व्यास महोत्सव की स्मृति: एक अवरुद्ध चेतना का शोकगीत

लेखक: (जगदानन्द झा)

संस्कृत जैसे प्राचीन, गौरवशाली और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भाषा के संदर्भ में यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि इसके साधक, अध्येता और उपासक अपने सामूहिक प्रयासों द्वारा समाज में इसकी उपस्थिति को न केवल बनाए रखते, बल्कि निरंतर उसे सशक्त बनाते। किंतु व्यावहारिक यथार्थ कुछ और ही चित्र खींचता है।

वर्ष 2008 से 2012 के मध्य, वाराणसी जैसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक नगर में एक अभिनव प्रयास हुआ — "व्यास महोत्सव"। यह महोत्सव न केवल व्यास ऋषि की परंपरा को लोक-स्मृति में बनाए रखने का एक प्रयास था, बल्कि संस्कृत चेतना के सार्वजनिक अभिव्यक्ति का एक मंच भी था। दुर्भाग्यवश, यह उत्सव कुछ वर्षों के आयोजन के पश्चात मौन, मन्द और अंततः लुप्त हो गया।

आयोजन का आरंभ: एक सत्प्रेरणा से उपजा यज्ञ

व्यास महोत्सव का उद्देश्य मात्र एक सांस्कृतिक कार्यक्रम भर नहीं था। यह एक वैचारिक आंदोलन, एक गंभीर सामाजिक पहल और एक संस्कृत पुनर्जागरण का आह्वान था। इसके प्रारंभिक वर्षों में वाराणसी से तीनों विश्वविद्यालयों तथा नागरी नाटक मंडली में आयोजित हुआ। मैंने अस्सी घाट सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा सर्ववेद शाखा स्वाध्याय का कार्यक्रम आरंभ कराया। जहाँ पर ऋषि व्यास के गीतों की गूंज, संस्कृत कवियों के कंठस्वर, वक्ताओं के विचार, रंग-बिरंगे पंपलेट्स, और सजीव वातावरण ने वाराणसी के साहित्यिक-धार्मिक परिवेश को एक नई ऊर्जा प्रदान की।

स्थानीय समाचार पत्रों हिन्दुस्तान, आज, जनसंदेश टाइम्स, अमर उजाला, दैनिक जागरण में इसके समाचार प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। "संस्कृत पुनर्जागरण की नई लहर", "वाराणसी में गूंजे व्यास के स्वर", "अस्सी घाट बना संस्कृत सर्जना का मंच" जैसे शीर्षकों से समाचारों की कतरनें आज भी मेरी स्मृति और फोल्डरों में सुरक्षित हैं।

स्व-प्रेरणा से सृजन, किंतु समाज की उदासीनता

इस आयोजन को खड़ा करने में जो समय, श्रम, मानसिक निवेश और सामाजिक प्रयास लगे, वे अभूतपूर्व थे। घंटों डिज़ाइनरों के पास बैठकर पंपलेट तैयार कराना, बैकड्रॉप डिज़ाइन, स्मारिका प्रकाशन, सोशल मीडिया पर प्रचार और वाराणसी की गलियों में पैदल चलकर लोगों को आमंत्रित करना ये सब स्मृतियों में आज भी जीवित हैं।

किन्तु, जब आयोजन धीरे-धीरे एक सुनिश्चित संरचना में आ गया, स्वयं चलायमान होने की क्षमता अर्जित कर ली तब यह बंद हो गया। यह ऐसे समय हुआ जब इसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी।

क्या संस्कृत समाज कभी आत्मप्रेरित होगा?

दुख इस बात का नहीं है कि आयोजन बंद हो गया, पीड़ा इस बात की है कि किसी को इसके बंद होने की पीड़ा भी नहीं हुई। न सोशल मीडिया पर कोई चर्चा, न किसी मंच से शोकाभिव्यक्ति, न पुनः आयोजन का कोई संकल्प। संस्कृत से जुड़े लोगों में वह संघर्षशीलता, दृढ़संकल्प, और सामूहिक स्मृति दुर्लभ होती जा रही है।

आज भी हम देख रहे हैं कि संस्कृतजन प्रायः सरकारी मंचों के निमंत्रण पर 'बरातियों' की तरह सम्मिलित होते हैं किन्तु अपने लिए कोई विवाह-मंडपखड़ा करने का संकल्प नहीं लेते।

कालिदास समारोह हो या व्यास महोत्सव, सब आयोजन धीरे-धीरे रस्म अदायगी बनते जा रहे हैं। आवश्यकता है आत्मानुशासन और सामूहिक चेतना की

यदि संस्कृत से जुड़े लोगों में अपने कुनबे को बढ़ाने की छटपटाहट नहीं होगी, तो संस्कृत की सामाजिक प्रासंगिकता मात्र पठन-पाठन तक ही सीमित रह जाएगी। संस्कृत कार्यक्रमों को यदि उत्सवों का स्वरूप देना है तो उसके लिए स्वतंत्रता, प्रतिबद्धता और टीम भावना अत्यंत आवश्यक है।

आज भी यदि कुछ संस्कृत प्रेमी एक छोटी समिति बनाकर अस्सी घाट पर व्यास को स्मरण करें, उनके गीत गाएं, तो न केवल उनकी स्मृति अक्षुण्ण बनी रहेगी, अपितु नये संस्कृत साधकों के लिए यह प्रेरणा का स्रोत बन सकता है।

जो खो गया वह केवल उत्सव नहीं, एक चेतना थी

यदि मुझे पूर्व में ज्ञात होता कि एक दिन यह आयोजन इस प्रकार अवरुद्ध हो जाएगा, तो शायद मैं अपनी ऊर्जा, समय और मन की ऐसी आहुति न देता। परंतु फिर भी मैं इसे व्यर्थ नहीं मानता। क्योंकि संस्कृत की सेवा, व्यास की स्मृति और उस कालखंड की ऊर्जा मेरे लिए आज भी एक अमूल्य निधि है।

आज भी मेरे पास व्यास महोत्सव की पांडुलिपियाँ, डिज़ाइन, पंपलेट और स्मारिकाएँ सुरक्षित हैं। वे मुझे हर बार याद दिलाती हैं — "यह केवल एक आयोजन नहीं था, यह एक यज्ञ था; और जब तक संस्कृत जीवित है, यह यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ है।"
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