कुछेक अपवाद करे
छोड़कर मुझे ज्ञात नहीं है के संस्कृत से जुड़े लोग अपने भाषाई गौरव के प्रतीक के
रुप में कोई सामुहिक आयोजन करते हों। वाराणसी में व्यास महोत्सव का आयोजन संस्कृत
जगत् के लोगों से जुड़ाव स्थापित नहीं कर सका, न
हीं उन्हें उसके आयोजन से आत्मगौरवानुभूति
हुई। यही कारण है कि देश में संस्कृत से जुड़े कालिदास समारोह हो या व्यास महोत्सव
या कोई अन्य। वर्षों से इसमें अनियमितता देखी जा रही है।
संस्कृत जगत् अभी ऐसा कोई उदाहरण प्रस्तुत
नहीं सका, जिससे ज्ञात हो सके कि संस्कृतज्ञ अपनी अमिट छाप
और पहचान समाज में स्थापित करने हेतु संर्घषरत है। यही हमेशा देखने को मिलता है कि
दूसरे के निमंत्रण (सरकारी) पर उसके बारात में सम्मिलित हो जाया जाय।
यदि संस्कृत से जुड़े लोगों के चेतना व्यास
के प्रति जागरुक होता तो निश्चय ही एक छोटा सा समूह बनाकर ही सही अस्सी घाट पर
व्यास के गीत गाते दिख जाते परन्तु ऐसा नहीं हो सका।
संस्कृत अध्येताओं में जब तक अपने कुनबे को
बढ़ाने की छटपटाहट और तत्परता नहीं देखी जायेंगी महोत्सव का आयोजन सिर्फ
खानापूर्ति ही रहेगा। जरुरत इस बात की है कि संस्कृत समूह की अन्तः प्रेरणा से
संस्कृत से जुड़े कार्यक्रम स्वयं के पहल पर करायें जायें। तभी इसकी सार्थकता है।
व्यास महोत्सव न होने की पीड़ा सोशल मिडिया पर भी नहीं दिखी।
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