न्याय शास्त्र: एक व्यापक परिचय और विकास


न्याय शब्द का अर्थ

न्याय शब्द का मूल अर्थ है "नियम युक्त व्यवहार" - 'नियमेन नीयते इति न्यायः'। वात्स्यायन के अनुसार, "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात प्रमाणों के द्वारा अर्थ का परीक्षण ही न्याय है, जो दर्शनपरक परिभाषा है। इसके अतिरिक्त, जिसके द्वारा अपेक्षित अर्थ की सिद्धि हो, उसे भी न्याय कहा जाता है - 'नीयते प्राप्यते विवक्षित सिद्धिरनेन इति न्यायः'। महर्षि पाणिनि ने 'अभ्रेष' अर्थ में न्याय का प्रयोग किया है (परिन्योर्नीणोद्युताभ्रेषयोः - ३.३.३७)। 'काशिका' के अनुसार, "पदार्थानामनपचारो यथाप्राप्तकरणमभ्रेषः" अर्थात पदार्थों का अनतिक्रमण और यथास्थिति में ग्रहण ही अभ्रेष है। व्याकरण शास्त्र में न्याय का अर्थ पदार्थ के यथार्थ स्वरूप की विवेचना माना गया है।

न्यायशास्त्र के पदार्थ

न्यायशास्त्र में सोलह पदार्थ हैं: (1) प्रमाण, (2) प्रमेय, (3) संशय, (4) प्रयोजन, (5) दृष्टान्त, (6) सिद्धान्त, (7) अवयव, (8) तर्क, (9) निर्णय, (10) वाद, (11) जल्प, (12) वितण्डा, (13) हेत्वाभास, (14) छल, (15) जाति, (16) निग्रहस्थान। इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस मोक्ष की प्राप्ति होती है।

प्रमाण

यथार्थ अनुभव 'प्रमा' है, और उसका करण प्रमाण कहलाता है। प्रमाणों की संख्या पर विद्वानों में मतभेद है: चार्वाक एकमात्र प्रत्यक्ष को, वैशेषिक और बौद्ध प्रत्यक्ष-अनुमान को, सांख्य प्रत्यक्ष-अनुमान-शब्द को, और न्यायदर्शन प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-शब्द-ार्थापत्ति को मानते हैं। मीमांसक अनुपलब्धि सहित छह प्रमाण स्वीकार करते हैं। आचार्य भासर्वज्ञ ने तीन, और अक्षपाद गौतम ने चार प्रमाण बताए, किंतु परवर्ती नैयायिकों ने प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-शब्द को ही स्वीकारा।

न्याय शास्त्र के अन्य नाम

न्यायशास्त्र को 'हेतुशास्त्र', 'तर्क विद्या', और 'आन्वीक्षिकी' भी कहा गया है। वात्स्यायन ने 'न्यायभाष्य' में आन्वीक्षिकी शब्द का प्रयोग किया, जो प्रत्यक्ष-आगम से आत्मतत्त्व की युक्ति-पूर्वक खोज है। शब्दों के पञ्चावयव युक्त समूह को न्याय-वाक्य कहा गया, जो परार्थानुमान से अर्थ सिद्ध करता है। छान्दोग्य उपनिषद् में "वाकोवाक्य" और शंकराचार्य द्वारा "तर्कशास्त्र" के रूप में इसका उल्लेख है।

न्याय शास्त्र का महत्त्व और विकास

दर्शन में न्यायशास्त्र का महत्त्व बढ़ा, और बौद्ध-जैन न्याय का उल्लेख हुआ।

न्याय शास्त्र का प्रवर्तक

पद्मपुराण (उत्तर अ0 265), स्कन्दपुराण (कारिका ख. अ. 17), गान्धर्वतन्त्र, और नैषधमहाकाव्य में गौतम को न्यायशास्त्र का प्रवर्तक माना गया, जबकि न्यायभाष्य आदि में अक्षपाद नाम मिलता है। भास के 'प्रतिमानाटक' में मेधातिथेयशास्त्र से मेधातिथि को कर्ता माना गया। महाभारत (शान्तिपर्व) में गौतम, अक्षपाद, और मेधातिथि एक ही व्यक्ति के संकेत हैं, जिनका स्थान मिथिला और सौराष्ट्र का प्रभासपत्तन है।

न्याय शास्त्र और बौद्ध दार्शनिकों में मतभेद

वात्स्यायन के 'न्यायभाष्य' का खण्डन बौद्ध दिङ्नाग ने किया, जिसका उल्लेख कालिदास ने मेघदूतम् में किया। उद्योतकर ने 'न्यायवार्तिक' से इसका प्रतिकार किया। बौद्धों के पश्चात् वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका', और उदयनाचार्य ने 'न्यायपरिशुद्धि', 'आत्मतत्त्व विवेक', और 'न्यायकुसुमांजलि' से बौद्ध मत का खण्डन किया। ये पांच (अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयनाचार्य) प्राचीन न्याय के आधार हैं, जिन्हें "चतुर्ग्रंथिका" और "पंचप्रस्थानसाक्षिक" कहा गया। ये मिथिला से सम्बन्धित थे। काश्मीर में जयन्तभट्ट ('न्यायमंजरी') और भासर्वज्ञ ('न्यायसार', 'न्यायभूषण') ने योगदान दिया।

नव्यन्याय

गंगेशोपाध्याय (12वीं शताब्दी, मिथिला) ने 'तत्त्वचिन्तामणि' लिखा, जो नव्यन्याय का आधार है, जिसमें चार प्रमाणों पर चार खण्ड हैं। पक्षधर मिश्र ने 'आलोक टीका' लिखी, जिनका खण्डनकर्ता अभिनव व्यासतीर्थ थे। 15वीं शताब्दी में वासुदेव सार्वभौम (नवद्वीप) और रघुनाथ शिरोमणि ('तर्कशिरोमणि', 'दीधित') ने इसे आगे बढ़ाया। मथुरानाथ, जगदीश, गदाधर, और विश्वनाथ जैसे विद्वानों ने नव्यन्याय को समृद्ध किया, जो विवाद और खण्डन के लिए प्रसिद्ध है।

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