यात्रा
गीत "यात्रा" एक गहन भावनात्मक और आत्मिक यात्रा का
वर्णन करता है, जो
प्रियतम (शायद प्रेमी, ईश्वर
या आत्मा) के प्रति तीव्र लालसा और अनिश्चितता से भरा है। कवि पथ के प्रति अज्ञान
को बार-बार दोहराता है—"प्रियतम! नास्ति पथाभिज्ञानम्"—जो जीवन की
अनिश्चितता और दिशाहीनता को दर्शाता है। कांटों से भरा विषम मार्ग, घने अंधकार, कमजोर शक्ति, और प्रबल प्रभंजन के बीच भी अंतर्ज्ञान
की ज्योति प्रज्वलित है, जो
आशा का प्रतीक है। चंचल प्रकाश, लुप्त
मार्ग, और अभिमान की
पुनरावृत्ति आत्म-संदेह और एकाकीपन को उजागर करती है। संदेश है कि जीवन एक कठिन
यात्रा है, जहाँ प्रियतम के
प्रति श्रद्धा और आत्म-विश्वास ही मार्गदर्शक बनते हैं, भले ही पथ अज्ञात हो।
भारत-मातः
जयति जयति मम भारत मातः
जगति यशो गरिमा तव ख्यातः
हिममण्डित नगराज किरीटे?
सदा महद्भिस्त्वमेव ध्यातः
यमुना सिन्धु सरस्वत्यङ्गा
वहति हार इव वक्षसि गङ्गा
सुरभित वने नदन्ति विहङ्गा
अरुणोषसि किल हसति प्रभातः
जयति जयति मम भारत मातः
मुरली
गुञ्जति कुञ्जवने मुरली
मन्द्र स्वरैः शुचि कर्म राधिका
पौरुष-पुरुष हरि:
सुन्दरतर श्रमशोभि निकुञ्जे
आह्वयते कुशली
गुञ्जति कुञ्जवने मुरली
ज्ञान-भानुजा कूल-सुवासित
वृद्धि कदम्ब द्रुमे
जनाभाब-वासांसि गृहीत्वा
आगमद् रसिक-छली
गुञ्जति कुञ्जवने मुरली
प्रार्थना
पुनस्तनोतु भारती
प्रभो ! समस्त भारते ।
पुनः सरेत्सुसंस्कृतिः
विधूय सर्व कुप्रथा:
पुनः समृद्धि सम्पदाऽऽ
व्रजेत् गृहे गृहे शुभा ।
अनालसा अतन्द्रिता
अनीति भीति वर्जिताः
युवान आयु शालिनो
भवन्तु देव! भारते ।
विनीत पादपेषुहि
हसन्तु पुष्प पंक्तयः
सुशस्य पूरिताधरा
सुधान्य राशिमुद्भवेत् ।
शमन्तु हीतयः पुनः
दिगन्त शान्ति मावहेत्
पुनः विभर्तु वैभवः
गीत का संक्षिप्त परिचय
"पुनस्तनोतु भारती" सच्चिदानन्द काण्डपाल द्वारा रचित एक प्रेरणादायी संस्कृत कविता है, जो भारत की पुनरुत्थान और समृद्धि की कामना करती है। यह कविता अलकनन्दा से साभार ली गई है और भारतीय संस्कृति, नैतिकता, और प्राकृतिक समृद्धि को पुनर्जनित करने की प्रार्थना को व्यक्त करती है।
भाव
1. सांस्कृतिक पुनर्जागरण:
कविता में प्रभु से प्रार्थना की गई है कि भारत में पुनः भारती (ज्ञान की देवी सरस्वती) का उदय हो, संस्कृति पुनर्जीवित हो, और सभी कुप्रथाएँ नष्ट हों। यह भारत के गौरवशाली अतीत को पुनः स्थापित करने की भावना को दर्शाता है।
2. समृद्धि और शांति की कामना:
प्रत्येक घर में शुभ समृद्धि और संपदा आए, युवा आलस्य, थकान, अनीति, और भय से मुक्त हों, और दीर्घायु हों—यह कविता समाज के कल्याण और प्रगति की कामना करती है।
3. प्राकृतिक समृद्धि:
विनम्र वृक्षों पर फूलों की पंक्तियाँ खिलें, खेत शस्य और सुधन्य (अन्न) से परिपूर्ण हों—यह प्राकृतिक समृद्धि और कृषि की उन्नति का आह्वान है।
4. शांति और वैभव:
सभी विपत्तियाँ शांत हों, चारों दिशाओं में शांति फैले, और भारत पुनः वैभव और सम्मान को धारण करे—यह राष्ट्रीय एकता और गरिमा का संदेश देती है।
संदेश
कविता एक आध्यात्मिक प्रार्थना है, जो भारत को उसके सांस्कृतिक, सामाजिक, और प्राकृतिक वैभव की ओर ले जाने की
कामना करती है। यह युवाओं को मेहनती और नैतिक बनने, प्रकृति को संरक्षित करने, और देश को पुनः विश्व में सम्मानित
स्थान दिलाने का आह्वान है।
कालिदासं प्रति
कालिदास ! प्रिय ! तव रचनायां
वहति सुधाया धारा
अंशुहास-मावहति मनस्सु
तव कृतिरपरम्पारा ।
विरहि जनानां ललित चित्रणं विलसति कोमल-वाणी
मेघदनमवलोक्य मनसि समवतरति वीणा पाणी ।
रामगिरेरलका पर्यन्तं
जयति कल्पनोदारा –
कालिदास !
चिर कमनीय कुमार-सम्भवे शैल कुलेश हिमाद्रौ
दिव्यरूपिणीं गिरिजां शश्वल् लीनां शम्भु-समाधौ ।
यत्रालौकिक देव किशोरी
लसति नायिका कारा
कालिदास !
त्वया विक्रमोर्वशीय-काव्ये कथा चित्रिता नित्या
समुत्तार्य तौ सत्यधरायां भृता पुण्य-संस्तुत्या ।
कथा वैदिकी-श्रिता पुराणी
तथा कल्पनाकारा !
कालिदास !
वेद मनत्स्वं मालविकाया ललनाया अति गूढम्
अग्निमित्रमासाद्य प्रणयिनं चोर्जित- सत्वविशिष्टम् ।
तयोः प्रीतिरद्यापि प्रसिद्धा
जगतितले साभारा !
कालिदास !
परिवर्तनमनिशं च ऋतूनां तेषामभिनव-रूपम्
ऋतुसंहारं मुदा बबन्ध जगशोभा रस कूपम् ।
क्रांतिवृत्त-मारुह्य विभजति
क्रमशोऽयं रवितारा –
कोकिल ! तेषु न प्रत्येहि
इमेऽलयः खलु जल्पाकाः
कोकिल ! तेषु न प्रत्येहि
सम्प्रत्येव न ते दिवसा
आयास्यन्ति निसर्गे हि
पत्रहीन नीरस द्रुम
राजिः
लता-ललित
लावण्य-हतास्ति
शिशिर एव अद्यापि
धरायां
तुहिन-विमर्दित पद्म-प्रभास्ति
तिष्ठ मौनमास्थाय विपञ्चिन्
आयास्यति प्रिय पर्व धरायाम्
कटु विषादमापीय मधुर-मुख
शान्तिमेव त्वं विस्तृणुहि
यदा हसिष्यति नवल
धराश्रीः
कुसुममुदेष्यति कलिकायाम्
अलङ्करिष्यत्याम्र मञ्जरी
नव-रसाल-मुद्दाम
कलायाम्
पुलकित गन्धवहश्चुचुम्विष्यति
नव कमलिन्या अरुण-कपोलम्
श्रमी श्रमिष्यति नव-निर्माणेः
विलसिष्यति भुवि शस्य-निचोलम्
खगवाला वन-कुञ्ज-निकुञ्जे
गास्यति मधुरस्वरे
प्रियगानम्
विहरिष्यसि पिक ! चूत
निकुञ्जे
यह
गीत कोकिल (कोयल) को संबोधित करते हुए प्रकृति और समय के चक्र को दर्शाता है,
जो एक व्यापक दार्शनिक और भावनात्मक
संदेश देता है। हालांकि, कुछ
पंक्तियों में ("प्रिय पर्व धरायाम्", "मधुर-मुख", "नवल-रसाल-मुद्दाम कलायाम्") प्रेम
और सौंदर्य का उल्लेख है, जो
प्रायः प्रेम काव्य में युवतियों से जोड़ा जाता है, लेकिन संदर्भ कोकिल की प्रतीक्षा और
प्रकृति के पुनर्जनन पर केंद्रित है।
कोयल
(कोकिल) शीतकाल की उदासी और ठंड से प्रभावित प्रकृति में मौन है। कवि कहता है कि
इन कठिन दिनों में कोयल को सक्रिय न होना चाहिए, क्योंकि अभी वसंत का समय नहीं आया है।
चारों ओर सूखे पेड़, मुरझाए
फूल, और बर्फ से ढकी जमीन
है। कवि सलाह देता है कि कोयल धैर्य रखे और शांति से प्रतीक्षा करे, क्योंकि आने वाला समय नया जीवन
लाएगा—फूल खिलेंगे, पेड़
हरे होंगे, और कोयल फिर मधुर गीत
गाएगी। यह कविता जीवन में कठिनाइयों के बीच आशा और धैर्य का संदेश देती है,
जो समय के साथ सब ठीक होने का विश्वास
दिलाती है।
·
"पत्रहीन
नीरस द्रुम राजिः" और "तुहिन-विमर्दित पद्म-प्रभास्ति" से शीतकाल
की उदासी और निस्तेजता का बोध होता है, जो कोकिल के मौन और विरह की भावना को अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त करता है।
· "यदा हसिष्यति नवल धराश्रीः, कुसुममुदेष्यति कलिकायाम्" में
प्रकृति के पुनरुत्थान की तुलना कोकिल के प्रिय समय से की गई है, जो अन्योक्ति का सुंदर उदाहरण है।
प्रावृट्
रिमझिम रिमझिम मेघो वर्षति ।
चेतः प्रियदर्शनमन्विच्छति ।
अलि ! सखि त्वं गुञ्जय
वीणां
झूलायामुपविश्य
प्रवीणां
पश्य चाम्बराचायं नमति
रिमझिम ।
सुधा चन्द्रिकां वर्षति चन्द्रः
अद्य मनो मे विलसति सान्द्रः ।
छली किलायं मन आकर्षति
रिमझिम रिमझिम मेघो
वर्षति ।
पन्था मे
प्रियतम ! अनधिगतो मे पन्थाः
मनसि जिग्मिषा त्वरते माम् ।
धवल धरायां सुषमां दृष्टुं
चपल लालसा त्वरते माम् ।
घन तमसावृतमम्बर मास्ते
पंकिल मध्वा बपुरबलम् ।
झंझायामनुवहति प्रवातो
वृष्टि विन्दवो यान्ति तलम् ।
हृदय हारिणीयं मम यात्रा
महानन्दिनं कुरुते माम् । प्रियतम !
चमत्करोति दृशौ नु विद्युत्
तमो वर्द्धते भूयासम् ।
लक्ष्यमनन्तमिदं पाथेयं
स्वल्पमेव जनयत्यायासम्
पारे लक्ष्यं कथं नु यायाम्
मुहुरिति चिन्ता गुरते माम् । प्रियतम !
अध्वनि गच्छन्सदाऽद्वितीयो
नावलोकितः खलु पश्चात् ।
ऋते चरण चिह्नात् पथिलग्नात्
सहचारी लब्धो न पुरस्तात् ।
नीत्वा मनसि प्रयाणोन्मादं
"चरैवेति" कि रमते माम्। प्रियतम !
सिञ्जितमिदमारभते मोदं
नृत्यन्नूपुरझंकारम् ।
अलिकुल कलित मधुर गुञ्जनं
गीत-स्वराणां सञ्चारम् ।
प्रतीयते यत् पारे नद्याः
स्वागत गानं रजते माम् ।
प्रियतम ! अनधिगतो मे पन्थाः
लेखक - सच्चिदानन्द काण्डपाल
Ninadaya navinamayai vanished veenam
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