ज्योतिष में वार

     भारतीय ज्योतिष में सूर्योदय से अगले सूर्योदय पर्यन्त काल को वार मानते हैं। ``सूर्योदयात् आरम्भ सूर्योदयपर्यन्तं य: काल: स: वारो ज्ञेय:''। ये सातों वार क्रमश: इस प्रकार हैं
                        रवि: सोमस्तथा भौमो बुधो गीष्पतिरेव च।
                         शुक्र: शनैश्चरश्चैव वारा: सप्त प्रकीर्तिता:।।
     भारत में प्रचलित वार उनके नाम और क्रम भी पूर्णत: ग्रहों की स्थितियों पर आधारित हैं। वारों की उत्पत्ति का इतिहास भी प्राचीन है। भारत में जब राहु एवं केतु ग्रहों को ज्योतिषशास्त्र में सम्मिलित नहीं किया गया था अथवा इन पर विचार भी नहीं किया जाता था तभी से या उससे पूर्व से सात वारों की गणनाएँ होती थीं अन्यथा राहु केतु को ग्रह मानने पर सात के स्थान पर नौ वारों की कल्पना होती तथा सात नहीं नौ वार प्रचलित होते। अत: स्पष्ट है कि वार गणना अति प्राचीन है। प्राचीन भारतीय ज्योतिष ग्रन्थों में ग्रहों की कक्षाओं स्थिति इस प्रकार है
                         मन्दामरेज्याभूपुत्र सूर्यशुव्रेâन्दुजेन्दव:।
                          परिभ्रमन्त्यधोऽधस्था सिद्धा विद्याधराघना:।।
       पृथ्वी से आरम्भ कर पहले चन्द्रमा, पुन: बुध, उसके पश्चात् शुक्र, तत्पश्चात् सूर्य, तदनन्तर मंगल, पुन: गुरु तथा सबसे अन्त में (ऊपर) शनि की कक्षा है। इस क्रम के अनुसार प्रात: सूर्योदय के प्रारम्भ कर एक एक ग्रह की एक-एक होरा (१ होरा = २१/२ घड़ी अर्थात् १ घंटे की होती है) मानी जाती है।
        अहोरात्र के आदि अन्त वर्ण लोप को होरा माना गया है। एक अहोरात्र २४ घंटे में सात ग्रहों की होराओं के तीन चक्कर होकर २१ होरा व्यतीत होती है। पुन: तीन और ग्रहों की होरा बीतने पर २४ होरा अर्थात् १ अहोरात्र पूर्ण हो जाता है। पुन: अगले सूर्योदय के समय चौथे ग्रह की होरा आयेगी और वह वार उसी के नाम पर होगा। उदाहरण के लिये आज यदि रविवार है तो वह सूर्य की होरा से आरम्भ है। तीन चक्कर काटने पर २२वीं होरा पुन: सूर्य की होगी २३वीं शुक्र की २४वीं बुध की होकर अहोरात्र पूर्ण होगा पुन: अगला सूर्योदय चन्द्र (सोम) की होरा में होने से सोमवार का दिन होगा। इसी प्रकार मंगल से आरम्भ कर २२वीं होरा मंगल की, पुन: २३वीं सूर्य की तथा २४वीं शुक्र की होकर एक अहोरात्र समाप्त हो जायेगा। पुन: अगले सूर्योदय में बुध की होरा प्रारम्भ होगी। अत: बुधवार का दिन होगा। इसी क्रम से सातों वार होते हैं।
        सम्पूर्ण विश्व में वारों के नाम सात ही हैं। इनका क्रम भी पूरे विश्व में समान है अत: निश्चित है कि इस सिद्धान्त की उत्पत्ति संसार के किसी अन्य देश में नहीं थी। भारतवर्ष में प्राचीन आचार्य बहुत पहिले ही इस वार उत्पत्ति को जानते थे। सूर्यसिद्धान्त के बारहवें अध्याय के ७८वें श्लोक में कहा गया है
                      मन्दादध: क्रमेण स्युश्चतुर्था दिवसाधिपा:।
                       वर्षाधिपतयस्तद्वत् तृतीयाश्च प्रकीर्तिता:।।
आर्यभटीयम् के कालपाद का १६वाँ श्लोक द्रष्टव्य है
                         सप्तैते होरेशा: शनैश्चराद्या यथाक्रमशीघ्रा:।
                         शीघ्रकपाच्चतुर्धा भवन्ति सूर्योदयादिनपा:।।
वारों की स्थिरादिसंज्ञा: -
                         स्थिर: सूर्यश्चरश्चन्द्रो भौमश्चोग्रोबुध: सम:।
                         लघुर्जीवो मृदु: शुक्र: शनिस्तीक्ष्ण: समीरित:।।
रविवार स्थिर है इसलिये इसमें स्थिर इत्यादि कर्म करना चाहिये, चन्द्रवार चर है, भौमवार उग्र है, बुधवार सम है, बृहस्पतिबार लघु है, शुक्रवार मृदु है तथा शनिवार तीक्ष्ण है। वारों का उपयोग जन्म तथा प्रश्न में भी होता है। जिसके जन्मलग्न में सूर्य हो वह विलम्ब से कार्य करता है। एवं प्रश्नलग्न सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट हो तो विलम्ब से कार्यसिद्धि होती है।

वार की प्रवृत्ति  

     अपने देश का वर्तमान दिनार्ध, जो सर्वदा १५ घड़ी होता है। इन दोनों का अन्तर करने से चरार्ध होता है। यदि सूर्य सायन तुलादि छ: राशियों में हो तो धन संज्ञक होता है। जब सूर्य तुला आदि छ: राशियों में हो तो सूर्योदय से पहिले रात्रिशेष में वारप्रवृत्ति होती है। मेष आदि छ: राशियों में हो तो ऋण होता है। जब सूर्य मेष आदि छ: राशियों में हो तो सूर्योदय के पश्चात् वारप्रवृत्ति होती है। कारण यह है कि मेष आदि छ: राशियों में सूर्य उत्तरगोल में होता है, इसलिए उत्तरांचल में पहिले सूर्योदय होगा, लंका में बाद में। जब सूर्य तुला आदि छ: राशियों में हो तो दक्षिणगोल में होगा। अत: लंका में प्रथम सूर्योदय होगा, उत्तरांचल में पश्चात् । स्वदेशीय सूर्योदय तथा लंका के सूर्योदय में जो अन्तर होता है, उसे वारप्रवृत्ति कहते हैं। सारांश यह है कि लंका विषुवद्रेखा पर है, इसलिए वहाँ सदा रात-दिन बराबर रहते हैं। इसलिए लंका में सूर्योदय सदा ६ बजे प्रात: होता है और वारप्रवृत्ति भी सदा ६ बजे होती है। स्वदेशीय सूर्योदय ६ बजे से जितना आगे-पीछे हो, ६ बजे में उतना अन्तर करने से अपने देश में वारप्रवृत्ति जाननी चाहिये। दिनमान तथा रात्रि के अर्धमान में ५ जोड़ देने से वारप्रवृत्ति होती है। यह गर्ग, लल्ल आदि आचार्यों का वचन है।

होरा एवं ग्रहबल विभिन्न कार्यों में -

      विवाह में बृहस्पति, यात्रा में शुक्र, दीक्षा तथा विद्यारम्भ में बुध, सब कार्यों में चन्द्रमा, युद्ध में मंगल, धन-संग्रह में शनि, राजदर्शन में सूर्य की होरा का विचार करना चाहिये।
       वारप्रवृत्ति का ज्ञान केवल इसी निमित्त है कि वार किस समय से लगता है। शेष सब कार्यों में सूर्योदय से वार का आरम्भ होता है। यदि जनन अथवा मरण का आशौच तथा स्त्रियों का रजोदर्शन रात्रि में हो तो सूर्योदय होने से पहिले पहिला ही दिन ग्रहण करना चाहिये। अथवा रात्रि के तीन भाग करने चाहिये। यदि पहिले दो भागों में किसी का जन्म मृत्यु हो अथवा स्त्री रजस्वला होवे तो पहिला दिन गिनना चाहिये। यदि रात्रि के तीसरे भाग में पूर्वोक्त तीनों बातें हों तो दूसरा गिनना चाहिये। किन्हीं आचार्यों का मत है कि आधी रात के पहिले मृत्यु, रजोदर्शन अथवा जन्म हो तो पहिला दिन लेना चाहिये। यदि आधी रात के बाद हो तो दूसरा दिन लेना चाहिये। इस गिनती में सावन दिन लेना चाहिये अर्थात् एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय पर्यन्त जैसा कि रविवार आदि वार सूर्योदय पर्यन्त लोकों में प्रसिद्ध है। सब कार्यों में अपने देश के सूर्योदय से दिन आरम्भ जानना चाहिये। लंकोदय से वार-प्रवृत्ति जो लिखी है वह केवल कालहोरा जानने के निमित्त है।।
       दिन का आरम्भ किस समय से माना जाये इस विषय में तीन मत हैं— (१) औदयिकी शाखा जो सूर्योदय से सूर्योदय पर्यन्त एक अहोरात्र मानते हैं। आजकल यही मत भारतवर्ष में प्रचलित है। (२) अर्धरात्रप्रधाना अथवा जो अर्धरात्र से अर्धरात्र तक एक अहोरात्र मानते हैं। यूरोप देश में आजकल यही शाखा प्रचलित है। भारतवर्ष में भी रेल, तारघर आदि विभागों में इसी के अनुसार गिनती होती है। माध्यन्दिनी शाखा के लोग मध्याह्न से मध्याह्न तक एक अहोरात्र मानते हैं। आजकल इस शाखा का प्रचार प्राय: कहीं नहीं है।

वारवेला

               तुर्येऽर्के सप्तमे चन्द्रे द्वितीये भूमिनन्दने। चन्द्रपुत्रे पञ्चमे च देवाचार्ये तथाष्टमे।।
               दैत्यपूज्ये तृतीये च शनौ षष्ठे च निन्दितम् । प्रहरार्धं शुभे कार्ये वारवेलेति कथ्यते।।

रात-दिन मिलकर आठ पहर होते हैं। रात में चार पहर होते हैं और दिन में चार पहर होते हैं। प्राय: ८ घड़ी का एक प्रहर होता है। एक पहर के आधे को यामार्ध कहते हैं। यह प्राय: ४ घड़ी का होता है। दिनमान घटने-बढ़ने से इसमें भी अन्तर पड़ेगा। दिन के आठ भाग करने चाहिए अर्थात् दिन में आठ यामार्ध होंगे। रविवार को चतुर्थ, सोमवार को सप्तम, मंगल को दूसरा, बुध को पांचवां, बृहस्पति को आठवां, शुक्र को तीसरा, शनि को छठा यामार्ध वारवेला होती है। इसमें कोई शुभ काम नहीं करना चाहिए। प्रत्येक बार में पूर्वोक्त बेला राहु की होती है, अत: वर्जित है।।
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