मम्मट का काव्य प्रयोजन

 आचार्य मम्मट ने काव्य के ६ प्रयोजनों का उल्लेख किया है । "प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते" । इस कथनानुसार कोई मूर्ख व्यक्ति भी किसी लाभ के बिना अर्थात् प्रयोजन विशेष को लक्ष्य किये बिना किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है। कोई मन्दबुद्धि भी छोटे से छोटे कार्य को प्रयोजन के बिना नहीं प्रारम्भ करता है। क्योंकि जब तक कर्ता को (१) विषय (२) प्रयोजन (३) सम्बन्ध (४) अधिकारी का ज्ञान नहीं होता है, तब तक अनुबन्ध चतुष्टय ज्ञान के विना कर्ता की कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती है। इसलिये ग्रन्थकार ने विषय और प्रयोजन को स्पष्ट करने के लिये निम्नलिखित कारिका का अवतरण किया है –

काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।

सद्यः परनिवृत्तये कान्ता सम्मिततयोपदेशयुजे।।

मम्मट ने काव्य के प्रयोजनों का विस्तृत वर्णन करते हुए उपर्युक्त ६ प्रयोजनों का उल्लेख किया है ।

(१) यशसे- प्रथम तो काव्य का प्रयोजन यश लाभ है क्योंकि भारतीय मनीपियों की मान्यता रही है कि यह पञ्चभौतिक नश्वर शरीर तथा अन्य सांसारिक चाकचिक्य सब मिथ्या एवं नश्वर है। केवल यश ही चिरस्थायी है। अतः किमी ने शौर्य से, न्याय से, परोपकार से, देश भक्ति से, लोक कल्याण के लिये सदुपदेशों से एवम् सद्रचना से यश प्राप्त करके यशः शरीर से अमरता को प्राप्त किया है। कालिदास ने रघुवंश के द्वितीय सर्ग में यश का महत्व प्रकटित करते हुये लिखा है -

किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं यशःशरीरे भव मे दयालुः ।               

एकान्तविधंसिषु मद्विधानां पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु ।। रघु. 2/ 57 ।।

इम तपोभूमि में सहस्रों उदार पुरुष पञ्चभौतिक शरीरादि सुखों की उपेक्षा करके यश प्राप्त करके सदा के लिये अमर हो गये हैं। अतएव मम्मट ने भी काव्य का प्रथम प्रयोजन यशप्राप्ति ही प्रदर्शित किया है । काव्य के निर्माण से यश प्राप्त होता है जैसा कि कालिदास, व्यास, भास, भवभूति, भारवि, माघ आदि महाकवियों ने काव्य-रचना करके विश्व में यश से परम प्रसिद्धि प्राप्त कर यशः शरीर से अमरत्व प्राप्त कर लिया है। सत्साहित्य का सृजन ही यश के लिये होता है। कालिदास सत्साहित्य का सृजन करके कविकुल गुरु के नाम से यश प्राप्त करके आज भी यश: शरीर से जी रहे हैं। उन्होंने स्वयं रघुवंश के प्रारम्भ में काव्य के मुख्य का महत्व निम्नलिखित पद्य से अभिव्यक्त किया है।

मन्दः कवियशः प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् ।

प्रांशुलभ्ये फले लोभादुद्बाहुरिव वामनः ॥ रघु. १-३॥

अतः काव्य का प्रथम प्रयोजन यश प्राप्ति है।

अर्थकृते काव्य रचना का द्वितीय प्रयोजन अर्थार्जन है, क्योंकि इस लोक में अर्थ के अभाव में जीवन कठिन हो जाता है। अतः योगक्षेम के लिये अर्थार्जन अनिवार्य है। अर्थ का अपरिहार्य प्रभुत्व अनुभव करके विद्वानों ने अर्थस्य पुरुषो दासः, सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति इत्यादि सूक्तियों से अर्थ की आवश्यकता स्वीकार की है। यह अर्थ प्राप्ति भी काव्य-रचना से हो सकती है, जैसा कि प्रसिद्ध है कि धावक आदि कवियों ने हर्ष आदि के नाम से रत्नावली नाटिका आदि की रचना करके प्रचुर मात्रा में धन प्राप्त किया था । भोजप्रबन्ध में इस प्रकार के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं। अतः काव्य-रचना का द्वितीय प्रयोजन धनराशि प्राप्त करना है।

व्यवहारविदे- काव्य के सम्यक् अध्ययन से लोकव्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता है। लोकव्यवहार के ज्ञान के बिना सामाजिक जीवन के कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। अनेक विद्वान् भी व्यवहार ज्ञान के बिना उपहास को प्राप्त हुये हैं। अतः व्यवहार ज्ञान के साहित्य का अध्ययन परमावश्यक है। रामायण तथा महाभारत व्यवहार ज्ञान के लिये साहित्य सागर है। रामायण तो व्यवहार ज्ञान की अलौकिक निधि है। राजा तथा प्रजा को, पति-पत्नी को, भाइयों को, मित्रों को, सेवकों, शत्रुओं को, कैसा व्यवहार करना चाहिये, इनकी शिक्षा एवं उपदेश रामायण के पात्रों से भली-भांति प्राप्त हो रहा है। तथा प्राचीनकाल में कब कैसा व्यवहार किया जाता था, वेशभूषा, खानपान आदि कैसा था, यह सब ज्ञान काव्य के श्रवण, पठन, मनन से ही सफलता पूर्वक जाना जा सकता है। अतः व्यवहार ज्ञान के लिये काव्य का पठन, श्रवण एवं मनन अति आवश्यक है।

शिवेतरक्षतये काव्य रचना अथवा पठन एवं श्रवण अमंगलनाश में भी समर्थ है, यह काव्य का चतुर्थ प्रयोजन माना है। कादम्बरी के रचयिता बाणभट्ट के साले मयूरभट्ट भी कवि थे। दोनों ही धारानगरी में रहते थे तथा प्रतिदिन अपनी-अपनी नूतन रचनायें एक-दूसरे को सुनाते थे। एक दिन बाणभट्ट से उनकी पत्नी किसी कारण से अप्रसन्न हो गई, रातभर बाणभट्ट पत्नी को मनाने का प्रयत्न करते-करते रात बीत जाने पर वे पत्नी से कह रहे थे कि

गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शीर्यत इव 

प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव ।

प्रणमान्तो मानस्त्यसि न तथापि क्रुधमहो

इस प्रकार मनाने में व्यस्त बाण तीन पदों की रचना करके पुनः चतुर्थ पद की योजना के लिये आवृत्ति कर रहे थे कि उसी समय प्रातःकाल के भ्रमणार्थ बाणभट्ट को साथ लेने की इच्छा से मयूरभट्ट द्वार पर आ गये। और बाणभट्ट की रचना की आवृत्ति सुनकर रुक गये और जब चतुर्थ पद पूर्ण न होते देखा तो सहसा तीव्र स्वर से चतुर्थ पद की पूर्ति करके सुना दिया कि "कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि ! कठिनम्" ।। यह सुनकर बाण की पत्नी ने क्रोध के आवेश में स्वर बिना पहचाने ही कुष्ठी होने का शाप दे दिया। बाण की पत्नी के पतिव्रतत्व के प्रभाव से मयूरभट्ट को कुष्ठ रोग हो गया। जब उनकी पत्नी को ज्ञात हुआ कि मैंने यह क्या किया कि अपने भाई को ही शाप दे दिया तो पुनः कुष्ठनिवारणार्थ सूर्यशतक की रचना का उपदेश दिया, जिससे मयूरभट्ट गंगातट पर जाकर एक वृक्ष पर बैठे गये और एक रस्सी में सौ गाँठ लगाकर तथा लटका कर सूर्यस्तवन की रचना करने लगे। एक श्लोक की रचना करने पर रस्सी की गाँठ काट देते थे। इस प्रकार सौ श्लोक की रचना करने पर उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया। अतः काव्य से अमंगलनाश होता है, यह काव्य का चतुर्थ प्रयोजन है।

सद्यः परनिवृतये - वस्तुतः काव्य के ६ प्रयोजन में सद्यपरनिवृत्ति ही मुख्य एवं श्रेष्ठ प्रयोजन माना जाता है। काव्य के पठन तथा श्रवण एवं दर्शन के द्वारा पाठक, श्रोता, दर्शक, अलौकिक रसास्वादन को प्राप्त करते हैं। परनिवृत्ति अर्थात् पराशान्ति एव अलौकिक आनन्द का अनुभव करने लगते हैं। आनन्दानुभूति काल सांसारिक कष्टों की विस्मृति हो जाती है। यह आनन्दानुभूति ही समस्त काव्य से अथवा आत्मचितन सम्बन्धी दर्शन शास्त्रों के रहस्य को जानने से ही हो सकती है। किन्तु दर्शनशास्त्र आदि का रहस्य ज्ञान तो अति श्रमसाध्य एवं नीरस होने के कारण विरक्त विद्वज्जनों को ही प्राप्त हो सकता है। अतः काव्यानन्द का शर्करामिश्रित दुग्ध के सदृश सरलता से बोध हो सकता है। इसलिये यह अलौकिक आनन्द ब्रह्मानन्द सहोदर की अनुभूति केवल काव्य से ही प्राप्त हो सकती है। इस मुख्य प्रयोजन का समर्थन करते हुए धनन्जय ने अपने भाव को व्यक्त करते हुये कहा है कि यदि कोई रस (आनन्द) को क्षरण करने वाले रूपकों में व्युत्पत्ति का अन्वेषण करता है तो वह मन्दबुद्धि ही कहा जायेगा । अतः मम्मट द्वारा प्रतिपादित सद्यः परनिवृत्ति अर्थात् विगलित बेद्यान्तर स्पर्शशून्य ब्रह्मानन्द सहोदर रस की अनुभूति ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है। अन्य प्रयोजन आनुषंगिक हैं, क्योंकि काव्य द्वारा अलौकिक आनन्दानुभूति के पश्चात् कुछ भी प्राप्य अप्राप्य आदि का ज्ञान नहीं रह जाता है। अतः यह अलौकिक आनन्दानुभूति ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है।

कान्तासम्मिततयोपदेश युजे - काव्य प्रयोजनों के अन्त में अन्तिम प्रयोजन उपदेश माना है। ये उपदेश तीन होते हैं। (१) शब्द प्रधान (२) अर्थ प्रधान (३) रस प्रधान ।

प्रभुसम्मित उपदेश- शब्द प्रधान से तात्पर्य वेदशास्त्रियों के उपदेशों का ग्रहण किया जाना है, अर्थात् वेदादिकों के उपदेश को प्रभुसम्मित उपदेश माना जाता है, क्योंकि यह वेद के उपदेश को अक्षरश: पालन करने का आदेश देता है। वह किसी की विवशता एवं वैयक्तिक दशा को देखकर आदेश नहीं देता है। वेद तो सत्यं वद, धर्मं चर का आदेश देते हैं । जैसे अधिकारी अपने परिचारकों को शुष्कता के साथ आदेश देते हैं कि अमुक पञ्जिका ले आओ तथा अमुक ले जाओ। ठीक इसी प्रकार वेद कर्तव्यपालन का अक्षरशः आदेश देते हैं। अतः वेदादिशास्त्रों के उपदेश को प्रभुसम्मित उपदेश कहते हैं।

सुहृत् संमितोपदेश - पुराणादि मित्रवत् उपदेश देते हुए कहते हैं कि रामादि की तरह व्यवहार करना चाहिये, रावण आदि के समान नहीं। अर्थात् पुराणेतिहास के उपदेश वेदादि की तरह शब्द प्रधान न होकर अर्थप्रधान होते हैं। अतः पुराणादि के उपदेश का अक्षरशः पालन नहीं किया जाता है, अपितु अभिप्राय समझकर अनुसरण किया जाता है। इस पुराण इतिहासादि के उपदेश को सुहृत्सम्मित की कोटी में स्वीकार किया जाता है। मित्र का उपदेश राजाज्ञा आदि के समान अनिवार्य रूप से पालनीय नहीं होता है। स्वेच्छया लोग मित्र के उपदेश का पालन करते हैं। इसी प्रकार पुराणादि के उपदेश को भी लोग पालन करते हैं। अतः पुराणेतिहासादि के उपदेश को मुहृत् सम्मित की कोटी में स्वीकार किया गया है।

कान्तासम्मितोपदेश - प्रभुसम्मित तथा सुहृत्सम्मित उपदेश की अपेक्षा काव्य का उपदेश भिन्न एवं विलक्षण होता है, क्योंकि कान्तासम्मितोपदेश में शब्द की प्रधानता नहीं होती है और न अर्थ की प्रधानता होती है अपितु इस उपदेश में रस की प्रधानता होती है। इस रस प्रधान उपदेश शैली को ही कान्तासम्मितोपदेश कहते हैं। जब कान्ता किसी कार्य में पुरुष को प्रवृत्त या निवृत्ति करना चाहती है तो कान्ता अपनी सामर्थ्य से रसमय वातावरण प्रस्तुत करके ही पुरुष की प्रवृत्ति या निवृत्ति के लिये प्रेरित करती है। कान्तासम्मितोपदेश में शब्द और अर्थ दोनों गुणीभाव को प्राप्त हो जाते हैं और रस की प्रधानता हो जाती है। इस प्रकार रसप्रधान उपदेश शैली को ही कान्तासम्मितोपदेश के अन्तर्गत मानते हैं। काव्य के रसमय उपदेश से कर्तव्य का ज्ञान सरलता से हो जाता है। इस शैली में वेदादिशास्त्र के समान शब्द की प्रधानता नहीं होती है और पुराणेतिहासादि के समान अर्थ की प्रधानता नहीं होती है। अपितु एक विलक्षण रसप्रधान, सरस उपदेश काव्य से प्राप्त होता है। जिस प्रकार प्रिय पत्नी के द्वारा सरस बातावरण में प्रस्तावित कार्य को पति अस्वीकृत नहीं कर पाता है अपितु उत्साह एवं लगन के साथ कान्ता के प्रस्तावित कार्य को पूर्ण सामर्थ्य से पूर्ण करने का प्रयास करता है। ठीक इसी प्रकार काव्य के रसास्वाद के साथ-साथ कर्त्तव्य एवं समुन्नति के कार्यों में सहर्ष प्रवृत्त होता है। अतः यह सरस उपदेश ही काव्य का अन्तिम कान्तासम्मितोपदेश माना जाता है। इसीलिये कवि को सदा रसमय कान्ता सम्मितोपदेश प्रधान रचना करने का प्रयास करना चाहिये ।

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शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष का परिचय

 काव्य के अङ्गरूप शब्द और अर्थ को अलंकृत करने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं। काव्य का शरीर शब्द और अर्थ माना गया है। अतः अर्थ और शब्द दोनों को अलंकृत करने वाले को (१) शब्दालंकार तथा (२) अर्थालंकार कहा गया है। इस तरह अलंकार के प्रमुख दो भेद होते हैं। (१) शब्दालंकार (२) अर्थालंकार । 

इनमें से शब्दपरिवृत्ति असह को शब्दालंकार और शब्दपरिवृत्ति सह को अर्थालंकार कहा जाता हैं । आइये अब शब्दपरिवृत्ति असह तथा शब्दपरिवृत्ति सह को अर्थालंकार समझते हैं। जिस रचना में किसी शब्द के स्थान पर उसी शब्द का पर्यायवाची शब्द रखने पर अलंकारत्व समाप्त हो जाये उसे शब्द परिवृत्ति असह कहा जाता है, क्योंकि यहाँ शब्द परिवृत्ति सहन नहीं होता है। वहाँ का अलंकार समाप्त हो जाता है। शब्द परिवृत्ति असह के कारण शब्दालंकार माना जाता है  । ठीक इसके विपरीत जहाँ जिस रचना में शब्द परिवर्तन करके उसके पर्यायवाची शब्द को रखने पर भी अलंकारत्व समाप्त न हो, वहाँ शब्दपरिवृत्ति को सहन करने के कारण अर्थालंकार कहते हैं । अतः शब्दापरिवृत्ति असह और शब्दपरिवृत्ति के सह के आधार से अलंकार के दो भेद हो जाते हैं ।

इन दोनों प्रकार के अलंकारों में श्लेष का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है। श्लेष का चमत्कार सभी सहृदयों को आनन्दित करने में सदा समर्थ रहता है। अतः अभी लक्षणकारों ने श्लेष का निरूपण किया है। आचार्य मम्मट के अनुसार-

वाच्यभेदेन भिन्ना यद् युगपत् भाषणस्पृशः ।

श्लिष्यन्ति शब्दाः श्लेषोऽसावक्षरादिभिरष्टधा॥

सामान्य रूप से 'सकृत्प्रयुक्तः शब्दः सकृदेव अर्थं गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार प्रयोग किया हुआ शब्द एक बार के ही अर्थ का बोध करता है। अर्थात् एक शब्द एक ही अर्थ का बोध करा सकता है। अनेक अर्थों का नहीं। अतः 'प्रत्यक्षशब्दाभिद्यन्ते' इसके अनुसार प्रत्येक अर्थ के लिये पृथक्-पृथक् शब्द को प्रयुक्त करना चाहिये । परन्तु कहीं पर दो भिन्न-मिन्न अर्थों का बोध करने वाले शब्द मिलकर समानाकार अर्थात् एकाएक हो जाते हैं। ऐसी दशा में उन समानाकार दो शब्द का दो बार उच्चारण नहीं किया जाता है। अतः एक ही शब्द की प्रतीति होती है। परन्तु जतुकाष्ठन्याय से दो दोनों भिन्न भिन्न अर्थों के बोधक शब्द मिलकर एकाएक हो जाते हैं। जैसे लाख और लकड़ी पृथक् पृथक् दो वस्तुयें हैं। तथापि कभी कभी दोनों चिपककर एकाकार होने के कारण दो की प्रतीति नहीं होती है। इसी प्रकार दो समानाकार शब्द एक बार उच्चारण किये जाने के कारण जहाँ एक शब्द के रूप प्रतीत होते हैं वहाँ शब्दों का श्लेष (चिपकाव) होने के कारण श्लेष नामक शब्दालंकार होता है। इस शब्दश्लेष अलंकार के आठ भेद होते हैं -

(१) वर्ण श्लेष (२) पद श्लेष (३) लिंग श्लेष (५) प्रकृति श्लेष (४) भाषा श्लेष (६) प्रत्यय श्लेष (७) विभक्ति श्लेष (८) वचन श्लेष। 

इन आठों भेदों के अतिरिक्त मम्मट ने शब्द श्लेष का नवां भेद मानते हैं। उन्होंने "भेदाभावात्प्रकृत्यादेर्भेदोऽपि नवमो भवेत्" कहा है। उपर्युक्त आठ भेदों में प्रकृति, प्रत्यय आदि का भेद होने से इन आठ भेदों को सभंगश्लेष के नाम से भी पुकारते हैं। इसके अतिरिक्त जहां प्रकृति, प्रत्ययादि के भेद के बिना भी स्वरभेद से तथा स्वरभेद आदि के बिना भी श्लेष होता है, तो वहाँ उसे अभंगश्लेष के नाम से पुकारते हैं। मम्मटाचार्य ने अभंगश्लेष को श्लेष का नवां भेद माना है। रुय्यक ने सभंगश्लेष को शब्दालंकार के नाम से अभिहित किया है, क्योंकि सभंगश्लेष का विषय शब्द है। सभंगश्लेष में भिन्न-भिन्न अर्थ वाले अनेक शब्द जतुकाष्ठन्याय से मिलकर एकाकार हो जाते हैं तथा अभंगश्लेष को अर्थश्लेष माना है, क्योकि अर्थश्लेष अलंकार, अर्थश्लेष का विषय होता है। अर्थश्लेष में स्वर आदि की अभिन्नता से एक शब्द में दो अर्थों का श्लेष होता है। इसीलिये अभंगश्लेष को अर्थश्लेष माना है। मम्मट ने शब्दालंकार और अर्थालंकार का भेदक अन्य व्यतिरेक को माना है "तत्सत्वे तत्सत्वमनन्वयः तदभावे व्यतिरेकः" इसका आशय यह है कि जहां जिस किसी शब्द विशेष कारण गुण तथा अलंकार का अस्तित्व स्पष्ट हो रहा है। इसके अतिरिक्त उस शब्द विशेष को हटाकर उसके स्थान पर समानार्थक पर्यायवाची शब्द के रखने पर गुण और अलंकारादि का अस्तित्व न रह जाय, तो वहाँ शब्दगुण और शब्द अलंकार होता है तथा जहाँ शब्द विशेष को हटाकर अन्य समानार्थक पर्यायवाची शब्द रखने पर भी अर्थ की विशेषता की प्रतीति हो रही हो, तो वहां अर्थगुण और अर्थालंकार होता है इस प्रकार मम्मट ने जहाँ शब्द के परिवर्तन कर देने से श्लेष की उपस्थिति नहीं रह जाती है, तो वहाँ अभंगश्लेष अथवा शब्दालंकार होता है। मम्मट के मतानुसार शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष के क्रमशः उदाहरण देखिये।

शब्दश्लेष

पृथुकार्त्तस्वरपात्रं भूषितनिःशेषपरिजनं देव ! ।

विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम् ।।

                (काव्यप्रकाश नवम उल्लास)

प्रस्तुत उदाहरण में कोई याचक दरिद्र राजा से कह रहा है कि हे राजन् ! इस समय हम दोनों का (मेरा तथा आपका) घर एक समान है, क्योंकि आपका भवन पृथुकार्तस्वरपात्रम् अर्थात् स्वर्ण के बड़े-बड़े पात्रों से (सुशोभित) युक्त है और मेरा घर (पृथुकार्तस्वर) पात्रम् अर्थात् शिशुओं के आर्तन स्वर (दुखित रोने के स्वर) का स्थान है। भूषित निःशेष परिजन अर्थात् आपके परिवार के सभी सदस्य भूषित अलंकृत (आभूषणों से सुसज्जित) हैं तथा मेरे परिवार के समस्त सदस्य भूषित अर्थात् भूमि पर पड़े हुए हैं। विसलत्करेणुगहनम्-आपका भवन हथनियों की भीड़ से  सुशोभित है और मेरा घर बिलों में रहने वाले चूहों के द्वारा खोदी हुई मिट्टी से पूर्ण है। अतः इस प्रकार आपके भवन की मेरे घर की समानता स्पष्ट सिद्ध है। यदि यहाँ पृथुक्, तथा भूषित, विलसत्क, शब्दों को हटाकर अन्य समानार्थक पर्यायवाची शब्द रख दिये जायें, तो श्लेष समाप्त हो जायेगा। शब्द परिवृत्ति असह होने के कारण यह शब्दश्लेष अलंकार का उदाहरण माना जाता है। 

अर्थश्लेष- 

स्तो केनोन्नतिमायाति स्तोकेनायात्यधोगतिम् । 

अहो सुसदृशी वृत्तिस्तुलाकोटे: खलस्य च ॥

              (काव्यप्रकाश नवम उल्लास)

प्रस्तुत उदाहरण में तराजू और दुष्ट के स्वभाव की समानता का वर्णन किया है कि थोड़ा वस्तु रखने से तराजू का पलड़ा नीचे को और वस्तु निकाल लेने पर पलड़ा ऊपर को उठ जाता है। उसी प्रकार दुष्ट का स्वभाव होता है कि थोड़े लाभ से प्रसन्नादि और साधारण वस्तु के न मिलने पर क्रुद्ध आदि हो जाता है। यदि यहां स्तोक शब्द को हटाकर अल्पक शब्द को रख दिया जाय तो भी श्लेष समाप्त नहीं होता है। इसी विशेषता के कारण इसे अर्थश्लेष माना है। अलंकार सर्वस्वकार रुय्यक का मत है कि श्लेष अलंकारों की सत्ता स्वतन्त्र कोई सत्ता नहीं होती है अर्थात् श्लेष अलंकार अन्य अलंकारों के बिना नहीं रह सकता है। अतः श्लेष का अस्तित्व अन्य अलंकारों के होने पर ही मानना चाहिए। इसे अनन्य परतन्त्राम् कहते हैं। ब्रह्मा की सृष्टि समवायि, असमवायि एवं निमित्त कारण आदि के अधीन होने के कारण परतन्त्र है। जबकि कवि की रचना किसी अर्थात् अन्य अलंकार होने पर ही श्लेष की प्रधानता होती है। परन्तु आचार्य मम्मट को रुय्यक का यह मत मान्य नहीं है। उनका कथन है कि अन्य अलंकारों के बिना भी श्लेष की स्वतन्त्र सत्ता होती है जैसे- 

देव ! त्वमेव पातालमाशानां त्वं निबन्धनम् ।

त्वं चामरमरुद्भूमिरेको लोकत्रयात्मकः ।।

हे विष्णु देव ! आप ही पाताल लोक के और दूसरे अर्थ में पाता अलं संसार के सदा रक्षक हैं। आप ही आशाओं के आधार दूसरे अर्थ में आशा = दिशाओं के व्यापार के आधार हैं अर्थात् आप ही भूलोक हैं। आप ही देवताओं और मरुद्गणों के निवास स्थान स्वर्ग लोक हैं। दूसरे अर्थ में राजचिह्न रूप चॅवर के डुलाने से उत्पन्न मरुत् (वायु) का भोग करने वाले आप ही हैं। इस प्रकार आप अकेले ही तीनों लोक स्वरूप हैं। इस उदाहरण में उपमा आदि कोई अन्य अलंकार नहीं है। अतः यह स्वतन्त्र श्लेष उदाहरण है। इससे स्पष्ट है कि रुय्यक का यह मत कि अन्य अलंकारों के होने पर ही श्लेष होता है सर्वथा अनुपयुक्त एवं युक्तिरहित है। अतः मम्मट के मतानुसार अन्य अलंकारों के बिना भी श्लेष की स्वतन्त्र सत्ता है तथा अन्य उपमा आदि अलंकारों के साथ श्लेष के होने पर भी उपमा आदि अलंकारों की सत्ता प्रधानरूप से होती है। इससे निश्चित होता है कि रुय्यक का सिद्धान्त मान्य एवं समीचीन नहीं है। इससे श्लेष अलंकार की सत्ता स्वयं सिद्ध है। यही कारण है कि माघ, बाण, हर्ष आदि महाकवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में श्लेष का पर्याप्त प्रयोग किया है।

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काव्य में गुण और अलंकारः अन्तर तथा स्थान

 साहित्य में अलंकारों का एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है । अग्निपुराण के अनुसार अलंकार रहित कवि की वाणी उसी प्रकार सुशोभित नहीं होती है, जैसे विधवा स्त्री समाज में सुशोभित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त ध्वनिवादी आचार्यों ने भी अलकारों के महत्व का अनुभव करके अलंकार ध्वनि को स्वीकार करके अलंकारों की महत्ता को व्यक्त किया है। इस प्रकार काव्य में अलंकारों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह सभी अलंकारिक स्वीकार करते हैं, परन्तु प्राचीन आचार्यों ने अलंकारों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रदर्शित किया है ।

उद्भट का मत- आचार्य उद्भट गुण और अलंकारों में भेद नहीं मानते है अर्थात् उद्भट के मतानुसार लौकिक गुण (शूरता, उदारता, दयालुता आदि) अलंकार (हार, अंगूठी आदि में तो भेद होता है) क्योंकि शूरता आदि गुणों का आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध होता है और हार आभूषणों का शरीर के साथ संयोग सम्बन्ध होता है, परन्तु काव्य के गुण (ओज, प्रसाद, माधुर्य) और अलंकार (शब्दालंकार, अर्थालंकार, उभयालंकार) आदि काव्य में ये दोनों (गुण और अलंकार) समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अतः काव्य में गुण (ओज प्रसादादि) अलंकारों (अनुप्रास उपमा आदि) में भेद नहीं किया जा सकता है तथा जो लोग गुण और अलंकारों में भेद स्वीकार करते हैं उन्हें इस पंक्तियों को देखना चाहिए। रामवायवृत्या शौर्यादयः संयोगवृत्या तु हारादयः इत्यस्तु गुणालंकाराणां भेदः, ओजः प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि । समवायवृत्या स्थितिरिति गड्ढलिका प्रवाहेणवैषां भेदः ।

वामन का मत- उद्भट के बाद वामनाचार्य ने गुण और अलंकारों का भेद स्वीकार करते हुए लिखा है काव्यशोभायाः कर्तारोधर्मा: गुणा: तदतिशय हेतवस्त्वलंकाराः ।" इसका भाव यह है कि काव्य की शोभा करने वाले धर्मों को गुण और काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को अलंकार कहते हैं । इस प्रकार वामन के मत से काव्य की शोभा कारक गुण और काव्य की शोभावर्द्धक अलंकार होते हैं। अतः ओज, प्रसाद आदि गुण, काव्य में शोभा को उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं, परन्तु अलंकार (अनुप्रासोपमादि) काव्य में शोभा उत्पन्न करने वाले नहीं होते हैं। अतः अलंकारों को गुण नहीं कह सकते हैं। अलंकार तो काव्य की शोभा बढ़ाने वाले होते हैं जैसे-सुन्दर शोभायुक्त रमणी के अंगों की शोभा वृद्धि तभी आभूषण कर सकते हैं जब रमणी में सौन्दर्यादिगुण पहले से विद्यमान होते हैं। उसी प्रकार काव्य में शोभोत्पादक गुणों के (ओज, प्रसाद आदि के) विद्यमान होने पर ही अनुप्रासादि अलंकार शोभावृद्धि करने में समर्थ हो सकते हैं । अतः वाक्य के गुण काव्य के स्वरूपाधायक होते हैं और अलंकार उत्कर्षाधायक होते हैं तथा गुण काव्य के लिये अनिवार्य होते हैं और अलंकार अनिवार्य नहीं होते हैं, क्योंकि अलंकारों के विना काव्य में काव्यत्व विद्यमान रहता है। ठीक इसके विपरीत ओज प्रसादादि गुणों के अभाव में काव्य में काव्यत्व नहीं रहता है। इससे स्पष्ट है कि काव्य गुण अनिवार्य होते है और अलंकार अनिवार्य नहीं होते हैं ।

आनन्दवर्द्धन का मत - वामन के बाद आनन्दवर्द्धन ने गुण और अलंकारा में भेद प्रतिपादित करते हुए लिखा है-

तमर्थमवलम्बते येऽङ्गितं ते गुणाः स्मृताः ॥

अंगाश्रितास्त्वलंकारा: मन्तव्याः कटकादिवत् ॥

इसका तात्पर्य यह है कि काव्य के आत्मतत्व रसभावादि के आश्रित रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं और काव्य के शरीररूप शब्द और अर्थ के आश्रित रहने वाले धर्म को अलंकार कहते हैं अर्थात् गुण, काव्य को आत्मा स्वभाव आदि के आश्रित होते है और अलंकार काव्य के शरीर शब्द और अर्थ दोनों के आश्रित रहने वाले अलंकार होते हैं। मम्मट का मत - आचार्य मम्मट ने वामन और आनन्दवर्द्धन के मतों का साररूप ग्रहण करके गुण और अलंकारों का भेद स्पष्ट करते हुए गुण और अलंकार का स्वरूप निर्धारित किया है। अतः वामन के मत से काव्य में गुणों की अनिवार्यता और आनन्दवन के मत से काव्य की आत्मा रस-भाव आदि की रसघर्मता को ग्रहण करके गुण और अलंकार का स्वरूप करते हुए लिखा है कि

ये रहस्याङ्गिनो धर्माः शोर्यादय इवात्मनः ।

उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः ॥

अर्थात् जैसे शूरता, उदारता आदि गुण आत्मा के धर्म होते हैं, उसी प्रकार जो काव्य की आत्मा रस के धर्म होते हैं और काव्य के उत्कर्ष के हेतु होते हैं तथा जो काव्य की आत्मा "रस" में अचल स्थिति से रहते हैं, उन्हें गुण कहते हैं।

इसके अतिरिक्त जो काव्य में रहने वाले काव्य के शरीर रूप शब्द और अर्थ के कभी-कभी उत्कर्ष के हेतु होते है जैसे हार कटक, कुण्डलादि आभूषण पञ्चभूत शरीर का कभी-कभी उत्कर्षण करते हैं, उन्हें काव्य में (अनुप्रासादि को) अलंकार कहते हैं। इसी भाव को प्रकट करने के लिये सम्मट ने लिखा है

उपकुर्वन्ति ते सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।

हारादिवदलंकारान् तेऽनुप्रासोपमादयः ।।

इस प्रकार अलङ्कार (अनुप्रागोपमादि) काव्य के शरीररूप शब्द और अर्थ की शोभावृद्धि करते हैं तथा कभी-कभी रस के उपकारक होते हैं और कभी-कभी नहीं भी होते हैं।

मम्पट के मतानुसार गुण और अलंकारों का अन्तर निम्न प्रकार समझना चाहिये ।

गुण

(१) गुण काव्य की आत्मा स के स्थिर धर्म होते हैं।

(२) गुण काव्य के आत्मत्व रस के साथ नित्य रहते है।

(३) गुण काव्य की आत्मा रस के साथ रहकर रस के साक्षात् उपकारक होते हैं।

अलंकार

 (१) अलंकार काव्य के शरीर शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म होते हैं।

(२) अलंकार काव्य की आत्मा रस के साथ नित्य नहीं रहते हैं अपितु अलंकार रसहीन काव्य में भी रहते हैं।

(३) अलंकार रस के साथ रह कर भी कभी शब्द और अर्थ के द्वारा रस के उपकारक होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं।

वस्तुतः काव्य का मूल चमत्कार है अर्थात् कवि का वही काव्य सफल माना जाता है जिसे पढ़ने तथा सुनने से सहृदय का हृदय चमत्कार से तरंगित हो उठे। आनन्दवर्द्धन से पूर्ववर्ती आचार्यों ने काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने वाले रस, गुण, अलंकार इन तीन को माना है। आनन्दवर्द्धन ने भी ध्वनि के इन तीन भेद (रस, अलंकार, वस्तुध्वनि) मानकर अलंकार का महत्व स्वीकार किया है। अग्निपुराण में अलंकार रहित कवि की वाणी की उपमा विधवा स्त्री से देकर काव्य में अलंकार की अनिवार्यता स्वीकार की है। उद्भट ने गुण और अलंकारों में भेद ही नहीं माना है। मम्मट भी काव्य में अलंकार की महत्ता को स्वीकार करते हुए अपने काव्य लक्षण में "अनलंकृतीपुनः क्वापि" लिखा है। जिसका आशय यह है कि कवि को अपनी रचना में अलंकार योजना के लिये यथा शक्ति प्रयत्नशील अवश्य रहना चाहिये परन्तु यदि रसप्रधान रचना में अलंकार न भी आ सकें तो कोई आवश्यकता नहीं। अतः यथासम्भव काव्य में अलंकार अवश्य होने चाहियें। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ और चन्द्रालोककार जयदेव ने मम्मट के "अनलंकृती" का खण्डन किया है। जयदेव ने मम्मट के "अनलंकृती" शब्दार्थ के विशेषण का खण्डन करते हुये लिखा है

अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती ।

असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती ॥

अर्थात् जो मम्मट अलंकार रहित शब्दार्थ जो काव्य मानते हैं वे अग्नि को शीतल क्यों नहीं स्वीकार करते हैं, इस प्रकार उन्होंने "अनलंकृती" का खण्डन किया है। वस्तुतः मम्मट का आशय यह है कि काव्य में चमत्कार ही काव्यत्व होता है। यह चमत्कार, रसरूप और अलंकाररूप होता है। अर्थात् जहाँ वाच्यार्थ से भिन्न व्यंग्यार्थ अधिक चमत्कारजनक होता है तो वहां व्यंग्यार्थ के द्वारा रसरूप चमत्कार ही काव्य का काव्यत्व कहलाता है तथा जहाँ वाच्यार्थरूप चमत्कार होता है वह वाच्यार्थरूप चमत्कार अलंकारों के द्वारा ही काव्य के आनन्द का हेतु होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि काव्य में चमत्कार रसरूप तथा अलंकाररूप होता है। अतः काव्य में अलंकारों का महत्व रस के समान ही मानना चाहिये अर्थात् यदि रस और अलंकार में उपमानोपमेय की कल्पना चमत्कार रूप समान धर्म को मानकर करे तो उपमान रस और उपमेय अलंकार कहा जायेगा। अतः काव्य में रस के समान अलंकार का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है ।

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संस्कृत साहित्य की दृष्टि में शब्दशक्तिः उपयोग और महत्व

 मम्मट ने अपने काव्य लक्षण में शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है। इसमें शब्दों के ये तीन भेद किया। (१) वाचक (२) लक्षक (३) व्यञ्जक । इसी तरह अर्थ के भी तीन भेद है- (१) वाच्य (२) लक्ष्य (३) व्यंग्य । मम्मट ने शब्द शक्तियों के लिये (१) अभिधा (२) लक्षणा (३) व्यञ्जनानामक तीन शक्तियों का निरूपण किया है।

 शब्दों के भेद प्रदर्शित करते हुए लिखा है "स्याद्वाजको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्तथा ।" काव्य में अभिधालक्षणा तथा व्यञ्जना के द्वारा शब्दों के अर्थ का विवेचन वाच्यलक्ष्यतथा व्यंग्य भेद से किया है। "गंगायां घोषः" में गंगा शब्द के वाच्या को जलधारा रूप लक्ष्य तटरूपव्यंग्य शीतलता तथा पावनता रूप तीनों अर्थों का ज्ञान क्रमशः अभिधालक्षणाव्यञ्जना से होता है। मम्मट ने तीन प्रकार के शब्दों के अर्थ का निरूपण करने के लिये वाच्यादयस्तदर्थाः स्युः" लिखा है अर्थात् वाचकलक्षक के क्रमशः वाच्य लक्ष्यव्यंग्य अर्थ होते हैं। इस प्रकार अभिघा से वाच्यार्थलक्षणा से लक्ष्यार्थव्यञ्जना से व्यंग्यार्थकी प्रतीति होती है। अतः मम्मट ने तीन शब्द शक्तियों का विवेचन काव्य प्रकाश में किया है।

(१) अभिधा (वाच्यार्थ ज्ञान के लिये)

(२) लक्षणा (लक्ष्यार्थ ज्ञान के लिये)

(३) व्यञ्जना (व्यंग्यार्थ प्रतीति के लिये) महावैयाकरण नागेश ने परमलघुमञ्जूषा ग्रन्थ में शब्दार्थ बोध के लिए तीन वृत्तियों को स्वीकार किया है। "सा च वृत्तिस्त्रिधा शक्तिलक्षणा व्यञ्जना च" इस प्रकार नागेश ने भी तीन शक्तियों को स्वीकार किया है तो अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन शब्द शक्तियों के स्वरूप क्या-क्या हैं ? इसका उत्तर इस प्रकार है। है कि अभिधाआचार्य मम्मट ने अभिधा का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए लिखा "स-मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते" इस वाक्य का आशय यह है कि वाच्यार्थ को स्पष्ट करने वाली शब्दशक्ति को अभिधा कहते हैं। यह अभिधा का व्यापार मुख्य व्यापार माना जाता है। इस लिये अभिधा से बोधित अर्थ को मुख्यार्थ अथवा वाच्यार्थ तथा अभिधेयार्थ एवं शक्यार्थ कहते हैं । इस प्रकार अभिधावृत्ति से साक्षात् संकेतित अर्थ को धारण करने वाले शब्द को वाचक शब्द कहते हैं। संकेतित अर्थ वह होता है जो श्रोता को सुनने से ही ज्ञात हो जाये इसलिये साक्षात् संकेतित अर्थ को स्पष्ट करने वाली शक्ति को अभिधा कहते हैं। यह संकेतित अर्थ चार प्रकार का होता है। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये मम्मट ने लिखा है कि संकेतितश्चतुर्भेदो जात्यादिर्जातिरेव वा" अर्थात् (१) जाति (२) गुण (३) क्रिया (४) यदृच्छा भेद से संकेतित अर्थ के चार भेद होते है । महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी इसी भाव को स्पष्ट करते हुये महाभाष्य में लिखा है कि "चतुष्टयीशब्दानां प्रवृत्तिः" अर्थात् जातिवाचक गौः कीगुणवाचक शुक्ल कीक्रियावाचक चल कीयहच्छवाचक डित्थ की प्रवृत्तिनिवृत्ति जातिगुणक्रियायदृच्छा (अर्थात् संज्ञा) वाचक शब्दों की उपाधि में होती है। पतञ्जलि की 'चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिःअनुकरण करते हुये आलंकारिकों ने संकेतित अर्थ के चार भेदों को माना है। इस प्रकार वाचक शब्द के वाच्यार्थ अथवा मुख्यार्थ ज्ञान के लिये अभिधा का आश्रय लिया जाता है अतः अभिघा का महत्व स्वयं सिद्ध हो जाता है कि अभिधावृत्ति के अभाव में वाच्यार्य भी ज्ञात नहीं होगा। अतः अभिधा के सभी विद्वान् मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते हैं ।

लक्षणा लक्ष्यार्थ को स्पष्ट करने के लिये लक्षणा का स्वरूप प्रदर्शित करते हुये आचार्य सम्मट ने लिखा है कि मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढितोऽथप्रयोजनात् ।

अन्योऽर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणाऽऽरोपिता क्रिया ।।

इसका आशय यह है कि मुख्यार्थ के बाध अर्थात् असंगत प्रतीत होने पर मुख्यार्थ से यह सम्बन्धित अर्थ में ही लक्षणा होती है अर्थात् लक्षणा मुख्यार्थ से सम्बन्धित अर्थ में ही लक्षणार्थ को स्पष्ट करती है। किन्तु यह लक्षणा रूढ़ि अथवा प्रयोजन को मानकर ही प्रवृत्त होती है। जैसे कर्मणि कुशलः में कुशान जाति इस मुख्यार्थ (कुश लाने वाले अर्थ) का बाघ दिखाई पड़ रहा हैक्योंकि प्राचीनकाल में कुश लाने वाले को ही कुशल कहा जाता था परन्तु आजकल किसी भी कार्य में निपुण देखकर कुशलोऽय पुरुषःकहते हैं। अतः कुशल के मुख्यार्थ के बाधित होने पर रूढ़िवश अर्थात् परम्परा एवं प्रसिद्धि को हेतु मानकर कुशल का लक्षणा द्वारा चातुर अर्थ ग्रहण किया जाता है। अतः इसे रूढा लक्षणा भी कहते हैं। इसी प्रकार प्रयोजनवश होने वाली लक्षणा को प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं। जैसे 'गंगायां घोषःमें मुख्यार्थ (गंगा का जलधारा रूप अर्थ) के बाधित होने पर मुख्यार्थ से सम्बन्धित तट में लक्षणा शीतलता एवं पावनता रूप विशेष प्रयोजन को मानकर होती है। आचार्य मम्मट ने इस लक्षणा के मुख्य दो भेद को (१) शुद्धा, (२) गोणी मानकर पुनः शुद्धा के दो भेद (१) उपादानलक्षणा । (२) लक्षणलक्षणा किया है। इसके बाद इन दोनों के सारोपा और साध्यवसाना दो भेद का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार शुद्धालक्षणा के (१) उपादान-लक्षणा (२) लक्षण-लक्षणा (३) सारोपा (४) साध्यवसाना ये चार भेद होते हैं। गौणी के (१) सारोपा (२) साध्यवसाना दो भेद होते हैं। इस प्रकार शुद्धा और गौणी के दो भेदों को मिलाकर मम्मट के मत से लक्षणा के कुल ६ भेद होते हैं। इसीलिये मम्मट ने द्वितीय उल्लास में लक्षणा के भेद प्रदर्शित करते हुये लिखा है कि 'लक्षणा षड्विधाइसलिये लक्षणा के ६ भेद होते हैं जैसे-

 लक्षणा (१) शुद्धा (२) गौणी

शुद्धा के भेद-

(१)  उपादानलक्षणा (२) लक्षणलक्षणा (३) सारोपा (४) साध्यवसाना

( उदा० कुन्ता: प्रविसन्ति ) (गंगायां घोषः) (आयुर्धृतन्) आयुरेवेदम्)

गौणी के भेद

(१)  सारोपा (२) साध्यवसाना

(उदा० गौर्वाहीकः) (गोरय)

इस प्रकार लक्षणा का भी महत्व अनुपम है। जिस प्रकार अभिधा के बिना बाक्यार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है। उसी प्रकार लक्षणा के बिना लक्ष्यार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है । अतः लक्षणा का काव्य में गौरव स्पष्ट ही सिद्ध है।

व्यञ्जना

जिस स्थल पर अभिधा लक्षणा का व्यापार समाप्त हो जाता है। अर्थात् अभिधा लक्षणा के विरत होने पर भी जिस प्रयोजनरूप अर्थ की प्रतीति इष्ट होती हैउस विशेष अर्थ का बोध केवल त्र्यंजना से ही हो सकता हैक्योंकि व्यंग्यार्थ अथवा प्रयोजन विशेष अर्थ का बोध अभिधा से नहीं हो सकता है क्योंकि शीतलता पावनता रूप विशेष अर्थ संकेतित-अर्थ नहीं है। अभिधा केवल संकेतित अर्थ को स्पष्ट करती है। अतः संकेत-ग्रह के अभाव में अभिधा की प्रवृत्ति ही सम्भव नहीं है इसके अतिरिक्त जिस शीतलता पावनता को प्रयोजन मानकर लक्षणा की जाती हैवह लक्षणा भी शीतलता पावनता रूप अर्थ को नहीं ज्ञात करा सकती है क्योंकि लक्षणा की प्रवृत्ति (१) मुख्यार्थ बाध (२) मुख्यार्थ योग, (३) रूढ़ि अथवा प्रयोजन रूप तीन कारणों के होने पर ही होती हैपरन्तु गंगायां घोष: में जिस शीतलता पावनता की सिद्धि के लिये तट में लक्षणा की जाती है पुनः शीतलता पावनता की सिद्धि के लिये यदि तट में लक्षणा करेंतो तट अर्थ मुख्यार्थ नहीं है. और न तट में मुख्यार्थ की बाधा ही है तथा शीतलता पावनता रूप अर्थ को लक्षणा द्वारा ज्ञात करने के लिये कोई प्रयोजन चाहिये परन्तु इस प्रकार प्रयोजन की मिथ्या कल्पना करने से शास्त्र में अनवस्था दोष आ जायेगा । अतः शीतलता पावनता रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये व्यञ्जनावृत्ति अवश्य स्वीकार करनी चाहिये । इसी भाव को आचार्य मम्मट ने अधोलिखित कारिका में स्पष्ट किया है -

यस्य प्रतीतिमाधातुं लक्षणासमुपास्यते ।

फले शब्दकैगम्येऽत्र व्यञ्जनान्नापराक्रिया ॥

इस प्रकार व्यङ्ग्यार्थरूप लोकोत्तर अर्थ की प्रतीति व्यञ्जना के अतिरिक्त किसी अन्यवृत्ति के द्वारा नहीं हो सकती है। एक व्यञ्जना के (१) शाब्दी व्यञ्जना, (२) आर्थीव्यञ्जना ये दो भेद होते हैं। शाब्दीव्यञ्जना में शब्द की प्रधानता से व्यङ्गयार्थ की प्रतीति होती है। इसी लिये शाब्दीव्यञ्जना में शब्द को हटाकर उनके पर्यायवाची शब्द को रखने से व्यङ्गयार्थ समाप्त हो जाता हैअतः शब्द की प्रधानता से होने वाले व्यङ्गयार्थ स्थल में शाब्दीव्यञ्जना होती है। सशङ्खचको हरिःअशङ्खचको हरिःकर्णार्जुनौ इत्यादि शाब्दीव्यञ्जना के भेद अभिधामूला व्यञ्जना के उदाहरण माने जाते हैं । आर्थी व्यञ्जना में अर्थ की प्रधानता से व्यङ्ग यार्थ की प्रतीति होती है तथा आर्थी व्यञ्जना में शब्द को परिवर्तित करके यदि समानार्थक शब्द रखेंगे तो भी व्यङ्ग्यार्थ होगा । अतः शब्द परिवृत्ति सह-व्यञ्जना को आर्थी-व्यञ्जना और शब्द परिवृत्ति असहव्यञ्जना को शाब्दी-व्यञ्जना कहते हैं। इस शाब्दी-व्यञ्जना के दो भेद (१) अभिधामूला-व्यञ्जना (२) लक्षणामूला व्यञ्जना होते हैं। द्वितीय उल्लास के अन्त में अभिधामूला व्यञ्जना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुये मम्मट ने लिखा है कि

अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते ।

संयोगाद्यैरवाच्यार्यधीकृद् व्यावृतिरञ्जनम् ॥

(१) संयोग, (२) विप्रयोग, (३) साहचर्य, (४) विरोधिता, (५) अर्थ, (६) प्रकरण, (७) लिङ्ग (८) अन्य शब्द की सन्निधि, (९) सामर्थ्य, (१०) औचित्य, (११) देश, (१२) काल (१३) व्यक्ति (पुलिङ्ग स्त्रीलिंगादि), (१४) स्वर आदि के कारण अनेकार्थ शब्दों के अर्थ केवल एक अर्थ में नियंत्रित हो जाते हैं फिर भी सहृदयों के हृदय में अन्य अर्थों की प्रतीति होती है, वह व्यञ्जना व्यापार से ही होती है। इसी व्यापार को अभिधामूला व्यञ्जना कहते हैं।

संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता।

अर्थ: प्रकरणं लिङ्गं शब्दस्यान्यस्य सन्निधि:।।

सामर्थ्यमौचिती देश: कालो व्यक्ति: स्वरोदय।

शब्दार्थस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतव:।।

                                    वाक्यपदीयम्

लक्षणामूलाव्यञ्जना को अविवक्षितवाच्य भी कहते हैं। लक्षणामूला व्यञ्जना के अर्थान्तर संक्रमित तथा अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनि नामक दो भेद होते हैं।

आर्थीव्यञ्जना- (१) वक्ता (२) बोद्धव्य (३) काकु (४) वाक्य, (५) वाच्य, (६) अन्य सन्निधि, (७) प्रस्ताव, (८) देश (९) काल (१०) वेष्टादि के वैशिष्ट्य से सहृदयों के हृदय अन्य विशेष अर्थ को प्रतीति कराने वाले व्यापार को आर्थीव्यजना कहते है। इस प्रकार साहित्यशास्त्र में अभिधालक्षणाव्यञ्जना को उपाधि अपना धर्म विशेष माना गया है। वस्तुतः किसी शब्द को वाचक तथा लक्षक और व्यञ्जक कहना उचित प्रतीत नहीं होता हैक्योंकि कोई भी शब्द अभिधा के सम्बन्ध से बाचक और लक्षणा के सम्बन्ध से लक्षक तथा व्यञ्जना के सम्पर्क से व्यंज्जक हो जाता है। इसीलिये शब्द को वाचकलक्षक तथा व्यञ्जक कहना ठीक नहीं है। यही कारण है कि आनन्दवर्द्धनाचार्य ने शब्द और अर्थ के वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध को शब्द का स्वाभाविक धर्म व्यंग्य व्यञ्जक सम्बन्ध को शब्द का नैमित्तिक धर्म रहा है। मम्मट ने इसे इस श्लोक में स्पष्ट किया है "स्याद् वाचको लाक्षणिकः शब्दोऽत्र व्यञ्जकस्त्रिया ।" अर्थात् मम्मट के मतानुसार अभिधालक्षणाव्यञ्जना इन तीन शब्दशक्ति रूप उपाधियों के कारण शब्दबाचक, लक्षक व्यञ्जक हो जाता । इस प्रकार इस विवेचन से अभिधालक्षणा के महत्व के साथ-साथ व्यञ्जना का महत्व समझने के लिये नितान्त उपादेय है क्योंकि मम्मट ने ध्वनि के वस्तु (२) अलंकार (३) रसध्वनि भेद करते हुये रस ध्वनि को असंलक्ष्यक्रम तथा काव्य का आत्मा रस कहा है । अतः शब्द शक्ति काव्य का प्राण है।

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नैषधीयचरितम्

 श्रीहर्ष

महाकवि श्रीहर्ष  का परिचय नैषधीयचरित महाकाव्य के अंत में प्राप्त होता है। महाकवि ने यहाँ स्वयं के बारे में पर्याप्त जानकारी दी है। आपके पिता श्रीहीर तथा माता मामल्ल देवी थीं।

श्रीहर्षं कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः

श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् ।।

महाकवि श्रीहर्ष के पिता श्रीहीर स्वयं एक उच्चकोटि के कवि थे। ऐसा सुना जाता है कि आप उदयनाचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये। तत्पश्चात् आपने शरीरत्याग के समय पुत्र को बुलाकर कहा कि तुम ऐसा यत्न करो, जिससे कि मेरा प्रतिद्वन्द्वी तुमसे हार जाय, इससे मुझे आत्मिक तोष की प्राप्ति होगी। अथ महाकवि श्रीहर्ष पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी माता से चिन्तामणि मन्त्र की दीक्षा लेकर भगवती की आराधना में तल्लीन हो गये। भगवती की आराधना के फलस्वरूप आपको असाधारण विद्वत्ता और प्रतिभा की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् आपने राजा विजयचन्द्र के दरबार में अपने पिता के प्रतिद्वन्द्वी को देखकर यह श्लोक पढ़ा-

साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले

तर्क वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती ।

शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाङ्करैरास्तृता

भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् ।।

अर्थात् चाहे सुकुमार वस्तु वाली साहित्य की रचना हो, चाहे दृढन्याय की ग्रन्थियों से युक्त तर्कशास्त्र की रचना हो, मेरे रचयिता होने पर सरस्वती एक समान ही क्रीडा किया करती है। यदि मनोऽभिलपित पति हो तो चाहे कोमल बिछावन युक्त शय्या हो अथवा दर्भाङ्कुरों से आवृत्त भूमि, स्त्रियों के लिए दोनों समान आनन्ददायिनी होती हैं।

इस श्लोक को सुनकर प्रतिद्वन्द्वी ने श्रीहर्ष की श्रेष्ठता स्वीकारते हुए अपनी हार मान ली तथा इस श्लोक में श्रीहर्ष की प्रशंसा की-

हिंस्राः सन्ति सहस्रोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धता-

स्तस्यैकस्य पुनः स्तुवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् ।

केलिः कोलकुलैर्मदो मदकलैः कोलाहलं नाहलैः

संहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहङ्कृते हुङ्कृते ।।

अर्थात् वन में बहुत से शक्तिशाली पशु होते हैं, किन्तु केवल सिंह के शीर्य की प्रशंसा की जाती है, जिसकी गर्जना सुनकर अन्य भयभीत पशु अपने आनन्द का परित्याग कर देते हैं। अपने प्रतिद्वन्दी के मुख से यह श्लोक सुनकर श्रीहर्ष अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। इसके बाद राजा की गुणप्रियता से हर्षित श्रीहर्ष ने राजा की स्तुति करते हुए यह श्लोक पढ़ा-

गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च

माऽस्मिन्नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः ।

अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री-

रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्री ।।

अर्थात् हे नारियों । गोविन्द का पुत्र होने तथा शरीरसौन्दर्य के कारण इस राजा को कामदेव मत समझो। क्योंकि कामदेव तो संसार के विजय के लिए स्त्रियों को अस्त्र बनाता है पर यह शस्त्रधारी पुरुषों को स्त्री (के समान असहाय) बना देता है। इसके पश्चात् गुणग्राही राजा ने 'श्रीहीर' विजयी पण्डितकृत श्रीहर्ष की स्तुति की प्रशंसा की।

महाकवि श्रीहर्ष कान्यकुब्जनरेश जयवन्द की सभा में विद्यमान थे तथा उनसे समस्त विद्वान् श्रेष्ठतासूचक दो बीड़ा पान तथा आसन पाते थे। जो समाधियों में परमानन्दसागर ब्रह्म का साक्षात्कार भी करते थे। उनका काव्य अतिशय सरस होने से अमृत की वर्षा करने वाला है और तर्कविषयक जिसकी उक्तियाँ प्रतिवादियों को पराजित करने वाली हैं। इसका वर्णन महाकवि ने स्वयं किया है जो कि अक्षरशः सत्य है-

ताम्बूलद्वयमासनञ्च लभते यः कान्यकुब्जेश्वराद्

यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् ।

यत्काव्यं मधुवर्षि धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः

श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् ।।

जयचन्द के वंशवाले राजपूत गहड़वाल कहलाते थे। ग्यारहवीं तथा बारहवी सदी में इस वंश का उत्तरी भारत में बड़ा नाम था। ये लोग कन्नौज के राजा कहलाते थे, परन्तु पीछे चलकर इन्होंने काशी को अपनी राजधानी बनाया। जयचन्द काशी से ही अपने विस्तृत साम्राज्य पर शासन करते थे। इनके पिता विजयचन्द ने तथा इन्होंने मिलकर १९५६ ईस्वी से लेकर ११६३ ईस्वी तक राज्य किया था। अतएव महाकवि का आविर्भाव काल विजयचन्द और जयचन्द के सभापण्डित होने के कारण द्वादश शताब्दी का उत्तरार्ध ठहरता है।

महाकवि श्रीहर्ष की रचनाओं का उल्लेख नैषधीयचरित महाकाव्य में मिलता है। इनके द्वारा रचित विजयप्रशस्ति ग्रन्थ में जयचन्द के पिता विजयचन्द की प्रशंसात्मक प्रशस्ति लिखी गई जान पड़ती है जो कि महाकवि के आश्रयदाता तथा प्रसिद्ध योद्धा एवं विजयी वीर थे।

नैषधीयचरितम्

 नैषधीयचरित महाकाव्य में २२ सर्ग हैं। महाकवि श्रीहर्ष ने महाभारत की नल-दमयन्ती की कथा को आधार बनाकर इस महाकाव्य की रचना की। नलदमयन्ती की कथा महाभारत के वनपर्व में वर्णित है। इसमें नल के गुणों का सविस्तर वर्णन है। इसके पश्चात् दमयन्ती के पूर्वानुराग की विशद चर्चा है। अनन्तर राजा नल के दमयन्तीविषयकानुराग के कारण वनविहार के लिए प्रस्थान, तत्पश्चात् तालाब के किनारे हंस का देखना तथा उसे पकड़ लेना, फिर हंस का मनुष्य की वाणी में विलाप सुनकर उसे छोड़ देना, पुनः हंस का दमयन्ती का वर्णन करना, पुनः हंस को दमयन्ती के पास भेजना आदि वर्णित है। अनन्तर हंस दमयन्ती के समक्ष उपस्थित हो नल के गुणगण का वर्णन करता है। दमयन्ती के पिता भीम के द्वारा स्वयंवर का आयोजन, तत्पश्चात् नारदजी का स्वर्गलोक में प्रस्थान, इन्द्र के साथ वार्तालाप आदि का वर्णन है। तदनन्तर इन्द्र, वरुण, अग्नि तथा यम चारों देव स्वयंवरार्थ प्रस्थान करते हैं। मार्ग में ही नल के अलौकिक सौन्दर्य को देखकर इन्द्र वाणी की चतुरता का प्रयोग करते हैं। फिर तिरस्करिणी विद्या देकर नल को दूत बनाकर दमयन्ती के पास भेजते हैं। नल देवों की खूब प्रशंसा करते हैं किन्तु दमयन्ती नलविषयकानुराग से तनिक भी विचलित नहीं होती है। फिर स्वयंवर का आयोजन होता है। स्वयंवर में चारों देव नलरूप धारण कर उपस्थित होते हैं। सरस्वती स्वयं आकर सभी राजाओं का परिचय देती हैं। पाँच पुरुषों को नल की आकृति में देखकर दमयन्ती घबरा जाती है। फिर उसकी पतिभक्ति से सन्तुष्ट देवगण विशिष्ट चिह्नों को प्रकट करते हैं। तदनन्तर दमयन्ती के साथ नल का विवाह होता है। जब देवतागण स्वर्ग को लौटते हैं तब कलि के साथ घनघोर बाग्युद्ध छिड़ जाता है। देवता कलि को हराकर नास्तिकवाद का मुंहतोड़ जवाब देते है। कलि नल के ऊपर कुपित हो उनको पीड़ित करने हेतु दृदप्रतिज्ञ होकर कही उत स्थान न पाकर उनके उद्यान में ही अवसर की प्रतीक्षा में निरत होता है। ल के मिलन-रात्रि के मनोहर वर्णन के साथ ही ग्रन्थ की समाप्ति हो जाती है। महाकवि श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य को सरस बनाने हेतु महाभारत की कथा में यथास्थान किञ्चित् परिवर्तन तथा परिवर्धन किया है।

महाभारत में नल ने हंस को एक उद्यान में देखा जबकि नैषधीयचरित के अनुसार नल उद्यानमध्यस्थित तड़ाग में हंस को देखते हैं। महाभारत के अनुसार नल ने हंस को तब छोड़ा जब उसने उसका प्रिय करने के लिए दमयन्ती के पास जाने का वचन दिया-

ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार तदानलम् ।

न हन्तव्यो ऽस्मि ते राजन् ! करिष्यामि हि ते प्रियम् ।।

जबकि नैषध में नल ने उसके करुण विलाप से द्रवित होकर बिना किसी शर्त के छोड़ दिया। महाभारत के अनुसार देवों के दौत्यकार्य को अपना कर्तव्य समझकर राजा नल देवों के भय से सम्पन्न करता है, वहाँ वह अपना परिचय देने अथवा अनुराग प्रकट करने में पीछे नहीं हटता। जबकि नैपथ में नल दमयन्ती से अपने आपको छियाये रखते हुए देवताओं का दूतकार्य बड़ी निष्ठा से करता है। महाभारत के अनुसार अनेक हँस कुण्डिनपुर जाकर दमयन्ती तथा उसकी सखियों के पास उतरते हैं, जिनका वे पीछा करती हैं किन्तु नैषधीयचरित में केवल एक ही हंस यह कार्य करता है। महाभारत का हंस एक साधारण पक्षी है जबकि नैपथ में हंस कवि की एक विशिष्ट रचना है। वह शिष्ट एवं सुसंस्कृत मानव के रूप में प्रतीत होता है। महाभारत के अनुसार कति का प्रवेश नल-दमयन्ती के परिणय के बहुत बाद होता है किन्तु नैषध में उनके विवाह के तुरन्त बाद कलि निषधनगरी में प्रवेश करता है।

महाभारत के अनुसार दमयन्ती की प्रणयावस्था का समाचार सखियों द्वारा विदर्भराज को ज्ञात होता है, जबकि नैषध में अन्तःपुर में दमयन्ती की सखियों का कोलाहल सुनकर राजा भीम स्वयं अन्तःपुर में प्रविष्ट होकर उसकी दशा को ज्ञात करते हैं। महाभारत में चारों देवों ने दो-दो वरदान दिये, जिसकी संख्या आठ हो गई। जबकि नैषध में केवल इन्द्र चार वर देता है, एक दमयन्ती को तथा तीन नल को।

निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः

कथां तथाऽऽद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि ।

नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः

स राशीरासीन्महसां महोज्ज्वलः ।।१।।

अन्वयः- यस्य क्षितिरक्षिणः कथां निपीय बुधाः सुधाम् अपि तथा न आद्रियन्ते । सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः महसां राशिः महोज्ज्वलः सः नलः आसीत् ।

पदार्थः- यस्य=जिस। क्षितिरक्षिणः = पृथ्वीपालक नल की । कथाम् = कथा को । निपीय=भली-भाँति पान करके, भली-भाँति आस्वादन कर। बुधाः = विद्वान् लोग। सुधाम्=अमृत को । अपि=भी । तथा= वैसा । न आद्रियन्ते = आदर नहीं देते हैं। सित- च्छत्रितकीर्तिमण्डलः=(अपने ) यशःसमूह को शुभ्र छत्र बनाने वाले। महसाम् = तेजों के। । राशि: = T:= समूहस्वरूप अर्थात् महातेजस्वी सूर्य के समान । महोज्ज्वलः=नित्य उत्सव वाले। सः=वे। नलः=नल (नामक राजा ) । आसीत् = हुए ।

संस्कृतव्याख्या- यस्य=प्रकृतस्य । क्षितिरक्षिणः=पृथ्वीपालस्य नलस्य । कथाम्= उपाख्यानम् । निपीय= नितरामास्वाद्य, सादरं श्रुत्वेत्यर्थः । बुधाः=धीमन्तः । सुधाम्=अमृतम् अपि। तथा=तेन प्रकारेण न आद्रियन्ते=न आदरं कुर्वन्ति, भूपतेः नलस्य कथां सुधामपेक्ष्य बहु मन्यन्ते सुमतयो देवाः वेति भावः । सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः=श्वेतात. पत्रीकृतयशोमण्डलः। महसाम् = तेजसाम् । राशिः = समूहः, रविरिवेति भावः । महोज्ज्वलः- महैः=उत्सवैः, उज्ज्वलः= दीप्यमानः, नित्यमहोत्सवशालीत्यर्थः । सः = निषधदेशाधिपतिः । नलः=नलः नाम। आसीत् = बभूव ।

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