अजन्त नपुंसकलिङ्ग के शब्दों में मूलतः अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, ऋकारान्त प्रातिपदिक वाले शब्द होते हैं। यहाँ आकारान्त, एकारान्त आदि दीर्घ स्वर को ह्रस्व हो जाता है।
२३५ अतोऽम्
अतोऽङ्गात् क्लीबात्स्वमोरम्
। अमि पूर्वः । ज्ञानम् । एङ्ह्रस्वादिति हल्लोपः । हे ज्ञान।।
सूत्रार्थ- अदन्त नपुंसकलिङ्ग अङ्ग से परे 'सु' और 'अम्' को 'अम्' आदेश
हो।
ज्ञानम् । ज्ञान शब्द के प्रथमा के एक वचन में सु विभक्ति आयी। ज्ञान + सु हुआ। यहाँ स्वमोर्नपुंसकात् से सु का लुक् प्राप्त हुआ, जिसे बाधकर अतोऽम् सूत्र से 'सु' को 'अम्' आदेश हुआ। ज्ञान + अम् हुआ। ज्ञान घटक अकार तथा अम् घटक अकार के मध्य 'अमि पूर्वः' से पूर्वरूप होने पर ज्ञानम् रूप सिद्ध हुआ ।
'ध्यान रहे कि 'सु' विभक्तिसञ्ज्ञक है अतः इस के स्थान पर आदेश होने वाला अम् भी विभक्तिसंज्ञक होगा। अत एव हलन्त्यम् (१) द्वारा प्राप्त अम् के मकार की इत्सञ्ज्ञा का न विभक्तौ तुस्माः (१३१) से निषेध हो जायेगा।
हे ज्ञान । सम्बुद्धि में 'हे ज्ञान+स्' इस स्थिति में एङ्ह्रस्वात्सम्बुद्धेः से ह्रस्वान्त अंग से परे सम्बुद्धि के स् का लोप प्राप्त हुआ, जिसे बाध कर अतोऽम् सूत्र से सु को अम् आदेश हुआ। ज्ञान + अम् हुआ। अमि पूर्वः से पूर्वरूप करने पर 'ज्ञानम्' हुआ। पुनः एङ्ह्रस्वात्सम्बुद्धेः से सम्बुद्धि के हल् मकार का लोप करने पर 'हे ज्ञान' रूप सिद्ध हुआ।
विशेष-
अतोऽम् सूत्र द्वारा अदन्त नपुंसक अङ्ग से परे सु और अम् को 'म्' आदेश करने पर भी 'ज्ञानम्' बन सकता है । परन्तु 'म्' आदेश करने पर 'ज्ञानम्' आदि में सुपि च (१४१) से दीर्घ प्राप्त होगा, जो अनिष्ट है।
२३६ नपुंसकाच्च
क्लीबादौङः शी स्यात् । भसंज्ञायाम् ।।
सूत्रार्थ- नपुंसक अङ्ग से पर औङ् को 'शी' आदेश
हो।
ज्ञाने । 'ज्ञान + औ' इस स्थिति में नपुंसक अङ्ग से परे औङ् को 'शी' आदेश हुआ। ज्ञान + 'शी' हुआ। स्थानिवद्भाव से शी में प्रत्ययत्व धर्म आया। आदि शकार का 'लशक्वतद्धिते' से इत्संज्ञा होकर लोप हो गया। ज्ञान + ई बना। अब 'सुडनपुंसकस्य' सूत्र नपुंसक लिंग को छोड़कर सु आदि पांच वचनों को सर्वनाम संज्ञा करता है। ज्ञान शब्द नपुंसक लिंग का है अतः इसके औ की सर्वनाम संज्ञा हो गयी तथा 'यचि भम्' से भसंज्ञा हो गई।
२३७ यस्येति च
ईकारे तद्धिते च परे भस्येवर्णावर्णयोर्लोपः । इत्यल्लोपे प्राप्ते
सूत्रार्थ- ईकार और तद्धित प्रत्यय परे रहते भसंज्ञक अङ्ग के इकार और अकार का लोप हो।
इतीति- 'ज्ञान की भसंज्ञा होने के कारण ईकार परे रहते ज्ञान के अकार का लोप प्राप्त होता है।
(औङः
श्यां प्रतिषेधो वाच्यः) । ज्ञाने ।।
औङ इति- औङ् के स्थानी 'शी' परे रहते 'यस्येति च' के द्वारा होने वाले लोप का प्रतिषेध हो। अब यस्येति च के द्वारा प्राप्त लोप का इस वार्तिक से निषेध हो गया। ज्ञान + ई में 'आद् गुणः' से गुण होकर 'ज्ञाने' रूप सिद्ध हुआ।
क्लीबादनयोः
शिः स्यात् ।।
सूत्रार्थ- नपुंसकलिङ्ग अङ्ग से परे जस् और शस् को 'शि' आदेश हो।
'ज्ञान + जस्' में जश्शसोः शिः के द्वारा जस् को 'शि' आदेश हुआ, शि के शकार का 'लशक्वतद्धिते' से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप होकर इ शेष बचा। ज्ञान + इ हुआ।
२३९ शि सर्वनामस्थानम्
शि इत्येतदुक्तसंज्ञं
स्यात् ।।
सूत्रार्थ- जस् के स्थान पर हुए शि की सर्वनामस्थान संज्ञा हो।
२४० नपुंसकस्य झलचः
झलन्तस्याजन्तस्य
च क्लीबस्य नुम् स्यात् सर्वनामस्थाने ।।
सूत्रार्थ- झलन्त और अजन्त नपुंसक अङ्ग को सर्वनामस्थान संज्ञक
प्रत्यय परे रहते नुम् आगम हो।
'नुम्' के
मकार की 'हलन्त्यम्' के
द्वारा तथा उकार की 'उपदेशेऽजनुनासि०' के द्वारा इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप होने पर 'न्' शेष बचता है।
२४१ मिदचोऽन्त्यात्परः
अचां मध्ये
योऽन्त्यस्तस्मात्परस्तस्यैवान्तावयवो मित्स्यात् । उपधादीर्घः ।
ज्ञानानि । पुनस्तद्वत् । शेषं पुंवत् ।।
एवं धन वन फलादयः ।।
सूत्रार्थ- अचों में जो अन्त्य अच्, उससे परे मित् का आगम होता है तथा और वह मित् उस अच् समुदाय का अन्त्यावयव हो।
ज्ञानानि । ज्ञान + जस् में जस् को जश्शसोः शिः से शि आदेश हुआ। ज्ञान + शि इस अवस्था में 'शि सर्वनामस्थानम्' के द्वारा शि आदेश की सर्वनामस्थान संज्ञा हुई। शि की सर्वनामसंज्ञा हो जाने से 'नपुंसकस्य झलच: ' से 'नुम्' का आगम हुआ। 'मिदचोऽन्त्यात् परः' नियम के अनुसार यह नुम् का आगम ज्ञान के अचों में अंतिम अवयव अकार से परे हुआ। ज्ञान + नुम् + शि हुआ। नुम् के उकार तथा मकार का एवं शि के शकार का अनुबन्धलोप होकर ज्ञानन् + इ हुआ। 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' से ज्ञानन् के उपधा अकार को दीर्घ करने तथा वर्णसम्मेलन करने पर 'ज्ञानानि' रूप सिद्ध हुआ।
पुनस्तद्वत्। द्वितीया में भी प्रथमा विभक्ति के समान रूप होंगे।
शमिति- शेष तृतीया आदि के रूप पुंल्लिङ्ग अकारान्त शब्द के समान बनेंगे।
एक०
द्वि०
बहु०
ज्ञानम्
ज्ञाने
ज्ञानानि
ज्ञानम् ज्ञाने ज्ञानानि
ज्ञानेन
ज्ञानाभ्याम् ज्ञानैः
ज्ञानाय ज्ञानाभ्याम् ज्ञानेभ्यः
ज्ञानात् ज्ञानाभ्याम् ज्ञानेभ्यः
ज्ञानस्य ज्ञानयोः ज्ञानानाम्
ज्ञाने ज्ञानयोः ज्ञानेषु
हे ज्ञान हे ज्ञाने हे ज्ञानानि
एवमिति- इसी प्रकार धन, वन तथा फल आदि अकारान्त नपुंसकलिङ्ग शब्दों के रूप होंगे।
२४२ अद्ड्डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः
एभ्यः क्लीबेभ्यः
स्वमोः अद्डादेशः स्यात् ।।
सूत्रार्थ- डतर आदि पाँच नपुंसकलिङ्ग
अङ्गों से परे सु और अम् को अद्ड् आदेश हो।
अद्ड्' के डकार की 'हलन्त्यम्' के द्वारा इत्संज्ञा होती। 'अद्' शेष रहता है। प्रत्यय
के ग्रहण से प्रत्ययान्त का भी ग्रहण होता है इसलिए डतरादि पांच प्रत्यय जिनके
अन्त में होंगे ऐसे प्रातिपदिकों से परे सु अम् के स्थान में अद्ड् आदेश होगा।
डतर,डतम के सम्बन्ध में अजन्तपुल्लिंग के सर्वादिगण के प्रसंग में कहा जा चुका है कि –
डतर, डतम प्रत्यय हैं। अतः प्रत्ययग्रहण परिभाषा के अनुसार डतर व डतम प्रत्ययान्त कतर, कतम आदि शब्द ही लिये जायेंगे। 'अन्यतर' शब्द डतर प्रत्ययान्त नहीं, इसीलिये इसका पृथक् ग्रहण किया है। ये अव्युत्पन्न हैं। यह अतोऽम् का अपवाद है। डतरादि पंच से डतर, डतम, अन्य, अन्यतर और इतर का ग्रहण होता है।
२४३ टेः
डिति भस्य
टेर्लोपः । कतरत्, कतरद् । कतरे । कतराणि ।
हे कतरत् । शेषं पुंवत् ।। एवं कतमत् । इतरत् । अन्यत् । अन्यतरत् । अन्यतमस्य
त्वन्यतममित्येव ।
सूत्रार्थ- डित् परे रहते भसंज्ञक अङ्ग
की 'टि' का लोप हो।
कतर। "इदमनयोः किम्' इस विग्रह में दो में एक का निर्धारण करने के अर्थ में “किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य'' ५.३.९२ सूत्र द्वारा किम् से डतरच् प्रत्यय हुआ। डतरच् में डकार तथा चकार का अनुबन्ध लोप करने पर “किम् + अतर' हुआ। किम् के आगे डित् होने से टेः से “इम्' का लोप होगा। 'क् + अतर बना। वर्ण संयोग करने पर कतर हुआ।
यहाँ तक की रूप सिद्धि यह दिखाने के लिए है कि कतर शब्द डतरच् प्रत्यय से बना है।
कतरद्/ कतरत्। कतर शब्द की “कृत्तद्धितसमासाश्च' १.२.४६ से प्रातिपादिक संज्ञा, प्रथमा एकवचन में “सु' प्रत्यय करने पर “अतोऽम्” ७.१.२४ से सु को अम् आदेश प्राप्त होता है, उसको बाधकर परत्वात् अद्ड्डतरादिभ्यः पञ्चभ्यः सूत्र से डतर प्रत्ययान्त होने के कारण सु के स्थान में "अद्ड्" आदेश हो गया। डकार का अनुबन्धलोप हुआ। "कतर+ अद्' में अद् यह सर्वनाम स्थान संज्ञक प्रत्यय नहीं है तथा अजादि प्रत्यय के परे होने के कारण कतर शब्द की यचि भम् से भ संज्ञा हो जाती है । कतर की भसंज्ञा तथा कतर के अंतिम अकार की टि संज्ञा होने से "टे:” ६.४.१४३ से कतर के अंतिम "अ" का लोप होकर कतर् + अद् बना। वर्णसम्मेलन करने पर “कतरद” रूप बना। अब “वाऽवसाने” ८.४.५६ से दकार को विकल्प से चर्त्व करने पर “कतरत्' यह प्रथम रूप सिद्ध हुआ। जब चर्त्व नहीं हुआ तो “कतरद्” यह रूप सिद्ध होता है।
इसी तरह किम्
शब्द से “वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने
डतमच्' से डतमच् प्रत्यय अनुबन्धलोप “किम् अतम'' में इम का लोप करने पर “कतम'' शब्द बना। यह डतम प्रत्ययान्त है।
कतमद्/ कतमत्। कतम शब्द की “कृत्तद्धितसमासाश्च' से प्रातिपदिक सञ्ज्ञा, सु प्रत्यय, सु के स्थान में अद्ड् आदेश हुआ। कतम् + अद्ड् बना। जकार का अनुबन्धलोप, “कतम + अद्' में “टेः" से टि सञ्ज्ञक कतम के “अ' का लोप हो गया । पररस्पर वर्णसम्मेलन होने पर कतमद् बना। “कतमद” में “वाऽवसाने'' ८.४.५६ से विकल्प से द् को चर्त्व तकार हो गया, “कतमत्' रूप सिद्ध हुआ। जब चर्त्व अभाव पक्ष में “कतमद्' रूप सिद्ध हुआ।
अन्यत्/ अन्यद् । अन्य शब्द की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा “सु' प्रत्यय, सु के स्थान में अद्ड् आदेश ड् की “हलन्त्यम्' १.३.३ से इत् सज्ञा, अन्य के य के अ का लोप होकर “अन्यद्' रूप बना। विकल्प से चर्त्व करने पर “अन्यत्' पक्ष में “अन्यद्' रूप सिद्ध होगा।
अन्यतरत्/ अन्यतरद्। इतरत् / इतरद् । पूर्व की तरह अन्यतर एवं इतर शब्दों से सु और अम् के स्थान में अद् आदेश करने पर “अन्यतर अद्” “इतर अद्” में “टे:” ६.४.१४३ से टिलोप वर्ण सम्मेलन करने पर “अन्यतरद्” “इतरद्'' बना। यहाँ “वाऽवसाने' ८.४.५६ से विकल्प से चर्त्व आदेश “अन्यतरत्” अन्यतरद् तथा “इतरत् इतरद् रूप सिद्ध होते हैं।
कतर आदि शब्दों से द्विवचन में औ के स्थान में शी आदेश “आद्गुणः'' ६.१.८७ से गुण करने पर कतरे, कतमे, अन्ये, अन्यतरे, इतरे रूप सिद्ध होते हैं।
बहुवचन में जश्शसोः शिः से “जस्' के स्थान में “शि'' आदेश, 'शि सर्वनामस्थानम्' के द्वारा शि आदेश की सर्वनामस्थान सञ्ज्ञा, 'नपुंसकस्य झलच: ' से नुम् का आगम, उपधादीर्घ करने पर ज्ञानानि की तरह कतराणि कतमानि अन्यानि अन्यतराणि इतराणि रूप भी सिद्ध होंगे।
द्वितीया विभक्ति में सभी रूप प्रथमा की तरह सिद्ध होते हैं।
अन्यतम शब्द को 'अद्ड्' आदेश नहीं होगा, क्योंकि अन्यतम शब्द पूर्वोक्त पाँचों में
नहीं है। यह डतर
डतम प्रत्ययान्त भी नहीं है। अतः इसके रूप ज्ञान शब्द के अनुसार 'अन्यतमम्' होंगे।
वार्तिक (एकतरात्प्रतिषेधो वक्तव्यः)। एकतरम् ।।
वार्तिकार्थ- एकतर शब्द से परवर्ती 'सु' और 'अम्' को अद्ड् आदेश न हो।
एकतरम् । एकतर शब्द डतर- प्रत्ययान्त है। अत: 'एकतर + सु' में अद्ड् आदेश प्राप्त हुआ। इसका एकतरात्प्रतिषेधो वक्तव्यः वार्तिक के द्वारा निषेध हो गया। यहाँ स्वमोर्नपुंसकात् से सु का लुक् प्राप्त हुआ, जिसे बाधकर अतोऽम् सूत्र से 'सु' को 'अम्' आदेश हुआ। एकतर + अम् हुआ। एकतर घटक अकार तथा अम् घटक अकार के मध्य 'अमि पूर्वः' से पूर्वरूप होने पर 'एकतरम् 'रूप सिद्ध हुआ।
२४४ ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य
अजन्तस्येत्येव । श्रीपं ज्ञानवत् ।।
सूत्रार्थ- नपुंसकलिङ्ग में अजन्त
प्रातिपदिक को ह्रस्व आदेश हो।
आकारान्त शब्द "श्रीपा' (लक्ष्मी का पालन करने वाला) यह आकारान्त शब्द है। प्रकृत
सूत्र के द्वारा इसे ह्रस्व होकर श्रीप बना। 'श्रीप से सु' विभक्ति आने पर ज्ञान शब्द की तरह 'श्रीपम्' रूप बना। द्विवचन में शी आदेश होकर 'श्रीपे' रूप बनता है।
श्रीपाणि । 'श्रीप + जस्'-यहाँ जस् को 'शि' आदेश होकर 'नुम्' आगम, उपधा को दीर्घ आदि कार्य होकर 'ज्ञानानि' की तरह श्रीपानि बना। 'एकाजुत्तरपदे णः' से णत्व होकर 'श्रीपाणि' रूप सिद्ध हुआ।
विशेष-
नपुंसकलिङ्ग में दीर्घान्त शब्द नहीं होता क्योंकि यहाँ 'ह्रस्वो नपुंसके०' से एकारान्त, ओकारान्त, ऐकारान्त और ओकारान्त शब्दों को ह्रस्व कर देने से तथा 'एच इग्घ्रस्वादेशे' परिभाषा के बल पर इदन्त और उदन्त शब्द बन जाते हैं।
👉 'श्रीपा' में श्री एक पद तथा पा दूसरा पद है। अतः दो पद होने से पा में रेफ अथवा ष नहीं मिला। यहाँ अट्कुप्वाङ् से णत्व नहीं होता है। एकाजुत्तरपदे णः । (८-४-१२) सूत्र कहता है एकाजुत्तरपदं यस्य तस्मिन्समासे पूर्वपदस्थान्निमित्तात्परस्य प्रातिपदिकान्तनुम्विभक्तिस्थस्य नस्य नित्यं णत्वं स्यात् । श्रीपा में पा यह एक अच् वाला उत्तर पद में है तथा समास भी हुआ है। श्रीप से 'नुम्' का आगम हुआ है । इसके नकार को णकार होगा।
इसी प्रकार 'श्रीपेण' तथा 'श्रीपाणाम्' में भी 'एकाजुत्तरपदे०' सूत्र के द्वारा णत्व होगा।
२४५ स्वमोर्नपुंसकात्
लुक् स्यात् । वारि ।।
सूत्रार्थ- नपुंसकलिङ्ग शब्दों से पर 'सु' और 'अम्' का लोप हो।
वारि । वारि शब्द से परे 'सु'
विभक्ति और 'अम्'
विभक्ति आने पर इसका लोप होकर प्रथमा व
द्वितीया के एकवचन में 'वारि' रूप सिद्ध होता है।
२४६ इकोऽचि विभक्तौ
इगन्तस्य क्लीबस्य नुमचि विभक्तौ । वारिणी । वारीणि । न लुमतेत्यस्यानित्यत्वात्पक्षे संबुद्धिनिमित्तो गुणः । हे वारे, हे वारि । घेर्ङितीति गुणे प्राप्ते (वृद्ध्यौत्त्वतृज्वद्भावगुणेभ्यो नुम् पूर्वविप्रतिषेधेन) । वारिणे । वारिणः । वारिणोः । नुमचिरेति नुट् । वारीणाम् । वारिणि । हलादौ हरिवत् ।।
सूत्रार्थ- अजादि विभक्ति परे रहते इगन्त अङ्ग को नुम् आगम हो ।
वारिणी। 'वारि + औ' इस स्थिति में नपुंसकाच्च से 'औ' को 'शी' आदेश हुआ। शी के शकार का अनुबन्धलोप, वारि + ई हुआ। इकोऽचि विभक्तौ से इगन्त अङ्ग वारि को नुम् आगम हुआ। 'मिदचोऽन्त्यात्परः' परिभाषा से वारि इस अङ्ग के अन्त्य अच् इ के बाद 'नुम्' होगा और वह अङ्ग का अन्त्य अवयव समझा जायेगा। वह अन्त्य अच् इकार का अन्त्य अवयव बन गया। वारि + नुम् + ई हुआ। नुम् के उकार तथा मकार की इत्संज्ञा, लोप होने पर वारि+ न् + ई हुआ । 'अट्कुप्वानुम्' से नकार को णकार होकर 'वारिणी
वारिणी । 'वारि + औट्' में भी शी आदेश, नुमागम आदि होकर 'वारिणी' रूप बनेगा।
वारीणि। वारि + जस्' में 'जश्शसोः शि' के द्वारा जस् को शि होकर वारि + शि हुआ। शी में सकार का अनुबन्धलोप 'इकोऽचि विभक्तौ' के द्वारा नुम् आगम वारि + नुम् + इ हुआ। नुम् में उम् भाग का अनुबन्धलोप, वारि + न् + इ हुआ। 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' के द्वारा वारि के उपधा को दीर्घ हुआ। वारीन् + इ हुआ। 'अट्कुप्वाड्०' के द्वारा नकार को णकार हो गया। वारीण् + इ बना। परस्पर वर्ण संयोग करके वारीणि रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 'वारि + शस्' में जस् के समान क्रिया होकर 'वारीणि' रूप बन गया।
न लुमतेत्यस्येति। लुक्, श्लु एवं लुप् को लुमता कहा गया है। इस संज्ञा से अभिहित प्रत्यय में प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम् से प्रत्यय को निमित्त मानकर अङ्गसम्बन्धी कार्य नहीं हो सकता । कारण कि यहाँ न लुमताङ्गस्य सूत्र निषेध कर देता है। यह सामान्य नियम है। ग्रन्थकार का कहना है कि न लुमताङ्गस्य सूत्र को पतंजलि ने अनित्य माना हैं। अनित्य होने के कारण हे वारि इस स्थिति में एक बार सम्बुद्धि मानकर ह्रस्वस्य गुणः से गुण होगा। एक बार नहीं होगा।
हे
वारे, हे वारि । वारि शब्द के
सम्बोधन में सु विभक्ति आयी। वारि + सु हुआ। स्वमोर्नपुंसकात् से सु का लुक होकर वारि बना।
अब प्रत्ययलक्षण से सम्बुद्धि मानकर ह्रस्वस्य गुणः से गुण प्राप्त हुआ, किन्तु न
लुमताङ्गस्य से निषेध हो जाने के कारण प्रत्ययलक्षणाश्रित अङ्गकार्य अर्थात् वारि
के इकार को गुण नहीं हो सका। यहाँ ग्रन्थकार का कहना है कि न लुमताङ्गस्य सूत्र
अनित्य है अतः ह्रस्वस्य गुणः से वारि के
इकार को विकल्प से गुण होगा। ऐसी स्थिति में हुण होकर वारे + स् बना। अब एङहस्वात्सम्बुद्धेः
से सु के सकार का (हल् का) लोप हो गया। वारे रूप सिद्ध हुआ। न लुमताङ्गस्य सूत्र
के अनित्य अभाव पक्ष में गुण भी नहीं होगा। फलतः वारि + स् इस स्थिति में एङहस्वात्सम्बुद्धेः
से सु के सकार का (हल् का) लोप होकर हे वारि रूप सिद्ध हुआ।
घेर्ङितीति । वारि + ङे इस स्थिति में घेर्ङिति से गुण प्राप्त हुआ।
वृद्ध्यौत्त्व- पूर्वविप्रतिषेध से वृद्धि, औत्त्व, तृज्वद्भाव और गुण से पहले नुम् का आगम होता है।
वारिणे । यहाँ वारि + ङे इस स्थिति में घेर्ङिति से गुण तथा इकोऽचि विभक्तौ से नुम् एकसाथ प्राप्त हुआ। विप्रतिषेधे परं कार्यम् परिभाषा से यहाँ परकार्य गुण प्राप्त हो रहा था। वृद्धवौत्त्वतृन्वद्भावगुणेभ्यो नुम् पूर्वविप्रतिषेधेन वार्तिक के अनुसार यहाँ पूर्वविप्रतिषेध नियम लागू होगा। अर्थात् पूर्व के सूत्र का कार्य पहले होगा। अतः वारि + ङे में पहले नुम् का आगम हुआ। नुम् में उम् भाग का अनुबन्धलोप होकर नकार शेष रहा। वारि न् + ङे हुआ। ङकार का अनुबन्धलोप, 'अट्कुप्वानुम्' से नकार को णकार होकर वारिणे रूप सिद्ध हुआ ।
वारिणः
। वारि + अस् में नुम् का आगम, णत्व,
वर्णसम्मेलन करने पर वारिणः रूप सिद्ध हुआ।
वारिणोः
। वारि + ओस् में नुम् का आगम, अनुबन्धलोप,
वारिन्-ओस् बना। णत्व, वर्णसम्मेलन,
सकार का रुत्वविसर्ग करने पर वारिणोः रूप सिद्ध हुआ।
नुमचिरेतीति।
वारीणाम् । वारि + आम् इस स्थिति
में ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुट् तथा इकोऽचि विभक्तौ से नुम् प्राप्त हुआ । विप्रतिषेध
परिभाषा से नुट् को बाधकर नुम् की प्राप्ति हुई, किन्तु नुमचिरतृत्वद्भावेभ्यो नुट् पूर्वविप्रतिषेधेन वार्तिक से पूर्वविप्रतिषेध
नियम के कारण पहले नुट् हुआ। नुट् में उट् भाग का अनुबन्ध लोप होकर वारि न् + आम्
हुआ। यहाँ नामि से वारि के इकार को दीर्घ तथा
अट्कुप्वाङ् से णत्व होकर वारीणाम् रूप सिद्ध हुआ ।
विशेष-
👉 नुम् तथा नुट् दोनों में अनुबन्ध लोप होने पर नकार ही शेष रहता है पुनः नुमचिरतृत्वद्भावेभ्यो नुट् पूर्वविप्रतिषेधेन की क्या आवश्यकता है। इस प्रकार की शंका होने पर समाधान इस प्रकार है- नुम् का आगम अजन्त अङ्ग को होता है। नुमागम करने पर वारिन् यह हलन्त शब्द के बाद नाम नहीं मिलेगा। फलतः नामि से दीर्घ नहीं हो पायेगा। नुट् का आगम आम् को होता है। अतः वारि इस अजन्त अङ्ग के बाद नाम् मिल जाएगा। ऐसी स्थिति में नाम् के परे रहते नामि से दीर्घ होकर वारीणाम् यह रूप सिद्ध होता है।
हलादौ
इति। भ्याम्, भिस्, भ्यस्, सुप्
विभक्तियों में हरि शब्द के समान रूप चलेंगें।
२४७ अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनङुदात्तः
एषामनङ् स्याट्टादावचि
।।
सूत्रार्थ- अस्थि
(हड्डी), दधि (दही), सक्थि (जड़ा) और अक्षि (आँख) शब्दों को अनङ् आदेश हो टा आदि अजादि विभक्ति
परे रहते।
दधि शब्द का
प्रथमा संबोधन और द्वितीया में 'वारि' शब्द के समान रूप बनेंगे। तृतीया विभक्ति में 'दधि + टा' इस स्थिति में अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनङुदात्तः से अनङ्
आदेश होकर दध् अनङ् आ हुआ ।
२४८ अल्लोपोऽनः
अङ्गावयवोऽसर्वनामस्थानयजादिस्वादिपरो योऽन् तस्याकारस्य लोपः । दध्ना । दध्ने । दध्नः । दध्नः । दध्नोः । दध्नोः ।।
सूत्रार्थ- सर्वनाम
स्थानभिन्न यकारादि तथा अजादि प्रत्यय परे रहते भसंज्ञक तथा अङ्ग के अवयव 'अन्'
के ह्रस्व अकार का लोप हो।
दध्ना । दधि + टा' इस स्थिति में अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनङुदात्तः से अनङ् आदेश होकर दध् + अनङ् + आ हुआ ।अनङ् में ङकार का अनुबन्धलोप, 'दध् + अन् + आ'- यहाँ 'टा' अजादि तथा सर्वनाम स्थान से भिन्न प्रत्यय है अतः अल्लोपोऽनः से 'अन्' के अकार का लोप एवं वर्ण सम्मेलन होकर 'दध्ना' रूप बना।
दध्ने', 'दध्नः' तथा 'दध्नोः । 'दधि + ङे', 'दधि + ङसि' तथा 'दधि + ओस्'- इस अजादि प्रत्ययों में दधि के इकार को अनङ् आदेश तथा अन् के अकार का लोप होकर क्रमश: 'दध्ने', 'दध्नः' तथा 'दध्नोः' रूप बनते हैं।
२४९ विभाषा ङिश्योः
अङ्गावयवोऽसर्वनामस्थानयजादिस्वादिपरो
योऽन् तस्याकारस्य लोपो वा स्यात् ङिश्योः परयोः । दध्नि, दधनि । शेषं वारिवत् ।। एवमस्थिसक्थ्यक्षि
।। सुधि । सुधिनी । सुधीनि । हे सुधे, हे सुधि ।।
सूत्रार्थ- 'ङि' और 'शी' परे होने पर अङ्ग के अवयव 'अन्' के ह्रस्व अकार का विकल्प से लोप होता है।
शेष रूप 'वारि' की तरह होंगे।
इसी प्रकार 'अस्थि', 'सक्थि' व 'अक्षि' शब्दों के रूप
होंगे।
सुधि । सुधिनी । सुधीनि । हे सुधे, हे सुधि । वारि शब्द की तरह रूप बनेगें। यहाँ अट्कुप्वाङ् की प्रवृत्ति नहीं है। अतः नकार को णकार नहीं होगा।
२५० तृतीयादिषु भाषितपुंस्कं पुंवद्गालवस्य
प्रवृत्तिनिमित्तैक्ये भाषितपुंस्कमिगन्तं क्लीबं पुंवद्वा टादावचि । सुधिया, सुधिनेत्यादि ।। मधु । मधुनी । मधूनि । हे मधो, हे मधु ।। सुलु । सुलुनी । सुलूनि । सुलुनेत्यादि ।। धातृ । धातृणी । धातॄणि । हे धातः, हे धातृ । धातॄणाम् ।। एवं ज्ञात्रादयः ।।
यन्निमित्तमुपादाय पुंसि शब्द: प्रवर्तते। क्लीबवृत्ती तदेव
स्यादुक्तपुंस्कं तदुच्यते।।
मधु- 'मधु सु' यहाँ 'स्वमोर्नपुंसकात्' के सु
का लोप होकर 'मधु' रूप बन गया। 'मधु औ' में 'शी' आदेश, नुम् का आगम हुआ। मधु नुम् ई = मधुनी रूप बना।
धातृणी- धातृ + औ' में शी आदेश तथा नुम् आगम हुआ। धातृ नुम् ई में नुम् के उम् भाग की इत्संज्ञा लोप, धातृ न् ई में नकार को णत्व होकर धातृणी रूप बना।
धातॄणि । जस् में धातॄणि बनेगा । 'धातृ शब्द का रूप मधु शब्द के समान होगा। यहाँ णत्व कार्य विशेष होता है ।
धातृ, धातः । "हे धातृ + सु' में सु का लोप धातृ के ऋकार को गुण अर् हुआ। धातर् बना। धातर् के रेफ को 'खरवसानयोः' के द्वारा विसर्ग होने पर धातः रूप सिद्ध हुआ। पक्ष में न लुमताङ्गस्य से अङ्ग कार्य का निषेध होने के कारण 'धातृ' रूप बना।
धातॄणाम् । धातृ
+ आम्' में पूर्ववद्भाव पक्ष में 'नुट्' आगम होकर तथा 'नामि'
से दीर्घ हो कर धातॄणाम् रूप सिद्ध हुआ।
अभाव पक्ष में 'नुमचिर तृज्वद्' के
विप्रतिषेध नियम से नुम् की अपेक्षा 'नुट्' के प्रबल होने के कारण नुट् आगम होकर पूर्ववत् 'धातॄणाम्' रूप बना।
२५१ एच इग्घ्रस्वादेशे
आदिश्यमानेषु ह्रस्वेषु एच इगेव स्यात् ।
प्रद्यु । प्रद्युनी । प्रद्यूनि । प्रद्युनेत्यादि ।। प्ररि । प्ररिणी । प्ररीणि
। प्ररिणा । एकदेशविकृतमनन्यवत् । प्रराभ्याम् । प्ररीणाम् ।। सुनु । सुनुनी ।
सुनूनि । सुनुनेत्यादि ।।
सूत्रार्थ- ह्रस्व आदेश का
विधान होने पर एच् (ए, ओ, ऐ,
औ) के स्थान पर इक् (इ, उ, ऋ,लृ) हो अर्थात् ए- ऐ के स्थान पर 'इ' तथा ओ- औ के स्थान पर 'उ'
आदेश हों।
ऐकारान्त शब्द प्ररै (अधिक धनवाला)
'प्ररै' इसकी
प्रातिपदिक संज्ञा होकर 'एच इग्घ्रस्वादेशे' के बल पर 'ह्रस्वो नंपुसके प्रातिपदिकस्य'
से ऐ को ह्रस्वादेश 'इकार' हो गया।
प्ररि । 'प्ररि' में
'रायो हलि' से आत्व नहीं होगा, क्योंकि
उसका लुक् हो जाता है। 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' के बल पर प्राप्त आत्व प्राप्त हुआ, जिसे 'न लुमताङ्गस्य' के द्वारा निषेध होकर प्ररि रूप बना।
'प्ररि + औ', प्ररि + जस् आदि में वारिणी, वारीणि की तरह
प्रक्रिया होकर 'प्ररिणी', प्ररीणि रूप
बनता है ।
प्रराभ्याम्। 'प्ररि + भ्याम्' में 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' के
बल पर 'रायो हलि' की प्रवृत्ति होकर
आकार आदेश होकर प्रराभ्याम् बना।
प्ररीणाम्
। 'प्ररि आम्' में दीर्घादेश व णत्व होकर 'प्ररीणाम्' बन गया।
इस प्रकरण में सबसे अधिक प्रयोग में आने वाले सूत्र तथा उसका कार्य-
अतोऽम् - अदन्त अङ्ग से परे 'सु' और 'अम्' को 'अम्' आदेश हो।
नपुंसकाच्च – औ को शी आदेश।
जश्शसोः शिः - जस् और शस् को 'शि' आदेश ।
नपुंसकस्य झलचः
- झलन्त और अजन्त नपुंसक अङ्ग को सर्वनामस्थान संज्ञक प्रत्यय
परे रहते नुम् आगम ।
ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य
- नपुंसकलिङ्ग में
अजन्त प्रातिपदिक को ह्रस्व आदेश ।
स्वमोर्नपुंसकात्
- नपुंसकलिङ्ग
शब्दों से पर 'सु' और 'अम्' का लोप ।
इकोऽचि विभक्तौ - अजादि विभक्ति परे
रहते इगन्त अङ्ग को नुम् आगम ।
सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ – उपधा दीर्घ
इत्यजन्तनपुंसकलिङ्गाः ।
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