संस्कृत
भाषा में विविध ज्ञात विषयों पर अबतक लगभग 10 लाख से अधिक ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन
ग्रन्थों में से लगभग आधे पुस्तकों का ही
प्रकाशन हो पाया है। अप्रकाशित पुस्तकों को पाण्डुलिपि कहा जाता है। वैदिक ग्रन्थ
सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का मूल उद्गम माना जाता है। उपनिषदों में मन और
मस्तिष्क दोनों को तार्किक दृष्टि से सन्तुष्ट करने की चेष्टा की गयी है। यहां
आभ्यन्तर और अप्रत्यक्ष, अभौतिक विषयों के लिये तर्कोपस्थिति, कथानक आदि माध्यम द्वारा सरल और स्वाभाविक ढ़ंग अपनाया गया है।
स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में आचार-विचार,
उपासना, हिन्दू रीति-रिवाज, जीवन व्यवस्था आदि के परिचय के साथ ही
इसके पीछे निगूढ़ तत्वदर्शिता को भी अनावृत किया गया है। उपनिषदों, स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे पारिभाषिक शब्द आते
है, जिनका अपने सन्दर्भ में विशेष महत्व हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों
के अन्य भाषाओं में अनुवाद के समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती हैं, अन्यथा उन शब्दों की आत्मा,
उसके वातावरण एवं विशेष जीवन्तता खत्म ही
नहीं होती अपितु अनर्थकारी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
संस्कृत ग्रन्थों को एक
आमंत्रण के रूप में लिया जाना चाहिए। किसी भी आमंत्रण को अकारण उपेक्षा न की जाय।
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