विश्व की रचना दो वर्गों में वर्णित है। ‘‘नाम’’-वेदराशि शब्दात्मक ‘‘रूपं’’ अन्य समस्त विश्ववस्त्वात्मक अर्थ जगत्। एक पद, दूसरा अर्थ; यही अखिल विश्व है। वेद केवल शब्दराशि की नहीं है, अपितु-उस विशिष्ट आनुपूर्वीयुक्त शब्द समूह से जो अन्तर्हित ज्ञान अभिव्यक्त होता है, वेद का वास्तविक यही स्वरूप है। यही ईश्वरीय नित्य ज्ञान, ईश्वरीय प्रेरणा से अभिव्यंजक नित्य शब्दब्रह्म स्वरूप है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है, जो किन्हीं नियत शब्दों द्वारा नियतकाल में भगवान की प्रेरणा से जीवात्माओं के सतत कल्याणार्थ अभिव्यक्त होता है।
वेदराशि अनन्त है ‘‘अनन्ता वै वेदाः’’ ऐसी श्रुति है। यह वेदराशि पूर्व
(प्रारम्भ) काल में एक ही थी। भगवान वेदव्यास जी ने प्राणियों की मन्दमति का अनुभव
कर, उस पूर्ण वेदराशि को ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद तथा अथर्ववेद के रूप में चतुर्धा विभक्त किया है।
जिसको सर्वप्रथम क्रमशः (1) पैल (2) वैशम्पायन (3) जैमिनि और (4) सुमन्तु ने ग्रहण किया। इसीसे (वेदानविन्यास) वेद व्यास जी कहलाये। ‘‘चत्वारोवा इमेवेदा, ऋग्वेदो, यजुर्वेद, सामवेदो, ब्रह्मवेद।’’ ये वेद विभाग संहिता शब्द से ख्यात हैं। इस संहिता का प्रचलन त्रेतायुग में हुआ। ‘‘ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति’’ महा.शा.प. 1308 श्लो. गो.ग्रा. 2/16 ऋग्वेद पठनकाल में पैल के वाष्कल और शाकल दो शिष्य थे। जिन्होंने यथाक्रम स्ववेद को चार, पांच भागों में विभक्त किया। गृहीत यजुर्वेद केा वैशम्पायन जी ने अनेक शिष्यों को पढ़ाया; जिनमें एक याज्ञवल्क्य भी थे। किसी प्रकार गुरु-शिष्य विवाद के कारण याज्ञवल्क्य जी ने पढ़े हुए वेद का परित्याग कर दिया। उस समय वैशम्पायन जी एक अन्य शिष्यों ने तित्तिर (पक्षि) रूप धारण कर उसे धारण किया। यह वेदभाग कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता हुई। याज्ञवल्क्य जी ने सूर्योपदेश से वेद का अधिग्रहण किया वह शुक्लयजुर्वेद नाम से ख्यात है। जैमिनि गृहीत सामवेद पाठनान्त सहò नाम से विभक्त हुआ। उनमें पौष्य जी प्रभृति सहस्त्रों शिष्य हुए। वे औदीच्य कहलाए। गृहीत अथर्ववेद को सुमन्तु ने कवन्ध को उपदिष्ट किया। उनके वेददर्श और पत्य दो शिष्य हुए। उपर्युक्त वेद की चारों शाखाएं वेदत्रयी पद या त्रयी पद से वर्णित हैं। इन वेदों का यज्ञार्थ कर्म में साक्षात्संबन्ध है। ये चारों वेदभाग ही मंत्रसंहिता रूप हैं। वस्तुतः वेदराशि मंत्र ब्राह्मणात्मक ‘‘वेदनामधेय’’ है। महर्षि पतञ्जलि के मत से एक शतमध्वर्युशाखा सहस्त्रवर्त्मा सामवेदः एक विंशतिधा ऋग्वेद; नवधा आथर्वणो वेदः।
ऋक् की 21
शाखाओं में से एक शाकल शाखा ही उपलब्ध है। यही ऋग्वेद के रूप में परिगणित है। यह 10 मण्डल 1028 सूक्तों में वर्णित है।
यज्ञ प्रक्रिया प्रतिपादन परक
गद्यरूप वेदभाग यजुर्वेद में है। कृष्ण यजुर्वेद में तैत्तिरीय संहिता में
अग्न्याधान प्रभृति; अग्निष्टोम; वाजपेयादि
विविध यज्ञों की प्रक्रियायें हैं। ये सभी असाधारण ज्ञान कौशलपूर्ण हैं। जो
साङ्गोपाङ्ग विस्तारपूर्ण पठन-पाठन से विस्मय में डाल देने वाली हैं।
शुक्लयजुर्वेद
की वाजसनेयी शाखा के 40 अध्याय हैं। इनके प्रथम 25 अध्यायों में महत्वपूर्ण यज्ञ विधियां हैं, 26 से 35
तक अखिल संज्ञक हैं जिनको पूर्णकाध्याय प्राचीन परम्परा में कहा है।
36 से 39 में प्रबन्ध भाग हैं। 40वां ईशोपनिषद हैं। इन दोनों संहिताओं में कर्म और ज्ञान दोनों ही का विवरण
है। यज्ञ-प्रसंग में अध्वर्यु यजुर्वेद का ही उपयुक्त माना गया। सामवेद की 1000
शाखाओं में से एक ही शाखा है। उसके 2 भाग हैं।
(1) आर्चिक (2) उत्तरार्चिक। दोनों में
ऋग्वेद की ही ऋचायें हैं। ऋक् संख्या 1800 में से 1549
ऋग्वेद में से हैं।
तित्तिर (पक्षीविषेश) ऐसा नाम ही क्यु? तित्तिर से क्या सम्बन्ध है?
जवाब देंहटाएंतितिर ऐसा नाम क्यूं।
जवाब देंहटाएंप्रश्न. वाजपेयदि यज्ञ कब कहां और कैसे किया जा सकता है?
जवाब देंहटाएंयजुर्वेद के कितने भेद है?
जवाब देंहटाएंयाज्ञवल्क्य जी ने वेद का त्याग क्यों किया?
जवाब देंहटाएंचारों वेदों की शाखाएं कम कैसे हुई?
जवाब देंहटाएंयजुर्वेद यज्ञ यज्ञादि के लिए उपयोगी है तो ऋग्वेद मैं क्या वर्णित है?
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