बन्दी नहीं, नियुक्ति है समाधान


इलाहाबाद के दैनिक समाचार पत्र हिंदुस्तान में यह समाचार छपते ही कुछ सजग संस्कृत प्रेमियों के बीच आक्रोश का उबाल आ गया। ऐसा नहीं है कि ऐसा आदेश केवल संस्कृत विद्यालय के लिए ही जारी हुआ है, चुंकि समाचार पत्र में संस्कृत विद्यालय के बारे में समाचार छप गया इसीलिए यह हमारा ध्यान आकर्षित कर गया। यू. पी. बोर्ड तथा बेसिक शिक्षा के अध्यापकों का स्थानान्तरण हो जाता है अतः वहाँ पर बन्द होने वाले स्कूल का असर और चिन्ता वहाँ के अध्यापकों को कम ही होती है।
 सरकार चाहती है कि विद्यालयों को रिफॉर्म किया जाए। जहां छात्र नहीं है, उसे बंद कर दिया जाए। इसके लिए कुछ लोग अपनी छाती पीटने लगे। दुर्भाग्य यह भी है कि संस्कृत समुदाय के लोग भी इसके लिए आवाज उठाने में या तो डरते हैं या हमेशा की तरह निष्क्रिय है । यहाँ समस्या से मुकाबला करने के बजाय अधिकांश आबादी चैन की नींद सो रही है। कुछ पीठ पीछे कर भाग रहे हैं। अंगुलि पर गिने जा सकने भर लोग यहाँ वहाँ उछल कूद कर अपनी आपत्ति दर्ज करा रहे हैं।  ( हाय-तौबा मचाने वाले की संख्या मुट्ठी भर है फिर भी इनका छाती पीटना मुझे अच्छा लगा)
उत्तर प्रदेश में कक्षा 6 से 12 तक के परम्परागत संस्कृत छात्रों की प्रथमा, पूर्व मध्यमा तथा उत्तर मध्यमा की परीक्षा कराने के लिए सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से अलग कर उ0प्र0 माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद, शाहमीना रोड, लखनऊ का गठन राज्य सरकार की अधिसूचना संख्या 102 सा0/15/09/2001-25 (72)/96 दिनाँकः 17/02/2001 द्वारा किया गया। यह संस्कृत भवन, 2 शाहमीना रोड, लखनऊ २२६ ००३ पर अवस्थित है। माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद् में नए संस्कृत विद्यालय खोलने के इच्छुक लोग अक्सर मिलते रहते हैं । मैं उनसे एक ही प्रश्न पूछता हूं, आप विद्यालय क्यों खोलना चाहते हैं? वे कहते हैं मेरे यहां संस्कृत विद्यालय नहीं है। मैं लोगों को संस्कृत बढ़ाना चाहता हूं। मैं पूछता हूं आपके खोले जाने वाले विद्यालय से कितनी दूरी पर संस्कृत विद्यालय है तो अक्सर लोग 10 से 20 किलोमीटर की दूरी बताते हैं। जिन्हें नहीं पता होता है, उन्हें मैं बता देता हूं। मैं पुनः पूछता हूं कि आप की अभिरुचि लोगों को संस्कृत पढ़ाने में है अथवा विद्यालय खोलने में है? यदि लोगों को संस्कृत पढ़ाने में है तो उन्हीं विद्यालयों में नामांकन क्यों नहीं करा देते? छात्रों को अपनी ओर से सुविधाएं क्यों नहीं देते? यदि आपकी इच्छा संस्कृत की सेवा है तो वर्तमान विद्यालय को ही मजबूत कीजिए क्योंकि वही दुर्दशा ग्रस्त है। आपके यहां 10 किलोमीटर से लोग आएंगे भी नहीं। स्थानीय इतने बच्चे मिलते भी नहीं। इससे अच्छा होगा कि आप दूसरे विद्यालय में आवासीय व्यवस्था करा दें। मेरे प्रश्नों का लोग समुचित उत्तर नहीं दे पाते और अक्सर चुप हो जाते हैं। दरअसल संस्कृत विद्यालय खोलने और चलाने के पीछे कुछ और ही लक्ष्य निर्धारित होता है जिसमें संस्कृत सेवा नहीं बल्कि स्वयं की सेवा की सोच होती है। मैं कई बार लिख चुका हूं कि एक-एक व्यक्ति कई विद्यालयों का प्रबंधक बन बैठा है जिससे उसे सुधारना भी मुश्किल हो गया है।
तर्क दिया जा रहा है कि
1- बन्दी नहीं नियुक्ति आवश्यक है ।
2- पहले शिक्षक दीजिये , फिर विद्यालयों को व्यवस्थित कीजिये ।
3- 1994 से यदि संस्थान में शिक्षक नहीं है तो सभी सरकारें दोषी हैं । पर आप तो पहल कीजिए ।
4- नियुक्तियों में यदि विसंगतियां हैं उन्हें तत्काल ठीक करें ।
5- वर्षों से बिना वित्तीय मदद के चल रहे विद्यालयों को बन्द करने का विचार तुरन्त वापस लें ।
6- जब माध्यमिक में ही नियुक्ति नहीं , छात्र नहीं तो क्या आप भविष्य में महाविद्यालय और विश्वविद्यालय भी बन्द करेंगे , यह सोच भी खतरनाक है ।
7- विद्यालयों को वर्षों से खण्डहर बनाकर रखा है, किसी ने मदद नहीं की, अब उन्हें अभिशाप नहीं, अनुदान दीजिये ।
8- जब प्रदेश में लाखों प्राथमिक विद्यालय चल सकते हैं जिनकी दशा किसी से छिपी नहीं , हजारों उर्दू शिक्षकों की नियुक्तियां हो सकती हैं तब बचे खुचे संस्कृत विद्यालयों को बन्द करना अस्वीकार्य है ।
संस्कृत सप्ताह की शुभकामना भी और यह निर्णय भी दोनों एकसाथ उचित नहीं ।
इन सभी तर्कों में लेकिन लगा हुआ है विद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति कर देने मात्र से छात्र संख्या बढ़ जाएगी इसकी संभावना नगण्य है हम लोग प्रायः समाचार पत्रों में यह खबर पढ़ते रहते हैं कि इंटर कॉलेज में पर्याप्त अध्यापकों के रहते भी छात्र नहीं है इसके पीछे कुछ और कारण है। उन कारणों पर भी विचार करना होगा। जिस इंटर कॉलेज में संस्कृत के अध्यापक हैं भी वहां के छात्र संस्कृत पढ़ना ही नहीं चाह रहे हैं। मानविकी के ऐसे तमाम विषय हैं जहां छात्रों का टोटा बना हुआ है, जबकि वहां अध्यापक भी हैं और सभी प्रकार के संसाधन भी। ऐसा इसलिए है क्योंकि इन विषयों को पढ़ने के बाद रोजगार के उतने अवसर उपलब्ध नहीं है जितने की विज्ञान, वाणिज्य,कानून आदि विषयों को पढ़ने के बाद।
यदि आप केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों की लोक सेवा आयोग तथा विभिन्न एजेंसियों द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि सिविल सेवा परीक्षा में अधिकांश इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्र के बच्चों का चयन होने लगा है। बैंकिंग सेक्टर में भी बीटेक किये छात्र की संख्या में इजाफा देखी जा रही है। आज जब हिंदी माध्यम के बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में अपर्याप्त मात्रा में चयनित हो पा रहे हैं तो संस्कृत की स्थिति दूर की कौड़ी है। यह इसलिए क्योंकि हम अपने पाठ्यक्रम में सुधार करना नहीं चाहते । शिक्षण पद्धति में बदलाव लाना नहीं चाहते। स्वयं को रिफॉर्म नहीं करना चाहते। आप जानते होंगे कि हिंदी में करंट अफेयर्स कंटेंट का भारी अकाल रहता है। संस्कृत में तो है ही नहीं फिर प्रतियोगी परीक्षा में छात्र सफल होंगे तो कैसे? मैंने आज से 4 वर्ष पहले उत्तर प्रदेश के परंपरागत माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में परिवर्तन का खाका खींचा था, वह अब लागू होने के कगार पर है। इस पाठ्यक्रम मैं हम बुर्ज खलीफा के बारे में नहीं पढ़ा सकते। ट्रेन 18 के बारे में नहीं बता सकते। यहां कालिदास पढ़ाये जाएंगे जबकि प्रतियोगी परीक्षा में समसामयिक विषयों के प्रश्न पूछे जायेंगे ।
रिफॉर्म करने के लिए जिंदगी लगानी हीं पड़ती है। माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद् कि अपनी वेबसाइट नहीं थी मैंने इसके पीछे लग कर उसका वेबसाइट बनवाया आज उसका फायदा सभी लोगों को मिल पा रहा है। यद्यपि मैं वहां का शिक्षक नहीं हूं फिर भी संस्कृत के हित के लिए काम करना पड़ता है। यदि जागरूक रहते हुए एक एक व्यक्ति एक एक कदम भी सुधारात्मक काम किया होता तो आज यह मुंह देखने को नहीं मिलता। आज से 2 माह पहले 200 से अधिक संस्कृत के शिक्षक जुटे थे जिसमें से 5 अध्यापक ऐसे नहीं मिल पाए जिन्होंने अपने जीवन काल में संस्कृत की कोई कुंजी भी लिखी हो अब आप उनकी शैक्षिक यात्रा से अवगत हो चुके होंगे। लोग तो बस झोला उठाकर सरकार की नौकरी करने चले आए। यदि संकटग्रस्त भाषा संस्कृत को बचाना है तो यहां यह सब नहीं चल पाएगा आप भी मिटेंगे और संस्कृत भी मिट जाएगी।
आवश्यकता इस बात की है कि हर एक अध्यापक को अपनी उपलब्धि दिखाने के लिए कुछ होना चाहिए। उन्हें अध्ययन शील होना चाहिए और बाल्मीकि की तरह लव कुश को पढ़ाना चाहिए। वही लव कुश आज अश्वमेध का घोड़ा रोक लिया होता।
 जो लोग संस्कृत शिक्षा से जुड़े हैं वे बैठकर एक बार सोचें कि उन्होंने जनता को दिखाने लायक क्या काम किया और उनकी अब तक की उपलब्धि क्या रही है। निष्कर्ष स्वयं सामने आ जाएगा।

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2 टिप्‍पणियां:

  1. राहुल वाशिष्ठ, शूकरक्षेत्र सोरों20 सितंबर 2019 को 7:52 am बजे

    आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इस समाचार के प्रकाशन (तिथि, पत्र नाम) प्राप्त अपने समूहों में प्रायः सबसे पूछा, किसी ने अब तक नहीं बताया। "काकेन कर्णोपहृतः... काकः क्व?, काकः क्व?" की स्थिति है।
      ऐसे पत्रों को एकत्रित कर माननीय प्रधानमन्त्री/मुख्यमन्त्री जी को भेजना है,।
      अतः शेयर करने वाले बन्धुगण कृपया पूरी जानकारी के साथ शेयर किया करें।
      धन्यवाद

      हटाएं

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