संस्कृत भाषा के वर्तमान संकट के कारणों का विश्लेषण...
यह लेख संस्कृत भाषा के वर्तमान संकट के मूल कारणों का गहराई से विश्लेषण करता है। यह केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि समुदाय की भीतरी उदासीनता का प्रतिबिंब है। शिक्षकों, प्रचारकों, और विद्वानों की भूमिका, साथ ही आधुनिक तकनीकों और रोजगार के अवसरों से संस्कृत को जोड़ने की आवश्यकता पर चर्चा की गई है।
संस्कृत का वर्तमान संकट: एक आत्म-विश्लेषण
यह एक अकाट्य सत्य है कि संस्कृत का वर्तमान संकट केवल बाहरी परिस्थितियों का परिणाम नहीं, बल्कि समुदाय की भीतरी उदासीनता का प्रतिबिंब है। संस्कृत शिक्षक, प्रचारक और विद्वान स्वयं उन भूमिकाओं को निभाने में विफल रहे हैं, जो इस भाषा के पुनरुत्थान के लिए अनिवार्य थीं। समस्या केवल नीतियों या अवसरों की कमी में नहीं, बल्कि मानसिकता और प्रयासों के अभाव में निहित है।
शिक्षकों की भूमिका
संस्कृत शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग अपने पद को केवल आजीविका का साधन मानता है, एक मिशन के रूप में नहीं। उनका दायित्व केवल पाठ्यक्रम पूरा करने तक सीमित हो गया है। प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने छात्रों में संस्कृत के प्रति जीवंत रुचि जगाने के लिए पाठ्यक्रम के अतिरिक्त क्या नवाचार किए? अधिकांश शिक्षण आज भी पारंपरिक और नीरस पद्धतियों पर आधारित है, जहाँ धातु-रूप और शब्द-रूप रटाने पर जोर दिया जाता है, जो आज की जिज्ञासु और तकनीक-प्रेमी पीढ़ी को आकर्षित करने में पूरी तरह विफल है।
भाषा को केवल व्याकरण और श्लोकों के नियमों तक सीमित कर दिया गया है, जबकि उसके वैज्ञानिक, दार्शनिक और साहित्यिक सौंदर्य को आधुनिक संदर्भों—जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) में पाणिनि के व्याकरण की प्रासंगिकता, पर्यावरण संरक्षण के वैदिक सूत्र या मानसिक स्वास्थ्य के लिए गीता के दर्शन—से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया जाता।
छात्र संख्या और शिक्षण की गुणवत्ता
छात्र संख्या सीधे तौर पर शिक्षकों के प्रयासों और उनकी कक्षा के आकर्षण से जुड़ी होती है। यदि शिक्षक कक्षा को रोचक, संवादात्मक और ज्ञानवर्धक बनाने में सफल होते, तो छात्र स्वाभाविक रूप से इस विषय की ओर आकर्षित होते। छात्र संख्या बढ़ने पर निश्चित रूप से नए पदों के सृजन का दबाव बनता, लेकिन ऐसा नहीं हो सका क्योंकि नींव ही कमजोर रह गई।
प्रचारकों की भूमिका
"संस्कृत का झण्डा लिए फिरने" वाले अधिकांश लोग केवल भावनात्मक बातें करते हैं, ठोस धरातल पर कार्य नहीं करते। सामाजिक समारोहों या ऑनलाइन मंचों पर संस्कृत की महानता का बखान करना और अतीत का गौरवगान करना सरल है, किंतु अपने दैनिक जीवन में या अपने कार्यक्षेत्र से बाहर जाकर इसके लिए एक ठोस जनजागरण अभियान चलाना कठिन है।
हम में से कितने लोग आधुनिक माध्यमों जैसे यूट्यूब, ब्लॉग, पॉडकास्ट या सोशल मीडिया का उपयोग करके संस्कृत को सरल, आकर्षक और उपयोगी रूप में प्रस्तुत करने का नियमित प्रयास करते हैं? यह कार्य केवल कुछ गिने-चुने लोग व्यक्तिगत स्तर पर कर रहे हैं, जबकि इसे एक सामूहिक और संगठित आंदोलन बनाने की आवश्यकता थी।
रोजगार और संस्कृत
संस्कृत समुदाय इस भाषा को आधुनिक रोजगार के अवसरों से जोड़ने में बुरी तरह विफल रहा है। आज भी संस्कृत का अर्थ केवल शिक्षक या कर्मकांडी पंडित की नौकरी तक सीमित माना जाता है, जो प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी को इससे विमुख कर देता है।
वास्तविकता यह है कि AI, कम्प्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स, आयुर्वेद, योग, पर्यटन, पांडुलिपि विज्ञान, अभिलेख शास्त्र (Epigraphy) और कंटेंट क्रिएशन जैसे क्षेत्रों में संस्कृत ज्ञान की अत्यधिक मांग उत्पन्न हो सकती है। इस दिशा में न तो कोई ठोस और अंतर्विषयक पाठ्यक्रम (Interdisciplinary Courses) विकसित किया गया और न ही छात्रों को इन संभावनाओं के प्रति जागरूक किया गया। विश्वविद्यालय आज भी दशकों पुराने पाठ्यक्रम पर चल रहे हैं।
मांग और आपूर्ति का दुष्चक्र
मांग और आपूर्ति (Demand & Supply) का एक ऐसा दुष्चक्र बन गया है जिसे तोड़ना लगभग असंभव प्रतीत होता है: छात्र नहीं, तो पद नहीं; पद नहीं, तो रोजगार नहीं; और रोजगार नहीं, तो छात्र क्यों आएंगे? इस चक्र को तोड़ने के लिए संस्कृत को उसकी आर्थिक उपयोगिता से जोड़ना अनिवार्य है। जब तक कोई छात्र यह विश्वास नहीं करेगा कि संस्कृत पढ़ने से उसका भविष्य सुरक्षित हो सकता है, तब तक वह इस विषय का चयन क्यों करेगा?
समाधान और भविष्य
जब हम स्वयं अपने स्तर पर प्रयास करने में विफल रहते हैं, तो अवसरों की कमी का रोना रोते हैं और यह हमारी अपनी सामूहिक निष्क्रियता और दूरदर्शिता की कमी का ही परिणाम है। हम सरकार और नीतियों को दोष देते हैं, जबकि हमने स्वयं उस नीतिगत बदलाव के लिए आवश्यक जमीनी कार्य नहीं किया। यदि संस्कृत पढ़ने वाले छात्रों की एक बड़ी, जागरूक और मुखर संख्या होती, तो कोई भी सरकार या संस्थान उनकी उपेक्षा करने का साहस नहीं कर पाता।
अंततः, संस्कृत का पुनरुत्थान केवल बाहरी सहायता या सरकारी नीतियों से संभव नहीं है। इसके लिए संस्कृत प्रेमियों, शिक्षकों और विद्वानों को गहरी आत्म-आलोचना करते हुए अपनी सुविधा के दायरे से बाहर निकलकर ठोस, रचनात्मक, परिणामोन्मुखी और सामूहिक प्रयास करने होंगे। हमें संरक्षणवादी मानसिकता से निकलकर एक नवाचारी और उपयोगी दृष्टिकोण अपनाना होगा।
आप क्या सोचते हैं?
क्या आप संस्कृत को आधुनिक रोजगार से जोड़ने के लिए कोई सुझाव देना चाहेंगे? नीचे कमेंट करें ।
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