आकाश में जिन तारा पुञ्जों की आकृति घोड़े के मुख सदृश
दृष्टिगोचर हुई उसका नाम अश्विनी, जिन नक्षत्र समूहों की योनि सदृश आकृति बनी है उसकी भरणी, क्षुरक के आकृति की कृत्तिका, लालवर्ण होने से रोहिणी, मृग का शिर प्रतीत होने से मृगशिरा इसी तरह २७ नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं को ऋषियों ने
योगज प्रत्यक्ष से जाना तथा उसका उल्लेख यथास्थान वैदिक साहित्य में किया है।
ग्रहों को आकाश में चलने के कारण खेचर कहा गया है । ग्रहों
के नामकरण भी इसी तरह किये गये हैं। सरकता हुआ प्रतीत होने से सूर्य । सरणात् इति
सूर्य:। सूर्य को आत्मा कहा है।
मन को आह्लादकता प्रदान करने के कारण चन्द्रमा की संज्ञा है, यह चन्द्रमा समष्टि का मन है। इसे सोम की संज्ञा दी गयी। चन्द्रमा के समीप उसका बेटा बुध बहुत खोज के बाद (सूक्ष्म
होने से) जाना गया अतएव इसे बुद्धि या वाणी कहा गया है।
अत्यन्त श्वेत (सित) को शुक्र जलीय होने से काम कहा है।
पृथ्वी के सदृश गुणधर्म वाला तथा जलते हुए अंगार सदृश
प्रतीत होने वाला भूपुत्र भौम या मंगल है।
सर्वाधिक विस्तृत एवं पीतवर्णी ग्रह को गुरु (ज्ञान) कहा और
धीरे-धीरे चलने वाला मन्द या शनैश्चर (भृत्य) नामकरण महर्षियों द्वारा किया गया।
जिन ऋषियों ने नक्षत्रों एवं ग्रहों का नामकरण उनकी
आकृतियों के आधार पर किया था, उन्हीं के द्वारा अनन्तर राशियों का नामकरण किया गया।
इसकी सत्यता उपलब्ध ग्रन्थों में अद्यापि
सुरक्षित है। जिन महर्षियों ने आकाश में तारों के समूह को प्रत्यक्षकर उनकी
अश्विन्यादि नक्षत्र संज्ञाऐं दी थी, उन्हीं के द्वारा सतत् आकाश निरीक्षण में जब
कुछ नक्षत्रों के समूह से विशेष आकृतियां भेड़, बैल, स्त्री पुरुष का जोड़ा तथा केकड़े आदि के समान प्रतीत हुई तभी
उनका आकृत्यानुसार मेष वृषभादि नामकरण किया गया था। जैसा कि वराहमिहिर ने राशि का पर्याय क्षेत्र, गृह, ऋक्ष, नक्षत्र, भ, भवन आदि कहा है।
``राशि क्षेत्र गृहर्क्षभानि भवनं एकार्थ सम्प्रत्यया:''।
योगी के समान ही ज्योतिर्विद् को भी शास्त्र चिन्तन द्वारा
परोक्ष विषय भी अपरोक्ष हो जाते हैं। जब भगवान् पतञ्जलि कहते हैं कि ``सूर्ये संयमात् भुवनज्ञानम्'', तथा ``चन्द्रे संयमात् ताराव्यूहज्ञानम्'' तब ज्योतिर्विद् भी तो शास्त्र के माध्यम से इन्हीं
सूर्यचन्द्रादि ग्रह नक्षत्रों का अर्हिनश चिन्तन करता हुआ एक प्रकार से संयम ही
तो करता है। यदि योग की भाषा में ``त्रयमेकत्र संयम:'' है तो ज्योतिष की भाषा में विलग्नं शरीरं मन:। लग्न (देह), चन्द्र (मन) एवं सूर्य (आत्मा) का ऐक्य ही सुदर्शन चक्र
माना गया है। संयम को ही ज्योतिर्विद् सुदर्शन कहता है। चरक का कथन है कि ``प्रत्यक्षं हि अल्पमप्रत्यक्षम् अनल्पम्'' अर्थात् प्रत्यक्ष तो थोड़ा ही है जबकि अप्रत्यक्ष तो बहुत
अधिक है। ज्ञान के विषय अपरमित हैं अतएव जो पदार्थ इन्द्रिय ज्ञान से परे हैं उन
पदार्थों का बोध कराने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान सम्पन्न, दिव्य दृष्टि वाला यही ज्योतिष शास्त्र है। ``न हि कस्तूरिका गन्ध: शपथेन विभाव्यते।'' अर्थात् कस्तूरी में गन्ध है यह कहने के लिये शपथ लेने की
आवश्यकता नहीं होती। ज्योतिष शास्त्र के आदेशों का सद्य: फलित होना ही इसकी महत्ता
को सर्वातिशायी बना देता है।
अन्य शास्त्रों में कहे गये फलों की प्राप्ति हेतु दूसरे
जन्मों की आवश्यकता होती है। मृत्यु के पश्चात् होने वाले फलों में अविश्वास होना
भी स्वाभाविक है किन्तु ज्योतिष के फलादेश इसी जीवन में अपना फल देकर शास्त्र की
प्रामाणिकता सिद्ध कर देते हैं। जिससे मृत्यु के पश्चात् परलोक एवं इहलोक में सुख
दु:खादि कर्म फलों की प्राप्ति में विश्वास सहज ही हो जाता है। अतएव कहा गया है —
अन्यानि शास्त्राणि विनोदमात्रं न किञ्चिदेषां भुवि
दृष्टमस्ति।
चिकित्सितज्योतिषमन्त्रवादा: पदे पदे प्रत्ययमावहन्ति।।
फल बताने हेतु अनेक प्रकार की विधियाँ दीर्घकाल तक आचार्यों
द्वारा विकसित की गयी, जिनमें मुख्यत: जातक, ताजिक, प्रश्न, केरली, नाडी, शकुन, स्वप्न, रमल, स्वर, अंक, लक्षण, सामुद्रिक तथा संहिता ज्योतिष प्रधान हैं। इन सभी विधियों
में जातक की प्रधानता है, जो वैदिककाल से अद्यावधि निर्वाधरूप से प्रचलित है।
फलादेश हेतु अपौरूषेय आचार्यों द्वारा तनु, धन, सहज, सुहृद्, सुत, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय एवं व्यय आदि द्वादशभावों को निर्धारित किया है, जिनमें प्राय: जगत के समस्त व्यवहार गृहीत हो जाते हैं।
किन्तु यह शास्त्र जब अल्पज्ञ तथा अज्ञानी लोगों के हाथ में आ जाता है तब जगत
कल्याण की अपेक्षा ध्वंस होने की स्थिति अधिक हो जाती है। अतएव इस शास्त्र के
अध्ययनकर्ता तथा अध्यापक दोनों को जितेन्द्रिय, विनम्र, बुद्धिमान तथा धैर्यवान के साथ-साथ आध्यात्मिक भी होना
आवश्यक है।
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