आधुनिक संस्कृत गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग 9)

 प्रस्तुत प्रभाग में महराजदीन पाण्डेय का गजल संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है। डॉ. पाण्डेय संस्कृत ग़ज़ल के सिद्ध हस्त कवि हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

उपनाम

'सर्वगन्धा' संस्कृत मासिकी में 'महाराजो वात्स्यायनः' नाम से, पुनः दूर्वादि संस्कृत पत्रिकाओं में 'ऐहिकः' नाम से और इधर दो दशकों से 'विभाषः' नाम से रचनाएँ की ।

जन्म

नवम्बर 30, 1956 ई.। ग्राम-महादेव-निश्चलपुरवा, तहसील-तरबगंज, जनपद- गोण्डा, उ.प्र. ।

पिता का नाम - श्रीरामप्रसाद पाण्डेय; माता: - श्रीमती पिवारी

शिक्षा -

प्रारम्भिक से माध्यमिक तक की शिक्षा ग्राम-क्षेत्र के विद्यालयों में, उच्चशिक्षा (बी.ए., एम.ए.), का.सु. साकेत स्नातकोत्तर महाविद्यालय फैज़ाबाद से और पीएच.डी. - डॉ. रा.म. लोहिया अवध विश्वविद्यालय फैज़ाबाद (सम्प्रति-अयोध्या) से ।

वृत्ति- 1984 से 2018 तक आचार्य नरेन्द्रदेव किसान स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बभनान, गोण्डा के संस्कृत विभाग में अध्यापन ।

स्थायी संकेत:- ग्राम : महादेव-निश्चलपुरवा। पत्रालय-परसदा। जनपद-गोण्डा -271401 (उ.प्र.)। 

दूरवाणी- 9451027704, 7985893082

रचनाएँ :

1 . बीसवीं शताब्दी के संस्कृत महाकाव्यों में राष्ट्रिय चेतना (शोध)

2. मौनवेधः (संस्कृत ग़ज़ल गीतिसंग्रह)

3. काक्षेण वीक्षितम् (संस्कृत गजल गीतिसंग्रह)

4. मध्ये यक्षमेघयोः (सन्देश काव्य)

5. वीरभद्र रचनावली (सम्पादित ग्रन्य)

6. प्रतिप्रवाहम् (संस्कृत गजल मुक्तक काव्य संग्रह)

7. किं भवान् जानाति (सम्पादित ग्रन्थ)

सम्मान:- 'मौनवेधः' पर उ.प्र. संस्कृत अकादमी, लखनऊ का विविध पुरस्कार (1990) और 'मध्ये यक्षमेघयोः' पर उ.प्र. संस्कृत संस्थान, लखनऊ का महाकवि कालिदास पुरस्कार (2017)

 

स्वदेशं नुमः

 स्वदेशं नुमो भारतं भा-रतानाम् ।

सुवार्ताहरं यज्जगन्मंगलानाम् ।

 

यदस्माकमावासविश्वासगेहम्

समर्पणमिताः स्मो यदर्थं सदेहम्

भवे सन्तु नामेतरेऽनेकदेशाः

य अस्मत्कृते पावनः पावनाम् ।

स्वदेशं नुमो भारतं भा-रतानाम् ।

सहैवेह पुष्यन्ति धर्मा विभिन्नाः

तथा जातयो रीतयो भिन्नभिन्नाः

अयं तूत्तमोऽस्मत्कृते प्रियतमोऽयम्

समेषां हितस्वार्थकृन्मान्यतानाम् ।

स्वदेशं नुमो भारतम् भा-रतानाम् ।

प्रसक्तं यदा विश्वमण्वस्त्रनीत्या

जनैर्नीयते वासरो मृत्युभीत्या

तदाप्यद्भुतं मार्गते मार्गमेषः,

श्रितं गान्धिना सेवितं सौगतानाम् ।

स्वदेशं नुमो भारतं भा-रतानाम् ।

स-संजीवनीशक्तिका धूलिकणिकाः

यदीयाः सुधापूरिताः सिन्धुसरिताः

वनं नन्दनं देवतानां जनानां

सुकृतिराशिरिव शृङ्खला भूधराणाम् ।

स्वदेशं तुमो भारतं भा-रतानाम् ।

सुवार्ताहरं यज्जगन्ममंगलानाम् ।


कज्जली

आयातो वनमाली नायि !

 

वर्षति रसति घनाली काली

आयातो वनमाली नायि !

 

मेघमेदुरे नभस्युत्पतितुं मामुत्कयतितमाम्

धवला चपलवलाकापाली

आयातो वनमाली नायि !

 

चन्दति चला वञ्चयति नयने प्रादुर्भूय निलीय

सुघने घने चन्द्रकरजाली

आयातो वनमाली नायि !

 

वीक्ष्यैकलां लालसामुत्कां मोहायुधैरुपेत्य

छलयत्येष रसर्तुर्लाली

आयातो वनमाली नायि !

 

नीषवकुलमालतीसुमर्द्धिर्मदयति विलिख्य माम्

श्लिष्यति विकसन्ती शेफाली

 आयातो वनमाली नायि !


घनाली अनुसरतीयं समीरम्

 

घनाली अनुसरतीयं समीरम्

शून्येष्वपि शृणुते चेतो मे स्रवत्रवं मञ्जीरम्

घनाली अनुसरतीयं समोरम् ।

 

शमयितुमुरो ज्वलद्गत मोदम्,

प्रोञ्छ्य विचिन्त्य निर्दयं, वोदम्

निष्पीडयामि चीरम् ।

घनाली अनुसरतोयं समीरम् ।

 

रौति घनो रेजते दामिनी

रहसि मनो मे कालियामिनी,

कुरुते धीरमधोरम् ।

घनाली अनुसरतीयं समीरम् ।

 

पिकरसितं शिखिवृन्दविलसितम्,

रसवर्षितं वानश्रीहसितम्,

जनयन्तीहकरीरम् ।

घनाली अनुसरतोयं समीरम्।


प्रीतं त्वामयि, किमिति न लोके !

 प्रीतं' त्वामयि, किमिति न लोके !

ऋतुरनुसामाः

समे सकामाः

अविरामं संगीतम्

अनुनीतं पौनःपुनिकं त्वामयि, निष्ठुर, न विलोके ।

प्रीतं त्वामयि, किमिति न लोके !

 

किं कार्यम्

अथवा किमकार्यम्

कथं जीवनं धार्यम्

नो जाने, प्रत्येमि नाधिकं माने वा विब्बोके ।

प्रीतं त्वामयि, किमिति न लोके !

पवनो वामः

नो निर्यामः

स्ववशे नैव विरामः

त्वय्यात्मनि दिशिदिशि दृष्टिं कुर्वे नौकाया रोके ।

प्रीतं त्वामयि, किमिति न लोके !

लोकलालसा

स्याद् यथातथा

तस्या नैव कथा

इह त्वैकं लाभेऽस्ति रतिर्मे नह्यधिके न स्तोके ।

प्रीतं त्वामयि, किमिति न लोके !


काकः कायति काँ

वलीके काकः कायति काँ ।

इह कश्चिन्नायाति याति नहि किन्तु प्रत्याशा ।

 

ये स्वे ते नात्मनः साम्प्रतं किं तैर्ये तु परे,

जनतन्त्रे जनतेव मनो मे बहुरोदिति बहुधा ।

 

वदति कोऽपि परदेशे प्रायः सरल एति छलनाम्,

कश्चित् परामृशति - धैर्यं धर, किं नु करोम्यधुना !

 

हरिजनभूसुरजनयोर्न बलं चलति यत्र नियतौ,

तामन्यथाविधतुमये सखि ! ममापि का गणना !

यदि कुर्वे चिन्तां तु तया किं, यदि नहि, किं कुवें ?

चिन्तं चिन्तमन्तमायाता शरणैकं चिन्ता ।

 

कैवल्यं केवलमुपतिष्ठे, भाटकीयगेहे,

दास्यति दुग्धौदनं को नु ते, दूरमेहि, वद मा !

मौनवेधः से साभार

लेखकः- महराजदीन पाण़्डेयः

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