिनः श्रमतप्तस्य
स्वेदाम्बुकणिकासु यत् ॥ १४ ॥
हिन्दी अर्थ: - न तो
मोतियों में और न ही हीरों में वह तेज शोभायमान होता है, जो शिल्पी के श्रम से तपे
हुए शरीर की पसीने की बूंदों में विद्यमान है।
मांसलोऽपि हि कायोऽसौ
नूनं पाषाणनिर्मितः ।
न यः परिश्रमैरेति
प्रस्विन्नाखिलगात्रताम् ॥ १५ ॥
हिन्दी अर्थ: - यद्यपि वह
शरीर मांसल है, फिर
भी वह निश्चित रूप से पत्थर का बना प्रतीत होता है, जो
परिश्रम से पूरे शरीर में पसीना नहीं लाता।
प्रियं पद्मादपीशस्य
नीहारकणिकाचितात् ।
मुखं स्वेदाम्बुसङ्क्लिन्नं
शिल्पिनः श्रमजीविनः ॥ १६ ॥
हिन्दी अर्थ: - ईश्वर के
प्रिय कमल के फूल से भी, जो
ओस की बूंदों से सुशोभित होता है, अधिक प्रिय है वह
शिल्पी का मुख, जो श्रमजीवी होने के कारण पसीने से भीगा
हुआ है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: यह श्लोक श्रम के
माध्यम से प्राप्त पसीने को ओस की बूंदों से भी अधिक पवित्र और मूल्यवान बताता है।
शिल्पी का श्रम से भीगा मुख ईश्वर के प्रिय कमल से तुलनीय है, जो श्रम की दिव्यता को दर्शाता है। यह श्रम को आध्यात्मिक ऊँचाई प्रदान
करता है, जहाँ परिश्रम मनुष्य को ईश्वरीय कृपा का पात्र
बनाता है।
- साहित्यिक महत्व: श्लोक में
उपमा अलंकार का सुंदर उपयोग है—नीहार (ओस) और स्वेद (पसीना)
की तुलना। यह नीति साहित्य की परंपरा में आता है, जहाँ
श्रम को धन या पद से श्रेष्ठ माना जाता है। यह श्लोक श्रम की महिमा को काव्यात्मक
रूप से उभारता है, जो वेदांतिक विचारों से प्रेरित लगता
है।
- आधुनिक संदर्भ: आज के युग में, जहाँ श्रमिकों की मेहनत को अक्सर अनदेखा किया जाता है, यह श्लोक श्रम की गरिमा को याद दिलाता है। उदाहरण के लिए, कारीगरों या किसानों का पसीना समाज की नींव है, जो आर्थिक विकास में योगदान देता है।
अधनेनापि जीयन्ते श्रमिणा
धनसम्पदः ।
सधनेन तु हीयन्तेऽश्रमिणा
कुलसम्पदः ॥ १७ ॥
हिन्दी अर्थ: - धनहीन
व्यक्ति भी श्रम द्वारा धन-संपदा प्राप्त कर लेता है, किंतु धनवान व्यक्ति श्रम न
करने से अपनी कुल-संपदा खो देता है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: श्लोक श्रम को धन और
कुल की रक्षा का साधन बताता है। गरीब व्यक्ति श्रम से धन कमा सकता है, लेकिन धनवान यदि श्रम न करे, तो उसका कुल नष्ट
हो जाता है। यह श्रम को स्थायी संपदा का आधार मानता है।
- साहित्यिक महत्व: विपरीत
अर्थों का उपयोग (अधनेन जीयन्ते vs. सधनेन
हीयन्ते) विरोधाभास अलंकार दर्शाता है। नीति श्लोकों की तरह, यह जीवन की सच्चाई को संक्षिप्त रूप से व्यक्त करता है, जो महाभारत या चाणक्य नीति से प्रेरित लगता है।
- आधुनिक संदर्भ: आज के उद्यमी
युग में, यह श्लोक स्टार्टअप संस्कृति को दर्शाता है, जहाँ मेहनत से सफलता मिलती है। उदाहरण: कई अरबपति (जैसे एलन मस्क) निरंतर
श्रम पर जोर देते हैं।
पदवाक्यमयी वाणी जिह्वयैव
निगीर्यते ।
सा तु श्रममयी वाणी
सर्वैरङ्गैरुदीर्यते ॥ १८ ॥
हिन्दी अर्थ: - शब्दों और
वाक्यों से युक्त वाणी केवल जिह्वा द्वारा ही व्यक्त की जाती है, किंतु श्रममयी वाणी समस्त
अंगों के माध्यम से उच्चरित होती है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: श्लोक वाणी के दो
रूपों की तुलना करता है—एक मौखिक (जिह्वा से), दूसरी श्रम से (शरीर के सभी अंगों से)। यह बताता है कि श्रम ही सच्ची
अभिव्यक्ति है, जो शब्दों से परे है।
- साहित्यिक महत्व: तुलना
अलंकार का उपयोग। यह योग और कर्म दर्शन से जुड़ता है, जहाँ
कर्म (श्रम) को वाणी से श्रेष्ठ माना जाता है, जैसे
भगवद्गीता में "कर्मण्येवाधिकारस्ते"।
- आधुनिक संदर्भ: यह
"क्रियाएँ शब्दों से अधिक बोलती हैं" की कहावत को दर्शाता है।
कार्यस्थलों में, परिणाम श्रम से आते हैं, न कि सिर्फ बातों से।
श्रमेण दुःखं यत्किञ्चित्
कार्यकालेऽनुभूयते ।
कालेन स्मर्यमाणं तत्
प्रमोदायैव कल्पते ॥ १९ ॥
हिन्दी अर्थ: - श्रम से
जो थोड़ा-सा दुःख कार्य के समय अनुभव होता है, उसे बाद में स्मरण करने पर वह आनंद का कारण
बनता है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: श्रम का दुख क्षणिक
है, लेकिन उसकी स्मृति सुखद होती है। यह जीवन की
विपरीतियों को दर्शाता है।
- साहित्यिक महत्व: समय के
प्रभाव का चित्रण। नीति साहित्य में यह दुख-सुख की चक्रीयता को दिखाता है, जैसे "दुख के बाद सुख आता है"।
- आधुनिक संदर्भ: व्यायाम या
अध्ययन में प्रारंभिक कष्ट बाद में सफलता का सुख देता है, जैसे "No pain, no gain"।
पुष्पिण्यौ श्रमिणो जङ्घे
गतिर्धीरोद्धता तथा ।
व्यूढं वक्षो दृढावंसौ
वपुरारोग्यमन्दिरम् ॥ २० ॥
हिन्दी अर्थ: - श्रम करने
वाले की जंघाएँ पुष्पों की भाँति सुशोभित होती हैं, उसकी गति धीर और ऊँची होती
है, वक्षःस्थल विस्तृत, कंधे
दृढ़, और शरीर स्वास्थ्य का मंदिर होता है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: श्रम शरीर को मजबूत
और सुंदर बनाता है, जो स्वास्थ्य का आधार है।
- साहित्यिक महत्व: शरीर के
अंगों की उपमा पुष्पों से—रूपक अलंकार। यह योग और स्वास्थ्य
दर्शन से जुड़ता है।
- आधुनिक संदर्भ: फिटनेस
संस्कृति में, व्यायाम से प्राप्त मजबूती को
प्रोत्साहित करता है।
श्राम्यतः शुभकार्येषु
जागरूकतयाऽनिशम् ।
श्रमश्रान्तानि नियतं
दैन्यानि खलु शेरते ॥ २१ ॥
हिन्दी अर्थ: - जो
व्यक्ति शुभ कार्यों में सतत जागरूकता से श्रम करता है, उसके लिए श्रम से उत्पन्न
थकान हमेशा दैन्य को दूर रखती है।
विस्तृत विश्लेषण:
- भावार्थ: शुभ कार्यों में
श्रम दैन्य (गरीबी) को दूर करता है।
- साहित्यिक महत्व: जागरूकता और
श्रम का संयोजन—नीति का मूल।
- आधुनिक संदर्भ: निरंतर प्रयास
सफलता लाते हैं, जैसे उद्यमिता में।
ज्ञानभक्तिविहीनोऽपि यः
श्राम्यति सुकर्मसु ।
साधुरेव स मन्तव्यः
सम्यग् व्यवसितो हि सः ॥ २२ ॥
हिन्दी अर्थ: - जो
व्यक्ति ज्ञान और भक्ति से रहित होकर भी सुकर्मों में श्रम करता है, उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि उसकी दृढ़ संकल्प शक्ति प्रशंसनीय है।
विश्लेषण:
- भावार्थ: श्रम सुकर्म का आधार
है, जो ज्ञान-भक्ति से भी श्रेष्ठ है।
- साहित्यिक महत्व: कर्म को
प्रधानता—कर्मयोग से प्रेरित।
- आधुनिक संदर्भ: कौशल विकास
में, मेहनत ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है।
आधुनिक जीवन में श्रम का
अनुप्रयोग
१. शिक्षा के क्षेत्र में
- विद्यार्थी यदि नियमित परिश्रम
करे, तो कठिन
विषय भी सरल हो जाते हैं।
- केवल परीक्षा पास करने के लिए ही
नहीं, बल्कि
जीवनभर ज्ञानार्जन के लिए श्रम आवश्यक है।
- “स्वश्रमोपार्जितं ह्यन्नम्” की भाँति, स्वयं के प्रयास से अर्जित ज्ञान ही सबसे मधुर और स्थायी होता है।
२. सेवा और समाज-निर्माण
- समाजसेवा में श्रम का महत्त्व
सबसे अधिक है।
- स्वच्छता अभियान, श्रमदान, ग्राम-निर्माण, वृक्षारोपण जैसे कार्य
श्रम से ही पूरे होते हैं।
- श्रम का आदर करने से समाज में
समानता और सहयोग की भावना दृढ़ होती है।
३. तकनीकी और वैज्ञानिक
क्षेत्र
- आज का युग तकनीक और नवाचार का
है।
- वैज्ञानिक अनुसंधान, आविष्कार, और तकनीकी विकास — सब निरंतर श्रम का ही परिणाम
हैं।
- परिश्रम के बिना कोई भी मशीन, औषधि, या नया उपकरण अस्तित्व में नहीं आ सकता।
४. व्यक्तिगत जीवन
- श्रम मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाता
है।
- श्रम से कमाया गया धन और श्रम से
अर्जित अनुभव, दोनों ही
स्थायी सुख प्रदान करते हैं।
- आलस्य से व्यक्ति का विकास रुकता
है, जबकि
श्रमशील व्यक्ति निरंतर प्रगति करता है।
५. आध्यात्मिक दृष्टि
- गीता का संदेश है — “कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।”
"श्रमयोगः" की भूमिका:
"श्रमयोगः" -
श्रीधरभास्करवर्णेकर की रचना है। यह एक प्रेरणादायी और विचारोत्तेजक संस्कृत काव्य
संग्रह है, जिसकी
रचना प्रख्यात विद्वान् श्रीधरभास्करवर्णेकर ने 1977 में की थी। यह रचना भारतीय
संस्कृति और साहित्य की नीति-परंपरा को आगे बढ़ाते हुए श्रम के महत्त्व को केंद्र
में रखती है। इस संग्रह में प्रस्तुत श्लोक श्रम को न केवल शारीरिक परिश्रम के रूप
में, अपितु
आध्यात्मिक और सामाजिक उत्थान का आधार मानते हैं। यहाँ योगियों, धार्मिकों, और समाज के विभिन्न वर्गों से श्रम की
तुलना कर यह स्थापित किया गया है कि सच्ची महानता और पूजा योग्यता श्रम से ही
प्राप्त होती है।
श्रीधरभास्करवर्णेकर ने इन श्लोकों के
माध्यम से श्रम को जीवन का अमृत और समाज की रीढ़ दर्शाया है। यह काव्य संग्रह
स्नातक और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में शामिल होने योग्य है, क्योंकि यह भाषा, व्याकरण, और दर्शन का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत
करता है। आज के युग में, जहाँ तकनीकी प्रगति के बीच मानवीय श्रम की उपेक्षा होती जा रही है, "श्रमयोगः" हमें उस मूल्य की याद
दिलाता है जो श्रम में निहित है। यह रचना न केवल साहित्यिक सुंदरता प्रदान करती है, अपितु आधुनिक समाज को मेहनत, समर्पण, और नैतिकता के पाठ भी सिखाती है।
इस संग्रह के श्लोकों का गहन अध्ययन
छात्रों, शोधकर्ताओं, और संस्कृत प्रेमियों के लिए उपयोगी
होगा, जो
इसे जीवन के विभिन्न आयामों में लागू कर सकते हैं। यह भूमिका पाठकों को इस काव्य
की गहराई में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करती है, जहाँ श्रम का हर रूप एक देवत्व का
प्रतीक बन जाता है।
श्रमयोगः: श्लोक और उनके हिन्दी अर्थ
एवं विश्लेषण
योगिनामपि सर्वेषां
पूजनीयो हि सर्वथा ।
एकाकी प्रतपन् क्षेत्रे
श्रमयोगी कृषीवलः ॥ १ ॥
हिन्दी अर्थ: सभी योगियों से भी पूजनीय है वह श्रमयोगी किसान, जो अकेले खेत में तप-सा श्रम करता
है।
विश्लेषण:
भावार्थ: यह श्लोक योगियों की तपस्या से
श्रमयोगी किसान के परिश्रम को श्रेष्ठ मानता है। एकाकी श्रम को तप के समान दर्शाकर
उसकी गरिमा बढ़ाई गई है।
साहित्यिक महत्व: उपमा अलंकार का प्रयोग
("प्रतपन्" से तप का बोध) और योग-श्रम की तुलना नीति साहित्य की विशेषता
है। यह वेदांत और कर्मयोग से प्रेरित प्रतीत होता है।
आधुनिक संदर्भ: आज के युग में, जहाँ शहरी जीवन प्रचलित है, यह ग्रामीण श्रमिकों की मेहनत को
सम्मान दिलाता है, जैसे कि अन्नदाता किसानों का योगदान।
श्रमयोगी महायोगी
श्रमिको धार्मिको महान् ।
श्रमाचारी ब्रह्मचारी
श्रमशीलो हि शीलवान् ॥ २ ॥
हिन्दी अर्थ: श्रमयोगी महान योगी है, श्रमिक महान धार्मिक है; जो श्रम करता है वह ब्रह्मचारी और
गुणवान होता है।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रम को आध्यात्मिक और नैतिक गुणों से
जोड़ा गया है। यह बताता है कि श्रम से ही जीवन के उच्च आदर्श प्राप्त होते
हैं।
साहित्यिक महत्व: समानता अलंकार और नीति-शास्त्र की
शैली में श्रम को धर्म और ब्रह्मचर्य से जोड़ना अद्वितीय है।
आधुनिक संदर्भ: यह कार्यस्थल पर मेहनत को नैतिकता से
जोड़ता है, जैसे
कि ईमानदार श्रमिकों का सम्मान।
श्राम्यन्तोऽविरत लोके
श्रेयांसो वृषभा हि ते ।
अलसाः किन्तु न
श्लाध्याः सिंहा गह्वरशायिनः ॥ ३ ॥
हिन्दी अर्थ: जो लोग निरंतर श्रम करते हैं, वे इस लोक में श्रेष्ठ और वृषभ
(शक्तिशाली) हैं, किंतु आलसी लोग, जो गुफा में सोने वाले सिंहों की भाँति हैं, प्रशंसनीय नहीं हैं।
विश्लेषण:
भावार्थ: निरंतर श्रम को शक्ति और श्रेष्ठता का
प्रतीक माना गया, जबकि आलस्य को निंदनीय बताया गया।
साहित्यिक महत्व: वृषभ और सिंह की उपमा से काव्यात्मकता
और नीति का मिश्रण है।
आधुनिक संदर्भ: यह प्रेरणा देता है कि मेहनत सफलता की
कुंजी है, जैसे
कि स्टार्टअप में लगातार प्रयास।
ब्रह्मर्षीणां कुले जातो
भूदेवो नहि तत्त्वतः ।
अकुलीनोऽपि भूदेवो यो
भुवं सम्प्रसेवते ॥ ४ ॥
हिन्दी अर्थ: ब्रह्मर्षि के कुल में जन्मा व्यक्ति सच्चा
भूदेव (पृथ्वी का देवता) नहीं है, किंतु जो अकुलीन होकर भी पृथ्वी की सेवा करता है, वही भूदेव है।
विश्लेषण:
भावार्थ: जन्म से नहीं, कर्म से महानता मिलती है; श्रम से पृथ्वी की सेवा करने वाला ही
पूजनीय है।
साहित्यिक महत्व: विपरीतार्थक शब्दों का प्रयोग और कर्म
प्रधानता का दर्शन।
आधुनिक संदर्भ: यह वर्गभेद को तोड़ता है, जैसे कि मेहनतकश मजदूरों का
सम्मान।
पूजार्हो नरदेवानां
भूदेवानाञ्च सर्वथा ।
श्रमदेवो महात्माऽसौ
निशि जाग्रन् दिवा तपन् ॥ ५ ॥
हिन्दी अर्थ: जो दिन में तपता और रात में जागता है, वह श्रमदेव महान आत्मा नरदेवों और
भूदेवों के लिए पूजनीय है।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रम को देवता का दर्जा देकर उसकी
निस्वार्थता को रेखांकित किया गया।
साहित्यिक महत्व: तप और जागरण की उपमा से आध्यात्मिकता
का समावेश।
आधुनिक संदर्भ: यह नाइट शिफ्ट कार्यकर्ताओं या मेहनती
किसानों को सम्मान देता है।
भूदेवानां नृदेवानां
देवानां स्वर्गिणामपि ।
श्रमदेवो हि पूजार्हः
प्राणिनां वृषभो यथा ॥ ६ ॥
हिन्दी अर्थ: भूदेव, नरदेव, और स्वर्ग के देवताओं से भी श्रमदेव
पूजनीय है, जो
प्राणियों के लिए वृषभ (शक्ति) के समान है।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रम को सर्वोच्च पूजा का पात्र माना
गया, जो
सभी को शक्ति प्रदान करता है।
साहित्यिक महत्व: वृषभ की उपमा से शक्ति का प्रतीक है।
आधुनिक संदर्भ: यह श्रमिक वर्ग के योगदान को देवतुल्य
बनाता है।
वृषो हि भगवान् धर्मो
मुनीनामपि सम्मतः ।
परिश्राम्यत्यविश्रान्तं
यदसौ लोकहेतवे ॥ ७ ॥
हिन्दी अर्थ: वृषभ के रूप में धर्म भगवान् है, जो मुनीश्वरों द्वारा भी स्वीकार्य है, और वह लोक के कल्याण के लिए अविरत श्रम
करता है।
विश्लेषण:
भावार्थ: धर्म को श्रम के साथ जोड़कर इसे
सार्वभौमिक माना गया।
साहित्यिक महत्व: धर्म और श्रम का समन्वय—आध्यात्मिक और नीति साहित्य का मेल
प्रदर्शित करता है।
आधुनिक संदर्भ: सामाजिक सेवा में मेहनत को धर्म माना
जा सकता है।
शोचनीयो यथा लोके पतितो
निर्धनो जडः ।
श्रमात् पराजितो नूनं
शोचनीयतरस्ततः ॥ ८ ॥
हिन्दी अर्थ: जैसे लोक में गिरा हुआ निर्धन मूर्ख दयनीय है, वैसे ही श्रम से पराजित व्यक्ति उससे
भी अधिक दयनीय है।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रम से हार मानना सबसे बड़ा पतन
है।
साहित्यिक महत्व: उपमा अलंकार और नीति का कठोर
संदेश।
आधुनिक संदर्भ: यह प्रेरणा देता है कि हार न मानें, जैसे खेलों में।
कृशोत्साहः कृशबलः
कृशकर्मा कृशश्रमः ।
स एव हि कृशो नूनं न
शरीरकृशः कृशः ॥ ९ ॥
हिन्दी अर्थ: जिसका उत्साह, बल, कर्म, और श्रम कमजोर है, वही वास्तव में कृश (कमजोर) है, न कि शरीर से दुबला व्यक्ति।
विश्लेषण:
भावार्थ: आंतरिक कमजोरी को श्रम की कमी से
जोड़ा गया।
साहित्यिक महत्व: समास और अर्थगत गहराई।
आधुनिक संदर्भ: मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य में
संतुलन का संदेश।
ये शास्त्रपण्डिता लोके
येऽथवा शस्त्रपण्डिताः ।
श्रमिकैरेव पाल्यन्ते
देवैराराधका इव ॥ १० ॥
हिन्दी अर्थ: जो लोग शास्त्रों या शस्त्रों में पंडित हैं, वे सभी श्रमिकों द्वारा ही पोषित होते
हैं, जैसे
देवता अपने भक्तों द्वारा।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रमिक समाज की रीढ़ हैं, जो विद्वानों को भी समर्थन देते
हैं।
साहित्यिक महत्व: उपमा और सामाजिक संदेश।
आधुनिक संदर्भ: यह श्रमिक वर्ग के योगदान को उजागर
करता है, जैसे
मजदूरों का।
श्रमिकं निर्धनञ्चापि
भूदेवा भूभृतस्तथा ।
वणिजोऽप्युपजीवन्ति
श्रमिको जीवनप्रदः ॥ ११ ॥
हिन्दी अर्थ: भूदेव, राजा, और व्यापारी भी निर्धन श्रमिक पर
निर्भर हैं, क्योंकि
श्रमिक ही जीवनदाता है।
विश्लेषण:
भावार्थ: श्रमिक समाज का आधार है, जो सभी को जीवन देता है।
साहित्यिक महत्व: समावेशी दृष्टिकोण और नीति का
संदेश।
आधुनिक संदर्भ: यह आर्थिक प्रणाली में श्रमिकों की
भूमिका को रेखांकित करता है।
ये श्लोक श्रीधरभास्करवर्णेकर द्वारा
1977 में रचित हैं, जो श्रम को जीवन और समाज का आधार मानते हैं।