दिनमान
सूर्योदय से
सूर्यास्त तक के समय को दिन कहते हैं। यह दिन कितनी घटी-पल का है यही घटी-पल
दिनमान कहलाता है। सभी पञ्चाङ्गों में दिनमान का घटी-पल लिखा रहता है,
किन्तु पञ्चाङ्ग में लिखा दिनमान उस स्थान का होता है,
जहाँ से पञ्चाङ्ग निकलता है। अपने नगर का दिनमान बनाने
की चर्चा आगे की जायेगी।
रात्रिमान
सूर्यास्त से
अगले दिन सूर्योदय तक की घटी-पल को रात्रिमान कहते हैं। दिन-रात मिलाकर ६० घटी का
होता है। अत: ६० घटी में से दिनमान की घटी-पल को घटा देने से जो शेष बचेगा वही
रात्रिमान होगा। कुण्डली में दिनमान का घटी-पल तथा रात्रिमान का घटी-पल लिखा जाता
है तथा दोनों का योग ६० घटी-पल लिखा जाता है।
तिथि आदि का मान
पञ्चाङ्ग में
दिनमान की तरह तिथि, नक्षत्र, योग, करण आदि का भी मान लिखा रहता है। जो उस दिन सूर्योदय के बाद
कितनी घटी-पल तक रहेगा - इसका द्योतक है। आजकल पञ्चाङ्ग में सुविधा की दृष्टि से
घटी-पल के आगे घंटा-मिनट भी लिखा रहता है। इससे कुण्डली बनाने में सुविधा होती है।
सरलता से ज्ञात हो जाता है, कि उस दिन तिथि, नक्षत्र, योग कितने बजे तक रहेगा। जातक के जन्म समय में कौन सी तिथि,
वार, नक्षत्र, योग एवं करण है, इसे जानना चाहिए। पञ्चाङ्ग में प्रतिदिन का सूर्योदय तथा
सूर्यास्त, दिनमान लिखा रहता है, जो जिस स्थान से पञ्चाङ्ग प्रकाशित होता है,
उस स्थान का अर्थात् उस अक्षांश और देशान्तर का होता है।
पञ्चाङ्ग
तिथि,
नक्षत्र, योग, करण, दिन (वार) - इन पांच अंगों का वर्णन होने से इसे पञ्चाङ्ग
कहते हैं। पञ्चाङ्ग में संवत् संख्या, संवत्सर का नाम, गोल, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, नक्षत्र, योग, करण आदि सभी आवश्यक विषय लिखे रहते हैं ।
संवत् या संवत्सर
``सम्यक् वसन्ति ऋतव: यत्र’’ जिसमें सभी ऋतुएँ अच्छी तरह से निवास करती हैं,
उसे संवत्सर कहते हैं। भारतीय परम्परा में दो मुख्य संवत् लिखे
जाते हैं : १. विक्रम संवत् : २. शालिवाहन शक संवत्। विक्रम संवत् महाराज
विक्रमादित्य के राज्यकाल से चलाया गया है। राजा शालिवाहन के द्वारा शक संवत्
विक्रम संवत् से १३५ वर्ष बाद चलाया गया है। अत: विक्रम संवत् की संख्या में १३५
घटा देने से शक संवत् की संख्या निकल जाती है। शक संवत् चैत्र से प्रारम्भ होता
है। राष्ट्रीय पञ्चाङ्गों में (सरकारी पञ्चाङ्गों में) २२ मार्च से शक संवत्
प्रारम्भ लिखा जाता है। जो सायन सूर्य संक्राति होती है। पञ्चाङ्गों में भी २२
मार्च से नया शक संवत् प्रारम्भ लिखा होता है।
विक्रम संवत्
विक्रम संवत्
ही भारतवर्ष में व्यवहृत है, जो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होता है। बार्हस्पत्य
नामक कुल ६० संवत् होते हैं। प्रति वर्ष पञ्चाङ्गों में उस वर्ष के संवत्सर का नाम
लिखा रहता है। कुण्डली में पञ्चाङ्ग देखकर तात्कालिक संवत्सर का नाम अवश्य लिखना
चाहिए।
सन्-माह-तारीख
आजकल कुण्डली
में अंग्रेजी जन्म तारीख, मास, सन् तथा घड़ी के अनुसार जन्म समय भी लिखा जाता है। यह
अंग्रेजी सन् विक्रमीय संवत् से ५७ वर्ष बाद प्रारम्भ हुआ है। जो जनवरी माह से
प्रारम्भ होता है। इसके माह तथा तारीख का विवरण -
माह दिनों की संख्या माह दिनों की संख्या
१. जनवरी ३१ ८.
अगस्त ३१ दिन
२. फरवरी २८ या २९ ९. सितम्बर ३० दिन
३. मार्च ३१ १०.
अक्टूबर ३१ दिन
४. अप्रैल ३० ११.
नवम्बर ३० दिन
५. मई ३१ १२.
दिसम्बर ३१ दिन
६. जून ३०
७. जुलाई ३१ दिन
जिस वर्ष
(सन्) की संख्या ४ से भाग देने पर पूरा-पूरा कट जाय, शेष कुछ नहीं बचे, उस सन् में फरवरी २९ दिन की होगी। शेष सन् में फरवरी २८ दिन
की होती है।
अयन-ऋतु
एक वर्ष में २
अयन होते हैं - १. उत्तरायण अथवा सौम्यायन, २. दक्षिणायन अथवा याम्यायन। मकर,
कुम्भ, मीन, मेष, वृष एवं मिथुन - इन ६ राशियों पर जब सूर्य रहते हैं तो
उत्तरायण होता है। पञ्चाङ्ग में इसे सौम्यायन लिखा जाता है। मकर संक्रान्ति
प्रतिवर्ष १४ या १५ जनवरी को होती है। इसी दिन सूर्य दक्षिण से उत्तर आ जाते हैं
अत: इसे उत्तरायण कहते हैं। कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक एवं धनु इन ६ राशियों में जब सूर्य रहते हैं,
तो उसे दक्षिणायन कहते हैं। दक्षिणायन प्राय: १५/१६ जुलाई
से प्रारम्भ होता है। चूंकि सूर्य १४ जुलाई से दक्षिण दिशा की ओर चलते हैं अत: इसे
दक्षिणायन कहते हैं। पञ्चाङ्ग में इसे याम्यायन लिखा जाता है।
गोल
पञ्चाङ्ग में
जहाँ अयन लिखा रहता है, वहीं पर गोल भी लिखा रहता है। गोल भी २ होते हैं- १. सौम्यगोल तथा २. याम्यगोल। मेष राशि के सूर्य से (१४ अप्रैल से) कन्या
राशि के सूर्य तक सौम्य गोल अथवा उत्तर गोल होता है। तुला राशि से मीन राशि तक जब
सूर्य रहते हैं तो वह याम्य अथवा दक्षिण गोल होता है।
ऋतु
एक वर्ष में ६
ऋतुएँ होती हैं - १. वसन्त, २. ग्रीष्म, ३. वर्षा, ४. शरद, ५. हेमन्त तथा ६. शिशिर। ये ६ ऋतुएँ २-२ माह रहती हैं।
जब सूर्य - १. मीन तथा मेष राशि पर होगा तो बसन्त-ऋतु।
जब सूर्य - २. वृष तथा मिथुन राशि पर होगा तो गीष्म-ऋतु।
जब सूर्य - ३. कर्वâ तथा िंसह राशि पर होगा तो वर्षा-ऋतु।
जब सूर्य - ४. कन्या तथा तुला राशि पर होगा तो शरद-ऋतु।
जब सूर्य - ५. वृश्चिक तथा धनु राशि पर होगा तो हेमन्त-ऋतु।
जब सूर्य - ६. मकर तथा कुम्भ राशि पर होगा तो शिशिर ऋतु।
पञ्चाङ्गों
में प्रत्येक मास में ऊपर की पंक्ति में संवत्, अयन तथा गोल के पास ऋतु का नाम भी लिखा होता है।
मास
मास ४ प्रकार
के होते हैं - १. सौर मास, २. चान्द्रमास, ३. सावनमास तथा ४. नक्षत्रमास। सौर मास - सौर मास सूर्य की
संक्रान्ति से प्रारम्भ होता है। जब तक सूर्य एक राशि का पूर्ण भोग प्राप्त करता
है। प्रतिवर्ष - मेष संक्रान्ति से सौर मास प्रारम्भ होता है,
जो मीन राशि के सूर्य तक १२ मास रहता है। मेष संक्रान्ति
प्रति वर्ष अंग्रेजी तारीख १३/१४ अप्रैल को होती है। इसी तरह मकर संक्रान्ति १४/१५
जनवरी को होती है। एक राशि में ३० अंश होते हैं। १ अंश का एक दिन भोग होता है।
इसलिए ३० दिन की एक संक्रान्ति अथवा १ मास होता है। किन्तु सूर्य की गति घटती-बढ़ती
रहती है। कभी ५८ कला, कभी ६० कला और कभी ६१ कला सूर्य की गति होती है। अत: १
संक्रान्ति ३० दिन अथवा कभी ३१ दिन की होती है। इसलिए संक्रान्ति भी १४ से १७
तारीख के बीच में पड़ती है।
चान्द्रमास
कुण्डली में
चान्द्रमास, पक्ष तथा तिथि आदि लिखी जाती है। एक अमावस्या (अमावस) से अगली अमावस्या तक का
एक चान्द्रमास होता है। प्रत्येक चान्द्रमास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ
होकर अगली अमावस्या तक होता है। जो दक्षिण भारत में प्रचलित है। भारत में सुविधा
की दृष्टि से कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुक्ल पक्ष की र्पूिणमा तक एक मास माना
जाता है। कुल १२ मास होते हैं - १. चैत्र, २. वैशाख, ३. ज्येष्ठ, ४. आषाढ़, ५. श्रावण, ६. भाद्रपद, ७. आश्विन, ८. कार्तिक, ९. अग्रहण अथवा मार्गशीर्ष, १०. पौष, ११. माघ तथा १२, फाल्गुन। मासों का यह नाम इसलिए पड़ा है कि उस मास की पूर्णिमा को वही नक्षत्र होता है। जैसे - चैत्र की पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र होने से इसका नाम चैत्र है।
अधिक मास
अधिक मास को
मलमास अथवा पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं। अधिक मास इसलिए होता है कि सूर्य की गति
और चन्द्रमा की गति में प्रतिवर्ष १२ दिन का अंतर होता है। चन्द्रमा के हिसाब से
३५४ दिन का एक वर्ष होता है और सूर्य के हिसाब से लगभग दिन का १ वर्ष होता है। इसी प्रतिवर्ष १२ दिन
के अंतर को दूरकर एकरूपता बनाने के लिए तीसरे वर्ष १ अधिक मास होता है। चान्द्रमास
वही होता है जिसमें प्रतिमास सूर्य की संक्रान्ति होती है। जिस मास में सूर्य की
संक्रान्ति नहीं होती वही अधिक मास कहा जाता है। अधिकमास - फाल्गुन से आश्विन मास
तक आठ मास में ही होता है। कभी-कभी अपवाद स्वरूप कार्तिक मास में भी हो जाता है।
क्षयमास
जिस
चान्द्रमास में सूर्य की दो संक्रान्ति होती है वह क्षयमास होता है। इस क्षयमास
में ३० दिन की हानि हो जाती है। १५-१५ दिन का एक-एक माह होता है। क्षय मास में ३०
दिन का २ माह होता है जैसे - अग्रहण कृष्ण पक्ष के बाद पौष शुक्ल पक्ष आ जायेगा।
अग्रहण शुक्ल पक्ष तथा पौष कृष्ण पक्ष का क्षय (हानि) हो जायेगी। क्षयमास र्काितक,
अग्रहण तथा पौष, माघ - इन्हीं चार मासों में होता है।
पक्ष
प्रत्येक
चान्द्रमास में १५-१५ दिन के दो पक्ष होते हैं। १. कृष्ण पक्ष,
२. शुक्ल पक्ष। कभी-कभी तिथियों के घटने-बढ़ने से १४ अथवा १६
दिन का पक्ष हो जाता है। प्रत्येक माह में अमावस्या को सूर्य एवं चन्द्र दोनों
ग्रह एक राशि तथा एक कला पर होते हैं। इसलिए सूर्य की किरणों से चन्द्रमा की
किरणें अस्त हो जाती हैं। अत: आकाश मंडल में अंधेरा छा जाता है। अगले दिन से चन्द्रमा
१२-१२ अंश के अनुपात से बढ़ने लगता है, अत: आकाश मंडल में धीरे-धीरे उजाला होने लगता है,
इसलिए इसे शुक्ल पक्ष कहते हैं। इसी को उजाला पाख भी कहा
जाता है। चूंकि शुक्ल पक्ष में दिन उजाले की ओर बढ़ते हैं। अत: शुक्ल का ``शु'' तथा दिन का ``दि'' मिलाकर इस पक्ष को शुदि (सुदी) भी कहते हैं। र्पूिणमा को
चन्द्रमा लगभग ६ राशि आगे बढ़ कर सूर्य की किरणों से अलग हो जाता है। आकाश मंडल में
पूर्ण चन्द्र विकसित हो जाता है अत: इसे पूर्णिमा कहते हैं। अगले दिन से फिर
चन्द्रमा की कला घटने लगती है, जिससे आकाश मंडल में अंधकार बढ़ने लगता है अत: इसे अंधेरा
पाख या कृष्ण पक्ष कहते हैं। कृष्ण पक्ष में अंधकार की बहुलता होती है,
इसीलिए बहुलता का ब तथा दिन का दि लेकर इसे (वदि) वदी भी
कहते हैं।
तिथि
अमावस्या को
चन्द्रमा सूर्य की युति से निकल कर प्रतिदिन १-१ कला आगे बढ़ने लगता है,
अत: इसे तिथि कहते हैं। तिथि की परिभाषा है - तन्यन्ते कलया
यस्मात् तस्मात् ता: तिथय:। कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से अमावस्या तक तथा शुक्ल
पक्ष में प्रतिपदा से पूर्णिमा तक १५-१५ तिथियां होती हैं। चन्द्रमा की एक कला को
एक तिथि माना गया है या सूर्य चन्द्रमा के बीच १२ अंश अन्तर को एक तिथि माना गया
है।
तिथियों के नाम
पञ्चाङ्ग में
तिथि का नाम नहीं लिखा रहता है। तिथि के लिए १, २, ३ आदि अंक लिखा होता है। अत: १,
२, ३ आदि अंक से प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया आदि तिथि समझना चाहिए। अमावस्या के लिए ३० तथा
पूर्णिमा के लिए १५ अंक पञ्चाङ्गों में लिखा होता है। तिथियों के नाम इस प्रकार
हैं -
१. प्रतिपदा,
२. द्वितीया, ३. तृतीया, ४. चतुर्थी, ५. पंचमी, ६. षष्ठी, ७. सप्तमी, ८. अष्टमी, ९. नवमी, १०. दशमी, ११. एकादशी, १२. द्वादशी, १३. त्रयोदशी, १४. चतुर्दशी, १५. र्पूिणमा, ३० अमावस्या।
तिथियों के घटी-पल
पञ्चाङ्गों
में प्रतिदिन सूर्योदय के समय जो तिथि होगी, उसी तिथि का अंक लिखा रहता है। तिथि के आगे घटी-पल लिखा
रहता है। इसका अर्थ है, उस दिन वह तिथि सूर्योदय के बाद कितनी घटी-पल रहेगी। जैसे -
७ (सप्तमी) के आगे २४/५१ लिखा है। इसका अर्थ है। सप्तमी उस दिन २४ घटी ५१ पल तक
रहेगी। इसके बाद अष्टमी तिथि लग जायेगी।
तिथि की क्षय-वृद्धि
प्रत्येक तिथि
का मान ६० घटी ० पल होता है, किन्तु कभी-कभी तिथि ६० घटी से ऊपर चली जाती है,
जिसके कारण दो दिन सूर्योदय के समय एक ही तिथि रहती है। अत:
इसे उस तिथि की वृद्धि कहते हैं। कभी-कभी सूर्योदय के समय एक तिथि है,
और थोड़ी देर में वह तिथि समाप्त हो जायेगी। उसके बाद दूसरी
तिथि लग जाती है। दूसरी तिथि भी अगले दिन सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाती है,
इस तरह दोनों दिन सूर्योदय के समय वह तिथि नहीं होगी,
अत: एक सूर्योदय के बाद दूसरे सूर्योदय के पूर्व तक जो तिथि
हो,
उस तिथि को क्षय माना जाता है।
दिन
कुण्डली में
तिथि के बाद दिन लिखा जाता है, जिसे ``वार'' कहते हैं। कुल ७ वार (दिन) होते हैं - १. सूर्यवार अथवा
रविवार,
२. सोमवार अथवा चन्द्रवार, ३. मंगलवार अथवा भौमवार, ४. बुधवार, ५. बृहस्पतिवार अथवा वीरवार अथवा गुरुवार,
६. शुक्रवार अथवा भृगुवार तथा ७. शनिवार। दिन
अथवा वार को वासर भी लिखा जाता है जैसे - रविवासर, चन्द्रवासर, भौमवासर आदि। यह दिन सूर्योदय से अगले दिन सूर्योदय से पहले
तक माना जाता है।
bahut sundar
जवाब देंहटाएंउत्तम लेख ।साधुवाद।
जवाब देंहटाएंउत्तरायण दक्षिणायन क्यों कहा जाता है और कब होता है?
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