तर्कसंग्रह: भारतीय न्याय-दर्शन का प्रवेश-द्वार

भारतीय न्याय-दर्शन में यह धारणा प्रसिद्ध है कि—“तर्कसंग्रहः न्यायशास्त्रस्य द्वारम्”। जैसे अष्टाध्यायी और अमरकोश बिना संस्कृत-शास्त्रों का प्रवेश कठिन है, उसी प्रकार तर्कसंग्रह के बिना भारतीय न्याय-वैशेषिक परम्परा की गहराई तक पहुँचना लगभग असम्भव है। यह लघु ग्रन्थ केवल प्रारम्भिक परिचय नहीं, बल्कि तर्क-वितर्क, प्रमाण, पदार्थ, कारण–कार्य जैसे मूल दार्शनिक उपकरणों का व्यवस्थित ‘प्रवेश-द्वार’ है।

तर्कसंग्रह भारतीय ज्ञान-परम्परा में उस भूमिका को निभाता है, जो विज्ञान में ‘प्रारम्भिक लॉजिक’ और दार्शनिक अध्ययन में ‘मूल तर्कशास्त्र’ की होती है। स्मरणीय है कि भारतीय शास्त्र परम्परा में कोई भी गम्भीर छात्र वेदान्त, मीमांसा, बौद्ध-दर्शन, जैन-दर्शन या न्याय-वेदान्त विवाद-ग्रन्थों में उतरने से पहले तर्कसंग्रह का अभ्यास अनिवार्य रूप से करता था।

तर्कसंग्रह एक संक्षिप्त किन्तु अत्यन्त प्रभावशाली न्याय-वैशेषिक पाठ्य–ग्रन्थ है, जिसके रचयिता हैं—अन्नम्भट्ट (17वीं शताब्दी)। यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त माना जाता है—

- मूल तर्कसंग्रह (सूत्रात्मक/गद्यरूप सार)

- तर्कसंग्रह-दीपिका (स्वयं अन्नम्भट्ट द्वारा लिखी व्याख्या)

अन्नम्भट्ट ने पूर्ववर्ती न्याय (गौतम, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य आदि) और वैशेषिक (कणाद, प्रशस्तपाद, श्रीधर) परम्परा को अत्यन्त संक्षेप में ‘छात्रोपयोगी’ ढंग से प्रस्तुत किया।

तर्कसंग्रह की विशेषता यह है कि यह न तो अत्यन्त सूक्ष्म शास्त्रीय विवाद में उलझता है, न ही केवल सतही परिचय देकर रुक जाता है। इसमें दार्शनिक तर्क की पूरी बुनियादी संरचना—

- पदार्थ–वर्गीकरण (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव)

- प्रमाण–चर्चा (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि)

- अनुमान की संरचना (पञ्चावयव न्याय: प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन)

- हेतु–दोष, अनुमान–दोष, हेत्वाभास

- कारण–कार्य, कार्यकारण–सम्बन्ध

को एक संगठित, क्रमबद्ध रूप में समाहित किया गया है। इसीलिए यह न्याय–वैशेषिक का ‘संकलित सार’ है।

तर्कसंग्रह को परम्परागत रूप से “न्यायदर्शनस्य प्रथमो पाठः” माना गया। इसके कई कारण हैं:

- संक्षिप्तता और सुबोध शैली: बड़े ग्रन्थ जैसे न्यायसूत्र, न्यायभाष्य, तत्त्वचिन्तामणि इत्यादि नवशिक्षु के लिए कठिन हैं; तर्कसंग्रह इनका सार सरल भाषा में देता है।

- शास्त्रीय शब्दावली की आधारशिला: ‘पदार्थ’, ‘प्रमाण’, ‘हेतु’, ‘वैध’ और ‘अवैध’ तर्क, ‘अनुमान’, ‘व्याप्ति’, ‘उपाधि’ जैसे शब्दों का प्रथम व्यवस्थित परिचय इसी से मिलता है।

- वाद-विवाद की तकनीक: शास्त्रीय विवाद (वाद, जल्प, वितण्डा) और तर्क-नियमों का व्यावहारिक पक्ष तर्कसंग्रह के माध्यम से समझ में आता है, जो किसी भी दार्शनिक परम्परा की बहस पढ़ने के लिए अनिवार्य है।

- सर्वशाखीय उपयोगिता: यह केवल न्याय-वैशेषिक का ग्रन्थ नहीं, बल्कि वेदान्त, मीमांसा, बौद्ध, जैन, नैयायिक-वेदान्तिन विवादों के लिए सामान्य ‘तार्किक आधार’ प्रदान करता है।

इस प्रकार तर्कसंग्रह को न्याय-दर्शन का ‘प्रवेश-द्वार’ एवं भारतीय वाद-परम्परा का ‘प्राथमिक व्याकरण’ कहा जा सकता है।

अन्नम्भट्ट का समय सामान्यतः लगभग 17वीं शताब्दी माना जाता है। वे दक्षिण भारत (संभवतः आन्ध्र) के विद्वान थे, जिन्होंने न्याय-वैशेषिक को एक व्यावहारिक पाठ्य-पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया।

पारम्परिक संस्कृत पाठशालाओं में तर्कसंग्रह की स्थिति अत्यन्त विशिष्ट थी:

- वेद-अध्ययन के बाद, मीमांसा या वेदान्त में प्रविष्ट होने वाले छात्रों को पहले तर्कसंग्रह पढ़ाया जाता था।

- अनेक ‘तोल’ (पठशाला) परम्पराओं में क्रम यह था: सिद्धान्तकौमुदी या लघु-कौमुदी के साथ व्याकरण–पक्ष, और तर्कसंग्रह के साथ तर्क–दर्शन–पक्ष।

- बंगाल, मिथिला, काशी, दक्षिण भारत आदि के न्याय-केन्द्रों में तर्कसंग्रह पर अनेक टीकाएँ, उपटीकाएँ और व्याख्यान-परम्पराएँ विकसित हुईं, जो आज भी प्रचलित हैं।

यूरोपीय और आधुनिक इंडोलॉजिस्टों ने भी तर्कसंग्रह को न केवल संस्कृत तर्कशास्त्र की क्लासिक पाठ्य-पुस्तक, बल्कि ‘इंडियन लॉजिक के प्राथमिक मॉडल’ के रूप में अनूदित और पढ़ाया।

भारतीय ज्ञान-परम्परा में तर्क केवल अमूर्त दार्शनिक जिज्ञासा नहीं था, बल्कि शास्त्रार्थ, धर्मनिर्णय, न्याय और आचार-विचार सबमें उसका उपयोग था। तर्कसंग्रह इन सबका तार्किक शिल्प देता है।

- न्याय–वैशेषिक दर्शन: तर्कसंग्रह स्वयं न्याय-वैशेषिक के मूल सिद्धान्तों को “पदार्थ-संग्रह” के रूप में प्रस्तुत करता है। अस्तित्व (सत्), द्रव्य–गुण–कर्म, आत्मा–मन–इन्द्रियाँ, ईश्वर, कर्मफल, जन्म–मरण–मोक्ष—इन सबकी दार्शनिक व्याख्या इसके भीतर संक्षिप्त रूप में निहित है।

- वेदान्त: उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या में प्रयुक्त तार्किक उपकरण—अनुमान, व्याप्ति, विरोध, तर्क-समर्थन–निराकरण—इन सबकी मूल संरचना तर्कसंग्रह से समझ में आती है। वेदान्ताचार्य शङ्कर, रामानुज, मध्व, वल्लभ आदि सभी परम्पराओं में न्याय-तर्क की न्यूनतम दक्षता आवश्यक मानी गयी।

- मीमांसा: धर्मनिर्णय हेतु मंत्रार्थ, विधि–निषेध, अपूर्व, फल–जन्यत्व आदि पर विचार करते समय मीमांसक नयी न्याय–परम्परा से तर्क ग्रहण करते हैं। तर्कसंग्रह इन न्याय-सिद्धान्तों का मूल परिचय देता है।

- जैन और बौद्ध दर्शन: इन परम्पराओं के अनेक आचार्य (उदाहरणतः दिगम्बर–जैन न्यायग्रन्थ, बौद्ध दिग्नाग, धर्मकीर्ति पर उत्तर भारतीय टीकाएँ) नयी न्याय की शैली में तर्क-विन्यास प्रस्तुत करते हैं; विद्यार्थी तर्कसंग्रह के आधार पर ही उनका विश्लेषण कर पाते हैं।

भारतीय परम्परा में धर्म, नीति और न्याय-संबंधी निर्णय अकेले ‘आस्था’ से नहीं, बल्कि तर्क–शास्त्र से युक्त शास्त्र-प्रमाणों पर आधारित होते थे। तर्कसंग्रह इन निर्णयों के पीछे छिपी तर्क-पद्धति को स्पष्ट करता है।

- धर्मशास्त्र: मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, दयाभाग, मिताक्षरा आदि परम्पराओं में न्यायिक और सामाजिक नियमों की व्याख्या हेतु तर्क-शास्त्रीय विचार उपस्थित हैं। तर्कसंग्रह प्रमाण–तत्त्व, अनुमान और व्याप्ति की जो समझ देता है, वही न्याय-शास्त्रीय व्याख्याओं का आधार बनती है।

- न्यायालयीन शास्त्रार्थ: प्राचीन राजदरबारों और विद्वत-सभाओं में शास्त्रार्थ (वाद–जल्प–वितण्डा) के लिए जो नियम अपनाए जाते थे, वे न्यायसूत्र और नयी न्याय परम्परा से आते हैं; तर्कसंग्रह इन्हें सरल रूप में सिखाता है।

- तर्क-दोष और कुतर्क की पहचान: तर्कसंग्रह में हेत्वाभास (कपटी तर्क) और अनुमान-दोषों की चर्चा विद्यार्थियों को यह समझने की क्षमता देती है कि कौन-सा तर्क वैध है और कौन-सा भ्रामक।

इस प्रकार धर्म, नीति और न्याय का विवेकपूर्ण अभ्यास तर्कसंग्रह जैसी कृतियों से समर्थित था।

तर्कसंग्रह भले ही व्याकरण का ग्रन्थ नहीं, फिर भी यह भाषा और व्याकरणिक अध्ययन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

- वाक्य–विश्लेषण: ‘पदार्थ’ और ‘कारक’ सम्बन्धी विचारों के माध्यम से यह पाणिनीय व्याकरण में प्रयुक्त वाक्य–विश्लेषण को दार्शनिक पृष्ठभूमि देता है।

- अर्थ–विज्ञान (सेमांटिक्स): न्याय–वैशेषिक परम्परा ‘शब्द–अर्थ–सम्बन्ध’ (शक्ति, लक्षणा, व्यञ्जना के स्थान पर ‘शब्द–अर्थ’ के यथार्थ संबंध) पर जो विचार प्रस्तुत करती है, उसका प्रवेश तर्कसंग्रह के माध्यम से होता है।

- व्याकरण–दर्शन: भर्तृहरि, पतञ्जलि आदि ने भाषा-दर्शन के जो प्रश्न उठाए, उन्हें समझने के लिए तर्कसंग्रह में दी गई प्रमाण–प्रमाण्य–अर्थ–ज्ञान की श्रेणियाँ अत्यन्त उपयोगी हैं।

इस अर्थ में तर्कसंग्रह भाषा–शास्त्र और दर्शन के बीच सेतु-भूमिका निभाता है।

आधुनिक काल में अनेक विद्वानों ने तर्कसंग्रह के माध्यम से भारतीय लॉजिक और विज्ञान-दर्शन का पुनर्मूल्यांकन किया।

- लॉजिक और ‘साइंटिफिक मेथड’: प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानने की न्याय–वैशेषिक धारणा, ‘व्याप्ति’ के माध्यम से सार्वत्रिक नियम स्थापित करने की प्रक्रिया—ये सब आधुनिक विज्ञान की induction–deduction पद्धति से तुलनीय हैं। तर्कसंग्रह इस पूरी प्रणाली की संक्षिप्त रूपरेखा देता है।

- गणित, खगोल, व्याकरण पर प्रभाव: जैसे पाणिनि का व्याकरणीय तन्त्र एल्गोरिदमिक माना जाता है, वैसे ही न्याय–तर्क का अनुमान–विन्यास भी औपचारिक लॉजिक के लिए मॉडल बनता है। भारतीय ज्योतिष–ग्रन्थों, खगोल और गणित (आर्यभट, भास्कराचार्य आदि) में जो सूत्र-विन्यास है, उसे समझने के लिए न्याय-तर्क की सूक्ष्मता सहायक है, जिसका प्राथमिक परिचय तर्कसंग्रह देता है।

- आधुनिक दर्शन–चर्चा: समकालीन भारतीय दार्शनिक (जैसे के.सी. भट्टाचार्य, एस.एन. दासगुप्ता आदि) ने यह दिखाया कि पश्चिमी लॉजिक और भारतीय तर्कशास्त्र एक दूसरे को कैसे पूरक बन सकते हैं; तर्कसंग्रह इन तुलनात्मक अध्ययनों की पाठ्य–भूमि बना।

तर्कसंग्रह की महत्ता केवल न्याय–वैशेषिक तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय बौद्धिक–परम्परा में दूर-दूर तक फैली है:

- शास्त्रीय दर्शन: न्याय, वेदान्त, मीमांसा, बौद्ध, जैन—सभी के विवाद–साहित्य को पढ़ने की अनिवार्य कुंजी।

- भाषा और साहित्य: काव्य–आलंकारिक ग्रन्थों में प्रयुक्त तर्क–न्याय, अर्थ–निर्णय और व्याख्यान-पद्धति की नींव।

- धर्म और नीति: धर्मशास्त्र, स्मृतियाँ, नीतिशास्त्र आदि में मान्य–अमान्य तर्क की पहचान का उपकरण।

- आधुनिक शोध: इंडोलॉजी, कम्परेटिव फिलॉसफी, लॉजिक और विज्ञान-दर्शन के भारतीय आयामों को समझने की आरम्भिक पाठ्य–पुस्तक।

संक्षेप में, जिस प्रकार अष्टाध्यायी और अमरकोश संस्कृत भाषा के ‘माता-पिता’ हैं, उसी प्रकार तर्कसंग्रह भारतीय तर्क–परम्परा का ‘मूल शिक्षक’ कहा जा सकता है—जो केवल सूत्र नहीं सिखाता, बल्कि सोचने का ढंग बदल देता है। बिना तर्कसंग्रह की बुनियाद के, न्याय–वैशेषिक ही नहीं, व्यापक भारतीय दर्शन–परम्परा तक पहुँचना कठिन हो जाता है।


लेखक- श्री लव शुक्ल, दिल्ली

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