गीति काव्य परम्परा

गीति काव्य परम्परा एवं नीति शतक खण्ड काव्य का अपर नाम गीति काव्य है। इसमें काव्यतत्व के साथ-साथ अन्तरात्मा की ध्वनि वर्णित होता है।
            हम अपने ब्लाग में बौद्ध स्तोत्रएवं कवि विल्हण के चौरपंचाशिका पर चर्चा कर चुके हैं। भर्तृहरि की एक अज्ञात सी कृति पुरूषार्थोपदेश को मूल श्लोक भी उपलब्ध करा दिया हूँ। बौद्ध स्तोत्र पढ़ते-पढ़ते गीति काव्य पर ध्यान आकृष्ट हुआ। वैसे भी स्त्रोत साहित्य एवं खण्ड काव्य मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। बचपन की वह स्मृति ताजी हो उठती है जब मैं यामुनाचार्य के आलवन्दार स्तोत्र को पढ़ता हूं।
            गीति काव्य का उद्गम रामायण एवं महाभारत से हुआ। यहां अनेक स्तोत्र पाये जाते हैं। पुराणों में भी 
            कालिदास तक आते-आते गीतिकाव्य का विकसित स्वरूप सामने आ गया। कालिदास ने मेधदूतम की क्या रचना की दूत काव्यों की बाढ़ सी आ गयी। विक्रम का नेमिदूतरूद्रवाचस्पति का भ्रमरदूतवेंकटाचार्य का कोकिल संदेशकृष्ण चन्द्र पन्त का चन्द्रदूत जैसे सैकड़ों दूत काव्य रचे गये। आज भी दूतकाव्य का सृजन अनवरत जारी है। कालिदास ने दूसरा खण्ड काव्य या गीति काव्य की रचना की ऋतु संहारम्। घटकर्पर का घटकर्पर काव्य भी इसी श्रेणी में आते है। गीति काव्य की एक अच्छी विशेषता यह है कि कवि पूर्वापर भावों से निरपेक्ष हो अपने भाव को एक ही श्लोक में व्यक्त कर देता है। इसमें संगीतात्मकता तो होती ही है। इस प्रकार के काव्य में कोमल भावों की श्रृंगारिकता की प्रधानता होती है।
            जयदेव के गीत गोविन्द को कौन नहीं जानता। जगन्नाथ पुरी में रहते मंदिर प्रांगण में मैंने शतशः बार जय जय देव हरे की मधुरतम ध्वनि सुना था। अमरूक का अमरूक शतकगाथा सप्तशतीजगन्नाथ का भामिनी विलास तथा लहरी त्रय किसे आकर्षित नहीं करता। यहाँ गीति काव्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है-

गीतगोविन्द : जयदेव रचित 'गीतगोविन्द रागकाव्य की ऐसी सशक्त कृति है, जो अनेक कवियों का प्रेरणास्रोत बनी और अनेक कवियों ने जयदेव का नामोल्लेख किया है।
गीतगिरीशम्- आन्ध्रपण्डित श्रीनाथभट्ट के पुत्र रामभट्ट ने मिथिलानरेश रामभद्रदेव के आश्रम में रहकर सन् १५१३ई. में 'गीतगिरीशम्' की रचना की। द्वादश सर्गात्मक इस प्रबन्ध में रचयिता ने जयदेव के अनुसरण को स्वयं स्वीकारा है ।
हर्यक्ष कपिरनुवर्तते यथायं खद्योतो रविमपि निर्द्धनो धनाढ्यम्।
औत्सुक्यादहमधुना तथानुकुर्वे लालित्यं कविजयदेवभारतीनाम्।। गीतागिरीशम्, १/१
कवि ने विघ्नविनाशक गणेश की वन्दना के पश्चात् शिव की अष्टमूर्तियों का सुन्दर वर्णन किया है और तुराज के वर्णन के साथ ही मूलवस्तु प्रारम्भ हो जाती है। शिव और पार्वती का वर्णन सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में है। यथा -
सति रतिकाले लास्यति बाले! स्फटिकगिरामिव शम्या।
पुरहरहदये रतिरणविदये पुरुषायित घृतकम्पा ।।
शिव का रुदन-हास भी सामान्य मानव के ही समान है। चन्द्रकिरणों में पार्वती की भ्रान्ति होने पर वे उन्मत्त रूप में विलाप करने लगते हैं।
कवि ने जयदेव का अनुकरण केवल शिल्प की दृष्टि से ही किया है, वस्तुवर्णन एवं कथोपकथन में वह नितान्त मौलिक है। कवि का भाषाधिकार अपूर्व है, कोमलकान्त पदावली, सानुप्रासिक शब्द योजना, माधुर्य एवं प्रसाद गुण के दर्शन पग-पग पर होते हैं और यही उसकी सफलता का रहस्य भी है।
रामगीतगोविन्दम्- मैथिलपण्डित जयदेव ने वीर रस प्रधान 'रामगीतगोविन्द' की रचना की। इसका रचनाकाल सन् १६२५-५० के मध्य स्वीकार किया गया है। यह काव्य 'गीतगोविन्द' के अनुकरण पर रचित है-इस तथ्य का उल्लेख स्वयं रचयिता ने इस श्लोक में किया है
यदि रामपदाम्बुजे रतिर्यदि वा काव्यकलासु कौतुकम्।
पठनीयमिदं तदजसा रुचिरं श्रीजयदेवनिर्मितम्।।
गीतगौरीश 'रसमञ्जरी' और 'रसतरङ्गिणी' के लेखक भानुदत्त मिश्र ने 'गीतगोविन्द' के अनुकरण पर 'गीतगौरीश' की रचना की। कहीं-कहीं इसका नाम 'गीतगौरीपति' भी मिलता है। दशसर्गात्मक इस काव्य में गौरी का शिव के प्रति अनुराग वर्णित है। अर्धनारीश्वर महादेव की प्रणयलीला की एक मधुर झाँकी प्रस्तुत है।
आत्मीयं चरणं दधाति पुरतो निम्नोन्नतायां भुवि
स्वीयेनैव करेण कर्षति तरो: पुष्पं श्रमाशङ्कया।
तल्पे किं च मृगत्वचा विरचिते निद्राति भागैर्निजै:
अन्तः प्रेमभरालसां प्रियतमामङ्गे दधानो हरः।।
रागकाव्यों में प्रायः कोमलकान्त पदावली का ही प्रयोग हुआ है, लेकिन भानूदत्त ने पाण्डित्यप्रदर्शन में भी रुचि व्यक्त की है और कहीं-कहीं अप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है यथा कासर (महिष), शमन (यमराज), पाचस् (जल) आदि। यह रचना जयदेव के समान सरस नहीं, लेकिन असुन्दर भी नहीं कही जा सकती। शिवभक्तों और गायकों के लिए स्वागतयोग्य है। इस काव्य के गीत का एक अंश प्रस्तुत है-
चम्पकचर्चितचापमुदञ्चितकेसरकृततुणीरम्।
मधुकरनिकरकठोरकवचचयपरिचितचारुशरीरम्।।
अनुरजञ्य पश्य वसन्तम्
विकचबकुलकुलसङ्कुलकाननकुसुममिषेण हसन्तम्।।
पार्वतीगीत- बारह पटलों में विभक्त जयनारायण घोषाल रचित 'पार्वतीगीत' में शिव और पार्वती का पावन चरित सरल और सरस भाषा में वर्णित है। यह कृति तन्त्रशास्त्र से प्रभावित है और पार्वती के लिए छिन्नमस्ता, बगलामुखी, तारा, भैरवी, भुवनेवरी जैसे पर्यायों का भी प्रयोग किया गया है। इस कृति का प्रत्येक गीत रस से ओतप्रोत है। यथा -
सानानन्दनरूपिका शिवमनस्सन्तोषिका शोषिका
पापानामद्यपोषिका त्रिजगतामुत्पादिका हारिका।
भक्ते मुक्तिविधायिका रिपुकुलमोन्माथिका दीपिका
या मोहप्रबलान्धकारहरणे सा पातु वश्चण्डिका।।
इस कृति पर मुगलकालीन रागों और अयोध्या के रामविषयक रसिक सम्प्रदाय का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है। यही कारण है कि उन्होंने शिवपार्वती के ताण्डव नृत्य के स्थान पर रासक्रीड़ा का वर्णन किया है।
गीतगंगाधर- कल्याण कवि रचित 'गीतगङ्गाधर' द्वादश सर्गों में विभक्त है तथा २५ प्रबन्धों में रचित है। इसके सर्गो का नाम इस प्रकार है- शिवानुनय, शिवानुकूलवसन्तवर्णन, विभीषिकायदर्शन, सोत्कण्ठितशिव, पार्वतीप्रसादन, पार्वतीपश्चाताप, कलहान्तरितावर्णन, पार्वतीदशा, उत्कण्ठिता, मुदितमन्मथान्तक, शिवप्रसादन और स्वाधीनपतिकासौभाग्यवर्णना इससे न केवल विषयवस्तु का पता लग जाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रचयिता ने वस्तु विस्तार जयदेव के अनुकरण पर किया है। द्वादश सर्ग और पच्चीस प्रबन्ध अनुकरण ही है. लेकिन कवि ने पदयोजना और अलङ्कारविनिवेश में मौलिकता भी प्रदर्शित की है।
गीतपीतवसन- दशरथ और अन्नपूर्णा की पुत्र श्यामराम कवि ने द सर्गों में राधा और कृष्ण की लीला का वर्णन किया है। इस कृति के समस्त गीत विभित्र रागों- गुर्जरी, मकरी, वसन्त, बराड़ी, मालव, कर्णाट आदि पर आधारित है। रागों में निबद्ध गीतों के मध्य वर्णिक वृत्तों का भी प्रयोग मिलता है। कवि कृति का उद्देश्य इन शब्दों में व्यक्त करता है-
हरिस्मरणसादरं यदि मनोमनोजन्मनः
कलासु विमलासु चेत कि कुतूहल वर्तते।
तदानुपदमुल्लसन्मधुरिमैकधुर्या बुधाः
सुधारससमां रसैः शृणुत भामकीं भारतीम्।।
इस छन्द पर जयदेव का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जैसे-
मधुरिपुरिह विहरति मधुमासे।
माधविकासुमधुरमधुमादितमधुकरनिकरविलासे।।
कृष्णगीत- सोमनाथ मिश्र रचित 'कृष्णगीत' अल्पकाय रचना है, जिसमें कु २० गीत है और कथासूत्रों को बांधने वाले श्लोक है। कवि ने इसका सर्गों में विभाजन नहीं किया है। इसमें न केवल जयदेव का उल्लेख है, बल्कि इसके शिल्प पर भी सूरदास का प्रभाव देखा जाता है। अन्त्यानुप्रास का निर्वाह सर्वत्र उपलब्ध होता है। माधुर्यव्यजक पदविन्यास और आकर्षक वर्णन इसकी विशेषताएँ है। इसके वर्णवृत्तों में अन्त्यान्त्यानुप्रास ही नहीं, शब्दमैत्री, नादसौन्दर्य, ध्वन्यात्मकता आदि का सर्वत्र ध्यान रखा गया है। प्रत्येक अष्टपदी के अन्तिम पद में कविनाम का भी प्रयोग किया गया है। देखें-
वनावलि विलासिनं सरसराधिकालासिनं
निकुञ्जगृहवासिनं ब्रजकुलाम्बुजोद्भासिनम्।
शशाङ्कसितहासिनं तरुणयोषिदुभासिनं
पुमांसमनुदासिनं स्मरत मेसङ्काशिनम्।।
कहीं-कहीं अन्त्यानुप्रास के मोह में गमन को गमण भी करना पड़ा है।
सङ्गीतगङ्गाधर- माहेश्वर राज्य के अधिपति वीरराज के पुत्र नाराज (शासनकाल सन् १७३९-६० ई.) ने छः सर्गों में विभक्त और २४ गीतों से सम्पन्न 'सङ्गीतगङ्गाधर' नामक काव्य की रचना की, जिसमें शिव और पार्वती की प्रणयगाथा का सरस चित्रण हुआ है। ये चौबीस गीत सोलह रागों से सम्पन्न है। काव्य का कथासार कवि ने इस श्लोक में प्रस्तुत किया है-
क्रीड़ाकौतुकतत्परे परशिवे साकं मुनिप्रेयसी
जातेकातरतामुपेत्य विपिने मोहाकुलाभूदुमा।
पश्चात्सङ्गतयोस्सखीवचनतः सप्रेम सञ्जल्पतो
गौरीशङ्करयोर्जयन्ति कपिलातीरे मिथ: केलयः।।
कवि की अपनी कृति के विषय में निम्न मान्यता है-
       या सङ्गीतकलारहस्य कलना या साहिती माधुरी
       या च श्रीरखिलावनी विलसिता भक्तिश्च या शाङ्करी।
       तत्सर्वं वरवीरनञ्जनृपते साहित्यचूड़ामणे:
       सारज्ञा परिशोधयन्तु कृतिनः सङ्गीतगङ्गाधरे।।
जानकीगीत
हरि आचार्य, जो जयपुर की गलतागद्दी के बत्तीसवें आचार्य थे, ने 'जानकीगीत' की रचना की जो राम की मधुरोपासना का काव्य है। इसमें छ: सर्ग हैं और रामलीला के स्थान पर रासलीला वर्णित है। श्रीराम परब्रह्म तो हैं ही, रसिकशिरोमणि भी हैं और सीता जी उनकी चिरप्रिया हैं। समस्त काव्य 'गीतगोविन्द' के अनुकरण पर रचित है और 'विहरति हरिरिह सरस वसन्ते' के स्थान पर 'विलसति रघुपतिरतिसुखपुजे' गाया गया है। रामभक्ति की धारा भी प्रवाहित की गयी है
रघुकुलकमलविभाकर सुखसागर हे
निजजनमानसवास
जय जय दाशरथे।
नीलनलिन रुचिसुन्दर गणमन्दिर हे
पीतवसनमृदुहास जय जय दाशरथे।
इनके अतिरिक्त नारायणतीर्थ रचित 'श्रीकृष्णलीलातरङ्गिणी', राम जी शास्त्री रचित 'रामाष्टपदी', कृष्णभट्ट रचित 'रामगीत', प्रियादास रचित 'सङ्गीतरघुनन्दन', गंगाधर रचित 'सङ्गीतराघव' हरिशंकर रचित 'गीतराघव', चन्द्रशेखर सरस्वती रचित 'शिवगीतमालिका', चन्द्रदत्त रचित 'काशीगीत', भीष्ममिश्र रचित 'गीतशङ्कर' आदि गीतामक रचनाएँ उपलब्ध होती है, जो 'गीतगोविन्द' को उपजीव्य बनाकर चलती हैं और यत्र-तत्र इस प्रकार के उल्लेख भी करती हैं
जयदेवस्मृतिसञ्चितकवितागन्धेन वेंकटाख्योऽसौ
कुरुते प्रबन्धमेतत गीतगिरीशं हि शिवसन्तुष्ट्ये।।
मणिकाञ्चनवत् प्रसिद्धौ जयदेवग्रन्थमत्कृतग्रन्थौ
मद्ग्रन्थो धारयः स्यादाधुनिकैरर्थगौरवभावात्।।

            असंख्य गीति काव्यों के स्मरण के पश्चात् मैं प्रसिद्ध नीतिशतक पर कुछ चर्चा करना अपेक्षित समझता हूं। यद्यपि आज तक लक्षशः लेख इस पर लिखे पढ़े गये फिर भी इस चिरस्मरणीय कृति पर जितना कुछ लिखा जाय अन्तर्जाल के नवीन पाठकों के लिए नूतन एवं उपयोगी होगा।
       भर्तृहरि के जीवनी को मैं एक ही श्लोक लिखकर पूर्ण करता हूं।
             

            अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या धिक्ताञ्च तं च मदनं च इमां च मां च
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