'वासवदत्ता' नामक गद्य काव्य के रचयिता सुबन्धु का स्थिति काल अनिश्चित है। कुछ विद्वानों
की धारणा है कि सुबंध वाण के परवर्ती थे। सुबन्धु कई शब्दों, पदों तथा घटनाओं के
लिए वाण के ऋणी है । वाण,वामन, वाक्पतिराज आदि ने अपनी रचनाओं में सुबन्धु का उल्लेख
किया है। इसलिए वाण के पहले मानते हैं, क्योंकि उपरोक्त मत का कोई निश्चित प्रमाण
नहीं मिला है। वासवदत्ता सुबंध की एकमात्र रचना है। इसमें महाराज उदयन और वत्सराज
की राजकुमारी वासवदत्ता की सुप्रसिद्ध प्रणयकथा वर्णित नहीं है। वरन् यह वासवदत्ता
संबंधी निजी कल्पना की निर्मिति है।
इस कथा में काव्य-रूढ़ियों का पालन किया गया
है। अलंकारों की मीनाकारी के कारण काव्य का रूप निखर पड़ा है। जहाँ-तहाँ श्लेष का
जाल बुना गया है।
सुबन्धु ने ऐसी रचना की जिसकी प्रशंसा वाणभट्ट
ने खुले दिल से की है। उनका कथन है कि वासवदता से कवियों का अभिमान उसी प्रकार द्योतित
हुआ, जिसप्रकार का इंद्र प्रदत्त कर्ण की शक्ति से पाण्डुपुत्रों का दर्प चूर-चूर
हो गया था ।
सुबन्धु की रचना में न तो दण्डी के दशकुमार चरित की रोचकता है और न वाणभट्ट की कादम्बरी की मोहनी कल्पना है, फिर भी वे संस्कृत गद्य के अमर स्तम्भ हैं।
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