तदेव गगनं सैव धरा
जीवनगतिरनुदिनमपरा
तदेव
गगनं सैव धरा।।
पापपुण्यविधुरा
धरणीयं
कर्मफलं
भवतादरणीयम्।
नैतद्-वचोऽधुना
रमणीयं
तथापि
सदसद्-विवेचनीयम्।।
मतिरतिविकला
सीदति विफला
सकला परम्परा। तदेव....
शास्त्रगता
परिभाषाऽधीता
गीतामृतकणिकापि
निपीता ।
को
जानीते तथापि भीता
केन
हेतुना विलपति सीता ।।
सुतरां
शिथिला
सहते
मिथिला
परिकम्पितान्तरा
। तदेव.......
जनताकृतिः शान्तिसुखहीना
संस्कृति-दशाऽतिमलिना
दीना।
केवल-निजहित-साधनलीना
राजनीतिरचना
स्वाधीना ।।
न तुलसीदलं
न गङ्गाजलं
स्वदते यथा सुरा । तदेव.....
देवालयपूजा
भवदीया
कथं
भाविनी प्रशंसनीया।
धर्म-धारणा
यदि परकीया
नैव
रोचते यथा स्वकीया।।
भक्तिसाधनं
न वृन्दावनं
काशी वा मथुरा। तदेव..
स्पृहयति
धनं स्वयं जामाता
परिणय-रीतिराविला
जाता।
सुता
न परिणीतेति विधाता
वृथा
निन्द्यते रोदिति माता ॥
चरणवन्दनं
भीतिबन्धनं
मोहमयी मदिरा । तदेव ...
सपदि
समाजदशा विपरीता
परम्परा
व्यथते ननु भीता ।
अपरिचिता
नूतननैतिकता
शनैः
शनैः प्रतिगृहमापतिता ।।
त्यज चिरन्तनं
हृदयमन्थनं
गतिरपि नास्त्यपरा । तदेव....
भारतीयसंस्कृतिमञ्जूषा
प्रतिनवयुग-संस्कार-विभूषा
।
स्वर-परिवर्तन-कृताभिलाषा
सम्प्रति
लोक-मनोरथभाषा ।
नवयुगोचिता
मनुज-संहिता
विलसतु रुचिरतरा । तदेव......
वही आकाश वही धरती
गति जीवन की नित नयी बदलती, है वही
आकाश वही धरती ।
पाप पुण्य का भार धरा पर कर्म के अनुरूप मिलता फल, माना, अब ये
बातें नहीं सुहाती फिर भी भले बुरे का तो कुछ करना होगा कही विवेचन । चकराने लगता
है माथा समूची परम्परा लगती विफल सिसकती । है वही...
शास्त्रों वाली परिभाषायें पढ़ ली, पी गये अमृत बिन्दु सम वचनों वाली गीता, फिर भी किसे पता है ? किस कारण डरी डरी रोती है सीता ?
इसीलिए बेहाल कापते अन्तर से है मिथिला सब सहती । है
वही..
सुख शान्ति से है दूर जनता, केवल अपने
ही हित साधन में लीन राजनीति के हर करतब को मिल गयी स्वाधीनता ।
न तुलसी दल न गंगा जल में कहीं वह स्वाद या वह भावना
दिखती, कि जितनी मन भावन रसीली अब सुरा लगती । है वही..
आपके मन्दिर की, पूजा की
प्रशंसा कौन करेगा ? कैसी ! अगर परायी धर्म-धारणा नयी सुहाती खुद अपनी ही
पूजा जैसी ।
वृन्दावन नहीं भक्ति का साधन न काशी या मथुरा भक्ति भक्त
के मन में बसती । है वही......
जमाई राज अब खुद हो कर चाहने लगा वधू से बढ़ कर धन, हुए व्याह के तौर तरीके दूषित, भाग्य को बेकार कोसती माता
है दिन रात रोती चरण वन्दन ये
डरावने बन्धन एक मदिरा है भरम भरती । है वही......
दशा समाज की फिलहाल है विपरीत दुखी है परम्परा भयभीत । हर घर आँगन में उतर रही है धीरे धीरे एक नयी नैतिकता अपरिचित ।
छोड़ो चिरन्तन
हृदय-मन्थन गति भी कोई और नही दिखती । है वही...
भारतीय संस्कृति की मंजूषा सक्षम है करने में नवयुग के
संस्कार अलंकृत । स्वर परिवर्तन की अभिलाषा व्यक्त कर रही सम्प्रति जन मानस की भाषा ।
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