नायिका की चर्चा कामशास्त्र के पश्चात् अग्निपुराण में है, भरत के मत का अनुसरण करते हुए भोजदेव ने नायिका भेद का निरूपण सविस्तार किया है। भोज ने
भी यह भेद स्वीकारा है-
गुणतो नायिका अपि स्यादुत्तमामध्यमाधमा।
मुग्धा मध्या प्रगल्भा च वयसा कौशलेन वा।।
धीराअधीरा च धैर्येण स्पान्यदीया परिग्रहात्।
ऊढानूढोपयमनात् क्रमाज्ज्येष्ठा कनीयसी।।
मानद्र्धेरूद्धतोदात्ता शान्ता च ललिता च सा।
सामान्या च पुनर्भूश्च स्वैरिणी चेति वृत्तितः।।
आजीवतस्तु गणिका रूपाजीवा विलासिनी।
अवस्थातोअपरा चाष्टौ विज्ञेयाः खण्डितादयः।।
श्रृगारप्रकाश‘ में नायिका भेद अधिक विस्तार के साथ वर्णित है। यहां, अधमा और ज्येष्ठा नायिकाएं उल्लिखित नहीं हां। स्वीया एवं परकीया के पृथक-पृथक
भेद बताये गये हैं-
उत्तमा, मध्यमा, कनिष्ठा,
ऊढा, अनूढा, धीरा,
अधीरा, मुग्धा, मध्या और
प्रगल्भा। भेदोपभेदों का समग्रतः क्षता, यातायात और यायावरा
चार भेद तथा सामान्या के-ऊढा, अनूढा, स्वयंवरा,
स्वैरिणी एवं वेश्या ये पांच भेद किये गये हैं। भोज ने अपने ग्रन्थ
में मध्या और प्रगल्भा के ‘धीरा अधीरा‘ संज्ञक
तृतीय भेद को नहीं स्वीकारा एवं उन्होंने ज्येष्ठा का नामोल्लेख न करके ‘पूर्वानूढ़ा’ को ही ज्येष्ठा अंगीकार किया है।
सामान्यता नायिका के भोजकृत भेद विवेचन को शास्त्र में अपूर्व ही मानना पड़ेगा।
इसके पश्चात् ‘मन्दार-मरन्दचम्पू’ ग्रन्थ
में कृष्णकवि ने ‘क्षता, अक्षता’
आदि नायिका-विवेचन में भोजदेव का उल्लेख किया है।
हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में नायिका भेद
काव्यानुशासन में हेमचन्द्र ने भी नायिका-विवेचन किया है, किन्तु यहां अत्यन्त संक्षिप्त विवरण है। मध्या, मुग्धा
औश्र प्रगल्भा तीनों के दो-दो भेद वय एवं कौशल के आधार पर किया गया है। यथा-वयसा
मुग्धा, कौशलेन मुग्धा, वयसा मध्या,
कौशलेन मध्या और इसी प्रकार वयसा-प्रगल्भा, कौशलेन
प्रगल्भा धीरा, अधीरा आदि भेद भी मध्या आदि नायिकाओं के
स्वीकारे गये हैं। भरत के नाटयशास्त्रीया रीत्यानुसार पूर्वमूढा ज्येष्ठा, पश्चषदूढा कनिष्ठा नायिकाएं कही गयी हैं। परकीया नायिका के मात्र तीन ही
भेद-विरहोत्कण्ठिता, अभिसारिका तथा विप्रलब्धा माने है।
इसके अतिरिक्त वाग्भटालंकार तथा प्रतापरूयशोभूषण ग्रन्थों में भी
संक्षेपतः नायिका भेद का कथन है। विवेचन में कोई उल्लेखनीय वैशिष्टय नहीं है।
वाग्भट्ट ने चार-अनूढा, स्वकीया, परकीया
और परांगना (सामान्या) भेद लिखा है।
साहित्यदर्पण में नायिका भेद
संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में ‘साहित्य
दर्पण‘ का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ में
नायिका भेद का विवेचन मिलता है। आचार्य विश्वनाथ ने अपने पूर्वाचार्यों द्वारा निरूपित नायिका के प्रमुख भेद ही स्वीकार कर उपभेद कथन
में नवीनता की कल्पना की है। यथा-स्वीया के मुख्य मुग्धा, मध्या
और प्रगल्भा तीन भेदों के उपभेद परिगण सर्वथा नवीन है-मुग्धा-(1) प्रथमावतीर्णयौवना (2) प्रथमावतीर्णमदनविकारा (3)
रतौ वामा (यह शिंगभूपाल ने भी स्वीकारा है) (4) माने मृदु (5) समधिकलज्जावती।
मध्या-(1)
विचित्रसुरता (2) गाढ़तारूण्या (3) समस्तरतकोविदा (4) ईषत्प्रगल्भा वचना (5) मध्यमव्रीडिता।
प्रगल्भा-(1)
स्मरान्धा (2) गाढ़तारूण्या (3) समस्तरकोविदा (4) भावोन्नता (5) स्वल्प व्रीड़ा (9) आक्रान्तनायका। मध्या, प्रगल्भा के धीरा आदि तीनों भेद एवं ज्येष्ठा और कनिष्ठा उपभेद भी वर्णित
हैं।
साहित्यदर्पण में इस प्रकार मध्या तथा प्रगल्भा के बारह भेद, मुग्धा एक भेद, स्वीया के कुल तेरह भेद हुए। परकीया
के कन्या-परोढा दो भेद, सामान्या एक भेद, अब कुल सोलह प्रकार की नायिकाएं हो गयीं। अवस्थिति के अनुसार
स्वाधीनभर्तृका आदि आठ भेद फिर उत्तम, मध्यम और अधम और अधम
भेद से तीन प्रकार की नायिकाएं। अन्त में यदि भेदोपभेदों का संकलन कर दिया जाय तो-16×8=12×3=384 प्रकार की नायिकाओं की गणना इस ग्रन्थ में की गयी है। जैसा कि ऊपर की
पंक्तियों में कहा-परकीया के पूर्वाचार्यों द्वारा विवेचित तीन ही भेद माने हैं-(1)
विरहोत्कण्ठितका (2) अभिसारिका (3) वासकसज्जा।
भानुदत्त के रसमंजरी में नायिका भेद
इस कवि के छन्द रसमंजरी, रसतरंगिणी और अन्याय कृतियों की रचना के
अतिरिक्त सुभाषित ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं। कवि की
जन्मभूमि मिथिला रही परन्तु सारस्वत-साधना-स्थल प्रयाग था। कवि किसी नृपति
वीरभानु का आश्रित रहा। यह संकेत हमें पद्यवेनी में उद्धत (छन्द सं0 68) तथा सूक्तिसुन्दर (छन्द सं0 102) से प्राप्त होता
हैं।
त्रयवस्थैव परस्त्री स्यात् प्रथमं विरहोन्मनाः।
ततोअभिसारिका भूत्वाअभिसरन्ती ब्रजेत स्वयम्।।
संकेताच्च परिभ्रष्टा विप्रलब्धा भवेत् पुनः।
पराधीनपतित्वेन नान्यावस्थात्र संगता।।
यही नहीं पद्यवेनी के ही छन्द सं0 161 में उसने नृप वीरभानु के विजयाभियान का अत्यन्त सुन्दर
वर्णन किया है-नृपति ने विशाल सेना के साथ प्रस्थान किया,
रणभेरीनाद, घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों के
चिंघाड़ से भीषण कोलाहल उत्पन्न हुए। ब्रह्ाम्ण्ड-पिण्ड में एक दरार सी पड़ने लगी।
नृप-पराक्रम के ताप से तप्त उड़े हुए सुहागे से मन्दाकिनी, चन्द्रमा
तथा तारकदल रूप धर उसको पुनः पूरित किया। आश्रयदाता की ही प्रशंसा में ऐसा वर्णन
सम्भव है। भानुदत्त की रचनाओं में निजामशाह तथा शेरशाह के भी यशगान मिलते हैं।
परम्परया प्राचीनकाल में कति प्रायः किसी न किसी नृपति ने आश्रय में
काव्य-साधना करते रहे। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल इस तथ्य को सम्पुष्ट करता है।
अस्तु। रीतिकाल के कवि और आचार्य राज्याश्रय अवश्य हुए, तभी
उन्होंने निजामशाह एवं बघेल नृपति वीरभानु के गुण और यश बखाने हैं। अन्तिम
आश्रयदाता कदाचित् वीरभानु रहा। उसकी भेंट कवि से प्रयाग में हुई। वीरभानु का
शासनकाल 1540-1555 ईसवीय सन् रहा। इसका राज्य-विस्तार प्रयाग
तक था। ‘गुलबदन‘ में उल्लेख है कि अरैल
तथा कड़ा का नृपति वीरवहान रहा, यह निश्चय ही वीरभानु का
मुस्लिम नाम है। वीरभानु पराक्रम, उदारता एवं दानशीलता से
अर्जित यश के पश्चात् अन्तिमवय में प्रयागवासी बन गया था। वीरभानूदय काव्य में
उल्लेख है-‘पुत्र रामचन्द्र के लिए राज्यभार त्याग कर विषय,
अभिलाषा आदि से चित्त को निवृत्त कर गंगा-यमुना के तट पर निवास
स्थापित किया‘ (12/27)। वेदरक्षा-अवतार स्वरूप (वीरभानु) ने
पुत्र रामचन्द्र को युवराज-पद पर अभिषिक्त कर अपनी चित्तवृत्तियों को, धर्मपरयण (नृप) ने गंगा-तट ब्रह्ानिष्ठ कर
(विरलभवननिष्ठोब्रह्ानिष्ठापरोअभूत-वीरभानूदय/1-47) लिया।
कवि भानुदत्त ने अपनी काव्य-प्रतिभा को सम्यक् विस्तार प्रयाग में ही
उदारमना नृप वीरभानु का संरक्षण प्राप्त कर लिया। कवि और नृप दोनों ही की
चितवृतियां अन्तिम वय में समानभावी थीं। अन्तिम वय में ही दोनों की भेंट हुई थी।
प्रयागस्थ गंगा-यमुना के प्रति वीरभानु की निष्ठा थी एवं कवि के ह्दय में प्रगाढ़
ललक-समस्त भू-मण्डल के पर्यटन का मेंरा श्रम व्यर्थ रहा, वाद
के लिए विद्या प्राप्त की, अपना ‘स्व’
गंवाकर विभिन्नधराधीशों के आश्रम में पहुंचा, कमलामुखी
सुन्दरियों पर दृष्टि डाली और वियोग दुःख झेला, सब व्यर्थ,
जो प्रयाग में बसकर नारायण की आराधना नहीं की ( रसताडि़णी/5/5)। कवि भानुदत्त की प्रयाग के प्रति आस्था वहां निवसने की ललक का ही
प्रतिफल था जो वह पर्यटन करते यहां पहुचे और नृपति वीरभानु के आश्रयी बने। वह कहते
हैं-सुन्दर भवन त्याग कर निकंुज में रहना सुखकर है, धन-सम्पत्ति
दान की वस्तु है, संग्रह करने के लिए नहीं, तीर्थों के जल का पान कल्याणकर है, कुश की शय्या पर
शयन करना सभी आस्तरणों के शयन से श्रेष्ठतम हैं, चित्त को
धर्ममार्ग में प्रवृत्त करना श्रेयस्कर है तथा सर्वाधिक कल्याणदायक है-गंगा-यमुना
के संगम पर रहकर पुराण-पुरूष का (स्थेयं तत्र सितासितस्य सविधध्येयं पुराणं
महः-रसतंरगिणीः 7221) स्मरण करना। स्पष्ट है, इस कारण भानुदत्त ने प्रयाग में नृप वीरभानु का आश्रय ग्रहण कर अपनी
काव्य-प्रतिभा को निखारा।
रसमज्जरी नायिका-निरूपण के महत्व और प्रमुखता इसलिए है कि रसों में श्रृंगाररस
सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, रसांगों में उसका आलम्बन विभाव और
उसमें नायिका का महत्व। यह रसमंजरी नायिका भेद विषय के निरूपण में सर्वथा नवीन
परम्परा का प्रवर्तक ग्रन्थ है। इससे पूर्व काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने नायिकादि
निरूपण विषय को आधार मान स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। रसमंजरी की रचना के
पश्चात् इस विषय को लेकर संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं
में ग्रन्थ प्रणयन प्रारम्भ हुआ। परिणामतः इस ग्रन्थ और उसमें विवेचित विषय-वस्तु
का स्वतन्त्र महत्व है।
रसमंजरी में भी भानुदत्त ने स्वीया, परकीया, सामान्या-पूर्वाचार्यों द्वारा विवेचित तीन भेदों का उल्लेख कर मुग्धा,
मध्या, प्रगल्भा प्रसिद्ध तीनों भेद स्वीकारा
है। उन्होंने मुग्धा के चार नवीन भेद किया-अज्ञात यौवना, ज्ञात
यौवना, नवोढा और विश्रब्ध नवोढा। यह संज्ञा ग्रन्थकार ने
अकंुरित यौवन, रूप की विशिष्टता के आधार पर दिया है, स्पष्टताः भेद की संज्ञा नहीं दी है। मध्या की एक नूतन व्याख्या ‘समानलज्जामदनेत्यभिहिता‘ एवं ‘अतिविश्रब्धनवोढा‘
दी गयी है। प्रगल्भा के भी दो रूप रतिप्रीतिमती तथा आनन्दसम्मोहिता
बताये गये हैं। मध्या, प्रगल्भा के धीरा आदि उपभेद इस प्रकार
छह, ज्येष्ठा, कनिष्ठा भेद से बारह और
मुग्धा कुल तेरह भेद जो साहित्य दर्पा में चर्चित हैं, वही
इस ग्रन्थ में भी हैं। फिर भानुदत्त ने इन्हें षट्संख्यक् परिगणित किया-गुप्ता,
विदग्धा, वृत्त सुरतगोपना, वर्तिष्यामाण सुरतगोपना। विदग्धा एवं क्रियाविदग्धा दो प्रकार की होती
हैं। अनुशयाना-वर्तमान स्थानविघटनादनुशयाना, भाविस्थानाभाव
शंकया अनुशयना तथा स्वानधिष्ठान संकेतस्थलं प्रति भार्तुर्गमनानुमानादनुशयाना।
अनुशयानाभाव के तीन भेद हुए। परकीया के इन स्वरूपों के निरूपण का कारण निश्चित ही
तत्कालीन समाज में आभिजात्यवर्गीय नगरजनों में विकसित कामशास्त्रानुसारी विलास-लास
प्रियता रही होगी। यदि पर्यवेक्षण किया जाय तो रसमंजरी कर्ता द्वारा वर्णित गुप्ता,
विदग्धा, लक्षिता, कुलटा,
अनुशयाना एवं मुदिता का अन्तर्भाव परकीया के ही अन्तर्गत हो जाता
है।
भानुदत्त ने पूर्वाचार्यों के ही समान सामान्या का एक रूप माना। संकलन
करने पर सोलह प्रकार की, फिर उनके तीन रूप-अन्य सम्भोग
देःखिता, वक्रोक्तिगर्विता (क) प्रेमगर्विता (ख)
सौन्दर्यगर्विता। इस प्रकार 13 (स्वीया) $ 1 (सामान्या) के उत्तम, मध्यम एवं अधम तीन-तीन भेद।
पारिणामतः रसमंजरी में वर्णित नायिकाओं की संख्या 128×3=364
हुई। इतना ही नहीं पुनः दिव्य, अदिव्य तथा दिव्यादिव्य
प्रत्येक के तीन-तीन भेद स्वीकारने पर 364×3=1052 संख्या
होती है।
हजरत सैय्यद अकबर शाह
हुसैनी-श्रृंगारमंजरी
अकबरशाह उपनाम ‘बड़े साहब‘ द्वारा
यह ग्रन्थ तेलुगुभाषा में रचित है। इसका संपादन डाॅ0 राघवन्
ने तथा प्रकाशन 1952 में हैदराबाद राज्य के पुरातत्व विभाग
ने किया। ग्रन्थ के भूमिकाभाग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट किया है-रसमंजरी, आमोदपरिमल (टीका), श्रृंगारतिलक, रसिकप्रिया, रसार्णव, प्रतापरूद्रीय,
सुन्दर श्रृंगार, नवरकाव्य, दशरूपक, विलासरत्नाकर, काव्यपरीक्षा,
काव्य प्रकाश आदि प्राचीन ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन करके
युक्तियुक्त लक्षणों के प्राचीन उदाहरणों के आधार पर नायिका भेदों की कल्पना कर,
जिनके उदाहरण न थे उनके उदाहरणों की रचना कर, जिनके
नाम न थे उनके नामकरण करके, प्राचीन लक्षण ग्रन्थों से ‘उपर्युक्त उदाहरण सम्बन्धित नायिका विवेचन में लिखकर यह रचना की गयी। नवरस
में श्रृंगाररस की प्रमुखता होने के कारण श्रृंगार रसालम्बन विभाव के अनुरूप
नायिका निरूपण किया गया है।
भानुदत्त विरचित रसमंजरी ही श्रृंगारमंजरी का आधार है। यत्र-तत्र
ग्रन्थकार ने नवीन उपभेदों की परिकल्पना अवश्य कर डाली है। यथा-परकीया के दो अन्य
भेद अन्या और परोढ़ा। फिर परोढ़ा दो प्रकार की-उद्बुद्धा (स्वयमनुरागिणी), उद्बोधिता (नायकप्रेरिता)। तब उन्होंने धीरा, अधीरा,
धीराधीरा में तीन भेद उद्बोधिता के ही स्वीकारा है। इसी प्रकार
उद्बुद्धा के तीन रूप बताये हैं-गुप्ता, निपुणा एवं लक्षिता।
निपुणा के तीन भेद-वाड्निपुणा, क्रियानिपुणा, पतिवच्चनिपुणा। प्रथम दो तो ‘वाग्विदग्धा‘ एवं ‘क्रियाविदग्धा’ के ही
दूसरे नामकरण हैं, तीसरा भेद नवीन कल्पना है। लक्षिता दो
प्रकार की-प्रचछन, प्रकाश लक्षिता। ‘प्रकाश-लक्षिता’
के कुलटा, मुदीता, अनुशयना,
साहसिका भेद किये गये हैं। चतुर्थ साहसिका नया भेद है। इस ग्रन्थ
में सामान्या नायिका के पांच सर्वथा नवीन भेद किये गये हैं-स्वतन्त्रता, जनन्यधीना, नियमिता, क्लृप्तानुराग,
कल्पितानुरागा।
इसी प्रकार ‘अन्यसम्भोगदुःखिता‘ और ‘मानवती’ का कथन ‘खण्डिता’ के प्रसंग में आया है। अवस्था के अनुसार
विवेचित अष्ट नायिकाओं में एक नयी ‘वक्रोक्तिगर्विता’
जोड़ी गयी है। स्वाधीपतिका के भेद कथन में युक्तियुक्त अवधारणा की
है। स्वीया-मुग्धा-मध्या प्रग्लभा-परकीया-सामान्या-दूतीवच्चिका एवं भाविशंकिता,
ये श्रंृगारमंजरी में वर्णित आठ प्रकार। प्रोषितपतिका के स्थान पर
अवसित-प्रवासपतिका। विरहोत्कंठिता के दो भेद-कार्यविलम्ब सुरता और अनुत्पन्न
सम्भोगा। फिर ‘अनुत्पन्न सम्भोगा’ के
चार भेद बताये हैं-दर्शनानुतापिता, चित्रानुतापिता।
चित्रानुतापिता, स्वप्नानुतापिता। विप्रलब्धा के दो
भेद-नायकवच्चितात तथा सखीवच्चिता। खंडिता छह प्रकार की धीरा, अधीरा, धीराधीरा, अन्यसम्भोग-दुःखिता
एवं ईष्र्यागर्विता। ये भेदोभपेद ग्रन्थकर ने पूर्ण विस्तार के साथ विवेचित किये
हैं। ऐसा विस्तृत निरूपण अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। इतने से ही ‘बड़े साहब’ ने विराम नहीं लिया। अपितु उन्होंने ‘प्रोषितपतिका‘ तथा ‘कलहान्तरिता’
के भी भेद बताये हैं। यथा-ईष्र्याकलह तथा प्रणयकलह वाली दो प्रकार
की कलहान्तरिता। प्रोषितपतिका-प्रवसयपतिका-प्रवस्यपतिका एवं सख्नुतापिता में
प्रोषितपतिका के भेद किये गये हैं। परकीयाभिसारिका-ज्योत्स्नाभिसारिका, तमोभिसारिका, दिवाभिसारिका, गर्वाभिसारिका,
कामभिसारिका पांच प्रकार की परिगणित की गयी हैं।
अनेकशः नवीन भेदोभेदों की उद्भावना के कारण -श्रृंगारमंजरी नायिका
भेद-निरूपण विषयक ग्रन्थों में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
नायिका भेद निरूपक अन्य ग्रन्थ -
श्रृंगारमृतलहरी,
रसरत्नहार, रसचन्द्रिका, सभ्यालंकरणम् आदि के अतिरिक्त रसिक जीवनम्। इन ग्रन्थों में नयी
उद्भावनाएं नहीं हैं। गौडीय-वैष्णवपम्परा में भी नायिका विवेचन किया गया हैं। कवि
कर्णपूर-विरचित अलंकारकौस्तुभ में नायिका के भेदोपभेद कुल 1108 संख्या तक पहुंचा दिये गये हैं।
नवरमज्जरी
रचयिता नरहरि आचार्य। यह पन्द्रहवीं शती-अन्तिम भाग और सतरहवीं
शती-प्रथमभाग के मध्य उपस्थित रहे। ग्रन्थ छह उल्लासों में निबद्ध है-दूसरे,
तीसरे तथा चैथे उल्लासों में क्रमशः नायक भेद, नायिका भेद एवं नायिका उपभेदों का कथन किया गया है।
श्रृंगारमृतलहरी
रचयिता मथुरानिवासी सामराज दीक्षित। बुन्देलखण्डनृपति आनन्दराय के
सभापण्डित रहे। इससे अतिरिक्त रतिकल्लोलिनी, अक्षरगुम्फ आदि
अन्य ग्रन्थों की भी रचना दीक्षित जी ने की थी। श्रृंगारमृतलहरी समग्रतः
श्रृंगाररस और उसके भेद-सहित नायक भेद, नायक सहाय, नायकोपचारवृत्तियां, नायिका, नायिकावस्था,
नायिकाश्रेणी, दूती, नायिका-अलंकार,
वियोग में नायिका की दस अवस्थाएं तथा उछ्दीपन विभावों की विवेचिका
है। रचना सतरहवीं शताब्दी की है।
रसिक जीवन
रचयिता गदाधरभट्ट। पिता गौरीपति तथा पितामह दामोदर (शंकर) भट्ट। रचनाकाल
सोलहवीं शती का अन्तिम भाग। रस-विवेचक यह ग्रन्थ काव्य-संग्रह रूप निबद्ध है।
इसमें दस प्रबन्ध और लगभग पन्द्रह सौ छन्द हैंै। इसमें चैथे से नवें प्रबन्ध में
क्रमशः नवरस, बालावयव, नायक-नायिका,
श्रृंगाररस, प्रवासादि, ऋतुवर्णन
तथा अन्यरस वर्णित हैं।
श्रंृगारसारिणी
रचयिता मिथिलावासी महामहोपाध्याय आचार्य चित्रधर हैं। रचना-समय अठारहवीं
शती-उत्तरार्ध भाग। इनकी दूसरी रचना ‘वीरतंगिणी’ है। श्रृंगरसारिणी में
1. सभ्यालंकरणम्-गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद से प्रकाशित।
2. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय-लद्यु ग्रन्थमाला। 27 (संवत् 2038) रचयिता-पण्डित रामानन्द त्रिपाठी,
संपादक-श्री कमलापति त्रिपाठी।
श्रृंगाररस-विवेचन ग्रन्थ हैं। यहां
श्रृंगार के विविध पक्षों के संग रति,कामदशा,
मान, नायिका तथा नायिका-अलंकार निवेचित हैं।
रसरत्नहार
रचयिता शिवराम त्रिपाठी। रचना-समय अठारहवीं शताब्दी। यह लघु कलेवरीय
ग्रन्थ है। प्रतिपादित का आधार दशरूपक तथा रसमज्जरी प्रतीत होते हैं। कुल एक सौ दो
छन्द। 18 छन्दों में रस, श्रृंगार,
नायिका-प्रभेद, सखी, दूती,
नायक-प्रभेद, सहायक, विप्रलम्भ,
स्त्री, अलंकार, व्याभिचारी-भाव
और अन्य आठ रस विश्लेषित हैं।
रसकौम्दी
रचनाकार घासीराम पण्डित। रचना-समय
अठारहवीं शती का उत्तर भाग। इनकी दूसरी रचना ‘रमचन्द्र’
है। रसकौमुदी में चार अध्याय हैं। यहां क्रमशः नायिका प्रभेद,
नायसंघ, अनुभावादि एवं नवों रस विवेचित हैं।
श्रृंगारनायिकातिलकम् (रचनाकार रंगाचार्य रंगनाथाचार्य), काव्यकौमुदी (रचयिता हरिराम सिद्धान्त नागीश), रसरत्नावली
(रचनाकार वीरेश्वर पण्डित भट्टाचार्य ‘श्रीवर’ समय-सतरवीं शती-प्रारम्भ) में भी नायक-नायिका के भेद-प्रभेद विचारित हैं।
रसकौस्तुभ
रचनाकार वेणीदत्तशर्मन। सम्भवतः यह अठारहवीं शताब्दी-उत्तरभाग की रचना। दो
अन्य ग्रन्थ-अलंकारमज्जरी तथा विरूदावली। प्रथम रसकौस्तुभ में श्रृंगाररस से
सम्बद्ध सामग्री-समग्र विवेचित है। रस विश्लेषण से अतिरिक्त यहां मान-विरति के
उपाय, कामदशाएं, विभाव, नायिका भेद, सखी, दूतीभेद,
नायिकाभेदादि का विवेचन किया गया है।
साहित्यकार
रचयिता अच्युतरायशर्मन् मोडक। समय उन्नीसवीं शताब्दी। ग्रन्थ की
वस्तुसामग्री बारह अध्यायों में विवेचित है। समुद्र मन्थन में निरस्त रत्नों के
नाम पर अध्यायों को नामित किया गया है। दसवें रम्भारत्न में नायिका-भेद तथा
ग्यारहवें चन्द्ररत्न में नायक-निरूपण और भेद-विवेचना प्रस्तुत की गयी है।
कविदेव-श्रृंगार विलासिनी
कवि देव हिन्दी साहित्य में श्रृंगारकालीन श्रेष्ठ कवि हैं। ग्रन्थ
निर्माण का काल इस प्रकार दिया है-
‘इससे प्रकट है कि उक्त ग्र्रन्थ
देव ने दक्षिण कोंकण देश में जिसे वह विदेश कहते हैं और जो कृष्णावेणी नामक नदी के
संगम पर स्थित है, संवत् 1950 (1700 ई0)
के श्रावण की बहुला नवमी को सूर्योदय के समय पूर्ण किया था। 2×××
ने कवि-भ्रम दूर करने की दृष्टि से अपने प्रचलित नाम देव का प्रयोग
इसमें कर दिया है-‘
अनुकूलो
दक्षस्तथा धृष्टः शठ नर एव।
भवति चतुर्धानायकः संवर्णय कवि देव।।
इतना ही नहीं देव एक हिन्दी ग्रन्थ
है ‘रस विलास‘। इसमें कवि ने रस, उसके
भाव-विभााव और नायिका-भेद विवेचन किया है। कई छन्द अधिकांशतः एक से हैं-
सदैवैक नारी रतः सोअनुकूल इत्येव।
दक्षः सर्ववधूष्वथो, समप्रीतिकर एव।।
इसी प्रकार एक छन्द और देखिए-
तस्य नर्म सचिवः सका तद् भेदकत्रयी।
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