आजकल हम अपने घरों, कार्यालयों,वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में कम्प्यूटर के माध्यम से अनेक तरह के कार्य करते हैं। विद्यालयों में प्रवेश, छात्रवृत्ति आवेदन, रोजगार के लिए ऑनलाइन आवेदन, ऑनलाइन अध्ययन, नेटवर्क के माध्यम से समूह चर्चा, विद्यालयों में छात्रों का रिकार्ड रखने, परीक्षाफल बनाने आदि कार्यों के लिए कम्प्यूटर अति उपयोगी सिद्ध हो रहा है। कंप्यूटर की उपयोगिता प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इससे कार्य तेजी गति से किया जा सकता है। डाटा को सुरक्षित रखते हुए उसमें आसानी से मनचाहा परिवर्तन कर सकते हैं। डाटा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से स्थानान्तरित कर पाते हैं। आज से कुछ वर्ष पहले तक कार्यालयों में टाइपिंग के लिए टाइपराइटर मशीन होता था। मुद्रणालय में लोहे का सांचा होता था, जिसे संयोजित कर कागज पर मुद्रण किया जाता था। इस माध्यम से एक बार कार्य कर लेने पर पुनः इसमें बदलाव करना संभव नहीं होता था। एक ही तरह के कार्य को बार-बार करना पड़ता था। बैंकों तथा अन्य वाणिज्यिक संस्थाओं में गणना करने में काफी समय लगता था। यातायात, चिकित्सालय, सूचना प्रेषण तथा अवाप्ति, वाणिज्य आदि लगभग हर क्षेत्र में कंप्यूटर का उपयोग होने लगा है। मनोरंजन (मल्टीमिडिया) हो या अभियांत्रिकी कोई भी क्षेत्र कंप्यूटर से अछूता नहीं है। कंप्यूटर के आ जाने से सभी प्रकार के कार्य आसानी तथा तेज गति से होने लगा है। इसलिए कंप्यूटर अब मानव की आवश्यकता बन गया है।
कम्प्यूटर
एक ऐसा यन्त्र है, जिसमें व्याकरण
सम्बन्धी नियमों को सूत्र रूप में तथा शब्दकोष को भर दिया जाता है। इससे हम
शब्दरूप की सिद्धि, अनुवाद, शब्दों की
मूल प्रकृति को समझने में समर्थ होते है। अब हम अनेक टूल्स के सहयोग से कंप्यूटर
पर संस्कृत भाषा सीख सकते हैं। कम्प्यूटर के लिए संस्कृत काफी अनुकूल है, क्योंकि यह भाषा परिष्कृत, वैज्ञानिक और नियमबद्ध
है। कंप्यूटर अन्य भाषाओं की तुलना में संस्कृत भाषा को आसानी से समझता है।
अधोलिखित
कार्यों में संस्कृत के लिए कम्प्यूटर की उपयोगिता है-
1.अनुवाद
के लिए
2.अध्ययन तथा अध्यापन के लिए
3.सूचना
प्राप्ति के लिए
संस्कृत
शास्त्रों में भाषा के लगभग सभी पक्षों की विवेचना और विश्लेषण के प्रमाण प्राप्त
होते हैं। इससे यह भाषा मशीनी अनुवाद के लिए सर्वथा उपयुक्त है। भाषा के बारे में
चिंतन ऋग्वेद से आरम्भ हुआ दिखता है। यहाँ वाक् सूक्त मिलते हैं। इसका विकास
परवर्ती ग्रन्थों में देखने को मिलता है। भाषानुवाद में ध्वनि, शब्द और अर्थ का
विशेष महत्व है। संस्कृत ग्रन्थों में इन विषयों पर प्रचूर मात्रा में चिंतन तथा प्रयोग
हुआ है, जिस कारण संस्कृत मशीनी अनुवाद कार्य अथवा सूचना सम्प्रेषण के लिए युक्ततम
भाषा है। आइये संस्कृत में निहित इन तत्वों की पड़ताल करते हैं।
ध्वनि
विज्ञान
ध्वनि
के विषय में अध्ययन की परंपरा प्रथम महत्वपूर्ण ध्वनिशास्त्री उपमन्यु से आरंभ हो
कर ऋक्प्रातिशाख्य कार शौनक, शुक्लयजुर्वेद
प्रातिशाख्यकार कात्यायन तथा पतंजलि जैसे अनेक शिक्षाकारों तथा प्रातिशाख्यकारों
के माध्यम से आगे बढ़ी है। पहले वेद मंत्रों का
अध्ययन श्रुति परम्परा से ही होती थी। परवर्ती काल में पद, घन, जटा आदि विकृति
पाठों का प्रयोग होने से मंत्रों का अध्ययन अध्यापन आरम्भ हुआ ताकि इसके स्वरूप की
रक्षा हो सके। उस समय मन्त्रार्थ समझना एवं उसके सही अर्थ की प्रामाणिकता अपेक्षित
थी। मंत्रों के अर्थ ज्ञान के लिए महर्षि
यास्क ने निरुक्त की रचना की। यह अर्थ शब्दों की व्युत्पत्ति के आधार पर निश्चय की
गयी। व्याकरण की परंपरा में पाणिनि के पूर्व शाकल्य, शाकटायन, गार्ग्य हो चुके थे तथा पाणिनी के बाद वार्तिककार
कात्यायन, पतंजलि, वामन, जयादित्य, भट्टोजि दीक्षित, भर्तृहरि
आदि ने योगदान दिया । प्राचीन व्याकरण व्युत्पत्ति मूलक अर्थ प्रकट करने के नियमों
को निर्धारित किया। परवर्ती काल में शब्दशक्ति जिसे अर्थ विज्ञान कहा जाता है पर
व्याकरण, न्याय, काव्यशास्त्र आदि शास्त्र ग्रन्थों में नियम निर्धारित किये गये।
अर्थविज्ञान
जैसा
कि पहले कहा जा चुका है कि ध्वनि, वर्ण, पद पर विचार के बाद वाक्य पर विचार आरम्भ
हुआ। पद विचार में शब्दों या पदों की व्युत्पत्ति पर विचार हुआ। इसकी परम्परा भी
निरुक्तकार यास्क से आरंभ होकर पतंजलि, भर्तृहरि,
कौण्डभट्ट और नागेश भट्ट तक समृद्ध हुई। इस प्रकार संस्कृत भाषा में
शब्दों का सही अर्थ निर्धारित करने, उसे नियमबद्ध करने की क्षमता आ चुकी थी,जो कि
किसी मशीन को अनुवाद करने हेतु निर्देशित करने लिए सर्वथा उपयुक्त हो गयी।
व्युत्पत्तिमूलक
शब्दार्थ के लिए कोश
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