मंत्ररामायण

     यदि आपसे यह कहा जाय कि राम कथा का बीज वेद में दिखाई देता है । वेद ग्रन्थों में विशेषकर ऋग्वेद के मंत्रों से राम कथा निकली है । रामायण में उन्हें कहानी का रूप दिया गया तो सहज विश्वास नहीं होगा। नीलकण्ठ नामक विद्वान् ने ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों में से १५५ ऐसे मन्त्रों को पहचाना, जो कि रामकथापरक अर्थ को व्यक्त करते हैं। इन मंत्रों को 'मन्त्ररामायण'  नाम दिया। वाल्मीकि ने इन्हीं मंत्रों को एक कथानक के रूप में विस्तार देकर रामायण नामक ग्रन्थ की रचना की। रामकथा से सम्बन्धी उपलब्ध समस्त साहित्य का उपजीव्य आदिकवि महर्षि वाल्मीकि प्रणीत 'रामायण' को माना जाता  है। सूक्ष्म रूप से देखें तो रामकथा का उपजीव्य वाल्मीकिकृत रामायण न होकर वेद हैं। वाल्मीकि ने कथानक के रूप में उनका विस्तार मात्र किया है। कुछ विद्वान् रामायण को रामकथा का वर्णन करने वाला धार्मिक ग्रन्थ न मानकर 'महाकाव्य' मानते हैं। इसमे चौबीस हजार श्लोक हैं। यह प्राणिमात्र के जीवन के विविध पक्षों को उपकृत करती है। इस लेख में आपको मंत्ररामायण, रामायण, रामकथा तथा नीलकण्ठ के बारे में जानकारी दिया गया है।

      रामायण-महाभारत-पुराणादि का प्रमाण प्रस्तुत करने के पीछे उनकी वेदमूलकता ही कारण है। यह परम्परा इन सभी को वेदार्थविस्तारक के रूप में मान्यता प्रदान करती है अर्थात् ये सब वेदत्तत्त्व का व्याख्यान करते हैं- 'इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।' भारतीय मनीषा वेदों को अनादि और ईश्वर के निःश्वास के रूप में मानती हैं।' आधुनिक विद्वान् भी वेद को विश्व का प्राचीनतम वाड्मय मानते हैं। वेद केवल धर्म के ही मूल' नहीं अपितु समस्त भारतीय वाड्मय के मूल हैं। अतः रामकथा का बीज वेद में है । वेद को रामकथा का (मूल) उत्स माना जाता है ।

      आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं ही रामायण को वेदमूलक स्वीकार किया है। वे इसे वेदतत्त्व का उपबृंहण मानते हुए कहते हैं कि यह रामायण महाकाव्य समस्त वेदानुकूल है। यह सम्पूर्ण पापों का प्रशमन तथा दुष्टग्रहों का निवारण करने वाला है-

रामायणं महाकाव्यं सर्ववेदेषु सम्मतम् ।

सर्वपापप्रशमनं दुष्टग्रहनिवारणम् ।।

रामकथा की वेदमूलकता का उद्घोष करते हुए रामायण में ही स्पष्टतः कहा गया है-

कुशीलवौ तु धर्मज्ञौ राजपुत्रौ यशस्विनौ।

भ्रातरौ स्वरसम्पन्नौ ददर्शाश्रमवासिनौ ।।

स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ।

वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहयत प्रभुः ।।

काव्यं रामायणं कृत्स्नं सीतायाश्चरितं महत् ।

पौलस्त्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः ।।

अर्थात्, यशस्वी, धर्मज्ञ, मधुरस्वर वाले और आश्रम में निवास करने वाले दोनों भाइयों-राजकुमार कुश और लव को मेघावी तथा वेदनिष्ठ जानकर महर्षि वाल्मीकि ने वेद का अर्थ-विस्तार करने के लिए सीता के महान् चरित्र से युक्त रावण वध नामक महाकाव्य का समग्रतया अध्ययन दोनों भाइयों को कराया।

      उपर्युक्त कथन से प्रमाणित होता है कि वाल्मीकि ने रामायण की रचना वेद का उपबृंहण (अर्थ-विस्तार) करने के लिए ही की है। 'मन्त्ररामायण' के प्रथम श्लोक (मङ्गलाचरण) की स्वोपज्ञ व्याख्या में भी नीलकण्ठ ने उपर्युक्त (वाल्मीकिरामायण के) श्लोकों को उद्धृत करते हुए रामकथा की वेदमूलकता सिद्ध की है। इसी प्रसङ्ग में उन्होंने अगस्त्यसंहिता के अधोलिखित वचन को भी उद्धृत किया है-

 वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।

वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद्रामायणात्मना।

तस्माद् रामायणं देवि वेद एव न संशयः ।।

 अर्थात्, वेदैकगोचर परमात्मा, जब दशरथ के पुत्र राम के मानव रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए तब प्रचेतापुत्र वाल्मीकि के मुख से रामायण के रूप में साक्षात् वेद भी प्रकट हुए। अतः, हे देवि ! रामायण वेद ही है-इनमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

      रामकथा के कुछ पात्रों के नाम वैदिक वाड्मय (संहिता, ब्राह्मण एवम् उपनिषद्) में यत्र तत्र पाये जाते हैं किन्तु न तो वहाँ उनका वह रूप है जो रामकथा में प्रसिद्ध है और न ही कोई क्रमबद्ध रामकथा ही है। यह सर्वविदित है कि राम का अवतार (जन्म) प्रसिद्ध इक्ष्वाकुवंश में हुआ था। इक्ष्वाकु का उल्लेख ऋग्वेद के दशम मण्डल में हुआ है- 'यस्येक्ष्वाकुरूपव्रते रेवान् भराय्येधते' इक्ष्वाकु का नामोल्लेख अथर्ववेद में भी एक बार हुआ 'त्वा वेद पूर्वं इक्ष्वाको यम्। दशरथ का उल्लेख ऋग्वेद में एक बार प्राप्त होता है-'चत्वारिंशद् दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिं नयन्ति। अश्वपति केकय का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण और छान्दोग्योपनिषद् में हुआ है और दोनों स्थलों पर प्रसङ्ग समान है।

      जनक का उल्लेख वैदिक वाङ्मय में ब्रह्मवादी राजर्षि के रूप में हुआ है तथा वे ब्रह्मोद्य सभाओं में महर्षि याज्ञवल्क्य के साथ उल्लिखित हैं। शतपथ ब्राह्मण के चार स्थलों पर तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में एक स्थल पर जनक का उल्लेख हुआ है । बृहदारण्यक उपनिषद् में भी जनक का उल्लेख है।

      रामायण को 'गायत्रीबीज' कहकर नीलकण्ठ ने रामायण की वेदमूलकता प्रतिष्ठित की है। तत्पश्चात् 'रामरक्षास्तोत्र' की योजना करके उसकी व्याख्या के माध्यम से भी रामकथा के वेदमूलकत्व को स्थापित किया है। 'मन्त्ररामायण' का मूल कलेवर १५७ मन्त्रों द्वारा निर्मित है। मुख्य रूप से ऋग्वेद के विभिन्न सूक्तों से स्वाभीष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाले १५५ मन्त्रों को सङ्कलित किया गया है। एक मन्त्र (क्रम सं. ६५) वाजसनेयि संहिता से उद्धृत है और एक मन्त्र (क्रम सं. १५६) किसी अन्य संहिता से ग्रहण किया गया है।

      'मन्त्ररामायण' की रचना वस्तुतः नीलकण्ठ की वेद के प्रति अगाध श्रद्धा और रामकथा के प्रति उनकी असीम भक्ति का प्रतिफल है। ऋग्वेद के १०४१७ मन्त्रों में से ऐसे १५५ मन्त्रों का चयन करना, जो रामकथापरक अर्थ को व्यक्त करने वाले हों, कोई साधारण कार्य नहीं है। इसके लिए नीलकण्ठ को अपूर्व श्रम करना पड़ा होगा; किन्तु जब सामने महान लक्ष्य हो तो मनस्वी पुरुष श्रम-श्रान्ति की परवाह किये बिना उसमें लग जाता है और सच बात तो यह है कि जब मन रम जाता है तो श्रम की अनुभूति होती ही नहीं। फिर मन नीलकण्ठ का रमा कहाँ? राम में और वेद में। जब दोनों हाथ में लड्डू हों तो व्यक्ति की प्रसन्नता कितनी होगी- यह सहज ही अनुमेय है। निश्चय ही, इस कर्तृत्व के द्वारा नीलकण्ठ का श्रेय और प्रेय दोनों सिद्ध हुआ। मन्त्ररामायण, नीलकण्ठ की असाधारण प्रतिभा, उत्कृष्ट धारणा शक्ति, असीम धैर्य, उदात्त भक्ति, अप्रतिम कर्मनिष्ठा और दृढ़ सङ्कल्प का परिचायक है। विभिन्न वैदिक देवताओं की स्तुति में लिखे गये पृथक् पृथक् मन्त्रों को रामकथा के प्रसङ्गोचित क्रम में सुयोजित कर उससे रामकथा के बीजरूप वैदिक स्वरूप का आकार प्रदान करना, स्वयं में एक अद्भुत सारस्वत अनुष्ठान है। रामकथा की वेदमूलकता सिद्ध करने के लिए समर्पण भाव से किए गए इस महनीय कर्तृत्व की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम ही है।

      यदि नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण के रूप में इन मन्त्रों को सङ्कलित करने मात्र से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली होती, तो सम्भवतः उनका उद्देश्य और मन्त्ररामायण का प्रयोजन पूरा न होता। क्योंकि सङ्कलित मन्त्र तो भिन्न वैदिक अर्थ वाले हैं। अतः उन मन्त्रों मे निहित रामकथा के तत्तत् प्रसङ्गों को उद्घाटित करने के लिए उन्होंने मौलिक मेधा के बल से 'मन्त्ररहस्यप्रकाशिका' नामक स्वोपज्ञ व्याख्या लिखकर रामकथाभक्त जिज्ञासु अध्येताओं का अपूर्व उपकार किया है। यदि मन्त्ररामायण की यह नीलकण्ठी टीका न होती तो रामकथापरक गूढ़ मन्त्रार्थ को समझना अत्यन्त दुष्कर होता। यद्यपि (मेरी निष्पक्ष) धारणा है कि नीलकण्ठ द्वारा किए गए मन्त्रार्थ शब्दशक्तियों के साथ संघर्ष करके ही प्राप्त किए गए हैं और उन्हें सहज तथा प्रसन्न अर्थ नहीं कहा जा सकता तथापि श्रीरामप्रभु का प्रसाद मानकर उन्हें शिरोधार्य करना ही समीचीन है। अनुमान है कि नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण की रचना उन प्रतिपक्षियों का मुंह बन्द करने के लिए की होगी, जो रामकथा को वेदमूलक नहीं मानते होंगे। मन्त्ररहस्यप्रकाशिका के उपोद्घात में अपने उद्देश्यगत विषय को स्पष्ट करने का पूर्णतः प्रयास करते हुए उन्होंने स्पष्टतः कहा है - "नैष स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यतीति न्यायेन त्वयि वेदार्थानभिज्ञे सति न रामायणमपराद्धयति ।।" यही कारण है कि आग्रह विशेष (हठ) पूर्वक उन्होंने सायास मन्त्रों के अर्थ रामकथा परक किए हैं। मन्त्ररहस्यप्रकाशिका में अर्थ सम्बन्धी जटिलतायें स्पष्टतः देखी जा सकती हैं। नीलकण्ठ द्वारा की गयी शब्द-व्युत्पत्तियाँ भी अपूर्व ही हैं। अन्ततः हम कह सकते हैं कि मन्त्ररामायण अपनी तरह की अद्वितीय रचना है।

नीलकण्ठ चतुर्धर

'मन्त्ररामायण' के कर्ता का नाम नीलकण्ठ चतुर्धर है। इसके कर्तृत्व का प्रकाशन उन्होंने स्वयं मन्त्ररामायण के अन्त में स्वोपज्ञ टीका की समाप्ति में लिखी गयी पुष्पिका में किया है-

'इतिश्रीमत्पदवाक्यप्रमाणमर्यादाघुरन्धरचतुर्धरवंशावतंसगोविन्दसूरिसूनोः श्रीनीलकण्ठस्य कृतिः स्वोद्धृतमन्त्ररामायणव्याख्या मन्त्ररहस्यप्रकाशिकाख्या समाप्तिमगमत् ।।'

      इस उल्लेख के अनुसार इनके पिता श्री गोविन्दसूरि चतुर्धर (चौधरी) ब्राह्मणवंश के शिरोमणि थे। वे व्याकरण मीमांसा और न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। उनके नाम के आगे लगी 'सूरि' की उपाधि भी इनकी प्रकृष्ट विद्वत्ता का बोधक है। श्री नीलकण्ठ की माता का नाम फुल्लाम्बिका था और इनका परिवार गोदावरी तट पर स्थित कूर्पर ग्राम में निवास करता था। सम्प्रति यह स्थान महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जनपद में 'कोपारगांव' नाम से जाना जाता है। कालान्तर में इनका कुटुम्ब कूर्पर ग्राम से आकर काशी में बस गया। विद्वानों ने श्री नीलकण्ठ की कृतियों के रचनाकाल के आधार पर इनका स्थितिकाल १६५० से १७०० ई. माना है। इनके पुत्र-पौत्रों का भी उल्लेख वंशमर्यादानुरूप अच्छे विद्वान् लेखकों के रूप में प्राप्त होता है।

       संस्कृत साहित्य में नीलकण्ठ एक उत्कृष्ट टीकाकार के रूप में विख्यात हैं। महाभारत पर 'भारतभावप्रदीप' नामक इनकी टीका अत्यन्त प्रामाणिक मानी जाती है, यह 'नीलकण्ठी' नाम से भी प्रसिद्ध है। नीलकण्ठ ने इस टीका को लिखने से पूर्व, महाभारत पर प्राप्त अपने पूर्ववर्ती टीकाकारों की प्रायः सभी टीकाओं को यत्नपूर्वक प्राप्त कर उनका गहन अध्ययन किया था तथा महाभारत के मूलरूप को प्रकाशित करने के उद्देश्य से अपनी टीका में सर्वोपयुक्त पाठों का निर्धारण किया था-

'बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् 

कोशान् विनिश्चत्य च पाठमग्र्यम् ।

प्राचां गुरुणामनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ।।'

      इन्होंने अपने 'भारतभावप्रदीप' में महाभारत के पूर्ववर्ती प्रमुख टीकाकारों - देवबोध, विमलबोध, अर्जुनमिश्र, रत्नगर्भ, सर्वज्ञनारायण आदि का उल्लेख करते हुए उनके द्वारा स्वीकृत पाठों को उद्धृत किया है।' महाभारत के अतिरिक्त 'गणेश गीता' तथा 'शिवताण्डव' पर भी इन्होंने टीकायें लिखी है।

      नीलकण्ठ ने मन्त्ररामायण की पद्धति में 'मन्त्रभागवत' नामक ग्रन्थ की भी रचना की है। मन्त्रभागवत में भी ऋग्वेद से मन्त्रों का संकलन करके इस प्रकार उन्हें प्रस्तुत किया है कि उन मन्त्रों से सम्पूर्ण भागवत की क्रमबद्ध संक्षिप्त कथा व्यक्त हो जाती है। ऋग्वेद के उन मन्त्रों का भागवतकथापरक अर्थ करने के लिए नीलकण्ठ ने 'मन्त्रभागवत' पर भी स्वोपज व्याख्या लिखी है।

       'भारतभावप्रदीप' के जो हस्तलेख उपलब्ध होते हैं, उनका प्रतिलिपि काल १६८७ ई. से १६६५ ई. तक है। नीलकण्ठ कृत शिवताण्डव टीका का रचनाकाल १६८० ई. तथा गणेशगीता की टीका का रचनाकाल १६६३ ई. है। अनुमान किया जाता है कि महाभारत की टीका का समय १६८० ई. से पूर्व ही रहा होगा। मन्त्ररामायण और मन्त्रभागवत का रचनाकाल उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः उनकी रचना नीलकण्ठ ने महाभारतादि की टीकाओं के बाद की होगी।

      श्री नीलकण्ठ चतुर्धर के पुत्र का नाम भी गोविन्द था। इस गोविन्द के पुत्र अर्थात् नीलकण्ठ के पौत्र शिव ने पैठण में निवास करते हुए सन् १७४६ ई. में 'धर्मतत्वप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।

यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।

तावद् रामायणी कथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।

       भारतीय समाज, साहित्य और संस्कृति को युगों-युगों से अनुप्राणित करने वाली रामकथा की अलौकिक महिमा को शब्द सीमा में बाँधना नितान्त असम्भव है। सभी वर्णों और सभी आश्रमों के लिए पुरुषार्थचतुष्टय की साधिका और मानव मात्र के लिए सञ्जीविनी रामनामामृतरसायन-परमपावन भक्तिसुधारसस्रोतस्विनी रामकथा अनिर्वचनीय परमपद प्राप्त कराने वाली है। रामकथा में निबद्ध आदर्श चरित्र और अनुकरणीय महनीय चरित केवल भारत के लिए ही नहीं अपितु समस्त विश्व के लिए समान रूप से मङ्गलप्रद और कल्याणकारी हैं। मानवीय संवेदना के उत्स से आविर्भूत रामकथा समस्त मानवीय गुणों के उदात्तानुदात्त पक्षों से संवलित होकर मानव व्यवहार का दर्पण बनती है-'रामादिवद्वर्तितव्यं न रावणादिवत्।'

      रामकथा में जिन चरित्रों का उपनिबन्धन हुआ है, वे चरित्र केवल अतीत की वस्तु नहीं है; अपितु आज भी हमारे समाज में अनुभूत तथा काम्य हैं। श्रीराम का आदर्शोज्ज्वल चरित्र मारे समाज में मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में अवतरित हुआ है। इस चरित्र की आज भी इतनी प्रतिष्ठा है कि राम नाम के श्रवण-सङ्कीर्तन मात्र से जन्म-जन्मान्तर के पापपुञ्ज विगलित हो जाते हैं। सीता तो पतिव्रता स्त्रियों की आदर्शभूता हैं। यह रामकथा महर्षि आदिकवि के ही शब्दों में सीता का महनीय चरित ही है- 'सीतायाश्चरितं महत्।' रामायाण में चित्रित भक्ति, भ्रातृप्रेम, वात्सल्य आदि ऐसे अमूल्य तत्त्व हैं, जिनका लवमात्र प्राप्त कर जीवन की कृतार्थता सिद्ध हो जाती है। यही कारण है कि सनातन धर्मों परिवारों में जीवन का कोई ऐसा क्षण नहीं है जो राममय न हो।

      शाश्वत मूल्यों की सहज प्रतिष्ठा और उदात्त गुण-गौरव-ख्याति के कारण ही रामकथा देश और काल के बन्धन से निर्मुक्त होकर विश्वसाहित्य में छा गयी है। जब हम भारत समेत दक्षिण पूर्व एशिया तथा संसार के अन्य देशों की विभिन्न भाषाओं में विरचित और प्रचलित रामकथा को देखते हैं, तो गोस्वामी तुलसीदास की मान्यता-'रामायन सत कोटि अपारा' में कहीं भी अतिशयोक्ति की प्रतीति नहीं होती। इस विषय पर अनेक विद्वानों और अनुसन्धाताओं ने व्यापक गवेषणापूर्ण मौलिक कार्य करके विपुल रामायण-साहित्य का उद्घाटन किया है।

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