आज जब मैं ग्रामीण
क्षेत्रों के छोटे-छोटे संस्कृत पाठशालाओं और गुरुकुलों में जाता हूँ, तो मन में एक अजीब सी शांति और गर्व का भाव उमड़ आता है। वहाँ दस-बीस
बच्चे, एक साधारण सी कुटी में, मिट्टी
के फर्श पर बैठकर जिस उत्साह से “अग्निमीळे पुरोहितम्” या “यस्त्वचित्तेन न
समेत्य” का उच्चारण करते हैं, वह दृश्य मुझे बार-बार यह
विश्वास दिलाता है कि – संस्कृत की रक्षा की वास्तविक गारंटी बड़े-बड़े
विश्वविद्यालय या शासकीय संस्थान नहीं, बल्कि ये छोटे-छोटे
विद्यालय ही हैं।
संस्कृत जितनी
प्राचीन है, उतनी ही प्राचीन हमारी जीवन-पद्धति भी
है। यह केवल एक भाषा नहीं है। यह एक दृष्टि है – जीवन को संतुलित, संयमित, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाने
वाली दृष्टि। यह हमें सिखाती है कि हम प्रकृति के मालिक नहीं, बल्कि उसके ऋणी हैं। “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा:” – जिसने त्याग करके भोगने
का उपदेश दिया, वह संस्कृत ही तो है।
आज हमारी जनसंख्या
१४० करोड़ के पार पहुँच चुकी है, किंतु उसके अनुपात में
संस्कृत शिक्षा केंद्रों की संख्या में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई। यह सत्य
चिंताजनक है। परंतु इसके बावजूद जो थोड़े से गुरुकुल, संस्कृत
महाविद्यालय और पाठशालाएँ बची हुई हैं, उन्होंने कभी हार
नहीं मानी। उन्होंने कर्मकांड, नैतिक शिक्षा, योग, दर्शन और सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में
मानव संसाधन का ऐसा निर्माण किया है, जिसे हम आज देश-विदेश
में निर्यात कर रहे हैं। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा – हर जगह हमारे पंडितजी, आचार्यजी, योगाचार्यजी और कर्मकांडी विद्वान पूजे जा
रहे हैं। यह संस्कृत शिक्षा की जीवंतता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
अब समय आ गया है कि
हम सीमित दायरों से बाहर निकलें। अब केवल भारत में ही नहीं, विश्व के द्वार पर दस्तक देने का समय है। हमें एक ऐसी शिक्षा पद्धति
विकसित करनी होगी जो आधुनिक जीवन की सभी शैलियों को समेटते हुए भी नैतिक मूल्यों
की रक्षा कर सके। और यह सामर्थ्य केवल संस्कृत शिक्षा में ही है। क्योंकि संस्कृत
शिक्षा व्यक्ति को केवल “ज्ञानवान” नहीं बनाती, बल्कि उसे
उत्तरदायी नागरिक, संवेदनशील मनुष्य और पर्यावरण का संरक्षक
बनाती है।
आज मानव मन प्रदूषित
है,
वायु प्रदूषित है, जल प्रदूषित है, भूमि प्रदूषित है। इस संकट का मूल कारण है – उपभोग की वह अंधी मानसिकता
जिसे आधुनिक शिक्षा ने बढ़ावा दिया है। हमने बच्चे को यह नहीं सिखाया कि “हम
प्रकृति से कितना ले सकते हैं”, बल्कि यह सिखाया कि “हम
प्रकृति से कितना लूट सकते हैं”। वानिकी, खनन, औद्योगिक विकास – सबके नाम पर हमने धरती माता का सीना छलनी कर दिया।
परिणाम सामने है – जलवायु परिवर्तन, बाढ़, सूखा, प्रदूषण।
किंतु संस्कृत
शिक्षा इससे बिल्कुल भिन्न दृष्टि देती है।
यह सिखाती है –
“माता भूमि:
पुत्रोऽहं पृथिव्या:”
यह सिखाती है –
“यजमानस्य पशून्
पाहि” की भावना।
यह सिखाती है कि हम
ऋण लेकर जन्मे हैं – पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण, भूतऋण। और जीवन का लक्ष्य है इन ऋणों को
चुकाना। यही कारण है कि आज पूरा विश्व पुनः संस्कृत की ओर, भारतीय
दर्शन की ओर, योग की ओर, आयुर्वेद की
ओर मुड़ रहा है। क्योंकि यही एकमात्र शिक्षा है जो भोगवादी नहीं, सहअस्तित्ववादी बनाती है।
ऐसे में उत्तर
प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा आयोजित “संस्कृत प्रतिभा खोज” जैसे मंच अत्यंत
महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मैंने स्वयं देखा है – एक छोटे से गाँव का बच्चा, जो कभी संस्कृत में दो शब्द भी नहीं बोल पाता था, आज
राज्य स्तरीय मंच पर खड़ा होकर अष्टाध्यायी के सूत्र कंठस्थ बोल रहा है, अमरकोश की वर्गों का पाठ कर रहा है, श्लोकान्त्याक्षरी
में प्रतिद्वंद्वी को पराजित कर रहा है। उसकी आँखों में जो आत्मविश्वास और गर्व
झलकता है, वह बताता है कि संस्कृत अब केवल पाठ्यक्रम की
किताब नहीं रही – वह जीवंत हो चुकी है। वह बच्चे की पहचान बन चुकी है।
यह बच्चा कल जब
इंजीनियर बनेगा, डॉक्टर बनेगा, वैज्ञानिक
बनेगा या उद्यमी बनेगा – तब भी उसके भीतर वह संस्कृत का संस्कार रहेगा। वह धरती को
माता मानेगा, जल को देवता मानेगा, वृक्ष
को जीवन मानेगा। यही वह मानव संसाधन है जिसकी आज विश्व को सबसे अधिक आवश्यकता है।
अतः अब समय आ गया है
कि हम संस्कृत शिक्षा को केवल अतीत की धरोहर न मानकर, भविष्य की अनिवार्यता के रूप में स्वीकार करें।
यह केवल एक भाषा का
पुनर्जागरण नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक
नई जीवन दृष्टि का पुनर्जागरण है।
छोटे-छोटे संस्कृत
विद्यालयों को मजबूत कीजिए।
प्रत्येक गाँव में
एक संस्कृत पाठशाला हो – यह सपना साकार कीजिए।
क्योंकि यही वो बीज
हैं,
जिनसे कल का वह वटवृक्ष बनेगा, जिसकी छाँव में
पूरी मानवता शांत होकर बैठेगी।





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