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| जगदानन्द झा |
विद्यालय केवल अध्ययन का केंद्र नहीं होता, वह संस्कारों, स्मृतियों और जीवन-दिशा का निर्माण करने वाला एक सजीव संस्कारस्थल होता है। जब विद्यार्थी अपने विद्यालय से विदा लेते हैं, तो वह क्षण केवल विदाई का नहीं, बल्कि भावनाओं, कृतज्ञता और भविष्य की आशाओं का संगम बन जाता है। ऐसे अवसर पर शब्द, स्वर और भाव—तीनों मिलकर उस स्मृति को अमर बना देते हैं।
“प्रस्थानमङ्गलगानम्” शीर्षक यह संस्कृत गीत विद्यार्थियों की उसी भावनात्मक विदाई को अभिव्यक्त
करता है। यह गीत मित्रता, गुरु-ऋण, बाल्यकाल
की स्मृतियों और उज्ज्वल भविष्य की कामनाओं को सरल, सरस और
गेय संस्कृत भाषा में पिरोता है। विद्यालय से निकलते हुए छात्रों के मन में जो भाव
होते हैं—आनन्द, विरह, कृतज्ञता और संकल्प—उन सबका सजीव चित्रण इस रचना में
देखने को मिलता है।
सरल स्वर-विन्यास में रचित यह गीत विदाई (Farewell)
समारोह के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है। इसे छात्र-छात्राएँ सहजता
से गा सकते हैं । यह गीत न केवल एक कार्यक्रम की शोभा बढ़ाता है, बल्कि विद्यार्थियों के हृदय में विद्यालय के प्रति आजीवन स्नेह और
संस्कारों की स्मृति भी संचित करता है।
रचयिता श्री जगदानन्द झा की यह कृति
संस्कृत को केवल पाठ्यविषय नहीं, बल्कि जीवन से जुड़ी
संवेदना की भाषा के रूप में प्रस्तुत करती है।
प्रस्थानमङ्गलगानम्
(मुखड़ा)
गच्छत
मित्राणि पन्थानं, शुभाशयैः समन्विताः।
विद्यालयं
स्मरन्तोऽपि, भविष्यं प्रति पश्यत॥
(अन्तरा
1)
बाल्यस्मृतयः
सदा हृदि,
क्रीडाः हास्यसमन्विताः।
गुरवो
ये दिशादर्शाः, नित्यं वन्द्याः भवन्ति नः॥
(मुखड़ा)
गच्छत
मित्राणि पन्थानं, शुभाशयैः समन्विताः।
विद्यालयं
स्मरन्तोऽपि, भविष्यं प्रति पश्यत॥
(अन्तरा
2)
ज्ञानदीपेन
दीप्ता ये, शीलसत्यसमन्विताः।
राष्ट्रसेवापथे
नित्यं,
अग्रगामिनो भवन्तु ते॥
(अन्तरा
3)
न
बाधा न च नैराश्यं, न भयं मार्गगामिनाम्।
धैर्यं
श्रद्धा च सन्तोषः, जीवनस्य अलङ्कृतिः॥
(मुखड़ा
–
समापन)
गच्छत
मित्राणि पन्थानं, आशिषा सह सर्वदा।
विद्यालयस्य
स्नेहोऽयं, भवतां सह गच्छतु॥
रचयिता - जगदानन्द झा






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