लेखिका
डॉ.नवलता
के-680, आशियाना कॉलोनी, लखनऊ
आज सम्पूर्ण विश्व एक भयानक सङ्क्रान्ति की जिस विभीषिका की त्रासदी में फँस गया है वह चिन्ता, चिन्तन तथा चुनौती का विषय है। मैंने अपने जीवनकाल में किसी ऐसे महारोग के विषय में न पढ़ा और न ही सुना जो विगत कुछ शताब्दियों में भी एक साथ पूरे विश्व के लिये आतङ्क का केन्द्र बना हो। सर्वत्र एक ही समस्या, एक ही चर्चा, एक ही युद्ध का उपक्रम चल रहा है, कोरोना,कोरोना, कोरोना। भारत में सब ओर वार्ता और विश्लेषण का एक ही बिन्दु है कोरोना। सरकार तथा स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा छोटे-बड़े, साक्षर-निरक्षर, नागरिक-ग्रामीण सभी को जागरूक कर इसे तृतीय स्तर तक पहुँचने से रोकने के लिये हर सम्भव प्रयास किया जा रहा है।
इस
महामारी के इतिहास पर दृष्टिपात किया जाये तो ज्ञात होगा कि पूर्व में मध्य चीन के
वोहान नगर में समुद्री भोजन के बाज़ार में मछलियाँ तथा जीवित पशुओं को बेचने वाले
व्यापारियों में दिसम्बर 2019 में अचानक विना किसी जलवायवीय परिस्थिति के निमोनिया
होने लगा। प्रथम रोगी 1 दिसम्बर 2019 को संज्ञान मों आया। धीरे-धीरे इसने महामारी
का रूप धारण कर लिया और देखते ही देखते थाईलैण्ड, दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान,
मकाई, हाँगकाँग, संयुक्तराज्य अमेरिका, सिंगापुर, वियतनाम होते हुये भारत, ईराक,
इटली, क़तर, दुबई और कुबैत आदि लगभग 200 देशों में फैल गया। 23 जनवरी 2020 को
विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन ने इसे अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बताकर सार्वजनिक
स्वास्थ्य आपात् काल घोषित कर दिया।
कोरोना
नामक प्रबल विषाणु जिस वेग से सङ्क्रमण फैला रहे हैं उन्हें नियन्त्रित कर समूल
समाप्त करने के प्रयास में पूरे विश्व के जीववैज्ञानिक तथा चिकित्सावैज्ञानिक जुटे
हैं। आकाश की अनन्त ऊँचाइयों को छूता
विज्ञान, सभी देशों के राष्ट्रनायक तथा प्रबुद्ध विचारक वर्ग अब इसकी गम्भीरता को
समझ चुके हैं तथा विना किसी पारस्परिक विरोध के अपने अपने स्तर पर स्वयं तथा विश्व
के कल्याण के लिये इससे निपटने की तैयारी में है।
भारत में
30 जनवरी को केरल में प्रथम रोगी की पहचान हुई तथा 23 मार्च 2020 तक की रिपोर्ट के
अनुसार अब तक कोरोना से मरने वालों की संख्या भारत में 7 थी। यह कहने में तनिक भी
सन्देह तथा सङ्कोच नहीं करना चाहिये कि भारत जैसे 130 करोड़ जनसंख्या वाले देश में
यह संख्या सरकारी प्रयास तथा प्रभावी जनजागरूकता के कारण ही यह संख्या अब तक अन्य
देशों से बहुत कम है। यथासमय इसे नियन्त्रित कर यह संख्या आने वाले समय में न
बढ़े, इसके लिये हर सम्भव प्रयास आपात्कालीन स्तर पर किये जा रहे हैं जिनमें
चिकित्सकीय उपायों के अतिरिक्त आध्यात्मिक उपाय भी सम्मिलित हैं। यह एक आकस्मिक
तथा अप्रत्याशित सङ्कट का काल है जिसे हम पार ही कर लेंगे। किन्तु इसके साथ ही यह
आत्ममन्थन का समय भी है। इस लेख में इस ओर ध्यान आकर्षितकरने का प्रयास करूँगी कि
किस प्रकार ऐसी त्रासदियों से बचने के लिये आध्यात्मिक चेतना प्रभावकारी होती है।
भारत एक
आध्यात्मिक प्रकृति वाला देश है जिसकी सांस्कृतिक चेतना में शरीर, मन और आत्मा
(जीवात्मा) के सन्तुलनात्मक उत्कर्ष का भाव निहित है। यही स्वास्थ्य की परिभाषा
कही जा सकती है। एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति वही है जो स्वस्थ हो, स्व अर्थात्
आत्मस्वरूप में स्थित हो। आत्मा (जीवात्मा) का अवस्थान मन तथा शरीर है अतः एक
स्वस्थ व्यक्ति का शारीरिक अवयवसंस्थान एवं मानसिक शक्तियाँ सन्तुलित, विकाररहित
तथा सक्रिय होती हैं। हमारे सभी दार्शनिक सम्प्रदायों तथा समस्त धर्मशास्त्रीय
आचारशास्त्र का आधार उक्त स्वास्थ्य का संरक्षण, अनुरक्षण तथा संवर्धन है जिसके
दो महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। प्रथम विजातीय
तथा विधर्मी तत्त्वों से प्रतिरक्षा या बचाव तथा द्वितीय सजातीय तथा सधर्मी
तत्त्वों का आहरण और स्वीकरण।
कुछ और
विस्तार से इन प्रत्ययों को स्पष्ट किया जाये तो सर्वप्रथम आध्यात्मिक चेतना के
अभिप्राय को समझना होगा। प्रायः लोग आध्यात्मिकता का अर्थ ईश्वर में श्रद्धा तथा
आस्था, पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, भक्ति-साधना आदि आस्तिक भावमात्र समझते हैं। यद्यपि
ये सभी घटक आध्यात्मिकता के साधक हैं किन्तु इनके माध्यम से शारीरिक शुचिता तथा
शुभसङ्कल्पात्मक मन के द्वारा जीवात्मा को जीवन के लिये दीर्घ काल तक अनुकूल
वातावरण का सृजन करना आध्यात्मिकता का
यथार्थ स्वरूप है। इसी प्रकार जिस विजातीय-सजातीय तथा विधर्मी-सधर्मी शब्दों का
उल्लेख पूर्व पंक्तियों में किया गया उसे रूढ़ तथा सङ्कीर्ण अर्थ में नहीं ग्रहण
किया जाना चाहिये। जाति का शास्त्रसम्मत और सुनिश्चित अर्थ एक ही है और वह है अनेक
व्यक्तियों अथवा इकाइयों में प्राप्त होने वाला एक और समान स्वाभाविक धर्म। स्मरण
रहे कि मानव द्वारा व्यवहृत जाति औपाधिक है तथा केवल वर्गों का विभाजन करना उसका
उद्देश्य है। धर्म तत्त्वगतस्तर पर धारणात्मक
वैशिष्ट्य तथा व्यवहारगत स्तर पर व्यष्ट तथा समष्टि के समग्र स्वास्थ्य के लिये
विहित आचरण है। समस्त वैदिक वाङ्मय, भारतीय दर्शन तथा धर्मशास्त्र इसी दिशा में
अनुसन्धान तथा अनुशासन करते रहे हैं।
भारत की
मिट्टी के कण-कण में, भारत के मूल निवासियों की रग-रग में परम्परागत रूप से वह
संस्कार तथा अनुशासन स्वजाति तथा स्वधर्म के रूप में व्याप्त है जिसे आध्यात्मिकता
का नाम दिया जाता है। किन्तु जब से विजातीय तथा विधर्मी तत्त्वों का प्रवेश भारत
की पावन भूमि पर हुआ तब से हमारे आचरण और अनुशासन में छिद्र होने आरम्भ हो गये। स्पष्ट
कर दूँ कि तत्त्व का अभिप्राय व्यक्ति नहीं, विचार है। सहस्रों-सहस्रों वर्ष की
परम्पराओं में कैसे धीरे-धीरे परिवर्तन आया यह भारत के सांस्कृतिक इतिहास के
अध्ययन से ज्ञात होता है किन्तु यह आश्चर्य का विषय है कि विदेशी शासन में शिक्षा
के ह्रास तथा मानसिक उत्पीड़न के पश्चात् भी स्वतन्त्रता से पूर्व तक भारतीय समाज
के बहुत बड़े वर्ग ने अपनी उन परम्पराओं को सुरक्षित रखने का प्रयास किया था जिनका
आधार दार्शनिक तथा धर्मशास्त्रीय सिद्धान्त थे। किन्तु सामाजिक सुरक्षा के भय से
उन सिद्धान्तों तथा मान्यताओं ने सङ्कीर्ण
रूढ़िगत प्रथाओं का रूप लेना प्रारम्भ कर दिया।
स्वतन्त्रता
के पश्चात् अँग्रेजी शिक्षा के प्रभाव, नेतृवर्ग द्वारा विकासशील राष्ट्र के
पुनःनिर्माण की दिशा में किये जाने वाले सामाजिक परिवर्तन तथा आधुनिकता की दौड़
में अपना स्थान सुनिश्चित करने की मृगतृष्णा ने अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं तथा
जीवनपद्धति में छिपे व्यापक जीवनदर्शन को समझ पाने की बुद्धि पर आवरण डाल दिया।
धीरे-धीरे सांस्कृतिक सांकर्य की स्थिति उत्पन्न हो गई जहाँ हमारे परिवारों में दो
प्रकार का आचरण दिखाई देने लगा। स्वतन्त्रता से ठीक पहले तथा स्वतन्त्रता के ठीक
पश्चात् की युवा पीढ़ी में यह परिवर्तन आरम्भ हो चुका था। उस समय बड़े-बूढ़े खान-पान,
जीवनशैली तथा जीवनचर्या में पहले जैसी विचारधारा को ही स्वीकार करते थे जबकि नई
पीढ़ी में तथाकथित आधुनिक विचारधारा पनपने लगी थी। पाश्चात्य जीवनशैली को आधुनिकता
का पर्याय माना जाने लगा। देखते ही देखते कब पाश्चात्य खान-पान, वेश-भूषा,
भाषा-बोली और दिनचर्या ने हमारे परिवारों में घुसपैठ कर ली, हम समझ ही नहीं
पाए।
आधुनिकता
और विकास की नयी परिभाषाओं ने पूरे भारतीय सामाजिक ढाँचे को आमूलचूल नये आवरण में
आबद्ध कर दिया। पाश्चात्य देशों के साथ आर्थिक स्पर्द्धा को विकास की नवीन
सम्भावनाओं के रूप में देखा जाने लगा। जीविका के क्षेत्र तथा अवसरों में तेज़ी से वृद्धि
होने लगी। इसके साथ ही मध्यम वर्गीय समाज में उच्च सामाजिक जीवनस्तर की प्रत्याशा
आधुनिक शिक्षा के प्रति उन्मुखीकरण का कारण बनी। किन्तु राष्ट्रीय विकास के सङ्क्रान्ति
काल में हमारे नीतिनिर्माताओं से चूक पर चूक होती रही। सर्वाङ्गीण विकास का उद्घोष
करने वाले शिक्षातन्त्र ने जिस प्रकार भारतीय गुरुकुल-आधारित शिक्षा का तिरस्कार
तथा परम्परागत पाठ्यचर्या का समूल बहिष्कार कर पाश्चात्य शिक्षापद्धति को
प्रोत्साहन देना आरम्भ किया, उसके
परिणामस्वरूप भारतीय मस्तिष्क में पाश्चात्य विचारों ने घर करना आरम्भ कर दिया।
भारतीय आचार-विचार को समाज अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादी सोच कह कर त्यागने लगा। एक
नये अधकचरे समाज का ढाँचा तैयार होने लगा, जो न तो पूरी तरह पाश्चात्य था और न
भारतीय। अपितु यह कहना चाहिये कि यह ढाँचा हमारी पीढ़ी ने ही तैयार किया है।
स्वतन्त्र
भारत में जन्मे हमारी पीढ़ी के लोग उसी अधकचरे भारतीय समाज का अङ्ग हैं। परिवर्तन
के सङ्क्रान्ति काल में जन्म लेने का
सौभाग्य पाकर हम स्वयं को धन्य मानते हैं। हम लोकतन्त्रात्मक संविधान द्वारा
नियन्त्रित हैं, हमें धर्माचरणगत, सम्ग्रदायगत, भाषाभूषागत तथा विचाराभिव्यक्तिगत
स्वातन्त्र्य है। एक प्रकार से अपनी सम्पूर्ण जीवनशैली के स्वीकरण तथा अङ्गीकरण के
लिये हम पूर्ण स्वतन्त्र हैं।
विज्ञान
एवं विकास को शुष्क तर्क के आलोक में देखते हुये हम प्रत्येक उस वस्तु या क्रिया
को आँखें बन्द कर अपनाने लगे हैं जिस पर विकसित देशों की मुहर लगी है। चाहे वह
खान-पान हो, रहन-सहन हो, वेशभूषा हो, शिक्षा हो, दिनचर्या हो, भाषा हो अथवा
विचारदृष्टि हो। एक प्रकार से हम अपनी मौलिक जीवनपद्धति तथा संस्कृति को त्याग कर
आयातित तथा आरोपित जीवन को न केवल अपना रहे हैं, अपितु उसमें गौरव की अनुभूति करने
लगे हैं। स्वधर्म को त्याग कर परधर्म का पालन करने में हमारी प्रवृत्ति बढ़ रही
है। शायद हम अपने इस परिवर्तित आयाम को प्रगति का सोपान मानने लगे हैं।
मुझे स्मरण है, अपने बचपन में
छोटी कक्षाओं में हमें बार-बार यह रटाया जाता था कि भारत एक ग्रामप्रधान देश है
जिसकी सम्पूर्ण आर्थिक व्यवस्था कृषि पर निर्भर है। हमारे पाठ्यक्रम में कुटीर
उद्योगों का विस्तार से विवेचन किया जाता था। नागरिकशास्त्र में हमें नागरिकों के
कर्तव्य तथा अधिकारों के विषय में ज्ञान कराया जाता था। पूर्वजों के जीवनचरित तथा
नीतिकथाओं के माध्यम से भारत के सांस्कृतिक मूलाधार का परिचय कराने के साथ ही अपने
जीवननिर्माण की सुनिश्चित तथा स्पष्ट दिशादृष्टि प्रदान की जाती थी। घर-परिवार के
सदस्यों के साथ सामञ्जस्य तथा सौमनस्य का सहज उपदेश दिया जाता था। यही नहीं, पड़ोसियों
के साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध का संस्कार परिवार के साथ ही शिक्षकों के संवाद से मिलता
था।
गृहविज्ञान में गृह के परिसर से लेकर परिवार तथा पारिवारिक
सङ्घटन के एक-एक बिन्दु को पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता था। घर की साफ-सफाई,
गृहप्रबन्धन, शरीरविज्ञान जिसमें अपने शारीरिक अवयवों के विकासात्मक ज्ञान के साथ
ही स्वास्थ्य तथा प्राथमिक उपचार का प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से दिया जाता था।
भारतीय हिन्दू परिवारों में ‘‘धर्माचरण’’ का निश्चित अनुशासन होता था
जिसका पालन करने का संस्कार परिवार के प्रत्येक सदस्य को परम्परा से मिलता था।
मुझे स्मरण है कि आज से 50-55 वर्ष पूर्व मेरे बचपन में मेरी माँ अपने बचपन की
बातें, अपने परिवार की जीवनचर्या साझा करते हुये बतलाती थीं कि उनके घर में कोई भी
बाहर का व्यक्ति घर के अभ्यन्तर कक्षों में नहीं आता था। तथापि पड़ोस के लोगों के
साथ कुटुम्ब जैसै सम्बन्ध होता था। एक दूसरे के छोटे-बड़े सुख-दुःख में न केवल लोग
सम्मिलित होते थे अपितु उनमें उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे।
घर के अन्दर कोई जूता-चप्पल पहन कर नहीं जाता था। सामान्यतः
महिलाएँ तथा बालिकाएँ घर की स्वच्छता तथा भोजनपाक का कार्य करती थीं किन्तु
काम-काज जैसे अवसरों पर महाराज आते थे। प्रजाजन (परजा) के साथ निश्चित सामाजिक
दूरी होती थी किन्तु उनके योगक्षेम का नैतिक दायित्व परिवार के लोगों का होता था।
साथ ही परिवार के सदस्य उन्हें वय के अनुसार भइया, काका आदि कौटुम्बिक सम्बोधन
देकर सम्मान करते थे। इस प्रकार भावात्मक स्तर पर सच्चा और सहज आत्मीय सम्बन्ध था
जबकि व्यावहारिक स्तर पर एक दूरी होती थी।
माँ बतलाती थीं कि उनके घर में रसोई में या तो उनकी माँ
जाती थीं अथवा दादी। दादी का अनुशासन था कि रसोईघर में कोई बाहर को वस्त्र पहन कर
नहीं जायेगा। रसोई के वस्त्र अलग होते थे। माँ या दादी रसोई में जाकर तुरन्त
वस्त्र बदलती थीं। घर के अन्दर तथा चौके में अलग अलग चट्टी (लकड़ी की पादुकाएं)
पहनती थीं। चौका बढ़ाने तथा स्वच्छ करने के पश्चात् पुनः वह वस्त्र धोकर निचोड़कर
वहीं सूखने के लिये फैला देती थीं और दूसरे वस्त्र पहन लेती थीं। ईन्धन की लकड़ी
दूकान से घर आने पर, अथवा सीधे रसोई में आने पर सर्वप्रथम गङ्गाजल (जिसे
सेनिटाइज़र कहना अनुचित न होगा) छिड़का जाता था। तब आहिताग्नि (जो मिट्टी की बरोसी
में अहर्निश दीप्त रहती थी) से चूल्हा जला कर भोजन पकाती थीं। चौके में कोई भोजन
नहीं खा सकता था। रसोई के बाहर पोंछा देकर (गाँवों में गोबर या मिट्टी का पोता
दिया जाता था) परिवार के लोगों को भोजन परोसा जाता था। जो भोजन बनाता था वही
परोसता भी था। हाँ, परोसते समय थाली चौके की सीमा से बाहर रहती थी जिसमें दूर से
भोजन परोसा जाता था। यदि भूल से कोई बच्चा भी चौके में चला गया या भोजन परोसते समय
थाली से परिवेशनपात्र का स्पर्श हो गया तो सारा भोजन जूठा मान लेती थीं। वह भोज्य
नहीं रह जाता था। वह सारा भोजन फिर पशुओं को खिला दिया जाता था। सबके भोजन करने के
पश्चात् भी बचा हुआ भोजन पशुओं को खिला दिया जाता था। अभिप्राय यह कि पारिवारिक
चर्या के प्रत्येक चरण में स्वच्छता तथा पवित्रता का कठोर अनुशासन अनिवार्य था
जिसे परवर्ती पीढ़ी आडम्बर, ढँकोसला आदि नामों से उपहास का विषय मानने लगी।
मध्यम वर्गीय परिवारों में किसी भी सदस्य का सागर पार विशेषतः यूरोप के देशों
में जाना निषिद्ध था। यहाँ तक कि किसी परिवार का कोई सदस्य ऐसी विदेश यात्रा करता
था तो उस परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था। इसका कारण तब समझ में नहीं
आता था। आज सोचती हूँ कि सम्भवतः सांस्कृतिक सांकर्य के भय से ऐसा किया जाता
होगा।
यदि पारिवारिक दिनचर्या की बात करें तो प्रायः सभी परिवारों
में प्रातः ब्राह्म मुहूर्त में जागरण से दिन का आरम्भ होता था। नित्यक्रिया से
निवृत्त होकर आबालवृद्ध नरनारी स्नान करते थे, पूजा अर्चना का क्रम आरम्भ होता था
जिसमें प्रायः सभी सदस्य सम्मिलित हुआ करते थे। गोघृत अथवा देशी घृत का दीपक जलाया
जाता था। इष्ट देवता की उपासना के साथ किसी धार्मिक ग्रन्थ के अंशों का पाठ किया
जाता था। फिर आरती के साथ शङ्ख घण्टी या घण्टा बजाया जाता था। सभी आरती का उपस्पर्श
करते थे। तदनन्तर वह आरती का दीपक तथा तुलसीदलमिश्रित चरणामृत पूरे घर में छिड़क
कर पवित्रीकरण किया जाता था।
तुलसी चौरा प्रत्येक घर के आँगन में हुआ करता था। भोजन बन जाने पर भोग लगाकर
ब्रह्मार्पण करना गाय तथा कुत्ते की रोटी निकालना तथा भोजन का एक कण भी पर्युषित न
हो इसके लिये भोजन के पात्रों को जल से खँगाल कर उसका जल पशुओं को देना इत्यादि
अनेक ऐसे कार्य थे जो दिनचर्या का अङ्ग थे किन्तु कभी उनके स्वास्थ्यविषयक पक्ष की
ओर ध्यान ही नहीं जाता था। दिन भर के पश्चात् घर में बच्चों के साथ माता-पिता का
जुड़ाव, सूर्यास्त (कुबेरिया) के समय लेटने, सोने, पढ़ने, भोजन तथा बाहर टहलने
जैसे कार्यों का निषेध, सन्ध्या के समय दीपक अथवा बिजली का बल्ब जलाकर उसे प्रणाम
करना, दीपक जलाकर कपूर द्वारा सान्ध्य आरती, गुग्गुल, लोबान या गोमय की करसी जलाकर
घर के द्वार पर रखना इत्यादि भोजन के पहले की चर्या थी। प्रातः के पश्चात् सायं
शौच तथा स्नान अथवा मुँह-हाथ-पैर धोकर भोजन तदनन्तर परिवार के साथ बैठ कर परस्पर
अनौपचारिक संवाद पठन-पाठन तथा अन्त में ईश्वरस्मरण कर निद्रा देवी का आह्वान कर सो
जाने से दिनचर्या का समापन होता था।
उस ‘धर्मनिष्ठ’ जीवन में आचार-विचार की पवित्रता की
रक्षा तथा तथा उसमें तनिक भी शैथिल्य से
धर्म भ्रष्ट होने का भय हमारे लिये उपहास तथा उपेक्षा का विषय बन गया।
एक-एक आचारगतमर्यादा के पीछे छिपे स्वास्थ्यजागरूकता के रहस्य को न समझ कर हम नयी
पीढ़ी के लोगों ने धर्म के अर्थ का अनर्थ कर दिया। शनैः शनैः आधुनिकता और विकास के
बढ़ते चरणों ने उस जीवनचर्या को, उस दिनचर्या को पीछे छोड़ दिया। प्रातः से सायं
तक पूजा-पाठ, घण्टा-आरती किंवा वह सब कुछ आडम्बर और पिछड़ेपन का परिचायक लगने लगा
जो परम्पराओं से जुड़ा था, लोकरीति से जुड़ा था।
ग्रामों से नगरों, नगरों से प्रान्तों तथा प्रान्तों से
विदेशों में जीविका के लिये जाने का चलन बढ़ता गया। हमें बचपन में सन्तोष और अपरिग्रह का जो पाठ पढ़ाया जाता था
उसका स्थान भौतिक जीवनस्तर ने ले लिया जिसके परिणामस्वरूप यश प्रतिष्ठा तथा उन्नत
जीवनस्तर का पर्याय धन का गुरुत्व माना जाने लगा। भारत में ‘गतानुगतिको लोकः’ की
कहावत को चरितार्थ करते हुये पहले तो धनसम्पन्न वर्ग ने अपनी सन्तानों को विदेश
में शिक्षा तथा सेवा हेतु भेजना आरम्भ किया। धीरे-धीरे मध्यम वर्ग ने अपनी
महत्त्वाकांक्षा की डोर को विदेशी शिक्षा और फिर विदेशों में नौकरियों तक फैला
दिया।
वैश्विक विकास तथा आर्थिक वैश्वीकरण के नाम पर बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों के प्रवेश के साथ ही हमारी वर्तमान नई पीढ़ी के जीवन मूल्य, नैतिक आधार,
खान-पान और जीवनचर्या में अप्रत्याशित परिवर्तन आया। घरों में आधुनिकता के नाम पर
वे सब क्रियाकलाप तथा आचार-विचार उच्छिन्न होने लगे। वर्णाश्रम में स्थित सामाजिक
मर्यादाएँ टूटने लगीं। स्वच्छता तथा पवित्रता की रक्षा के लिये किये जाने वाले
विधि-निषेधों को पिछड़ेपन का प्रतीक माना जाने लगा। समाजवाद तथा साम्यवाद की दुहाई
देकर अस्पृश्यता के निहितार्थ का उपहास किया जाने लगा। साथ ही अस्पृश्यता को
सामाजिक स्तर पर एक वर्गगत परिधि में सङ्कुचितकर व्यवहार किया जाने लगा। हमारी
भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म के मूलार्थ को भ्रष्ट राजनीतिक षड्यन्त्र का
लक्ष्य बनाकर, शिक्षानीति एवं पाठ्यचर्या से निकाल कर जनसामान्य को इतना
दिग्भ्रान्त कर दिया गया कि वर्तमान पीढ़ी की सांस्कृतिक चेतना नष्टप्राय हो गई।
यह भी ध्यान देने की बात है कि पिछले कुछ दशकों में विकास
के नाम पर प्रकृति का अतिशय दोहन तथा छेड़छाड़, प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग,
प्रकृतिविरुद्ध आचरण तथा परिग्रह की प्रवृत्ति इतनी अधिक बढ़ी है कि सामाजिक,
आर्थिक एवं प्राकृतिक सन्तुलन निरन्तर बिगड़ता ही जा रहा है। वर्तमान पीढ़ी उन सभी
नियमों, मर्यादाओं तथा आचरणों को पुरातनपन्थी और कालबाह्य (outdated) दृष्टि कह कर अस्वीकार कर रही है।
प्रकृति के जिन उपादानों को, जिन वृक्ष-पादपों को देवता मान कर स्तुति तथा
पूजा-अर्चना कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाती थी उन्हें जड़ प्रकृति कह कर
केवल उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। नास्तिकता आधुनिकता का पर्याय बन रही है। धार्मिक
आचारों की बात करने वाले लोगों को या तो सामान्य बहुसंख्यक समाज आध्यात्मिक या
सन्त कह कर केवल कोरे सम्मान का पात्र मानता है अथवा पुराणपन्थी कह कर उपहास करता
है।
अँग्रेजी शिक्षा, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में उच्च वेतन पर
जीविका हेतु जाने की सामूहिक महत्त्वाकांक्षा तथा उन्मुक्त जीवन के मद ने आश्रम तथा संस्कार की नैतिक मर्यादाओं को
तोड़कर स्वच्छन्द तथा प्राकृत जीवन का विषाक्त वातावरण उत्पन्न किया है जो भारत
जैसे देश में चिन्ता का विषय है। एक बड़ा वर्ग जो अभी तक इन्हें अपनाये हुये है
वहाँ भी आश्रम और संस्कार केवल औपचारिक कर्मकाणड तक सीमित रह गये हैं। इनके
वैज्ञानिक, चिकित्साशास्त्रीय तथा समाजशास्त्रीय पक्ष की ओर लोगों का ध्यान नहीं
जा रहा है। विशेषतः विवाह संस्था जिस प्रकार सङ्कट में है वह आने वाले समाज के
सम्पूर्ण स्वरूप को विकलाङ्ग बनाने वाला है, यह एक कटु सत्य है। उच्छ्रङ्खलता की
सीमाओं को पार करती नई पीढ़ी स्वच्छन्द यौनाचार में भी प्रवृत्त हो रही है जिसका
प्रमाण ‘लिव इन’ जैसी कुप्रथा
में देखने को मिल रहा है।
अमर्यादित, असंयमित तथा अनियन्त्रित जीवनचर्या एवं निराधार
तर्कों (कुतर्कों) के विषौषध से भावित आचार-विचार के कारण निश्चय ही जहाँ एक ओर
पहले की अपेक्षा लोगों की शारीरिक तथा मानसिक प्रतिरोधक क्षमता को कम किया है तो
दूसरी ओर दैवी आपदाओं को सहज आमन्त्रण दिया है। अन्य बहुत से विषय हैं जिन पर
गम्भीरता से चिन्तन करने की आज आवश्यकता है। नवीन विज्ञान तथा तक्नीकों के
अनुसन्धानों द्वारा जिन नित्य नवीन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों जैसी युक्तियों को
जनसाधारण तक उपलब्ध कराने का अबाध अनियन्त्रित बाज़ारीकरण होने लगा है उसके
नीतिशास्त्रीय पक्ष के ज्ञान के विना इन युक्तियों के अनावश्यक प्रयोग (दुरुपयोग)
से उत्पन्न सम्भावित दुष्परिणाम की ओर भी हमारा ध्यान जाना चाहिये। विशेषतः सोशल
मीडिया के अबाध उपयोग को जिस प्रकार तक्नीकी ज्ञान में कुशलता तथा सामाजिक
सम्प्रेषणता द्वारा वैश्विक सम्बद्धता का माध्यम समझा जा रहा है उस पर भी
विचारपूर्वक आत्मनियन्त्रण तथा सरकारी प्रतिबन्ध आवश्यक है।
अनन्त और अखण्ड ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के अनियन्त्रित विखण्डन
से भी न केवल प्रकृति में विक्षोभ तथा असन्तुलन होता है अपितु उसका दुष्परिणाम
वैद्युत महामारी के रूप में किसी भी समय पूरे विश्व पर आक्रमकारी हो सकता है। विश्व
के वैज्ञानिकों को इसके आध्यात्मिक पक्ष पर चिन्तन कर विश्वकल्याण के लिये इन
संसाधनों के प्रयोग की सीमाओं तथा क्षेत्रों का निर्धारण समय रहते अवश्य करना
चाहिए। कहना न होगा कि जब मानव प्रकृतिविरुद्ध आचरण की सीमाओं का अतिक्रमण करने
लगता है तो प्रकृति उसे किसी न किसी रूप में पहले चेतावनी देती है। यदि तब भी मानव
सतर्क नहीं होता तो अपने कोप का विध्वंसकारी रूप दर्शा कर प्रकृति मानव को दण्डित
करती है।
आज जब सम्पूर्ण विश्व कोरोना जैसे दुर्भेद्य विषाणु की चपेट
में है, हमें उक्त कथ्य पर विचार करना होगा। यद्यपि चीन से इस विषाणु के व्यक्त
होने से लेकर इस समय तक प्रतिक्षण चिकित्साविज्ञान इसके कारण, स्वरूप तथा उपाय के
अनुसन्धान में लगा है तथा यह सन्तोष का विषय है कि भारत में इससे प्रभावित होने
तथा मृत्यु की दर अन्य देशों की अपेक्षा कम है। इसका प्रत्यक्ष कारण निश्चय ही
हमारे सुयोग्य तथा दूरदर्शी प्रधानमन्त्री के त्वरित निर्णय, वैयक्तिक स्तर पर
प्रयास एवं सक्रियता, योजनाबद्ध व्यापक नियोजन की प्रतिबद्धता और सबसे अधिक हमारे
देश की सांस्कृतिक परम्पराओं में निहित वैज्ञानिक चिन्तन में सामूहिक स्तर पर अटूट
विश्वास तथा अधिकांश जनता की सहज आध्यात्मिक चेतना को कहा जा सकता है। परोक्ष कारण
प्रत्येक भारतीय की अन्तश्चेतना में सुप्त वह मूल संस्कार है जो इस महाविपत्ति के
समय जाग्रत हो उठा है तथा जिसे हम उपर्युक्त विक्षेपकों से उत्पन्न आधुनिकता के
मिथ्या अहङ्कार के कारण भूल गये थे। यदि कुछ जड़बुद्धि आत्महन्ताओं की बात छोड़ दी
जाये तो राष्ट्र की सामूहिक इच्छाशक्ति तथा जिजीविषा आज जाग कर एकरूप हो गई है।
आज हम सबको इसी सामूहिक स्तर पर, समष्टिगत स्वार्थ के लिये
आत्मचिन्तन तथा आत्मविश्लेषण करना होगा। जिन सनातन परम्पराओं तथा जीवनचर्या को
पुरातन और कालबाह्य कह कर हम त्याग चुके हैं उनके मर्म को तर्क एवं विज्ञान के
आलोक में पुनरीक्षित कर पुनः स्वीकार तथा अङ्गीकार करना होगा। आज मुझे अपनी माँ
द्वारा बताये हुये उनकी पारिवारिक प्रथाओं में आडम्बर तथा अन्धविश्वास के स्थान पर एक
सुनियोजित जागरूकता तथा वैज्ञानिक जीवनदृष्टि का विश्वास होता है। अपने शास्त्रों
के सारभूत सिद्धान्त ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ तथा ‘सर्वभूतहिते
रतः’ का आध्यात्मिक विज्ञान समझ में आता है।
ऐसा नहीं है कि सब पुराना ही सर्वश्रेष्ठ है अथवा नया सब
व्यर्थ है। किन्तु नवीन के अनुसन्धान में पुरातन का तिरस्कार तथा बहिष्कार
युक्तिसङ्गत नहीं। इसके अतिरिक्त यथासम्भव मनुष्य को प्रकृति के साक्षात्
सान्निध्य में रहना हितकर है, यह अब पूरा विश्व समझने लगा है। यद्यपि इस बोध में
बहुत देर हो चुकी है किन्तु अन्त नहीं हुआ
है। मूलप्रकृति साम्यावस्थारूप है जिस में सत्त्व, रजस् तथा तमस् समान स्तर
पर रहते हैं। बाह्य भौतिक प्रकृति तथा प्राणियों की आध्यात्मिक (शरीर +मन +
जीवात्मा) प्रकृति उसी मूल प्रकृति का ही प्रतिबिम्ब है, आदर्श है। शरीर पार्थिव
होने के कारण तमोगुणप्रधान है, मन सङ्कल्पात्मक अतः रजोगुण प्रधान है तथा जीवात्मा
चेतन अतः सतोगुण प्रधान है। यहाँ मैं इन तत्त्वों की दार्शनिक व्याख्या नहीं कर
रही हूँ। मेरा उद्देश्य विचारशील पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना है कि सनातन
धर्म हमें जिस स्वधर्म, आचार तथा जीवनचर्या का उपदेश करता है वही मानव की प्रकृति
तथा उसके शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य का आधार है। शरीर क्रिया का साधन है, मन
इच्छा का केन्द्र है तथा जीवात्मा ज्ञान का आशय अथवा ज्ञानरूप ही।
यदि हम मानवजाति को दीर्घ काल तक सुरक्षित रखना चाहते हैं
तो न केवल अपनी उस आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करना होगा अपितु देश-विदेश में,
सम्पूर्ण विश्व में पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक उसके मर्म को समझाना
होगा। हानिकारक तथा सङ्क्रमणकारी तत्त्वों से सामूहिक प्रतिरोधक शक्ति को अधिक से
अधिक विकसित करना होगा, चाहे वे तत्त्व भौतिक हों अथवा सांस्कृतिक। ध्यान दें,
प्रतिरोधक शक्ति उन बाहरी तत्त्वों को हमारे अन्दर आने से रोकती है जो हमारी अपनी
प्रकृति के विरुद्ध तथा हानिकारक होते हैं। शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता रोगों के
आक्रमण से शरीर की रक्षा करती है किन्तु उसका आधार आध्यात्मिक चेतना ही है।
सात्त्विक तथा उचित आहार-विहार, उचित समय पर सोना-जागना, आत्मसंयम तथा
आत्मनियन्त्रण द्वारा उचित विषय-भोग, शास्त्रसम्मत आचार तथा आचरण, बाह्य और
आन्तरिक शुचिता आदि आध्यात्मिक चेतना को उज्जाग्रत करने वाले तथ्यों को तार्किक
तथा वैज्ञानिक ढँग से स्वयं समझना होगा तथा नयी पीढ़ी को भी समझाना होगा।
दुःख का विषय यह है कि हमारी नयी पीढ़ी इन सब बातों को
सुनना ही नहीं चाहती। इसका कारण पारिवारिक वातावरण से अधिक शिक्षाप्रणाली है।
राष्ट्र के कर्णधारों को गम्भीरतापूर्वक इस विषय में विचार करना चाहिये। अधकचरी
शिक्षा व्यवस्था का उन्मूलन कर प्राथमिकस्तर से उच्च शिक्षा तक ऐसा पाठ्यक्रम
तत्काल सुनिश्चित करना चाहिये जो आधुनिक वैश्विक विकास की स्पर्द्धा में आगे बढ़ने
के लिये भौतिक दिशानिर्देश तो करे किन्तु उससे पूर्व उक्त आध्यात्मिक चेतना का
अङ्कुरण, सेचन तथा पोषण कर हृष्ट-पुष्ट, चरित्रवान्, ऊर्जावान्, राष्ट्रीय भावना
तथा मानवीयसंवेदना से ओत-प्रोत, स्वार्थ-परार्थ को एक ही सिक्के के दो पटलों के
रूप में ग्रहण करने वाले दूरदर्शी
युवावर्ग का निर्माण करे।
जैसे आज कोरोना नामक महामारी को अपने देश में फैलने से
रोकने के लिये बार-बार प्रधानमन्त्री जी द्वारा आत्मनियन्त्रण तथा संयम का आह्वान
करने पर भी जनता में बोध नहीं हो रहा है, फलतः कर्फ्यू था देशव्यापी बन्दी (Lock down) की स्थिति न
आती यदि जनता में आध्यात्मिक चेतना विकसित स्तर की होती। किसी भी दैवी उपद्रव या
आपदा का आना बहुत आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु उससे संरक्षा, प्रतिरक्षा तथा
सुरक्षा के उपाय अपनाना महत्त्वपूर्ण है। इस दृष्टि से वैयक्तिक अथवा सामूहिक स्तर
पर अपनी प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने का अर्थ प्रतिरोधकताप्रबन्धन कहा जा सकता
है।
भारतीय जीवनदर्शन के रहस्य पर विचार करें तो इस प्रबन्धन की
तैयारी एक दिन में नहीं होती अपितु जीवन के प्रथम चरण से, अपितु जन्म से पूर्व
गर्भ तथा पूर्व जन्मों से कर्म और अदृष्ट के रूप में निरन्तर चलती रहती है। किन्तु
टूटते हुये उस चक्र के पुनः आरम्भ के उस दिन की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती।
दुर्दैव के संयोगवश हम आज अपने घरों के अन्दर
अपने परिवार के साथ बैठे हैं तथा दूरस्थ अपने परिजनों के साथ संवाद कर रहे
हैं। यह आत्ममन्थन तथा आत्मचिन्तन के साथ ही अपनी उस आध्यात्मिक चेतना के निष्पक्ष
विमर्श का भी समय है। हम अपने परिवार में, घरों में, समाज में तथा राष्ट्र में
उसकी शिथिल नींव को दृढ़ करें।
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