संस्कृत भाषा का भाषाई इतिहास-
संस्कृत भाषा के शास्त्रीय पक्ष का
इतिहास प्राप्त होता है। लोग लिख भी रहे हैं परन्तु अब इसका राजनैतिक, भौगोलिक, आर्थिक इतिहास लिखे जाने की आवश्यकता
है। भाषा के उत्थान और पतन के कारण एवं कारक तत्वों की भी पड़ताल करनी होगी ताकि
नई पीढ़ी भाषाई विकास-पतन से परिचित हो सके। नई योजना के निर्माण के समय उनसे सीख
ले सके। क्या कारण था कि बुद्व के समय पालि जनभाषा होते हुए भी, धर्म प्रसार में सहायक होते हुए भी परवर्ती बौद्ध लेखकों को संस्कृत में
लिखने पर विवश होना पड़ा।
संस्कृत में शास्त्रीय दिशा देने वाले बहुतेरे गुरूजन हैं। कुछेक के पास
किताबी ज्ञान के अतिरिक्त अपना अनुभव सिद्व ज्ञान
भी है। वे संस्कृत के बाधक तत्वों को उजागर करें। वे अपनी जीवनी लिखें, जिससे आगामी पीढ़ी को उनके अनुभव का लाभ मिल सके। आज अधिकांश संस्कृत के
शीर्ष संस्थाओं के अध्यापकों, अधिकारियों में कलह है।
कुलपति जैसे महत्वपूर्ण पद रिक्त हैं। अनुदान की धनराशि का एक बड़ा भाग लौटा दिया
जाता है। यह सब बंद होना चाहिए। यहां पैसे की खातिर आपसी कलह और द्वेष हैं संस्कृत
के लिए नहीं। इन समस्याओं को शासक हल नही करते। फूट डालो राज करो में उन्हें भी
सुविधा होती है। हानि तो संस्कृत का होता है। अन्यथा आपसी कलह इतने नहीं होते।
जरूरत है हर क्षेत्र में प्रतीक संस्था, प्रतीक संस्था, प्रतीक पुरूष का। जो अनुकरणीय हों, मान, वैभव से परे सर्वश्रेष्ठ हों। संस्कृत के लिए एक आन्दोलन की आवश्यकता है
वेतन जीवी की अपनी सीमा और समस्या है। व्याख्यान अन्य कार्यक्रमों को यू ट्यूब पर
डालें। अब समय बदला हैं। लोगों को घर बैठे टी0वी0 तथा अन्य माध्यमों से जानकारी मिलती हैं। यहां 40 लोग हैं इसे यदि यू ट्यूब पर डालें तो वर्ष भर में 100 लोग देखें। प्रति व्यक्ति खर्च देखें। सिनेमा जगत में संस्कृत का विकृत
रूप देखने को मिलता है। हमारी सामग्री लेकर हमें ही दूर रखा है। वहां निर्माण से
ज्यादा प्रमोशन पर खर्च होता है। आडियों विडियो घर-घर जाता है। संस्कृत में
निरन्तर भ्रमण शील लोगों का अभाव है। पर्यटक स्थल तो जायेंगे परन्तु संस्कृत
संस्थाओं व्यक्तियों व्यक्ति तक सुधि लेने भी नहीं जाते। पास के संस्थानों में तो
जायें। संस्कृत में निहित ज्ञान सम्पदा से बच्चों को परिचित कराने के लिए
छोठी-छोटी पुस्तकें लिखे जाने की आवश्यकता है। इसमें संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध
कहानियां हों। इसकी भाषा जो भी हो परन्तु कथ्य संस्कृत हो। आंचलिक संस्कृतियां को
समेटने वाली कथा संस्कृत में अभाव है। अभी तक हम भाषा के विकास के लिए दीर्घ कालीन
या अल्पकालीन नीति भी नहीं बना सके हैं। शिक्षा और संस्कार में फर्क है। रैदास के
अजीविका का साधन कुछ और था जबकि रूचि का क्षेत्र कुछ और। हम बचपन में ही, रोजगार परक ज्ञान के अतिरिक्त संस्कार परक ज्ञान की उपलब्धता सुनिश्चित
करें तो परिणाम सुखद होगा। हमने अपने को युगानुकूल परिवर्तन नहीं किया।
संस्कृत भाषा का भौगोलिक विस्तार
भारत
के कोई भूभाग नहीं जहाँ सभी जातियों में संस्कृत के विद्वान पैदा न हुए हो। वे सभी
हमारे पूर्वज रहे है। उन्होनें अपनी चिन्तधारा द्वारा सामाजिक समासत्ता स्थापित
की। देश के आजादी में संस्कृतज्ञों का महान योगदान रहा है।
यह देखना है कि संस्कृत भाषा की
स्वीकार्यता किन-किन क्षेत्रों में कितनी है? वर्ष 1950 के पूर्व राज्यों के राजघरानों
तथा अन्य अनेक शिक्षा केन्द्रों मठों द्वारा संस्कृत को संरक्षण प्राप्त था।
प्रायः भारत के अनेक जनपद में एक अच्छा गुरुकुल एवं गुरुशिष्य परम्परा थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गुरुकुलों में छात्र संख्या में कमी आती गयी वहाँ
का प्रबन्धतन्त्र कमजोर हुआ। साकारी स्तर पर अनेक विद्यालयों प्रायः अनेक
प्रान्तों में संस्कृत विश्वविद्यालय खेले गये, जिसकी
संख्या आज 14 हो गयी है। परन्तु उच्च शिक्षा
केन्द्रों में छात्र संख्या अत्यल्प रही बल्कि इतना कम की किसी आधुनिक पाठ्यक्रम
के एक महाविद्यालय में उतनी ही छात्र संख्या हो। कारण संस्कृत का उद्गम स्थल स्रोत
ही सूखते गये। वे गुरुकुल यह महसूस नहीं कर पायें अब देश जिस स्थिति में है उसे
बदलकर हजार वर्ष पूर्व की स्थिति पैदा नहीं की जा सकती। वर्तमान सामाजिक स्थिति के
अनुकूल जनसम्पर्क प्रचार माध्यम शैक्षणिक विषयों के आधुनिकी कारण एवं लेखन की
आवश्यकता है, फलतः विश्वविद्यालय तो खुले परन्तु उसमें
अध्ययेता नहीं मिले। अध्येता मिला तो उपेक्षित परित्यक्त जनसमूह अध्ययनार्थ आये।
उनसे संस्कृत का कल्याण सम्भव नहीं है। मध्यकाल में आर्थिक रुप से कमजोर लोगों की
भाषा, शिक्षा संस्कृत थी। आर्थिक समस्या दूर होने पर
बुद्विमान बालकों ने शास्त्रों को ठीक से अधिगम किया।
यू0 पी0 सरकार वर्ष 13-14 में यहाँ 10 हजार मदरसों के लिए रु 1,300 करोड़ दिया। हैं। संस्कृत छात्रों को रोजगार नहीं दिया जा
रहा है। संगठन के अभाव में छिटपुट आन्दोलन हो रहा है। यही हाल शिक्षा शास्त्री के
छात्रों के साथ भी है। संस्कृत का जितना नुकसान मुगलकाल में नहीं हुआ उससे कहीं
अधिक नुकसान मैकाले शिक्षा प्राप्त अधिकारियों ने किया है। घंटे दो घंटे के आयोजन
से न तो जन चेतना जागृत होनी है न ही किसी समस्या का समाधान निकलना है। चुनौती का
विषय विस्तृत है ।इस पर अहर्निश चिन्तन और समाधान की आवश्यकता है।
संस्था/संगठन
आज
संस्कृत भाषा सिर्फ भाषा और साहित्य तक सिमट गया अन्य विषयों की चर्चा पाठ्यक्रमों
में भी नहीं की जाती है। किसी दूसरे द्वारा लिखित कविताओं को आजीवन अन्य भाषा में
वांचने के सहारे अपनी उदरपूर्ति करने वाले ग्रन्थ जीवी संस्कृत सैनिकों एवं
संस्थाओं द्वारा संस्कृत के विकास की अपेक्षा करना बेमानी है। हमे इस सोच वाले व्यक्तियों
को तलाशना होगा जो इस प्रकार की योजना बनायें। लोगों को जोड़ सकें। ऐसी संस्था
चाहिए। पृथक संस्था तथा समूह हो। कितने संस्कृत लोग पढ़े दुराचारी है और जेल में
बंद है बस यही भर प्रचार कर लें। हमने कितनी संस्था बनायी। हितों की रक्षा के लिए
आन्दोलन किये। बुद्विजीवियों को प्रशंसक बनाया। गोरक्षपीठ, रामानन्द का प्रसार गाँव-गाँव भिक्षाटन का उसी का खाकर अपना सन्देश दिया
ऐसे कार्यकर्ता चाहिए। अब तो अपना पैसा देकर हम अन्य भाषा का विज्ञापन तक रख देते
है। आपने इसका प्रतिरोध किया। ध्यान दिया। स्वभाषा की शर्त रखी। पर्यटन स्थल या
अन्य क्षेत्र में। संस्कृत की दृष्टि विकसित करनी होगी। अपने परिवेश जुड़े और
जुड़ने वाले लोगों में अपनी उपस्थिति दर्जं करायें विक्रेता या अन्य लोंगों
में।संस्कृत ग्रन्थों में वर्णित परिधानों के रंग, स्वरुप
आदि के आधार पर वस्त्र सज्जा निर्मित किया जा सकते हैं।
मैं कहता हूँ संस्कृत को अनुवाद की
भाषा नही सम्वाद की भाषा बनाइये। मैं अपने मित्रों से भाषायी विकास के मुद्दे पर
आंशिक सहमत होते हुए भी व्यापक परिधि के दृष्टिगत पूर्णतः असहमत हूॅ। एक मित्र का
सुझाव था अनुवाद प्रतियोगिता करायी जाय। कोई एक संस्था कितने लोगों के बीच यह
प्रतियोगिता करा पायेगी। इसके स्थान पर ऐसा क्यों न किया जाय कि प्रत्येक विद्यालय
से प्रकाशित होने वाले वार्षिक पत्रिका में बच्चे संस्कृत में लेख लिखें। विद्यालयों में तीन भाषा पढ़ायी जाती है हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत। हिन्दी अंग्रेजी विभाग तो
उसमें होते है परन्तु संस्कृत नहीं, आखिर क्यों? हमें विद्यालयों को एक गाइड लाइन भिजवाना चाहिए। आखिर प्रत्येक व्यक्ति और
भाषा को समान अवसर दिये जाने के अधिकार से संस्कृत भाषा को वंचित क्यों रखा जाता
है। हममें आत्मविश्वास की कमी है। चिन्तकों की कमी है। नित नये प्रयोग की कमी है।
नववर्ष तो संस्कृतज्ञ याद रखते है, परन्तु संस्कृत दिवस
नहीं। कितना एस0 एम0 एस0 भेजा जाता है। प्रत्येक संस्कृतज्ञ अपने परिचितों को संस्कृत दिवस पर एस0 एम0 एस0 भेजें तो
संख्या करोड़ों में हो। व्यापक आधार सृजित करने के लिए खुद कार्य करें। संदेश, थीम, सोच मुहैया करायें। उन्हें सक्षम बनायें
कि हर व्यक्ति संस्थागत रुप ले ले। तभी ज्यादा क्षेत्र कवर कर पायेंगें।
आप
खुद संस्कृत का ग्राहक बनों संस्कृत आपकी समस्या नहीं दूसरे की समस्या है वे
सीखें।
लेखक
हमारे
पास इस प्रकार का कोई डाटा भी उपलब्ध नहीं है कि संस्कृत भाषा में लेखकों की
संख्या बढ़ रही है या घट रही है। प्रतिवर्ष प्रकाशित होने पुस्तकों की संख्या
कितनी है? उसकी गुणवत्ता कैसी है? संस्कृत अध्येताओं की
संख्या की स्थिति क्या है। हम यहाँ केवल कक्षा में जाने वाले संस्कृतज्ञों की
चर्चां नही कर रहे।
नई तकनीकि के कारण चायनीज, जापानी, अंग्रेजी, जर्मन आदि भाषाओं ने ज्यादा विस्तार
पाया है। असली दो चुनौतियाँ है। संरक्षण की 2 आम
बोलचाल के करीब तथा जनोपयोगी संस्कृत की। संस्कृत में भी कुछ लेखकों ने अपनी
साहित्यिक कृति (मैं सिर्फ साहित्यिक कहा दर्शन आदि नही) संस्कृत के आम बोलचाल
भाषा में लिख रहे है। देवनागरी में यूनीकोड देर से आया। अब कम्प्यूटर द्वारा भाषा
आम पाठक तक पहुँचा है।
संस्कृत की कविता ऐसी हो कि श्रोता को शब्दार्थ की आवश्यकता न हो। जब भाव
का सम्प्रेषण ही नही हो पाएगा तो काव्य का आनन्द ही नहीं मिलेगा। साहित्य सृजन के
समय यह भी ध्यान रहे पहले कुछ लोगों के लिए काव्य रचे जाते थे परन्तु अब काव्य आम
जन के लिए लिखा जाता है। आज का आम जन उसमें अपने जैसा सामाजिक वातावरण और नायक को
ढूढ़ता है।
हम लोग व्याख्यान, कार्यशाला का बहुतेरे आयोजन
करते है और करके भी भूल जाते है। आने वाली पीढ़ी के लिए सिर्फ यदा कदा पत्रिका छाप
दी जाती है। क्या यह पर्याप्त है। क्या इस पर लघु वृत्त चित्र नही बनायें जा सकते
है?
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