ज्योतिष में तिथि

ज्योतिषशास्त्र में पञ्चाङ्ग शब्द से पांच अङ्गों का बोध होता है। ये पांच अङ्ग हैं तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। जैसा कि कहा भी गया है
                 तिथिवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च।
                यत्रैतत् पञ्चकं स्पष्टं पञ्चाङ्गं तदुदीरितम् ।।

 तिथि -

       चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना जाता है। भ चक्र (राशि चक्र) में ३६० अंश होते हैं तथा तिथियों की संख्या ३० है। अत: ३६०/३०=१२अंश की एक तिथि होती है। तिथि का मान चन्द्रमा एवं सूर्य के अंशों में अन्तर करने पर आता है। चन्द्रांश-सूर्यांश १२० = तिथि। जैसे कर्कान्त का चन्द्रमा हो तथा तुलान्त का सूर्य। कर्कान्त के चन्द्रमा का अंश = १२० तुलान्त सूर्य का अंश = २१०। इसमें अन्तर किया २१०-१२० = ९०। इसमें १२ का भाग दिया। वार ७ तथा शेष ६ = ७१/२ अर्थात् अष्टमी तिथि आयी। चन्द्रमा एक दिन में १३ अंश अपने परिक्रमण पथ पर आगे बढ़ता है तथा सूर्य एक दिन में १ अंश चलता है जिससे सूर्य से चन्द्रमा १३-१ = १२ अंश की दूरी बन जाती है। यह सूर्य एवं चन्द्रमा की गति का अन्तर है और यही तिथि है । चन्द्रमा की अनियमित गति के कारण कभी-कभी इतना अन्तर हो जाता है कि एक ही बार में तीन तिथियों का स्पर्श हो जाता है। तब मध्य वाली तिथि को क्षय तिथि कहा जाता है। इसी प्रकार असन्तुलित गति के कारण जब एक ही तिथि में तीन वारों का स्पर्श हो जाय तो उसे वृद्धि तिथि के नाम से जाना जाता है।
           एक चन्द्रमास में दो पक्ष शुक्ल एवं कृष्ण होते हैं। शुक्ल पक्ष जिसे सुदी भी कहते हैं, संक्षिप्त नाम शुदी है तथा कृष्णपक्ष जिसे वदी भी कहते हैं, संक्षिप्त नाम वदी है) शुक्ल पक्ष के अन्तिम १५वीं तिथि को पूर्णिमा अथवा पूर्णमासी कहते हैं। यहाँ मासी का अर्थ मास न होकर चन्द्रमा हैं। अत: चन्द्रमा के पूर्ण होने से पूर्णमासी कहा जाता है। तथा कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि ३० के नाम से जानी जाती है तथा अमावस्या तिथि कहलाती है। अमावस्या को सूर्य एवं चन्द्रमा की युति होती है। चन्द्रमा की सोलहवीं कला अमावस्या है। यहीं चन्द्रमा की यात्रा का अन्तिम पड़ाव है। पुन: चन्द्रमा सूर्य से १२ अंश की दूरी पर जब चला जाता है तब शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा हो जाती है। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि १६वीं तिथि है तथा पंचमी बीसवीं एवं अमावस्या तीसवीं तिथि हैं। तिथियां सूर्योदय से सूर्योदय तक न चलकर एक निश्चित समय से दूसरे दिन एक निश्चित समय तक रहती हैं। प्रत्येक तिथि की अवधि समान नहीं होती। तिथि की वृद्धि अथवा क्षय होना स्थान विशेष के सूर्योदय के आधार पर होता है। अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है१-सिनीवाली तथा २-कुहू। सिनीवाली तिथि उसे कहते हैं जो चतुर्दशी तिथि से विद्ध अमावस्या हो अर्थात् चतुर्दशी तिथि सूर्योदय काल के पश्चात् हो पुन: अमावस्या आ जाय तो सिनीवाली अमावस्या होती है तथा अमावस्या तिथि प्रतिपदा से युक्त हो जाय अर्थात् सूर्योदय काल के बाद अमावस्या तिथि हो उसमें प्रतिपदा तिथि आ जाय तो इसे कुहू अमावस्या के नाम से जाना जाता है। नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता तथा पूर्णा ये ५ तिथियों की संज्ञा हैं। यथा नन्दा तिथि प्रतिपदा, षष्ठी एवं एकादशी, भद्रा तिथि द्वितीया, सप्तमी एवं द्वादशी, जया तिथि तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी, रिक्ता तिथि चतुर्थी, नवमी तथा चतुर्दशी तिथि, इसी प्रकार पूर्णा तिथि पंचमी, दशमी एवं अमावस्या हैं।
तिथियों के स्वामी देवता होते हैं। यथा प्रतिपदा का स्वामी अग्नि, द्वितीया का ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी के गणेश, पंचमी के शेषनाग, षष्ठी के र्काितकेय, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के शिव, नवमी की दुर्गा, दशमी के काल, एकादशी के विश्वेदेव, द्वादशी के विष्णु, त्रयोदशी के काम, चतुर्दशी के शिव, पूर्णिमा के चन्द्रमा तथा अमावस्या के स्वामी पितर होते हैं। मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार तिथियों के स्वामी इस प्रकार हैं
                 तिथीशा वह्निकौ गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रवि:।
                 शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरि: काम: शिव: शशी।। (मूहूर्तचिन्तामणि १।३)
सिद्ध तिथियाँ - मंगलवार को ३।८।१३, बुधवार को २।७।१२, गुरुवार को ५।१०।१५ शुक्रवार को१।६।११ तथा शनिवार को ४।९।१४ तिथियाँ सिद्धि देने वाली कही गयी हैं।

तिथियों का वृद्धि एवं क्षय

बाणवृद्धि रसक्षय:।।
यदि एक बार में तीन तिथियाँ स्पर्श करें तो अवम तिथि होती है। यदि एक तिथि तीन वारों को स्पर्श करे तो वृद्धिगत तिथि होती है। ये दोनों तिथियाँ अतिनिन्दित हैं। इनमें जो कुछ मंगल कार्य किया जाता है, वह अग्नि में र्इंधन के समान भस्म हो जाता है। बहुधा पाँच-पाँच घड़ी के हिसाब से तिथियाँ बढ़ती हैं, छ:-छ: घड़ी के हिसाब से घटती हैं।
तारीख तथा वार २४ घण्टे के होते हैं, परन्तु तिथि सदा २४ घण्टे की नहीं होती है। तिथि में वृद्धि-क्षय होते हैं। कभी-कभी एक तिथि दो दिन हो जाती है, जिसे तिथि की वृद्धि कहते हैं। कभी एक तिथि का लोप हो जाता है, जिसे अवम तिथि कहते हैं। यही दशा नक्षत्र तथा विष्कुम्भादि योगों की भी है। इसका कारण यह है कि तारीख तथा वार सौरमान से होते हैं, जिनमें २४ घण्टे का दिन होता है, परन्तु तिथि, नक्षत्र  तथा विष्कुम्भादि योग चान्द्रमान से होते हैं। चान्द्रदिन २४ घण्टा, ५४ मिनट का होता है। सौरदिन तथा चान्द्रदिन में ५४ मिनट अथवा प्राय: २१/२ घड़ी का अन्तर होता है। चान्द्रमास २९१/२ दिन का होता है तथा चान्द्रवर्ष ३५४ दिन का होता है। यही कारण है कि तिथि, नक्षत्र तथा विष्कुम्भादि योग घट-बढ़ जाते हैं।
सामान्यत: तिथिनिर्णय:
              कर्मणो यस्य य: कालस्तत्कालव्यापिनी तिथि:।
             तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम् ।।
             यां तिथि समनुप्राप्य उदयं याति भास्कर:।
               सा तिथि: सकला ज्ञेया दानाध्ययनकर्मसु।।
              दैवे पूर्वाह्णिकी ग्राह्या श्राद्धे कुतुपरोहिणी।
              नक्तव्रतेषु सर्वत्र प्रदोषव्यापिनी तिथि:।।
जिस कर्म का जो काल हो, उस काल में व्याप्त तिथि जब हो, तब कर्म करना चाहिये। तिथि के क्षय-वृद्धि से कोई मतलब नहीं। सूर्योदय से मध्याह्न तक जो तिथि न हो, वह खण्डित है। उसमें व्रतों का आरम्भ अथवा समाप्ति नहीं होती है। एकादशी व्रत के लिए सूर्योदयव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये, यदि दो दिन उदयव्यापिनी हो तो दूसरे दिन व्रत करना चाहिये, यदि दोनों दिन उदय काल में न हो तो पूर्व दिन व्रत करना चाहिये। जिस तिथि में सूर्योदय हो, उस तिथि को दान, अध्ययन तथा पूजाकर्म में पूर्ण मानना चाहिये। दैवकर्म में पूर्वाह्णव्यापिनी, श्राद्ध में कुतुपकाल (८वाँ मुहूर्त) व्यापिनी तिथि लेनी चाहिये। नक्त (रात्रि) व्रतों में प्रदोषव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये।
तिथियों की नन्दादि संज्ञा-
नन्दा च भद्रा च जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्योऽशुभमध्यशस्ता:।
सितेऽसिते शस्तसमाधमा: स्यु: सितज्ञभौर्मािकगुरौ च सिद्धा:।।
सिद्धा तिथिर्हन्ति समस्तदोषान् ।।
संज्ञा                  तिथि                 सिद्धातिथि
नन्दा     १          ६          ११       शुक्रवार
भद्रा      २          ७          १२       बुधवार
जया      ३          ८          १३       मंगलवार
रिक्ता    ४          ९          १४       शनिवार
पूर्णा      ५          १०       १५ (३०)           बृहस्पतिवार
फलसिद्धातिथि सब दोषों का नाश करती है तथा सब कार्यों में सिद्धि को देती है।
तिथियों का फल -
           प्रतिपत्सिद्धिदा प्रोक्ता द्वितीया कार्यसाधिनी। तृतीयारोग्यदात्री च हानिदा च चर्तुिथका।।
           शुभा तु पञ्चमी ज्ञेया षष्ठिका त्वशुभा मता। सप्तमी तु शुभाज्ञेया अष्टमी व्याधिनाशिनी।।
           मृत्युदात्री तु नवमी द्रव्यदा दशमी तथा। एकादशी तु शुभदा द्वादशी सर्वसिद्धिदा।।
           त्रयोदशी सर्वसिद्धा ज्ञेया चोग्रा चतुर्दशी। पुष्टिदा पूर्णिमा ज्ञेया त्वमावास्याऽशुभा मता।।
प्रतिपदा सिद्धि देने वाली है, द्वितीया कार्यसाधन करने वाली है, तृतीया आरोग्य देने वाली है, चतुर्थी हानिकारक है, पञ्चमी शुभ देने वाली है, षष्ठी अशुभ है, सप्तमी शुभ है, अष्टमी व्याधि नाश करती है, नवमी मृत्यु देने वाली है, दशमी द्रव्य देने वाली है, एकादशी शुभ है, द्वादशी-त्रयोदशी सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है, चतुर्दशी उग्र है, पौर्णमासी पुष्टि देने वाली है तथा अमावास्या अशुभ है।
तिथियों में करणीय कर्म -
          नन्दासु चित्रोत्सववास्तुतन्त्रक्षेत्रादि कुर्वीत तथैव नृत्यम् ।
         विवाहभूषाशकटाध्वयाने भद्रासु कार्याण्यपि पौष्टिकानि।।
         जयासु सङ्ग्रामबलोपयोगि कार्याणि सिद्ध्यन्त्यपि र्नििमतानि।
         रिक्तासु विद्वद्वधघातसिद्धिविषादिशस्त्रादि च यान्ति सिद्धिम् ।।
        पूर्णासु माङ्गल्यविवाहयात्रा सुपौष्टिकं शान्तिककर्म कार्यम् ।
        सदैव दर्शे पितृकर्म युक्तं नान्यद्विदध्याच्छुभमङ्गलानि।।
नन्दातिथियों में चित्र कर्म उत्सव के कर्म, मकान बनाना, तन्त्रशास्त्र के काम (जड़ी, बूटी, ताबीज आदि), क्षेत्र तथा गीतवाद्यनृत्य कर्म करने चाहिए। भद्रा तिथियों में विवाह, आभूषण, गाड़ी की सवारी, यात्रा तथा पौष्टिक कर्म करने चाहिए। जया तिथियों में संग्राम तथा संग्राम सम्बन्धी कर्म करने चाहिये। रिक्ता तिथियों में पण्डितों की वाणी को शास्त्रार्थ में स्तम्भित करना, घातकर्म, विषप्रयोग, शस्त्रकर्म इत्यादि सिद्ध होते हैं। पूर्णा तिथियों में मंगल के कर्म, विवाह, यात्रा, शान्तिक तथा पौष्टिक कर्म सिद्ध होते हैं। अमावास्या के दिन केवल पितृकर्म करने चाहिये, शुभ मंगल कार्यों को नहीं।
पक्षरन्ध्र तिथियां - 
         चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा। षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षरन्ध्राह्वया इमा।।
         विवाहे विधवा नारी व्रात्य: स्याच्चोपनायने। सीमन्ते गर्भनाश: स्यात्प्राशने मरणं ध्रुवम् ।।
          अग्निना दह्यते क्षिप्रं गृहारम्भे विशेषत:। राजराष्ट्रविनाश: स्यात्प्रतिष्ठायां विशेषत:।।
           किमत्र बहुनोत्तेâन कृतं कर्म विनश्यति।।
चतुर्दशी, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, षष्ठी तथा द्वादशी तिथियों को पक्षरन्ध्र तिथि कहते हैं। इन तिथियों में विवाह करने से स्त्री विधवा हो जाती है, उपनयन करने से वटु व्रात्य अर्थात् संस्कारहीन हो जाता है। सीमन्त करने से गर्भ का नाश होता है, अन्नप्राशन करने से मरण होता है, गृहारम्भ करने से घर में आग लग जाती है, मन्दिर की प्रतिष्ठा करने से राजा तथा प्रजा का नाश होता है। बहुत कहने की आवश्यकता नहीं, इन तिथियों में जो कुछ कर्म किया जाता है उसका नाश होता है।
वर्जित घटी -
          एतासु वसुनन्देन्द्रतत्त्वदिक्शरसम्मिता:।
          हेया: स्युरादिमानाड्य: क्रमाच्छेषास्तु शोभना:।।
आवश्यकता पड़ने पर चतुर्थी को आरम्भ की ८, षष्ठी को ९, अष्टमी को १४, नवमी को २५, द्वादशी को १०, चतुर्दशी को ५ घड़ियाँ छोड़ देनी चाहिये, शेष घड़ियाँ शुभ हैं।
दग्धतिथियां -
दग्धा तिथि दोनों पक्षों की            २          ४          ६          ८          १०       १२
                                             ९          २          ४          ६          ८          १०
इन राशियों में सूर्य हो तो             १२       ११       १          ३          ८          ७
मासदग्ध तिथियों में किया हुआ मङ्गलकार्य ग्रीष्मऋतु में छोटी नदियों के समान नष्ट हो जाता है। कश्यप का वाक्य है कि केवल मध्यदेश में यह दोष वर्जित है।
दग्धविषहुताशनयोग
         सूर्येशपञ्चाग्निरसाष्टनन्दा वेदाङ्गसप्ताश्विगजाज्र्शैला:।
         सूर्याङ्गसप्तोरगतो दिगीशा दग्धा विषाख्याश्च हुताशनाश्च।।
रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, भौम को पञ्चमी, बुध को तृतीया, बृहस्पति को षष्ठी, शुक्र को अष्टमी तथा शनि को नवमी, ये दग्ध योग होते हैं। रविवार को चतुर्थी, सोमवार को षष्ठी, मङ्गल को सप्तमी, बुध को द्वितीया, बृहस्पति को अष्टमी, शुक्र को नवमी तथा शनि को सप्तमी ये विषयोग होते हैं। रविवार को द्वादशी, सोमवार को षष्ठी, मङ्गल को सप्तमी, बुध को अष्टमी, बृहस्पति को नवमी, शुक्र को दशमी तथा शनि को एकादशी ये हुताशन योग हैं। इन योगों का फल नामसदृश है तथा शुभ कार्यों में ये योग वर्जित है।
सू०       चं०       मं०       बु०       बृ०       शु०       श०       योग
२          ११       ५          ३          ६          ८          ९          दग्ध
४          ६          ७          २          ८          ९          ७          विष
१२       ६          ७          ८          ९          १०       ११       हुताशन
मासशून्य तिथियां -
        भाद्रे चन्द्रदृशौ नभस्यनलनेत्रे माधवे द्वादशी
         पौषे वेदशरा इषे दशशिवा मार्गेऽद्रिनागामधौ।
        गोऽष्टौ चोभयपक्षगाश्च तिथय: शून्या बुधै: र्कीितता:
      ऊर्जाषाढतपस्यशुक्रतपसां कृष्णे शराङ्गाब्धय:।।
       शक्रा: पञ्च सिते शक्राद्यग्निविश्वरसा: क्रमात् ।
        तिथयो मासशून्याख्या वंशवित्तविनाशदा:।। मुहूर्तचिन्तामणि, शुभाशुभ प्रकरण, १०
भाद्रपद में प्रतिपदा, द्वितीया, श्रावण में तृतीया, द्वितीया, वैशाख में द्वादशी, पौष में चतुर्थी, पञ्चमी, आश्विन में दशमी, एकादशी, मार्गशीर्ष में सप्तमी, अष्टमी, चैत्र में नवमी अष्टमी, दोनों पक्षों की, र्काितक शुक्ल में चतुर्दशी, आषाढ़ शुक्ल में सप्तमी, फाल्गुन शुक्ल में तृतीया, ज्येष्ठ शुक्ल में षष्ठी, ये मासशून्य तिथियाँ हैं। मासशून्य तिथियों में मङ्गलकार्य करने से वंश तथा धन का नाश होता है।
ग्रहों की जन्मतिथि -
         सप्तम्यां भास्करो जातश्चतुर्दश्यां निशाकर:।
         दशम्यां मङ्गलो जातो द्वादश्यां तु बुधस्तथा।।
         एकादश्यां गुरुर्जातो नवम्यां भार्गवस्तथा।
        अष्टम्यांतु शनिर्जात: पूर्णिमायां तमस्तथा।।
        दर्शे जातस्तथा केतुस्त्याज्या जन्मतिथि: शुभे।।
सप्तमी सूर्य की, चतुर्दशी चन्द्रमा की, दशमी मङ्गल की, द्वादशी बुध की, एकादशी बृहस्पति की, नवमी शुक्र की, अष्टमी शनि की, पूर्णिमा राहु की तथा अमावास्या केतु की जन्मतिथियाँ हैं, इन्हें शुभ कार्य में वर्जित करनी चाहिये।
Share:

3 टिप्‍पणियां:

  1. सिनी वाली और कुहू का क्या अर्थ है तिथि में

    जवाब देंहटाएं
  2. अप्रतिम जानकारी इस जानकारी का प्रयोग शेयर बाजार मे करने से निश्चित लाभ होता है ये सा मेरे अभ्यास मे पाया और पारहा हू ।धन्यवाद गुरुदेव प्रणाम ।

    जवाब देंहटाएं

अनुवाद सुविधा

ब्लॉग की सामग्री यहाँ खोजें।

लोकप्रिय पोस्ट

जगदानन्द झा. Blogger द्वारा संचालित.

मास्तु प्रतिलिपिः

इस ब्लॉग के बारे में

संस्कृतभाषी ब्लॉग में मुख्यतः मेरा
वैचारिक लेख, कर्मकाण्ड,ज्योतिष, आयुर्वेद, विधि, विद्वानों की जीवनी, 15 हजार संस्कृत पुस्तकों, 4 हजार पाण्डुलिपियों के नाम, उ.प्र. के संस्कृत विद्यालयों, महाविद्यालयों आदि के नाम व पता, संस्कृत गीत
आदि विषयों पर सामग्री उपलब्ध हैं। आप लेवल में जाकर इच्छित विषय का चयन करें। ब्लॉग की सामग्री खोजने के लिए खोज सुविधा का उपयोग करें

समर्थक एवं मित्र

सर्वाधिकार सुरक्षित

विषय श्रेणियाँ

ब्लॉग आर्काइव

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 1

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 2

संस्कृतसर्जना वर्ष 1 अंक 3

Sanskritsarjana वर्ष 2 अंक-1

Recent Posts

लेखानुक्रमणी

लेख सूचक पर क्लिक कर सामग्री खोजें

अभिनवगुप्त (1) अलंकार (3) आधुनिक संस्कृत गीत (14) आधुनिक संस्कृत साहित्य (5) उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (1) उत्तराखंड (1) ऋग्वेद (1) ऋषिका (1) कणाद (1) करवा चौथ (1) कर्मकाण्ड (47) कहानी (1) कामशास्त्र (1) कारक (1) काल (2) काव्य (16) काव्यशास्त्र (27) काव्यशास्त्रकार (1) कुमाऊँ (1) कूर्मांचल (1) कृदन्त (3) कोजगरा (1) कोश (12) गंगा (1) गया (1) गाय (1) गीति काव्य (1) गृह कीट (1) गोविन्दराज (1) ग्रह (1) छन्द (6) छात्रवृत्ति (1) जगत् (1) जगदानन्द झा (3) जगन्नाथ (1) जीवनी (6) ज्योतिष (20) तकनीकि शिक्षा (21) तद्धित (10) तिङन्त (11) तिथि (1) तीर्थ (3) दर्शन (19) धन्वन्तरि (1) धर्म (1) धर्मशास्त्र (14) नक्षत्र (2) नाटक (4) नाट्यशास्त्र (2) नायिका (2) नीति (3) पतञ्जलि (3) पत्रकारिता (4) पत्रिका (6) पराङ्कुशाचार्य (2) पर्व (2) पाण्डुलिपि (2) पालि (3) पुरस्कार (13) पुराण (3) पुस्तक (1) पुस्तक संदर्शिका (1) पुस्तक सूची (14) पुस्तकालय (5) पूजा (1) प्रत्यभिज्ञा शास्त्र (1) प्रशस्तपाद (1) प्रहसन (1) प्रौद्योगिकी (1) बिल्हण (1) बौद्ध (6) बौद्ध दर्शन (2) ब्रह्मसूत्र (1) भरत (1) भर्तृहरि (2) भामह (1) भाषा (1) भाष्य (1) भोज प्रबन्ध (1) मगध (3) मनु (1) मनोरोग (1) महाविद्यालय (1) महोत्सव (2) मुहूर्त (1) योग (5) योग दिवस (2) रचनाकार (3) रस (1) रामसेतु (1) रामानुजाचार्य (4) रामायण (3) रोजगार (2) रोमशा (1) लघुसिद्धान्तकौमुदी (45) लिपि (1) वर्गीकरण (1) वल्लभ (1) वाल्मीकि (1) विद्यालय (1) विधि (1) विश्वनाथ (1) विश्वविद्यालय (1) वृष्टि (1) वेद (6) वैचारिक निबन्ध (26) वैशेषिक (1) व्याकरण (46) व्यास (2) व्रत (2) शंकाराचार्य (2) शरद् (1) शैव दर्शन (2) संख्या (1) संचार (1) संस्कार (19) संस्कृत (15) संस्कृत आयोग (1) संस्कृत कथा (11) संस्कृत गीतम्‌ (50) संस्कृत पत्रकारिता (2) संस्कृत प्रचार (1) संस्कृत लेखक (1) संस्कृत वाचन (1) संस्कृत विद्यालय (3) संस्कृत शिक्षा (6) संस्कृत सामान्य ज्ञान (1) संस्कृतसर्जना (5) सन्धि (3) समास (6) सम्मान (1) सामुद्रिक शास्त्र (1) साहित्य (7) साहित्यदर्पण (1) सुबन्त (6) सुभाषित (3) सूक्त (3) सूक्ति (1) सूचना (1) सोलर सिस्टम (1) सोशल मीडिया (2) स्तुति (2) स्तोत्र (11) स्मृति (12) स्वामि रङ्गरामानुजाचार्य (2) हास्य (1) हास्य काव्य (2) हुलासगंज (2) Devnagari script (2) Dharma (1) epic (1) jagdanand jha (1) JRF in Sanskrit (Code- 25) (3) Library (1) magazine (1) Mahabharata (1) Manuscriptology (2) Pustak Sangdarshika (1) Sanskrit (2) Sanskrit language (1) sanskrit saptaha (1) sanskritsarjana (3) sex (1) Student Contest (2) UGC NET/ JRF (4)