संस्कृत प्रतिभा खोज की प्रतियोगिता में लघुसिद्धान्तकौमुदी, अष्टाध्यायी तथा तर्कसंग्रह को क्यों शामिल किया गया है?
“काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्” संस्कृत प्रतिभा खोज की प्रतियोगिता में कणाद के सिद्धान्त पर रचित तर्कसंग्रह तथा पाणिनि द्वारा रचित अष्टाध्यायी तथा अष्टाध्यायी सूत्र को लेकर सूत्र, वृत्ति तथा उदाहरण के साथ लिखित लघुसिद्धान्तकौमुदी को रखा गया है। अब इसे विस्तार से समझते हैं कि संस्कृत वाङ्मय को समझने में ये ग्रन्थ कितने उपयोगी हैं।
भारतीय ज्ञान-परम्परा की विशेषता यह है कि यहाँ शास्त्र अलग-अलग विषयों के स्वतंत्र ग्रन्थ न होकर, एक परस्पर-संबद्ध बौद्धिक संरचना के रूप में विकसित हुए हैं। इसी समन्वित दृष्टि का प्रतिफल एक प्रसिद्ध सिद्धान्त-वाक्य है—“काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्।” यह वचन यह प्रतिपादित करता है कि महर्षि कणाद का वैशेषिक-दर्शन तथा महर्षि पाणिनि का व्याकरण समस्त शास्त्रों के लिए आधारभूत, उपयोगी एवं अनिवार्य हैं।
यहाँ पर “सर्वशास्त्र” शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसका आशय केवल षड्दर्शन तक सीमित नहीं है, बल्कि
1. वेद एवं ब्राह्मण-आरण्यक-उपनिषद्
2. वेदाङ्ग (षडङ्ग) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष आते हैं।
3. दार्शनिक शास्त्र में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त आते हैं।
4. अनुप्रयुक्त शास्त्र में आयुर्वेद, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र आते हैं।
इन सभी का समुच्चय ही यहाँ सर्वशास्त्र कहलाता है।
कणाद-दर्शन : सर्वशास्त्रों का तत्त्वाधार है। महर्षि कणाद ने वैशेषिक सूत्र में जगत् का तत्त्वमीमांसात्मक ढाँचा प्रस्तुत किया। जो इस तरह है-
(क) षड् पदार्थ सिद्धान्त
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय तथा अभाव। यही ढाँचा आयुर्वेद (द्रव्य-गुण-कर्म) का न्याय दर्शन के (कारण-कार्य) का मीमांसा के (कर्म-फल) का ज्योतिष के (काल, दिक्, गति) का मूल बना।
(ख) परमाणुवाद - भौतिक जगत् की सूक्ष्म रचना का सिद्धान्त, जो पदार्थ-विज्ञान, आयुर्वेद एवं दर्शन — तीनों में उपयोगी है।
पाणिनीय व्याकरण : सर्वशास्त्रों की भाषिक आत्मा है। महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी केवल भाषा-ग्रन्थ नहीं, अपितु वेद-वाक्य का अर्थ-निर्णायक, विधि–निषेध का आधार, शास्त्रीय विवादों का समाधानकर्ता है। यहाँ मीमांसा का सिद्धान्त भी मिलता है। “व्याकरणं नाम शब्दानुशासनम्।” बिना पाणिनीय व्याकरण वेदाङ्ग अपूर्ण रह जाता है। दर्शन अस्पष्ट और धर्मशास्त्रीय विधान अनिश्चित हो जाते हैं।
शास्त्र-परम्परा में संयुक्त अनिवार्यता
न्याय → कणाद का पदार्थ + पाणिनि की भाषा
मीमांसा → वेदवाक्य + व्याकरण
वेदान्त → उपनिषद्-वाक्य + तत्त्वमीमांसा
षडङ्ग → शब्द और पदार्थ — दोनों पर आश्रित हैं।
इसलिए शास्त्रकारों ने दोनों को समान रूप से अनिवार्य माना। अतः प्रारंभिक अवस्था में इन ग्रन्थों के कंठस्थीकरण पर जोड़ दिया जाता है।
“काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्” वचन का आधार यह शाश्वत सिद्धान्त है— शब्दोऽर्थस्य प्रकाशकः (प्रत्येक शब्द अर्थ को व्यक्त करता है) अर्थस्तत्त्वस्य आधारः। (तत्व का आधार अर्थ है)
पाणिनि शब्द देते हैं-
कणाद तत्त्व देते हैं-
दोनों के बिना शास्त्र न पूर्ण हैं, न प्रमाणिक।
महर्षि कणाद ने शास्त्रों को तत्त्व का स्वरूप दिया,
महर्षि पाणिनि ने उन्हें अभिव्यक्ति का साधन दिया।
इसी कारण भारतीय शास्त्रीय परम्परा का यह निष्कर्ष आज भी अक्षुण्ण है— “काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्।”
अतएव संस्कृत प्रतिभा खोज की प्रतियोगिता में लघुसिद्धान्तकौमुदी, अष्टाध्यायी तथा तर्कसंग्रह को प्रतियोगिता में रखा गया है। इन ग्रन्थों को कंठस्थ करने के उपरांत छात्र संस्कृत भाषा में लिखित ग्रन्थों को ठीक से समझने लगता है।
लेखक- जगदानन्द झा





कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें