कर्मकांड और तंत्र : भारतीय संस्कृति के संरक्षक

 भारतीय संस्कृति और सामाजिक मूल्यों का संरक्षण सदियों से विभिन्न धार्मिक प्रथाओं पर आधारित रहा है। इनमें कर्मकांड (वैदिक अनुष्ठान) और तंत्र (रहस्यमयी साधनाएँ) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये प्रथाएँ केवल आध्यात्मिक विश्वास ही प्रदान नहीं करतीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता, सामूहिक आस्था और सांस्कृतिक निरंतरता को भी सुदृढ़ करती हैं।

इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि औपनिवेशिक काल में सक्रिय मिशनरी गतिविधियों के बावजूद, कर्मकांड और तंत्र जैसे सांस्कृतिक तत्वों ने लाखों लोगों को हिंदू परंपराओं से जोड़े रखा। उदाहरणस्वरूप, 19वीं शताब्दी के धार्मिक सुधार आंदोलनों और बाहरी प्रभावों के दौर में भी ग्रामीण भारत में वैदिक कर्मकांडों की जड़ें इतनी गहरी थीं कि धर्मांतरण की गति अपेक्षाकृत धीमी रही।

कर्मकांड, तंत्र और जनमानस की आशा

आर्थिक विपन्नता, असाध्य रोग, प्राकृतिक आपदाएँ या दैवीय कोप जैसी परिस्थितियों में अनेक लोग समाधान की खोज में अन्य धर्मों की ओर आकर्षित होते रहे हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों और ऐतिहासिक अध्ययनों से संकेत मिलता है कि 20वीं शताब्दी तक ईसाई मिशनरियों ने इसी मानवीय कमजोरी और पीड़ा का सहारा लेकर भारत के अनेक आदिवासी क्षेत्रों में धर्मांतरण को बढ़ावा दिया।

कर्मकांड और तंत्र इस खालीपन को भरने का कार्य करते हैं। ये व्यक्ति को तत्काल उपचार, सांत्वना और आशा प्रदान करते हैंठीक उसी प्रकार जैसे अन्य धर्म अपने चमत्कारों और राहत के वादों से लोगों को आकर्षित करते हैं। पुराणों और आगम ग्रंथों में वर्णित यज्ञ, होम, ग्रह-शांति और तांत्रिक मंत्र-जाप सामान्य जनमानस में विश्वास जगाने वाले साधन रहे हैं। महाराष्ट्र की वारली जनजाति इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है, जहाँ स्थानीय तांत्रिक परंपराओं और लोक-आस्थाओं ने मिशनरी प्रभाव को सीमित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लोक परंपराएँ और सांस्कृतिक निरंतरता

भारतीय जीवनशैली अनेक लोक मान्यताओं और परंपराओं पर आधारित हैजैसे वर्षा के लिए इंद्र पूजा, रोग निवारण के लिए ग्रह-शांति या प्राकृतिक आपदाओं के समय विशेष अनुष्ठान। यदि ये परंपराएँ न होतीं, तो संभव है कि बहुसंख्यक जनसंख्या बाहरी धार्मिक प्रभावों के सामने अधिक असुरक्षित होती।

लोककथाओं में वर्णित घनवर्षा पूजा इसका सरल उदाहरण है, जहाँ किसी एक व्यक्ति द्वारा लोकापवाद या अनुभव के आधार पर आरंभ की गई उपासना पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक स्थापित परंपरा बन जाती है। निगम (वैदिक कर्मकांड) और आगम (तांत्रिक ग्रंथ) इन लोक प्रथाओं को शास्त्रीय औपचारिकता प्रदान करते हैं। सामाजिक अध्ययनों के अनुसार ग्रामीण भारत में आज भी 70 प्रतिशत से अधिक परिवार किसी न किसी रूप में इन कर्मकांडों और तांत्रिक आस्थाओं पर निर्भर हैं, जो उनकी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत बनाए रखते हैं।

आधुनिक दृष्टि और सांस्कृतिक चुनौती

आधुनिक काल में कुछ बुद्धिजीवी इन परंपराओं को अंधविश्वास मानकर उनकी उपेक्षा करते हैं। यह दृष्टिकोण अनजाने में सांस्कृतिक क्षरण को आमंत्रित करता है। वास्तविकता यह है कि कर्मकांड और तंत्र अनेक व्यक्तिगत और स्थानीय समस्याओंजैसे अस्थायी बीमारी, पारिवारिक संकट या मानसिक तनावका समाधान स्थानीय स्तर पर प्रदान करते हैं। ये समस्याएँ प्रायः पीढ़ीगत नहीं होतीं, जबकि धर्मांतरण का प्रभाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है।

तंत्र विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले उपायजैसे यंत्र स्थापना, विशेष हवन या अनुष्ठानलोगों को अपनी परंपराओं और सांस्कृतिक पहचान से जुड़े रहने में सहायता करते हैं। जनगणना 2011 के आँकड़े दर्शाते हैं कि भारत में हिंदू जनसंख्या 79.8 प्रतिशत बनी रही। यद्यपि इसके अनेक कारण हैं, परंतु कर्मकांड और तंत्र जैसी परंपराओं का इसमें अप्रत्यक्ष किंतु महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

निष्कर्ष

संक्षेप में कहा जाए तो कर्मकांड और तंत्र भारतीय संस्कृति के मौन किंतु सशक्त संरक्षक हैं। ये न केवल आस्था और भरोसा प्रदान करते हैं, बल्कि सामाजिक बंधनों को मजबूत कर धर्मांतरण जैसी चुनौतियों के विरुद्ध एक सांस्कृतिक कवच भी निर्मित करते हैं। इन परंपराओं की उपेक्षा करना अपनी जड़ों को कमजोर करने के समान है। अतः आवश्यकता है कि इन्हें अंधविश्वास के चश्मे से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में समझा जाए।

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